विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
मॉं तुम्हारी गोद, तुम्हारा ऑंचल कितना सुकून देता था मेरा जिद, रोना, वह दुलार, वह क्रोध वह नि श् छल प्रेम, तुम पर वह सर्वस्व अधिकार, मेरा फूट फूट कर तेरे आंचल को पकडकर रोना । आज जब मैं भी एक पिता हूँ तुम्हारी अंतिम सत्य का सामना करते हुए मेरे मानस में वही दायित्वहीन बचपन कौंध रहे हैं जब तुम मुझे छोडकर चली गई थी और मैं पहली बार तुम्हें न पाके फूट फूट कर रोया था आज वही आंसु फूट पडते हैं रूकते ही नहीं क्यों चली गई मां मुझे छोडकर तेरे न होने का अर्थ दु:सह है । मैं जीना चाहता हूँ उसी तरह जिस तरह से मेरा बचपन था तुम थी और तुम्हारा प्रेम था सबसे सुरक्षित स्थान तेरी गोद । तेरी बातें, वो लोरी वो कहानी सुनाते हुए मुझे सुलाना सब मुझे याद आ रहे हैं तेरी नश्वर काया के साथ साथ पंडित के उच्चारित गीता की पंक्तियां मुझे लोरी सी लग रही है सो जाना चाहता हूँ मॉं तुम्हारी गोद में अनंत के आगोश में । संजीव तिवारी (13.12.2001)