कवि गोपाल मिश्र : हिन्‍दी काव्‍य परंपरा की दृष्टि से छत्‍तीसगढ़ के वाल्‍मीकि

हमने अपने पिछले पोस्‍ट में कवि गोपाल मिश्र की कृति खूब तमाशा की पृष्‍टभूमि के संबंध में लिखा है। उस समय भारत में औरंगजेब का शासन काल था एवं देश में औरंगजेब की की दमनकारी नीतियों का दबे स्‍वरो में विरोध भी हो रहा था। खूब तमाशा में कवि की मूल संवेदना स्‍थानीय राजधराने के तथाकथित नियोग की शास्‍त्रीयता से आरंभ हुई है। उन्‍होंनें तत्‍कालीन परिस्थितियों का चित्रण भी उसमें किया, इसी कारण खूब तमाशा में विविध विषयों का प्रतिपादन भी हुआ है। एतिहासिक अन्‍वेषण की दृष्टि से उनका बडा महत्‍व है। स्‍व. श्री लोचनप्रसाद पाण्‍डेय नें अनेक तथ्‍यों की पुष्टि खूब तमाशा के उद्धरणों से की है। इसमें कवि के भौगोलिक ज्ञान का भी परिचय मिलता है। शंका और बतकही की सुगबुगाहट के बीच जब खूब तमाशा से सत्‍य सामने आया तब कवि के राजाश्रय में संकट के बादल घिरने लगे होंगें। इधर राजा अपने आप को अपमानित महसूस करते हुए निराशा के गर्त में जाने लगे होंगें।
कवि गोपाल मिश्र नें दरबारियों की कुटिल वक्र दृष्टि से राजा को बचाने एवं राजा के खोए आत्‍म बल को वापस लाने के उद्देश्‍य से खूब तमाशा के तत्‍काल बाद उन्‍होंनें औरंगजेब की अमानवीय नीतियों से क्षुब्‍ध होकर एक प्रभावपूर्ण ग्रंथ की रचना की, जिसे पढ़कर वीर रस का संचार होता था। कहते हैं कि राजा राजसिंह इसे पढ़कर उत्‍तेजित हो गए और औरंगजेब से लोहा लेने को प्रस्‍तुत हो गए, किन्‍तु उनके चाटुकारों नें येनकेन प्रकारेण उन्‍हें शांत किया। बात इतने में ही समाप्‍त नहीं हो गई। उन चाटुकारों नें गोपाल कवि की इस पॉंण्‍डुलिपि तक को नष्‍ट कर दिया। इस ग्रंथ का नाम शठशतक बताया जाता है। उस घटना के बाद गोपाल कवि रत्‍नपुर के राजाश्रय से अलग हो गए।
कहा जाता है कि जैमिनी अश्‍वमेघ की रचना खैरागढ़ में हुई। खूब तमाशा तथा जैमिनी अश्‍वमेघ की रचनाकाल से इसकी पुष्टि होती है। खूब तमाशा की रचना संवत 1746 में हुई जबकि जैमिनी अश्‍वमेघ की रचना संवत 1752 में हुई। इन दोनों के बीच छ: वर्षों का व्‍यवधान यह मानने से रोकता है कि इस अवधि में कवि की लेखनी निष्क्रिय रही। अवश्‍य ही, इस बीच कोई ग्रंथ लिखा गया होगा, जो आज हमें उपलब्‍ध नहीं है और वह ग्रंथ, संभव है, शठशतक ही हो।
कवि गोपाल मिश्र संस्‍कृत साहित्‍य के गहन अध्‍येता थे। खूब तमाशा में जहां एक ओर कवि का पाणित्‍य मुखरित हुआ है जहां उनकी काव्‍य मर्मज्ञता संचय है, तो दूसरी ओर कवि की रीतिकालीन प्रवृत्तियों का परिचय भी। इनकी कृतियों का गहन अध्‍ययन करने वाले कहते हैं कि नि:संदेह गोपाल कवि काव्‍य के आचार्य थे। उन्‍हें भारतीय काव्‍य आदर्शों का गंभीर अध्‍ययन था। इनकी कृतियों पर व्‍यापक दृष्टि डालते हुए इतिहासकार प्‍यारेलाल गुप्‍त जी नें जो लिखा हैं उससे इनकी कृतियों की उत्‍कृष्‍टता का ज्ञान होता है। कृतियों के अनुसार संक्षिप्‍त विवेचन देखें –
कवि गोपाल मिश्र की कृति जैमिनी अश्‍वमेघ जैमिनीकृत संस्‍कृत अश्‍वमेघ के आधार पर लिखा गया है। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर को गोतवध (गोत्र वध) पर पश्‍च्‍याताप हुआ। व्‍यास जी नें इस पाप से निवृत्‍त होने के लिए उन्‍हें अश्‍वमेघ यज्ञ करने का परामर्श दिया। युधिष्ठिर नें उसकी पूर्ति की। इसी कथा का आधार लेकर कवि नें इस ग्रंथ की रचना की है। इसका युद्ध वर्णन पठनीय है- 
लखि सैन अपारहि क्रोध बढयो 
बहु बानिनि भूतल व्‍योम मढयो 
जीतहि कित वीर उठाई परै
चतुरंग चमू चक चूर करै 
गिरि से गजराज अपार हनै 
फरके फरही है कौन गनै
तिहि मानहु पौन उडाई दयौ 
गज पुँजनि को जनु सिंह दल्‍यौ
गोपाल कवि का सुचामा चरित नामक ग्रंथ एक छोटा खण्‍ड काव्‍य है। प्रतिपाद्य विषय का अनुमान नाम से ही हो जाता है। द्वारिकापुरी में एक घुडसाल का वर्णन पढि़ये- 
देखत विप्र चले हय साल विसाल बधें बहुरंग विराजी 
चंचचता मन मानहि गंजन मैनहु की गति ते छबि छाजी 
भांति अनेक सके कहि कौन सके ना परे तिन साजसमाजी
राजत है रव हंस लवै गति यों जो गोपाल हिये द्विज बाजी
भक्ति चिंतामणि तथा रामप्रताप दोनो प्रबंध काव्‍य है। दोनों बडे आकार में है। इनमें एक कृष्‍ण काव्‍य है तो दूसरा राम काव्‍य। हिन्‍दी साहित्‍य के भक्ति काल में सगुण भक्ति की दो शाखायें थी, रामाश्रयी तथा कृष्‍णाश्रयी। गोपाल कवि की काव्‍य भूमि पर उक्‍त दोनों धारायें आकर संगमित हुई हैं। इन ग्रंथों के आधार प्रमुखत: संस्‍कृत ग्रंथ हैं। भक्ति चिंतामणि की भूमिका श्रीमद्भागवत का दशम स्‍कंध है। रामप्रताप में वाल्मिकि का प्रभाव है। भक्ति चिंतामणि में कवि की भावुक अनुभूतियां अधिक तीव्र हो उठी हैं। उसमें जैसी संवेदनशीलता है, अभिव्‍यक्ति के लिए वैसा काव्‍य कौशल भी उसमें विद्यमान है। जैमिनी अश्‍वमेघ में जहां उग्र भावों की ऑंधी है, वहां भक्ति चिंतामणि में मलय का मंथर प्रवाह। गोवर्धन धारण के अवसर पर ग्‍वाल गर्व हरण का यह विनोद देखिये-
ग्‍वालन के गरब बिचारि कै गोपाल लाल ख्‍
याल ही में दीन्‍हें नेक गिरि छुटकाई है 
दै वै कीक बलत ढपेलत परत झुकि 
टूटत लकुरि कहूँ टिकत न पाई है
शरण सखा करि टेरत विकल मति
आरत पुकारत अनेक बितताई है 
दावा को न पाई दाबि मारत पहार तर 
राखु राखु रे कन्‍हैया तेरी हम गाई है।
राम प्रताप का कुछ अंश उनके पुत्र माखन नें पूरा किया था। समझा जाता है कि रामप्रताप पूर्ण होने के पूर्व ही गोपाल कवि का निधन हो गया। इसमें राम जन्‍म से लेकर उनके साकेत धाम गमन तक की पूरी कथा की यह अंतिम रचना है, अत: इसकी प्रौढ़ता स्‍वाभाविक है।
गोपाल कवि को पिंगल शास्‍त्र का गहन अध्‍ययन था। उसमें पूर्णता प्राप्‍त करने के बाद ही संभवत: उन्‍होंनें काव्‍य सृजन प्रारंभ किया। उनके सारे ग्रंथों में पद पद पर बदलते छंद हमें आचार्य केशव की याद दिलाते हैं। छंद प्रयोग की दृष्टि से वे उनसे प्रभावित लगते हैं। एकमात्र जैमिनी अश्‍वमेघ में ही उन्‍होंनें 56 प्रकार के छंदों का प्रयोग किया। छप्‍पय, दोहा, त्रोटक, घनाक्षरी, चौबोला, तोमर, सवैया तथा सोरठा उनके प्रिय छंद प्रतीत होते हैं। युद्ध की भीषणता के लिए छप्‍पय तथा नाराच का विशेष प्रयोग हुआ है। अपने काव्‍य में विविध छंदों के प्रयोग से उनकी तुलना इस पुस्‍तक में वर्णित संस्‍कृत के ईशान कवि से की जा सकती है। विविध छंदों की बानगी दिखाने के बावजूद भी आचार्य केशव की भॉंति उन्‍होंनें इसे काव्‍य का प्रयोजन नहीं बनाया।
कवि की चार पुस्‍तकें प्रकाशित हैं। सुचामा चरित अप्रकाशित है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि सही मूल्‍यांकन के बाद इन्‍हें महाकवि का स्‍थान प्राप्‍त होगा और छत्‍तीसगढ़ के लिए यह गौरव की बात होगी कि इसने भी हिन्‍दी साहित्‍य जगत को एक महाकवि प्रदान किया। गोपाल कवि के पुत्र माखन नें रामप्रताप के अंतिम भाग की पूर्ति की है। काव्‍य रचना में इनकी पैठ पिता के समान ही थी। रामप्रताप में किसी भी स्‍थान पर जोड नहीं दिखाई देता। उसमें दो शैलियों का आभास नहीं मिलता। यह तथ्‍य माखन कवि के काव्‍य कौशल का परिचायक है। वे अत्‍यंत पितृ भक्‍त थे। उन्‍होंनें छंदविलास नामक पिंगल ग्रंथ लिखा है। उसमें अनेक स्‍थानों पर गोपाल विरचित लिखा है। छंदविलास पूर्वत: माखन की रचना है। इसमें पांच सौ छंद हैं, जो सात भिन्‍न भिन्‍न तरंगो में विभाजित किए गए हैं।
कवि गोपाल मिश्र के तथा उनके पुत्र के नाम के अतिरिक्‍त उनके पारिवारिक जीवन के संबंध में कुछ भी अंत: साक्ष्‍य नहीं मिलता। उनके पिता का नाम गंगाराम था तथा पुत्र का नाम माखन था, वे ब्राह्मण थे। विद्वानों नें उनका जन्‍म संवत 1660 या 61 माना है। वे रत्‍नपुर के राजा राजसिंह के आश्रित थे। उन्‍हें भक्‍त का हृदय मिला था, उनका आर्विभाव औरंगजेब काल में हुआ था। औरंगजेब के अत्‍याचार से वे क्षुब्‍ध थे। स्‍पष्‍टवादिता गोपाल कवि की विशेषता थी। राज राजसिंह के हित की दृष्टि से उन्‍होंनें जो नीतियां कही है, उनमें उनका खरापन दिखाई पड़ता है। राजाओं के दोषों का वर्णन उन्‍होंनें बड़ी निर्भीकता से किया है। धर्म उनके जीवन में ओतप्रोत है। धर्म से अलग होकर वे किसी भी समस्‍या का समाधान ढूढनें के लिए तैयार नहीं हैं। अखण्‍ड हिन्दुत्‍व उनकी दृष्टि है। कबीर की तरह वे खण्डित हिन्‍दुत्‍व के पोषक नहीं थे। उन‍के 1. खूब तमाशा, 2. जैमिनी अश्‍वमेघ , 3. सुदामा चरित, 4. भक्ति चिन्‍तामणि, 5. रामप्रताप ग्रंथ उपलब्‍ध हैं।
इतिहासकार प्‍यारेलाल गुप्‍त इनके संबंध में पूरे आत्‍मविश्‍वास के साथ लिखते हैं कि रतनपुर के गोपाल कवि हिन्‍दी काव्‍य परंपरा की दृष्टि से छत्‍तीसगढ़ के वाल्‍मीकि हैं। खूब तमाशा तत्‍प्रणीत आदि काव्‍य है। हिन्‍दी साहित्‍य के रीतिकालीन भक्ति कवियों में उनका महत्‍वपूर्ण स्‍थान होना चाहिये, किन्‍तु मूल्‍यांकन के अभाव में उनका क्षेत्रीय महत्‍व समझकर भी हम संतुष्‍ट हो लेते हैं। गोपाल कवि के दुर्भाग्‍य नें ही उन्‍हें छत्‍तीसगढ़ में आश्रय दिया, अन्‍यथा उत्‍तर भारतीय समीक्षकों की लेखनी में आज तक वे रीतिकाल के महाकवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके होते।
प्‍यारेलाल गुप्‍त के आलेख के आधार पर
परिकल्‍पना - संजीव तिवारी

कलचुरी काल में राजसत्‍ता का तमाशा : खूब तमाशा

जनवरी 2008 में हमने अपने आरंभ में किस्‍सानुमा छत्‍तीसगढ़ के इतिहास के संबंध में संक्षिप्‍त जानकारी की कड़ी प्रस्‍तुत की थी तब छत्‍तीसगढ़ के इतिहास पर कुछ पुस्‍तकों का अध्‍ययन किया था। हमारी रूचि साहित्‍य में है इस कारण इतिहास के साहित्‍य पक्ष पर हमारा ध्‍यान केन्द्रित रहा। तीन कडियों के सिरीज में हमने एक किस्‍सा सुनाया था उसमें कवि गोपाल मिश्र और ग्रंथ खूब तमाशा का जिक्र आया था। तब से हम कवि गोपाल मिश्र के संबंध में कुछ और जानने और आप लोगों को जनाने के उद्धम में थे। पहले पुन: उस किस्‍से को याद करते हुए आगे बढ़ते हैं।
कलचुरी नरेश राजसिंह का कोई औलाद नहीं था राजा एवं उसकी महारानी इसके लिए सदैव चिंतित रहते थे। मॉं बनने की स्‍वाभविक स्त्रियोचित गुण के कारण महारानी राजा की अनुमति के बगैर राज्‍य के विद्वान एवं सौंदर्य से परिपूर्ण ब्राह्मण दीवान से नियोग के द्वारा गर्भवती हो गई और एक पुत्र को जन्‍म दिया, जिसका नामकरण कुंवर विश्‍वनाथ हुआ, समयानुसार कुंवर का विवाह रीवां की राजकुमारी से किया गया।
राजा राजसिंह को दासियों के द्वारा बहुत दिनो बाद ज्ञात हुआ कि विश्‍वनाथ नियोग से उत्‍पन्‍न ब्राह्मण दीवान का पुत्र है, तो राजा अपने आप को संयत नहीं रख सका। ब्राह्मण दीवान को सार्वजनिक रूप से इस कार्य के लिए दण्‍ड देने का मतलब था राजा की नपुंसकता को आम करना। नपुंसकता को स्‍वाभाविक तौर पर स्‍वीकार न कर पाने की पुरूषोचित द्वेष से जलते राजा राजसिंह नें युक्ति निकाली और ब्राह्मण पर राजद्रोह का आरोप लगा दिया, उसके घर को तोप से उडा दिया गया, ब्राह्मण भाग गया।
दीवान जैसे महत्‍वपूर्ण ओहदे पर लगे कलंक पर कोसल में अशांति छा गई। ब्राह्मण दीवान एवं महारानी के प्रति राजा की वैमनुष्‍यता की भावना नें राजधानी में खूब तमाशा करवाया। इस पर छत्‍तीसगढ़ के आदि कवि गोपाल मिश्र नें एक किताब लिखा जिसका शीर्षक भी ‘खूब तमाशा’ ही था। इस तमाशे से व्‍यथित कुंवर विश्‍वनाथ नें आत्‍महत्‍या कर ली, वृद्ध राजा राजसिंह की मृत्‍यु भी शीध्र हो गई।
हमने कवि गोपाल मिश्र और खूब तमाशा के संबंध में स्‍थानीय और नेट के स्‍तर पर और जानकारी प्राप्‍त करनी चाही तो इंटरनेट में विकीपीडिया से ज्ञात हुआ कि इनके उपलब्‍ध ग्रंथ हैं - 1. खूब तमाशा, 2. जैमिनी अश्‍वमेघ , 3. सुदामा चरित, 4. भक्ति चिन्‍तामणि, 5. रामप्रताप। घासीदास विश्‍वविद्यालय के द्वारा इंटरनेट के लिए तैयार किए गए पेजों में भी कवि गोपाल मिश्र के संबंध में कोई जानकारी नहीं मिल पाई। स्‍थानीय तौर पर कुछ किताबों में कवि गोपाल मिश्र के संबंध में जो जानकारी प्राप्‍त हुई उसे अगली पोस्‍ट में आप सबके लिए प्रस्‍तुत करूंगा। आपके पास कवि गोपाल मिश्र एवं उनकी कृतियों के संबंध में कोई जानकारी हो तो कृपया हमसे टिप्‍पणियों के माध्‍यम से शेयर करने की कृपा करें।
आगामी पोस्‍ट -
कवि गोपाल मिश्र : हिन्‍दी काव्‍य परंपरा की दृष्टि से छत्‍तीसगढ़ के वाल्‍मीकि

संजीव तिवारी

विलुप्‍त होते लोकगीतों को बचाओ

भरथरी गायिका रेखा देवी जलक्षत्री की मन की व्यथा
छत्तीसगढ़ की जानी-मानी लोकगायिका रेखा देवी जलक्षत्री पारम्परिक लोकगीतों की उपेक्षा को लेकर चितिंत हैं। उनका मानना है कि नौसिखीए कलाकारों ने छोटी-छोटी मंडली बनाकर लोकगीतों की जगह फूहड़ गीतों को मंच में परोसना शुरू कर दिया है। सस्ती लोकप्रियता पाने की होड़ में आंचलिक गीतों का स्तर गिराने में कुछ ऐसे लोग भी शामिल हो गये हैं जिनका संगीत से दूर तक रिश्ता नहीं है। एक मुलाकात में भरथरी गायिका रेखादेवी जलक्षत्री ने छत्तीसगढ़ की संस्कृति को जीवंत बनाये रखने की बात कही।
ठेठ छत्तीसगढ़ी में उन्होंने कहा कि 'नंदावत हे लोकगीत चेत करव गा'। आगे उन्‍होंनें कहा 'जब तक सांस हे तब तक राजा भरथरी के लोकगाथा सुनाय बर कमी नई करंव।' पांच वर्ष की उम्र से अपने दादा स्व. मेहतर प्रसाद बैद को भरथरी गीत गाते सुनकर उन्हीं की तरह बनने की इच्छा रखने वाली रेखादेवी बताती हैं कि दस वर्ष की उम्र से लोकगीत गा रही हूं। आकाशवाणी रायपुर में विगत वर्षों से लोक कलाकार के रूप में मैंने कई लोकगीत गाये। आज भी मेरे द्वारा गाये जाने वाले गीत श्रोता खूब पसंद करते हैं। खासकर के राजा भरथरी के किस्सा जब रेडियो पर प्रसारित होता है तो बड़े ध्यान से ना सिर्फ गांव-देहात बल्कि शहर में भी श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग दिलचस्पी के साथ आनंद उठाता है।
भरथरी गायन के माध्यम से देश-विदेश में धूम मचाने वाली इस लोकगायिका को इलाहाबाद सांस्कृतिक केन्द्र द्वारा जर्मनी में कार्यक्रम प्रस्तुत करने का मौका मिला। अपनी उपलब्धि के बारे में रेखादेवी जलक्षत्री ने बताया कि पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के हाथों उदयपुर में उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया। छत्तीसगढ़ में प्राय: सभी स्थानों पर भरथरी गीत मैंने प्रस्तुत किया है। वैसे तो भरथरी लोकगाथा का गढ़ उज्‍जैन है, पर छत्तीसगढ़ में काफी समय से राजा भरथरी की लोकगाथा को मैं विभिन्न मंचों के माध्यम से प्रस्तुत करते आ रही हूं।
मांढ़र निवासी रेखादेवी जलक्षत्री 'महाकालेश्वर भरथरी पार्टी' के माध्यम से आठ सदस्यीय टोली के साथ छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में विभिन्न अवसरों पर कार्यक्रम देने जाती हैं। चाहे शादी-ब्याह का समय हो या छट्ठी का न्यौता, लोग हमें बुलाते हैं। राजा भरथरी के लोकगाथा को हावभाव के साथ पेश करना आसान बात नहीं है। तभी तो केवल गिने-चुने कलाकार ही भरथरी गायन में सफल होते हैं। रेखादेवी जलक्षत्री का मानना है कि पारम्परिक लोकगीतों से माटी की महक आती है। ग्रामीण जनजीवन में रचे-बसे लोकगीत किसी परिचय के मोहताज नहीं। यही वजह है कि वो जब कार्यक्रम देने जाती हैं तो राजा भरथरी के जीवन से जुड़े विविध प्रसंगों को प्रस्तुत करती हैं। जन्म, विवाह, राजा भरथरी के बैराग, वियोग प्रसंग, भिक्षा प्रसंग नौ खंड में है। रोचक प्रसंगों को लोग घंटों सुनना पसंद करते हैं। संस्कृति विभाग छत्तीसगढ़ के आमंत्रण पर 'आकार' 2009 में उन्‍होंनें नवोदित कलाकारों को प्रशिक्षित भी किया है।  रेखा देवी जलक्षत्री ने बताया कि वे  लगभग 20-25 कलाकारों को प्रशिक्षण दे चुकी हैं। उन्‍होंनें आगे कहा कि नयी पीढ़ी तक अपनी इस कला को जीवंत रखने का प्रयास कर रही हूं। पीड़ा इस बात की है कि पुराने कलाकारों को शासन के तरफ से कोई मदद नहीं मिल रही। पहले के कलाकार कम पढ़े-लिखे हैं पर कला उनमें कूट-कूट कर भरी है। ऐसे में इन कला गुरूओं को प्रशिक्षक बतौर नौकरी मिल जाये तो बात बन जाएगी। जीने के लिए रोजी-रोटी चाहिए, केवल तारीफ ही काफी नहीं।

ललित शर्मा जी दिल्‍ली में ........

दिल्‍ली से आ रही खबरों के अनुसार ललित शर्मा जी पुरानी दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर देखे गए है ......  पाबला जी का मोबाईल आउट आफ कवरेज बता रहा है ....... क्‍या हो रहा है दिल्‍ली में जो दिग्‍गज ब्‍लॉगर दिल्‍ली कूच कर रहे हैं.

मईनखे बर मईनखे के स्वारथ खातिर !

छत्‍तीसगढ़ की वर्तमान परिस्थिति में नक्‍सली हिंसा और इससे निबटने की जुगत लगाते बयानबाज नेताओं की जुगाली ही मुख्‍य मुद्दा है. हर बड़े घटनाओं के बाद समाचार पत्र रंग जाते हैं और बयानबाजी, कमजोरियों, गलतियों का पिटारा खुल जाता है. दो चार दिन दिखावटी मातम मनाने के बाद सत्‍ता फिर उनींदी आंखों में बस्‍तर के विकास के स्‍वप्‍न देखने लगती है, जो सिर्फ स्‍वप्‍न है हकीकत से कोसों  दूर. नक्‍सली जमीनी हकीकत में फिर किसी सड़क को काटकर लैंडमाईन बिछा रहे होते हैं. आदिवासी और जवान जिन्‍दगी के सफर के लिए फिर किसी बस  का इंतजार करते हैं....  स्‍वारथ के गिद्धों की दावत पक्‍की है. नीचे दी गई मेरी छत्‍तीसगढ़ी कविता यद्धपि इस चिंतन से किंचित अलग है किन्‍तु सामयिक है, देखें - 
 
चिनहा

कईसे करलाई जथे मोर अंतस हा
बारूद के समरथ ले उडाय
चारो मुडा छरियाय
बोकरा के टूसा कस दिखत
मईनखे के लाश ला देख के
माछी भिनकत लाश के कूटा मन
चारो मुडा सकलाय
मईनखे के दुरगति ला देखत
मनखे मन ला कहिथे
झिन आव झिन आव
आज नही त काल तुहूं ला
मईनखे बर मईनखे के दुश्मनी के खतिर
बनाये बारूद के समरथ ले उडाई जाना हे

हाथ मलत अउ सिर धुनत
माछी कस भनकत
पुलिस घलो कहिथे
झिन आव झिन आव
अपराधी के पनही के चिनहा मेटर जाही

फेर में हा खडे खडे सोंचथौं
जउन हा अनियाव के फौजी
पनही तरी पिसाई गे हे
तेखर चिनहा ला कोन मेटार देथे ?
मईनखे बर मईनखे के स्वारथ खातिर !

- संजीव तिवारी
(१९९३ के बंबई बम कांड के दूसरे दिन दैनिक भास्कर के मुख्य पृष्ट पर प्रकाशित मेरी छत्‍तीसगढ़ी कविता)

बेकसूरों की हत्याओं पर कलम का मौन दर्ज करेगा इतिहास : कनक तिवारी


बस्तर में सुकमा-दंतेवाड़ा मार्ग पर यात्री बस को बारूदी सुरंग विस्फोट से उड़ाकर नक्सालियों ने निर्दोष नागरिकों सहित 36 लोगों (संख्या परिवर्तनीय है) की निर्मम हत्या कर दी। यह एक माह में तीसरी बड़ी घटना है। राज्य का पुलिस और खुफिया तंत्र सवालों के घेरे में है। पूरी सरकारी मशीनरी बेबस और लाचार तो नहीं लेकिन किंकर्तव्यविमूढ़ ज़रूर नजर आ रही है। केन्द्र सरकार का गृह मंत्रालय भी पसोपेश में नजर आता है। प्रदेश के गृहमंत्री सेना को बुलाने की मांग करते हैं। मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) उनसे सहमत नहीं हैं। केद्रीय गृह मंत्री वायु सेना के सीमित उपयोग की बात करते हैं। वायु सेनाध्यक्ष की अपनी ढपली है। म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्वविजय सिंह केद्रीय गृह मंत्री को इस मामले में केवल राज्य सरकार को सहायता देने तक सीमित रहने की सलाह देते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी सीमित समय के लिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर रहे हैं। राज्य कांग्रेस पार्टी विधान सभा का विशेष अधिवेशन बुलाए जाने की मांग कर चुकी है। राज्यपाल अनिर्णय में हैं। प्रधानमंत्री नक्सल वाद को सबसे बड़ा आंतरिक खतरा करार दे चुके हैं। गांधीवादी शांति यात्री भी असफल अभियान से लौट चुके हैं। उकसाए गए थोड़े से युवकों और बस्तर के व्यापारियों ने उनके खिलाफ पुलिस की सांठगांठ से विरोध करने की पिकनिक भी कर ली। मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की तत्काल प्रतिक्रिया देखने में नहीं आई है।
बुद्धिजीवी, लेखक, कवि, कलाकार, संस्कृति कर्मी चुप हैं। कुछ निर्विकार हैं, कुछ अल्पसूचित हैं, कुछ सहमे हुए हैं, कुछ भाग्यवादी हैं, कुछ हलचल में हैं, कुछ सरकारी सूचनातंत्र पर निर्भर हैं, कुछ टी.वी. चैनलों से चिपके हुए हैं, ब्रेक होने पर इंडियन आयडल देख लेते हैं। कुछ सरकारी बुद्धिजीवी अपने राजनीतिक आकाओं के महिमा मंडन में व्यस्त हैं। अफसरी बुद्धि चातुर्य के किस्से अलग गढ़े जा रहे हैं। सामचार पत्रों में खबरों के लिए जगह है, विचारों के लिए नहीं। सेक्स, दुर्घटना, डकैती, हत्या , भ्रष्टाचार, क्रिकेट, फिल्मी लटकों झटकों के तड़कों की प्रथम पृष्ठ की खबरों का मुकाबला बहुराष्ट्रीय और राष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों से ही होता है। वहां भी एम.डी. साहब या जी.एम. साहब सम्पादकों के ऊपर हैं। वे अधिकतर मंत्रियों और अफसरों के दीवानखानों, निजी पार्टियों और सरकारी उडऩ खटोले में व्यस्त होते हैं।
ये तस्वीर की मोटी मोटी रेखाएं हैं। बारीक अभिव्यक्तियां तो जनता को पता ही नहीं होतीं। बस्तर का क्या भविष्य है-यह बुनियादी सवाल है। नक्सल वाद नासूर नहीं नासूर का एक कारण है। वैश्विक पूंजीवाद के प्रसार के कारण बस्तर जैसे देश के सभी आदिवासी अर्थात वन संस्कृति के इलाके नक्सलियों के हत्थे चढ़ते जा रहे हैं। जंगल नक्सलियों के छिपने के स्थान हैं। आदिवासी वहां सदियों से रह रहे हैं। नक्सली उनके मसीहा बनकर नहीं आए हैं। उनकी तो इतने सीधे सादे, मन- वचन-कर्म के प्रति ईमानदार आदिवासियों को पाकर लॉटरी खुल गई है। विनाश का मूल कारण तो विकास की वह थ्योरी है जो व्हाइट हाउस, वर्ल्ड बैंक या 10 डाउनिंग स्ट्रीट वगैरह से पैदा होकर नई दिल्ली की संसद के मार्फत बस्तर जैसे जंगलों तक विस्तृत हो गई है।
पिछले चालीस पचास बरस से राज्य और केद्र सरकारें आदिवासियों पर नीयतन या लापरवाही से अत्याचार कर रही हैं। उनके प्राकृतिक, संवैधानिक, जातीय और नागरिक अधिकार कम किए जा रहे हैं। कूढ़मगज सरकारी सोच ने अंगरेजों के बनाए गए जालिम कानूनों जैसे भारतीय वन अधिनियम 1927, भू अर्जन अधिनियम 1894, भारतीय सुखभोग अधिनियम, पंचायत और भू राजस्व कानून वगैरह को आदिवासी जरूरतों, माली हालत, संस्कृति आदि के अनुकूल नहीं बनाया है। अलबत्ता उनसे जंगल का परिवेश, संरक्षण, उपयोगिता आदि को कम ही किया जाता रहा। तथाकथित जातीय आरक्षण से भी आदिवासियों का एक मलाईदार तबका ही तैयार हो पाया जो राजनीति के ब्राम्हण ठाकुर मालिकों के दरबारी की भूमिका में मुस्तैद रहा। आज बाजार का आदिवासी खुद को ठगा हुआ या विस्थापित पाता है। इससे निजात के लिए टाटा, एस्सार, एन.एम.डी.सी. शराब, खनिज और जंगल के ठेकेदार या चिदंबरम योजना के अनुसार बस्तर चुने हुए पांच हजार नौजवानों को महानगरों में ट्रेनिंग के नाम पर गुम कर देना नहीं है।
बदहाल नक्सल वाद जैसे राजनीतिक आदोलन के नाम पर हत्यारों का एक गिरोह डाकुओं की तरह जंगलों में हुकूमत कर रहा है। वह बीच बीच में राज्य-व्यवस्था को चुनौती भी देता रहता है। लोकतांत्रिक राज्य की अपनी प्रतिबद्धताएं, मर्यादाएं और न्याय तंत्र होते हैं। नक्सली हिंसक पशुओं की तरह मनुष्यता का ही शिकार कर रहे हैं। इसे समर्थन कैसे दिया जा सकता है? यह एक राज्यद्रोह की चुनौती है। यह संविधान को धमकी देने का विध्वंसक ऐलान है। इसका मुकाबला किए बिना लोकतंत्र, संविधान और राज्य संस्थाएं इतिहास में अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं कर पाएंगी। जब युद्ध चल रहा हो तो संविधान जनित संस्थाओं की जवाबदेही को लेकर सरकारों को बदलने का कोई सवाल नहीं है।
पुलिस तंत्र की असफलता या धीरे धीरे मिलने वाली सफलता पर विचार हो ही रहा होगा। यह वक्त सभी विचार धाराओं के सम्मिलित प्रयास से राज्य में उस वातावरण को बनाए जाने से है जिससे नक्सलवाद के नासूर को सुखाया जा सके। नक्सलवाद को वैचारिक फोकस में रखने के बदले आदिवासी विकास और संरक्षण नागरिक चिन्‍ता का विषय होना चाहिए। यह देश केवल सभ्य शहरी समाजों का नहीं है। भारत के वनवासी उतने ही संवैधानिक और नागरिक अधिकारों से निर्मित हैं जो तथाकथित कुलीन लोगों को उपलब्ध हैं। नक्सली आज निर्दोष नागरिकों के जीने के संवैधानिक अधिकारों पर डाका डाल रहे हैं। यह बौद्धिक प्रतिकार का भी वक्त है। समाज कैसे निरपेक्ष रह सकता है? जो मारे जा रहे हैं, वे भी आदिवासी हैं, गरीब हैं, सिपाही हैं, अनजान देश-भाई हैं। नक्सली अब कथित अन्यायी अधिकार तंत्र से लडऩे के बाद खुद अधिकार तंत्र के रूपक बन रहे हैं।
समाज चुप क्यों है? सरकार तो समाज का प्रतिनिधित्वत करती है। उसे समाज के जीवंत समर्थन की जरूरत होगी। यह वक्त नक्सली और सरकारी हिंसा को तराजू के दो पलड़ों पर रखकर तौलने का भी नहीं है। गांधी को बार बार याद करने वाले जानते होंगे कि बापू ने जरूरत होने पर हिंसा को समाप्त करने के लिए जायज बड़ी हिंसा की पैरवी की थी। यह समय छत्तीसगढ़ के लिए सबसे बड़ी चुनौती लेकर आया है। एक दूसरे की ओर दोष की उंगली उठाए बिना नक्सल चुनौती से प्रदेश और उनके चंगुल में फंसे आदिवासियों को बचाने का यही वक्त है। पूर्व मुख्यमंत्रियों, गृहमंत्रियों, प्रभारी मंत्रियों, अधिकारियों वगैरह का अनुभव परीक्षा की घड़ी में है। वक्तव्य बहादुरों के बदले मैदानी बहादुरों की हौसला अफजाई का यही समय है। मैंने नक्सलियों और नक्सल समर्थकों की बीसियों कविताएं पढ़ी हैं। नक्सलवाद के विरोध में उतनी कविताएं नहीं। क्या नक्सली-हत्या में मारे गए सिपाही और निर्दोष नागरिक कवियों की संवेदना का विषय नहीं हैं?
एक पक्षी युगल की बहेलिए ने हत्या? क्या कर दी, भारत का पहला डाकू आदि कवि में तब्दील हो गया। बस्तर की पहाड़ी मैना भी तो राज्य पक्षी है। उसकी बहेलिए हत्या कर रहे हैं। क्या मनुष्य की मृत्यु पशु- पक्षी की मौतों से कमतर है जो उनके समर्थन में कलमें खामोश रहेंगी? पुलिस या सेना की बंदूक का भौतिक प्रदर्शन समयबद्ध ऑपरेशन है। कलम की ताकत समयातीत होती है। निर्दोष नागरिकों के शव यही सवाल हमसे पूछ रहे हैं।

I am Animesh Tiwari,son of Mr. Sanjeeva Tiwari, presenting this post. Sorry for unicode conversion and typing mistakes

आलेख व चित्र छत्‍तीसगढ़ से साभार, उपर जो चित्र है वह अस्थिकलश का नहीं, विष्‍फोट में बिखर गए मानव मांस कलश का है।

बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है

कल बस्‍तर में हुए बारूदी विष्‍फोट में क्षत-विक्षत 50 मानव लाशो से टीवी के द्वारा आपका भी सामना हुआ होगा। दिन प्रतिदिन घट रही ऐसी दर्दनाक घटनाओं,  करूणा और आक्रोश के स्‍थानीय हालातों में हिन्‍दी ब्‍लाग जगत में भी रहने का मन नहीं लग रहा है, कुछ दिनों के लिए विदा दोस्‍तों. .......
क्षमा करेंगें, मैं आपसे व्‍यक्तिगत तौर पर मोबाईल वार्ता आदि में व्‍यवहारिकता के कारण कुछ ना बोल पांउ किन्‍तु वर्तमान हालात में मुझे चुप रहने का मन हो रहा है।  आपमें से बहुतों की कुछ ना कुछ अपेक्षाओं को शेष छोड़कर जा रहा हूँ . ...... एक छोटे से अवसादी समय को पार करने के लिए.
छत्‍तीसगढ़ के साथियों से पुन: क्षमा सहित ................
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कविता में गहरे से डूबता उतराता हुआ -
बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

संजीव ठाकुर जी की यह कविता अजय वार्ता से साभार

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