हमने अपने पिछले पोस्ट में कवि गोपाल मिश्र की कृति खूब तमाशा की पृष्टभूमि के संबंध में लिखा है। उस समय भारत में औरंगजेब का शासन काल था एवं देश में औरंगजेब की की दमनकारी नीतियों का दबे स्वरो में विरोध भी हो रहा था। खूब तमाशा में कवि की मूल संवेदना स्थानीय राजधराने के तथाकथित नियोग की शास्त्रीयता से आरंभ हुई है। उन्होंनें तत्कालीन परिस्थितियों का चित्रण भी उसमें किया, इसी कारण खूब तमाशा में विविध विषयों का प्रतिपादन भी हुआ है। एतिहासिक अन्वेषण की दृष्टि से उनका बडा महत्व है। स्व. श्री लोचनप्रसाद पाण्डेय नें अनेक तथ्यों की पुष्टि खूब तमाशा के उद्धरणों से की है। इसमें कवि के भौगोलिक ज्ञान का भी परिचय मिलता है। शंका और बतकही की सुगबुगाहट के बीच जब खूब तमाशा से सत्य सामने आया तब कवि के राजाश्रय में संकट के बादल घिरने लगे होंगें। इधर राजा अपने आप को अपमानित महसूस करते हुए निराशा के गर्त में जाने लगे होंगें।
कवि गोपाल मिश्र नें दरबारियों की कुटिल वक्र दृष्टि से राजा को बचाने एवं राजा के खोए आत्म बल को वापस लाने के उद्देश्य से खूब तमाशा के तत्काल बाद उन्होंनें औरंगजेब की अमानवीय नीतियों से क्षुब्ध होकर एक प्रभावपूर्ण ग्रंथ की रचना की, जिसे पढ़कर वीर रस का संचार होता था। कहते हैं कि राजा राजसिंह इसे पढ़कर उत्तेजित हो गए और औरंगजेब से लोहा लेने को प्रस्तुत हो गए, किन्तु उनके चाटुकारों नें येनकेन प्रकारेण उन्हें शांत किया। बात इतने में ही समाप्त नहीं हो गई। उन चाटुकारों नें गोपाल कवि की इस पॉंण्डुलिपि तक को नष्ट कर दिया। इस ग्रंथ का नाम शठशतक बताया जाता है। उस घटना के बाद गोपाल कवि रत्नपुर के राजाश्रय से अलग हो गए।
कहा जाता है कि जैमिनी अश्वमेघ की रचना खैरागढ़ में हुई। खूब तमाशा तथा जैमिनी अश्वमेघ की रचनाकाल से इसकी पुष्टि होती है। खूब तमाशा की रचना संवत 1746 में हुई जबकि जैमिनी अश्वमेघ की रचना संवत 1752 में हुई। इन दोनों के बीच छ: वर्षों का व्यवधान यह मानने से रोकता है कि इस अवधि में कवि की लेखनी निष्क्रिय रही। अवश्य ही, इस बीच कोई ग्रंथ लिखा गया होगा, जो आज हमें उपलब्ध नहीं है और वह ग्रंथ, संभव है, शठशतक ही हो।
कवि गोपाल मिश्र संस्कृत साहित्य के गहन अध्येता थे। खूब तमाशा में जहां एक ओर कवि का पाणित्य मुखरित हुआ है जहां उनकी काव्य मर्मज्ञता संचय है, तो दूसरी ओर कवि की रीतिकालीन प्रवृत्तियों का परिचय भी। इनकी कृतियों का गहन अध्ययन करने वाले कहते हैं कि नि:संदेह गोपाल कवि काव्य के आचार्य थे। उन्हें भारतीय काव्य आदर्शों का गंभीर अध्ययन था। इनकी कृतियों पर व्यापक दृष्टि डालते हुए इतिहासकार प्यारेलाल गुप्त जी नें जो लिखा हैं उससे इनकी कृतियों की उत्कृष्टता का ज्ञान होता है। कृतियों के अनुसार संक्षिप्त विवेचन देखें –
कवि गोपाल मिश्र की कृति जैमिनी अश्वमेघ जैमिनीकृत संस्कृत अश्वमेघ के आधार पर लिखा गया है। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर को गोतवध (गोत्र वध) पर पश्च्याताप हुआ। व्यास जी नें इस पाप से निवृत्त होने के लिए उन्हें अश्वमेघ यज्ञ करने का परामर्श दिया। युधिष्ठिर नें उसकी पूर्ति की। इसी कथा का आधार लेकर कवि नें इस ग्रंथ की रचना की है। इसका युद्ध वर्णन पठनीय है-
लखि सैन अपारहि क्रोध बढयो
बहु बानिनि भूतल व्योम मढयो
जीतहि कित वीर उठाई परै
चतुरंग चमू चक चूर करै
गिरि से गजराज अपार हनै
फरके फरही है कौन गनै
तिहि मानहु पौन उडाई दयौ
गज पुँजनि को जनु सिंह दल्यौ
गोपाल कवि का सुचामा चरित नामक ग्रंथ एक छोटा खण्ड काव्य है। प्रतिपाद्य विषय का अनुमान नाम से ही हो जाता है। द्वारिकापुरी में एक घुडसाल का वर्णन पढि़ये-
देखत विप्र चले हय साल विसाल बधें बहुरंग विराजी
चंचचता मन मानहि गंजन मैनहु की गति ते छबि छाजी
भांति अनेक सके कहि कौन सके ना परे तिन साजसमाजी
राजत है रव हंस लवै गति यों जो गोपाल हिये द्विज बाजी
भक्ति चिंतामणि तथा रामप्रताप दोनो प्रबंध काव्य है। दोनों बडे आकार में है। इनमें एक कृष्ण काव्य है तो दूसरा राम काव्य। हिन्दी साहित्य के भक्ति काल में सगुण भक्ति की दो शाखायें थी, रामाश्रयी तथा कृष्णाश्रयी। गोपाल कवि की काव्य भूमि पर उक्त दोनों धारायें आकर संगमित हुई हैं। इन ग्रंथों के आधार प्रमुखत: संस्कृत ग्रंथ हैं। भक्ति चिंतामणि की भूमिका श्रीमद्भागवत का दशम स्कंध है। रामप्रताप में वाल्मिकि का प्रभाव है। भक्ति चिंतामणि में कवि की भावुक अनुभूतियां अधिक तीव्र हो उठी हैं। उसमें जैसी संवेदनशीलता है, अभिव्यक्ति के लिए वैसा काव्य कौशल भी उसमें विद्यमान है। जैमिनी अश्वमेघ में जहां उग्र भावों की ऑंधी है, वहां भक्ति चिंतामणि में मलय का मंथर प्रवाह। गोवर्धन धारण के अवसर पर ग्वाल गर्व हरण का यह विनोद देखिये-
ग्वालन के गरब बिचारि कै गोपाल लाल ख्
याल ही में दीन्हें नेक गिरि छुटकाई है
दै वै कीक बलत ढपेलत परत झुकि
टूटत लकुरि कहूँ टिकत न पाई है
शरण सखा करि टेरत विकल मति
आरत पुकारत अनेक बितताई है
दावा को न पाई दाबि मारत पहार तर
राखु राखु रे कन्हैया तेरी हम गाई है।
राम प्रताप का कुछ अंश उनके पुत्र माखन नें पूरा किया था। समझा जाता है कि रामप्रताप पूर्ण होने के पूर्व ही गोपाल कवि का निधन हो गया। इसमें राम जन्म से लेकर उनके साकेत धाम गमन तक की पूरी कथा की यह अंतिम रचना है, अत: इसकी प्रौढ़ता स्वाभाविक है।
गोपाल कवि को पिंगल शास्त्र का गहन अध्ययन था। उसमें पूर्णता प्राप्त करने के बाद ही संभवत: उन्होंनें काव्य सृजन प्रारंभ किया। उनके सारे ग्रंथों में पद पद पर बदलते छंद हमें आचार्य केशव की याद दिलाते हैं। छंद प्रयोग की दृष्टि से वे उनसे प्रभावित लगते हैं। एकमात्र जैमिनी अश्वमेघ में ही उन्होंनें 56 प्रकार के छंदों का प्रयोग किया। छप्पय, दोहा, त्रोटक, घनाक्षरी, चौबोला, तोमर, सवैया तथा सोरठा उनके प्रिय छंद प्रतीत होते हैं। युद्ध की भीषणता के लिए छप्पय तथा नाराच का विशेष प्रयोग हुआ है। अपने काव्य में विविध छंदों के प्रयोग से उनकी तुलना इस पुस्तक में वर्णित संस्कृत के ईशान कवि से की जा सकती है। विविध छंदों की बानगी दिखाने के बावजूद भी आचार्य केशव की भॉंति उन्होंनें इसे काव्य का प्रयोजन नहीं बनाया।
कवि की चार पुस्तकें प्रकाशित हैं। सुचामा चरित अप्रकाशित है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि सही मूल्यांकन के बाद इन्हें महाकवि का स्थान प्राप्त होगा और छत्तीसगढ़ के लिए यह गौरव की बात होगी कि इसने भी हिन्दी साहित्य जगत को एक महाकवि प्रदान किया। गोपाल कवि के पुत्र माखन नें रामप्रताप के अंतिम भाग की पूर्ति की है। काव्य रचना में इनकी पैठ पिता के समान ही थी। रामप्रताप में किसी भी स्थान पर जोड नहीं दिखाई देता। उसमें दो शैलियों का आभास नहीं मिलता। यह तथ्य माखन कवि के काव्य कौशल का परिचायक है। वे अत्यंत पितृ भक्त थे। उन्होंनें छंदविलास नामक पिंगल ग्रंथ लिखा है। उसमें अनेक स्थानों पर गोपाल विरचित लिखा है। छंदविलास पूर्वत: माखन की रचना है। इसमें पांच सौ छंद हैं, जो सात भिन्न भिन्न तरंगो में विभाजित किए गए हैं।
कवि गोपाल मिश्र के तथा उनके पुत्र के नाम के अतिरिक्त उनके पारिवारिक जीवन के संबंध में कुछ भी अंत: साक्ष्य नहीं मिलता। उनके पिता का नाम गंगाराम था तथा पुत्र का नाम माखन था, वे ब्राह्मण थे। विद्वानों नें उनका जन्म संवत 1660 या 61 माना है। वे रत्नपुर के राजा राजसिंह के आश्रित थे। उन्हें भक्त का हृदय मिला था, उनका आर्विभाव औरंगजेब काल में हुआ था। औरंगजेब के अत्याचार से वे क्षुब्ध थे। स्पष्टवादिता गोपाल कवि की विशेषता थी। राज राजसिंह के हित की दृष्टि से उन्होंनें जो नीतियां कही है, उनमें उनका खरापन दिखाई पड़ता है। राजाओं के दोषों का वर्णन उन्होंनें बड़ी निर्भीकता से किया है। धर्म उनके जीवन में ओतप्रोत है। धर्म से अलग होकर वे किसी भी समस्या का समाधान ढूढनें के लिए तैयार नहीं हैं। अखण्ड हिन्दुत्व उनकी दृष्टि है। कबीर की तरह वे खण्डित हिन्दुत्व के पोषक नहीं थे। उनके 1. खूब तमाशा, 2. जैमिनी अश्वमेघ , 3. सुदामा चरित, 4. भक्ति चिन्तामणि, 5. रामप्रताप ग्रंथ उपलब्ध हैं।
इतिहासकार प्यारेलाल गुप्त इनके संबंध में पूरे आत्मविश्वास के साथ लिखते हैं कि रतनपुर के गोपाल कवि हिन्दी काव्य परंपरा की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के वाल्मीकि हैं। खूब तमाशा तत्प्रणीत आदि काव्य है। हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन भक्ति कवियों में उनका महत्वपूर्ण स्थान होना चाहिये, किन्तु मूल्यांकन के अभाव में उनका क्षेत्रीय महत्व समझकर भी हम संतुष्ट हो लेते हैं। गोपाल कवि के दुर्भाग्य नें ही उन्हें छत्तीसगढ़ में आश्रय दिया, अन्यथा उत्तर भारतीय समीक्षकों की लेखनी में आज तक वे रीतिकाल के महाकवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके होते।
प्यारेलाल गुप्त के आलेख के आधार पर
परिकल्पना - संजीव तिवारी
इसे विडम्बना ही कह सकते हैं। सारा मुल्क यहीं फलता फूलता है और कहता है छत्तीसग्ढ सबसे पिछड़ा प्रदेश है। येला सोझ बोली मा कथे गुनहगरई। खैर! बहुत ही अच्छे व्यक्तित्व के बारे मे आपने परिचय कराया। सन्जीव आप वाकई पुस्तकों (साहित्य, दर्शन, कविता) के मित्र हैं। अच्छा सन्कलन होगा और आप पढते हैं। बहुत सुन्दर! अन्यथा आज इस ब्लोग जगत मे खाली प्रशन्सा, निन्दा,प्रतिष्ठा की लडाई, यही सब देखने को मिलता है।
जवाब देंहटाएं....प्रसंशनीय पोस्ट !!!
जवाब देंहटाएंकविवर को आंचलिकता के चलते अपेक्षित यश नही मिल पाया किंतु यह स्वीकार करना भी कम तो नही ...आपका श्रम क्या उनके लिये आदरांजलि नही है !
जवाब देंहटाएंआपने गोपालजी को सम्मानित करके एक बड़ा काम किया है। मुझे भी कुछ नया पता चला। आपका आभार।
जवाब देंहटाएंsundar.
जवाब देंहटाएंaapki mehnat jhalak rahi hai isme.
kafi kuchh nayi jankariyan mili bhai sahab.
shukriya
इसे कहते है अवलोकन
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
shukriya itni jaankari padhwaane ke liye
जवाब देंहटाएंaapke alekhon ko padha. apane swayam kisi doosare lekh se matter liya hai phir khoyn mana kar rahein hain ki ise koi publish nahis kar sakata. koi moulik article likhare copyright karayin to koi baat hai.
जवाब देंहटाएंsudhir sharma
@ आदरणीय डॉ. सुधीर शर्मा जी
जवाब देंहटाएंमैंनें इस आलेख के अंत में स्पष्टत: प्यारेलाल गुप्त के आलेख के आधार पर
परिकल्पना - संजीव तिवारी लिखा है.
हॉं उपर में जो डिस्केमर है वहां हमसे गलती हुई है, हम उसे हटा लेते हैं. गलती याद दिलाने के लिए आभार.
इस परिचय के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंआईये जानें .... मैं कौन हूं!
जवाब देंहटाएंआचार्य जी
कितनी ही ऐसी विभूतियां हैं, जो आंचलिक होने के कारण पर्याप्त ख्याति नहीं पा सकीं, कविवर ईसुरी जैसे एकाधिक अपवादों को छोड़ कर. संग्रहणीय पोस्ट. आभार.
जवाब देंहटाएंक्या कहने भाई साहब। वाह आपके ब्लॉग पर जब भी आता हूं कोई न कोई नई जानकारी मिलती ही है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंhttp://udbhavna.blogspot.com