बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है

कल बस्‍तर में हुए बारूदी विष्‍फोट में क्षत-विक्षत 50 मानव लाशो से टीवी के द्वारा आपका भी सामना हुआ होगा। दिन प्रतिदिन घट रही ऐसी दर्दनाक घटनाओं,  करूणा और आक्रोश के स्‍थानीय हालातों में हिन्‍दी ब्‍लाग जगत में भी रहने का मन नहीं लग रहा है, कुछ दिनों के लिए विदा दोस्‍तों. .......
क्षमा करेंगें, मैं आपसे व्‍यक्तिगत तौर पर मोबाईल वार्ता आदि में व्‍यवहारिकता के कारण कुछ ना बोल पांउ किन्‍तु वर्तमान हालात में मुझे चुप रहने का मन हो रहा है।  आपमें से बहुतों की कुछ ना कुछ अपेक्षाओं को शेष छोड़कर जा रहा हूँ . ...... एक छोटे से अवसादी समय को पार करने के लिए.
छत्‍तीसगढ़ के साथियों से पुन: क्षमा सहित ................
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कविता में गहरे से डूबता उतराता हुआ -
बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

संजीव ठाकुर जी की यह कविता अजय वार्ता से साभार

8 टिप्‍पणियां:

  1. संजीव जी गम तो स्‍वाभविक हैं, पर लगता नही की सरकारी पौरूषता का अभाव अब पुख्‍ता होता जा रहा हैं, ये कैसा युग आ रहा हैं की तमाम लावलस्‍कर सिर्फ फैशनेबल हो कर रह गई हैं,घात प्रतिघात में भी हम फिस्‍सडी...... कहते हैं केन्‍द्र के पास इच्‍छा नही राज्‍य के पास शक्ति नही कुल मिलाकर परस्‍पर विरोधी विचारधारा की सरकारो का खामियाजा ...
    आखिर मातम भी कब तक मनाऐ.................
    सतीश कुमार चौहान

    जवाब देंहटाएं
  2. नक्सली हिंसा से पीड़ा और अवसाद के हालात स्वाभाविक हैं। आप देखना, आने वाले समय में ऐसी हिंसा को माकूल जवाब मिलेगा। आज शाम प्रधानमंत्री उच्चस्तरीय बैठक लेने जा रहे हैं और संभावना है कि हालात जरूर बदलेंगे।

    आशा है इस अवकाश के बाद आप जब लौटेंगे तो दुगुनी ऊर्जा से।

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  3. संजीव जी
    दिल में दर्द होता है।ये क्या हो रहा है?

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. आत्मीय भाई संजीव
    अवसाद के लिये छुट्टी नही !
    कोई कही नही जायेगा !
    आप भी नही !
    ये हालात जल्दी बदलने वाले नही ...सामने रहिये...हमें भी अच्छा लगेगा !



    ( संजीव ठाकुर साहब क्या खाद्य विभाग वाले है और कभी जगदलपुर मे तैनात थे ? )

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  6. bhaiya mai ali sahab se sehmat hun,
    lautein aap, lautna hi padega, dhamki samjho chahe request itna haq to hao dono hi rishto se

    जवाब देंहटाएं
  7. @आदरणीय बड़े भाई अली साहब एवं प्रिय संजीत

    मैं कहीं नहीं जा रहा हूं ना ही ब्‍लॉग जगत की भाषा में 'टंकी पे चढ़' रहा हूं. वर्तमान स्थिति की गंभीरता नें मुझे भावुक बना दिया था और ब्‍लॉगों में दूसरे विषय मुझे भा नहीं रहे थे, दुख के माहौल में हंसी ठिठोली पढ़ना अच्‍छा नहीं लग रहा है.
    वैसे भी मैं अंतरालों में पोस्‍ट लिखता हूं अब भी लिखता रहूंगा. और नजरों में आये आवश्‍यक विमर्शयोग्‍य लेखों को किसी भी माध्‍यम से ब्‍लॉगजगत तक लाने का प्रयास भी करता रहूंगा. इसी के चलते कल के पोस्‍ट को मैं अपने पुत्र से चाणक्‍य से यूनिकोड परिवर्तित कर प्रकाशित करवाया था.

    आप दोनों के स्‍नेह के लिए धन्‍यवाद.

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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