संदर्भ: भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष

लोकप्रियता की अजब पहेली राजेश खन्ना
कुछ अनछुए आत्मीय प्रसंग
विनोद साव

साल 1969 से 1974 तकरीबन पॉंच सालों का यह एक ऐसा दौर था जिसमें हमारे हिस्से में राजेश खन्ना आए। हम हाई स्कूल के छात्र फिल्मी दर्शक के रुप में राजेश खन्ना बैच के छात्र थे, जबकि वे हम स्कूल के लड़कों से दस-बारह साल बड़े रहे होंगे लेकिन हमारे वे एक ऐसे प्रिय पात्र हो गए थे कि वे हम सबको अपने साथ पढ़ने वाले किसी मित्र की तरह लगा करते थे। हम पर राजेश खन्ना का प्रभाव कितना गहरा था इसका एहसास तब हुआ जब हमें स्कूल की लड़कियॉं शर्मिला टैगोर और मुमताज की तरह दिखने लगी थीं। हमें ऐसा लगता कि हमारी सूरत किसी ऐसे हीरो से मिल रही है जिसे हमने ‘आराधना या ‘कटी पतंग’ में देखा हो। हमारे सिर के बालों के बीच थोड़ी बाॅयीं ओर मांग अपने आप निकलने लग गई थी। अपनी मुचमुची मुस्कान के साथ हम आॅखें झपका कर बातें करने में मशगूल हो जाते थे। हमने डबल सिलाई वाले शर्ट पहने। धोती और पाजामा के साथ नहीं बल्कि पेंट के उपर कुरता पहनने का नया शौक चर्राने लगा था, जिसे गुरु शर्ट कहा जाता था। उनके पहने कोट में पहली बार फ़र वाले कॉलर दीखने लगे थे। जिस लड़के के चेहरे पर खुरदुरी बरहट होती वह तो और भी राजेश खन्ना की तरह रुमानी लगा करता। हमारी आवाज में वही आत्मीयता और अपनापन आने लगा था जो उन दिनों सिनेमाहालों में गूंजा करती थी। यात्रा के समय हम ट्रेन में खिड़की के पास बैठते तब हमारे भीतर ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’ के बोल गूंजने लगते। तब राजेश नाम जो कि कचरे के अम्बार की तरह फैला हुआ नाम था अकस्मात ही चमकदार हो उठा और हर राजेश नामधारी इन्सान को हम राजेश खन्ना समझकर देखा करते थे। देश के हर लड़के के उपर राजेश खन्ना का भूत सवार था और हर लड़की के सपने में राजेश खन्ना।

‘अमरप्रेम’ का वह दृश्य याद आ रहा है जिसमें शर्मिला टैगोर से मिलने के लिए राजेश खन्ना पत्तल में समोसे और चटनी लेकर आया करते थे। वह बारह बजे का मैटिनी-शो था। इंटरवल करीब डेढ़ बजे के आसपास होना था। हम काॅलेज के मित्र फिल्म देख रहे थे। इस दृश्य का ऐसा असर पड़ा कि इंटरवल में हम तीन मित्र मिलकर दर्जन भर समोसे खा गए। हमने समोसे खाना भी राजेश खन्ना से सीखा।

राजेश खन्ना एक बार हमारे शहर दुर्ग आ गए थे कांग्रेस का चुनाव प्रचार करने। उनकी चुनावी आम सभा हमारे घर के पास पद्मनाभपुर स्थित मैदान में थी। शहर में यह पता चला कि वे लड़कियाॅ जो सोलह बरस की उमर में अपने जिस लवर बॉय राजेश खन्ना की दीवानी थीं, वे सभी उनके आगमन के समय चालीस-ब्यालीस बरस की हो गई थीं, लेकिन अपने प्रिय नायक के अपने शहर में आने की खबर ने उनमें झुरझुरी पैदा कर दी। उन्हें सहसा विश्वास नहीं हो पाया कि उनके दौर के रुपहले परदे का एक महानायक उनके शहर के किसी मैदान में अपनी आशिक अदाओं में बोलेगा। वे उस कालखंड में विचरण करते हुए कब उस चुनावी आम सभा के सामने आकर खड़ी हो गईं उन्हें खुद ही होश नहीं रहा था। ऐसी भारी भीड़ उन प्रौढ़ महिलाओं की दिखी थी जो अपनी किशोरावस्था में इस सम्मोहक नायक के लिए सिनेमाहालों की ओर भागा करती थीं। आज भागकर वे इस मैदान में पहुंच गई थीं। सुपर स्टार उस दिन सफेद कुरते और पाजामे में थे। अभिनेता के नहीं एक नेता के लिबास में। उन्होंने अपना भाषण देने के बाद जोर से आवाज लगाई ‘भाइयो...आप लोग अपना बहुमूल्य वोट साहू साहब को दें।’

‘कौन सा साहू... यहॉं तो सभी साहू हैं।’ उस समय दुर्ग लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस, भाजपा और बसपा तीनों प्रमुख दलों के उम्मीदवार साहू थे। तब उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी जागेश्वर साहू का हाथ उठाकर कहा ‘इन्हें अपना वोट दें ...यही है असली साहू...।’

मैं शाम को अपने कार्यालय से घर आया। तब मेरे छोटे बेटे अमिय ने पुलकते हुए बताया था कि ‘पापा हम तो आज राजेश खन्ना से मिले हैं। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा।’ उसने सारा वृतांत कह सुनाया। वह चुनावी आमसभा के पास वाले स्कूल में छठवीं कक्षा का विद्यार्थी था। स्कूल से छुट्टी होने के बाद वह चुनावी मंच की ओर दौड़ गया था और मंच के सामने जाकर खड़ा हो गया। अपना भाषण देने के बाद राजेश खन्ना जब मंच की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे तब पास खड़े एक मिडिल स्कूल के बच्चे को स्कूल यूनिफार्म में देखकर वे प्रफुल्लित हो गए और स्नेह से अपना हाथ उसके सिर पर रखते हुए आगे बढ़ गए थे।


कभी प्रतिष्ठित पत्रिका ‘धर्मयुग’ के बाल-जगत स्तंभ में बच्चों के लिए साक्षात्कार देते हुए उन्होंने बताया था कि ‘एक बार एक नाटक में उन्हें दरबान की भूमिका दी गई थी जिसमें एक छोटा सा डॉयलाग बोलने में उन्हें पसीना छूट गया था।’ आगे चलकर यही वो कलाकार है जिसकी प्यार से लबरेज आवाज को सुनने के लिए दर्शक हमेशा तरसते थे। तब उनकी फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ ने बच्चों का मन मोह लिया था। उनकी ज्यादातर फिल्में पारिवारिक और भावना प्रधान होती थीं। किसी भी किरदार में वे अपने दोस्ताना अंदाज में छा जाते थे। वे आज के नायकों की तरह अंडरवर्ड में स्टेनगन लेकर दौड़ने वाले हीरो नहीं थे। अपने समय के उम्दा निर्देंशकों ऋषिकेश मुखर्जी, वासु भट्टाचार्य, असित सेन, शक्ति सामन्त, दुलाल गुहा और यश चोपड़ा के वे चहेते नायक थे। वे सदाबहार देव आनंद की शैली के कलाकार थे। चाल-ढाल, पहनाव-ओढ़ाव, रुप सौन्दर्य और अन्दाज में रुमानी पन, संवाद अदायगी का अपना अलग ढंग - ये कुछ ऐसी समानताएँ थीं जो इन दोनों में एक जैसी थीं। दोनों की लबों पर किशोर कुमार की आवाज खूब फबती थी। देव साहब ने संगीतकार एस.डी.बर्मन को स्थापित किया तो राजेश खन्ना ने आर.डी.बर्मन को।

कुछ दिनों पहले भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष पर शाहरुख खान ने एक सम्मान समारोह का आयोजन करवाया था और उसमें राजेश खन्ना के साथ दिलीपकुमार और कई मशहूर कलाकारों को बुलाया गया था। बूढ़े हो चुके, मंच पर शांतचित्त बैठे राजेश खन्ना को जब बोलने के लिए आमंत्रित किया गया तब वहॉं उनके खड़े होते ही हर्ष और उल्लास की एक लहर दौड़ गई। उन्होंने अपनी फिल्म ‘दाग’ की वह भावपूर्ण कविता सुनायी ‘आज मैं हूँ जहॉं कल कोई और था, यह भी इक दौर है और वह भी इक दौर था... मेरे दोस्त मैं तो कुछ भी नहीं।’ यह यश चोपड़ा निर्देशित ‘दाग’ के एक दृश्य की लम्बी कविता का अंश है जिसमें नगर निगम में मेयर के चुनाव जीतने के बाद जब उनके सम्मान में कार्यक्रम रखा जाता है वहॉं यह कविता नायक द्वारा सुनाई जाती है। उसी कविता को जब आज वे अपने सम्मान में सुना रहे थे तब समारोह स्थल तालियों और सीटियों से गूँज उठा था। यह दिखा कि आज भी उनके चाहने वालों में एक अतृप्ति और छटपटाहट बाकी है, वह प्यास बाकी है जो उनके समय में थी। आज भी चैनलों में और आर्केस्ट्रा पार्टियों में सबसे ज्यादा उनके सिने गीतों को देखे सुने जाने की उद्दाम लालसा भरी है। दिल अभी पूरी तरह भरा नहीं है।

आज उनके प्रशंसक भी साठ बरस के आसपास हैं और राजेश खन्ना सत्तर के करीब। पिछले बरस मुम्बई गया था। जब टूरिस्ट बस में घूम रहे थे तब बस अचानक राजेश खन्ना के मकान के सामने रुक गई थी। गाइड ने बताया कि ‘काका कभी कभी काला चश्मा पहने यहॉं अपनी छत पर बैठकर अखबार पढ़ते रहते हैं।’ उनके मकान का नाम ‘आशीर्वाद’ है। इस मकान को उन्होंने राजेन्द्र कुमार से खरीदा था तब इस मकान का नाम ‘डिम्पल’ था। सिनेमा की नायिका डिम्पल नहीं राजेन्द्र कुमार की बेटी का नाम भी डिम्पल था। कुँआरे राजेश खन्ना ने जब इस मकान को खरीदा तब मकान का नाम बदलकर ‘डिम्पल’ से ‘आशीर्वाद’ कर दिया। तब उन्हें मालूम नहीं था कि उनके जीवन में कोई डिम्पल नाम की नायिका आवेगी और उनके साथ ब्याही जावेगी।


हमारी टूरिस्ट बस उस मकान ‘आशीर्वाद’ के सामने खड़ी थी। हम बस की खिड़कियों से झांककर देख रहे थे। सामने अरब सागर में अठखेलियॉं करती उसकी लहरें और समुद्र के सामने एक उजड़ा हुआ-सा मकान। फिल्म ‘दाग’ में गाई गई उनकी कविता की तरह। शिखर पर पहुंचना आसान होता है पर वहॉं टिके रहना कितना कठिन। राजेश खन्ना ने अपने एक छोटे संस्मरण में यह लिखा था कि ‘मुझे यह भय सताने लगा था कि आज जिस शिखर पर मैं हूँ और कल कहीं उस शिखर से उतार दिया जाउँ तब मेरे लिए जीना कितना भयावह होगा। इस भय से मैं अँधेरी रात में अपने घर के सामने समुद्र में घुस गया था, उसमें डूब जाना चाहता था। पर मरना भी मेरे हाथों में नहीं था।’

उनके मकान के सामने एक छोटी लॉन है। मकान का मुख्य प्रवेश द्वार खुला हुआ था और भीतर सुपर-स्टार की एक बड़ी पोट्रेट लगी हुई थी जो बाहर से भी साफ दिखलाई दे रही थी। पोट्रेट में वे अपनी उसी मुस्कान पर थे जिस पर उनके लाखों चाहने वाले फिदा थे। इस चित्र में वे अपना गुरु कुरता पहने हुए हैं। पेंट के उपर इस कुरते को पहनने का चलन उन्हीं से हुआ था। यह चित्र उनकी सबसे सार्थक फिल्म ‘आनंद’ से लिया गया है ‘जिंदगी कैसी है पहेली’ वाला गीत गाते हुए दृश्य। हिन्‍दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार, हर दिल अजीज अभिनेता जिसने लोकप्रियता की एक इतिहास बदल देने वाली उंचाई को प्राप्त किया था, उस राजेश खन्ना की दगी में आज ये कैसी पहेली छाई हुई है इसे कोई नहीं बूझ पा रहा है।


विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ
मो. 9407984014


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

दाने-दाने को मोहताज लोकगायिका : पत्रिका में प्रकाशित शेखर झा की रपट

रायपुर। लोककला व लोक कलाकारों के संरक्षण के लिए करोड़ों रूपए खर्च करने वाले छत्तीसगढ़ में लोक कलाकारों के सामने खाने के लाले पड़ रहे हैं। छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति को देशभर में प्रसिद्घि दिलाने वाली 68 वर्षीय लोक गायिका किस्मतबाई देवार की किस्मत क्या रूठी, सरकार भी इस कलाकार से रूठी हुई है।

"चौरा मा गोंदा रसिया" लोक गीत से प्रसिद्ध किस्मत की मारी किस्मतबाई लकवा से पीडित हैं और इस वजह से बोल और चल नहीं पातीं। लिहाजा, उनकी बड़ी बेटी दुर्ग के रेलवे स्टेशन पर भीख मांगकर मां का भरण-पोषण और इलाज करा रही है। प्रदेश के लोक कलाकारों ने मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को किस्मतबाई की इस स्थिति से अवगत कराया था। उनकी खस्ता हालत को देखते हुए मुख्यमंत्री ने फरवरी-2012 में उन्हें 40 हजार रूपए की सहायता राशि मंजूर की। साथ ही संस्कृति विभाग ने भी प्रतिमाह डेढ़ हजार रूपए पेंशन देने की घोषणा की। लेकिन आज चार माह बाद भी किस्मतबाई को न तो सहायता राशि मिली और न ही पेंशन। किस्मतबाई देवार ने लोकगायिकी के माध्यम से देशभर में छत्तीसगढ़ को पहचान दी।

उन्होंने विश्वविख्यात रंगनिदेशक स्व. हबीब तनवीर के साथ कई नाटकों में लोकगायन किया व प्रस्तुतियां दीं। वही किस्मतबाई इन दिनों दुर्ग की देवार बस्ती में दुर्दिन काट रही है। उनकी चार बेटियां जतन, रतन, कीर्तन और सबसे छोटी विर्तन है। बड़ी बेटी जतनबाई देवार बस्ती व रेलवे स्टेशन पर भीख मांगकर अपनी मां का पेट भरती है।

संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए बनाई पार्टी : छत्तीसगढ़ी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए किस्मतबाई ने 70 के दशक में "आदर्श देवार पार्टी" की शुरूआत की। पार्टी के माध्यम से रायपुर, रायगढ़, बिलासपुर, कांकेर के अलावा कई विभिन्न प्रांतों में प्रस्तुति देती थी। पार्टी के शुरूआती दिनों में गिने-चुने कलाकार हुआ करते थे, लेकिन कुछ महीनों बाद पार्टी में कलाकारों का आना शुरू हो गया। हालत खराब होने के बाद संस्था बंद हो गई।

सरकार क्यों करती है घोषणा? : किस्मतबाई की पेंशन के सम्बंध में संस्कृति विभाग के अधिकारियों से कलाकार बात करने के लिए जाते हैं, तो विभागीय अधिकारी बात करने से कतराते हैं। लोकगायिका रमादत्त जोशी का कहना है कि घोषणा के बाद भी सरकार पैसा नहीं दे पाती, तो घोषण ही क्यों करती है? किस्मतबाई ने अपना पूरा जीवन लोककला व लोकसंस्कृति के लिए समर्पित कर दिया, लेकिन आज जब किस्मतबाई को लोगों की जरूरत है, तो कोई भी साथ चलने को तैयार नहीं है।


ये गाने हैं चर्चित-
चौरा मा गोंदा रसिया, मोर बारी मा पताल रे...
चल संगी जुर मिल कमाबो रे...
करमा सुने ला चले आवे गा, करमा तहूं ला मिला लेबो...
मैना बोले सुवाना के संग
रे मैना बोले...


किस्तमबाई प्रसिद्ध लोकगायिका हैं। उनकी ओर से आवेदन आता है, तो जरूर मदद की जाएगी। बात पेंशन की करें, तो विभाग की ओर से कलाकारों को हर महीने 1500 रूपए पेंशन दी जाती है। आवेदन आने पर किस्मतबाई को मुख्यमंत्री सहायता कोष या अन्य किसी मद से सहायता राशि दी जाएगी।
बृजमोहन अग्रवाल,
संस्कृति मंत्री, छत्तीसगढ़


पेट भरने के लिए मांगती हूं भीख-
किस्मतबाई की बड़ी बेटी जतनबाई ने बताया कि घर में न राशन है और न ही मां के इलाज कराने के लिए रूपए। सरकार ने पैसा देने की घोषणा तो की थी, लेकिन चार माह बीतने के बाद भी हाथ में कुछ नहीं आया है। रेलवे स्टेशन व देवार बस्ती में भीख मांगने के बाद बड़ी मुश्किल से सिर्फ एक समय का पेट भरता है।


शेखर झा

पूर्व प्रकाशन —

लोक गायिका 'किस्मत बाई देवार' इलाज को मोहताज
(6 जुलाई 2011 को देशबंधु में प्रकाशित रपट)

रायपुर । सिकोलाभाठा दुर्ग निवासी छत्तीसगढ़ की जानी-मानी लोकगायिका व देवार डेरा की प्रमुख कलाकार किस्मतबाई देवार इन दिनों गंभीर रूप से बीमार से बीमार चल रही हैं। पक्षाघात से पीड़ित इस लोकगायिका के पास कला की पूंजी तो है पर इलाज के लिए मोहताज है। न उन्हें संस्कृति विभाग से पेंशन मिलती है, न किसी की तरह की मदद। आर्थिक विपन्नता में जैसे-तैसे दिन गुजार रही इस कलाकार की हालत देख अंचल की लोकगायिका रमादत्त जोशी ने लोककलाकारों की ओर से संस्कृति विभाग के आयुक्त नरेन्द्र शुक्ला को इस बाबत् 28 जून को एक पत्र लिखकर मदद की गुहार लगाई है। गंभीर रूप से पीड़ित मां की हालत देख उनकी बेटी जियारानी ने कोरबा में अपने पास सहारा दिया है। 68 वर्षीय किस्मतबाई देवार को चलने-फिरने में काफी दिक्कत हो रही है। बोलने में तकलीफ के बाद भी वो हिम्मत नहीं हारी हैं। देवार दादरा, ठुमरी, भजन, गीत, लोकगीत गाने में सिद्धहस्त किस्मत बाई देवार का नाम पहली पंक्ति के कलाकारों में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। आठ वर्ष की उम्र से गीत-संगीत और कलाकारी से नाता जोड़ने वाली किस्मतबाई की गुरू बरतनीन बाई रहीं। उनके सानिध्य में रहकर काफी कुछ सीखने का मौका मिला। बाद में उन्होंने आदर्श देवार पार्टी नाम से मंडली बनाकार कार्यक्रम देना शुरू किया। तब मंचीय प्रस्तुति के दौरान रात-रात भर लोग उनके गाये गीतों का आनंद उठाते। आदर्श देवार पार्टी के माध्यम से किस्मतबाई देवार ने रायगढ़, बिलासपुर, कांकेर, संबलपुर, समेत प्रदेश के लगभग सभी स्थानों पर कार्यक्रम प्रस्तुत किया। जानकारों का कहना है कि न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि उत्तरप्रदेश, बनारस में भी उनकी गायिकी को लोगों ने काफी सराहा। 1971 में दाऊ रामचंद देशमुख ने चंदैनी गोंदा में किस्मत बाई की कला को प्रोत्साहित करने का मन बनाया। उस समय चंदैनी गोंदा सांस्कृतिक जागरण के उद्देश्य को लेकर लोकप्रिय था। जानकारों का कहना है कि अपने जमाने में किस्मत बाई एक बेहतरीन नर्तकी रहीं। गायन को पुश्तैनी पेशा मानने वाली अंचल की वरिष्ठ लोकगायिका के गाये गीत काफी लोकप्रिय हुए। आकाशवाणी रायपुर से उनके गीतों का प्रसारण सुनने श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग उत्साहित रहता।

उनके गाये गीत 'चौरा में गोंदा रसिया मोर बारी मा पताल रे चौरा मा गोंदा' को लोग आज भी नहीं भूले। इसके अलावा 'चल संगी जुर मिल कमाबो रे '... और 'करमा सुने ला चले आबे गा करमा तहूं ला मिला लेबो', मैना बोले सुवाना के साथ रे मैना बोले... काफी पसंद किया गया।

कलाकारों की प्रतिक्रिया-
दुर्ग निवासी वरिष्ठ लोककलाकार कृष्ण कुमार चौबे कहते हैं कि जीवन भर कला के प्रति समर्पिमत कलाकारों को विषम परिस्थितियों में मदद मिलना चाहिए। न सिर्फ संस्कृति विभाग वरन् सामाजिक संगठनों की भी जिम्मेदारी बनती है कि मुसीबत के समय कलाकार को आर्थिक व मानसिक रूप से संबल देने पहल करें। यही नहीं प्रदेश की तथाकथित म्युजिक कंपनियां जो लोककलाकारों के हित में बातें करती हैं, उन्हें भी किस्मत बाई देवार जैसे और भी जरूरतमंद कलाकारों को मदद करनी होगी। हमारे यहां संस्कृति विभाग में भी बड़ा घालमेल नजर आता है, खासकर ऐसे कलाकारों को पेंशन मिल जाता है जो आर्थरिक दृष्टि से सक्षम हैं और बड़े मजे से कार्यक्रम भी कर रहे हैं। पर अशक्त कलाकारों को मदद करने जब बात आती है तो कई तरह के बहाने ढूंढे जाते हैं। अच्छा तो ये हो कि जमीनी स्तर पर काम होना चाहिए।

लोकमंचों पर एक लंबे अरसे से जुड़े रहने वाले लोककलाकार, अभिनेता विजय मिश्रा की राय में किसी भी क्षेत्र के कलाकार के मदद के लिए सरकारी पहल ही पर्याप्त नहीं है। दूसरे सक्षम कलाकारों को भी इस दिशा में आगे आना होगा। मीडिया भी इन जरूरतमंद कलाकारों की खबर प्रमुखता से प्रकाशित करे, क्योंकि हमने देखा है कि अभी कुछ समय पहले नाचा के वरिष्ठ कलाकार पद्मश्री गोविंद निर्मलकर की हालत जब बिगड़ी तो इस खबर को सबसे पहले मीडिया ने ही लोगों के सामने लाया। बाद में संस्कृति विभाग ने मदद की पहल की। वही बात अंचल के मशहूर लोकगायक शेख हुसैन के समय दुहराई गई, जो कि गरीबी के चलते अपना इलाज करा पाने में असमर्थ थे। ऐसे और भी जरूरतमंद कलाकार दूर-दराज के ग्रामीण अंचलों में रहते हैं, जिन तक न तो विभाग के अधिकारी पहुंच पाते हैं और न कोई मददगार। इसलिए बहुत गंभीरता से इस दिशा में मिलजुलकर प्रयास करना होगा।

महानदी लोककला मंच के संचालक व अंचल के वरिष्ठ लोककलाकार श्रीधर वराडे की राय में किस्मतबाई देवार जैसे कलाकार बिरले ही मिलेंगे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन कला के प्रति समर्पित कर दिया। ऐसे कलाकारों को यदि इलाज के लिए मदद मांगनी पड़े, इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है। नया थियेटर में गायिका के रूप में उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई। प्रदेश की इस ख्यातिनाम लोकगायिका को 20 अगस्त 2008 को राजीव स्मृति सम्मान से नवाजा गया। स्वर्गीय महासिंग सम्मान भी इन्हें मिला है। ऐसे कलाकार के लिए हमें आगे आना होगा।

अंचल के रंगकर्मी व वरिष्ठ कलाकार सुदामा शर्मा किस्मतबाई देवार की गायन शैली से खासे प्रभावित हैं। उनके गाए गीत की तारीफ करते हुए उनके आज भी इन गीतों को श्रोता भाव-विभोर होकर सुनते हैं। उनके स्वस्थ होने की कामना करते हैं।

वरिष्ठ लोककलाकार हेमलाल कौशल ने कहा है कि नई पीढ़ी के कलाकारों को प्रेरणा देने वाली अंचल की ख्यातिनाम लोकगायिका किस्मतबाई देवार ने परम्परागत शैली में करमा, ददरिया, झूमर को बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। यही नहीं हबीब तनवीर के साथ मिट्टी की गाड़ी, चरनदास चोर, मोर नाव दमांद गांव के नाम ससुराल, में भी काम किया। सोनहा बिहान में भी 6 वर्षों तक कार्यक्रम देते रहीं। गीत संगीत और कलाकारी ही जिनके जीवन का ध्येय रहा है, ऐसे कलाकार को इलाज के लिए जितना संभव हो मदद जरूर करें।

उपजाऊ माटी में उद्योग और इमारत


अन्न उत्पादन के क्षेत्र में भारत शुरू से ही अग्रणी रहा है देश के लगभग सभी प्रांत फसल विशेष का उत्पादन करने में अपनी-अपनी पहचान बनायी हुई हैं। छत्तीसगढ़ में धान, गेहूं, चना सहित दलहनी फसलों के उत्पादन तथा पंजाब में गेहूं, मक्का, ज्वार, सरसो के अलावा तिलहन भी अधिक मात्रा में लिया जाता है। हरियाणा में धान, गेहूं, सब्जीयाँ इसी तरह पूवोंत्तर राज्यों में भी फल, अनाज के अलावा कपास और गन्ने की खेती भी बहुतायात में किया जाता है। यहां की उत्पादन तकनिक और प्रणाली किसानों द्वारा स्वंम का ईजात किया हुआ था तब भी और अब जबकि नई तकनिक और उन्नत पद्धति द्वारा उत्पादन लिया जा रहा है, फसलों के पैदावार में कोई क्रातिकारी बदलाव नहीं आया। कारण किसानों द्वारा कम फसल लगाना या सिंचाई, खाद की समस्या नहीं बल्कि खेती का रकबा कम होना है। फसल उत्पादन के लिए सिर्फ जमीन की नहीं उपजाऊ माटी की जरूरत होती है।

सरकार और कुछ निजी उपक्रमों द्वारा अब उपजाऊ भूमि को भी अधिग्रहित किया जा रहा है, एक तरफ सरकार अपनी बरसों पुरानी भूमि अधिग्रहण कानून का हवाला देकर किसानों का जमीन हथिया रहा है वही दूसरी तरफ औद्योगिक इकाईयां रूपियों के दम पर कृषि भूमि में फैक्ट्रीयां बो रही है। भूमि अधिग्रहण कानून,1894 के अनुसार 'सार्वजनिक उद्देश्य के तहत किसी भी जमीन को बगैर बाजार मूल्य के मुआवजा चुकाए सरकार को अधिग्रहण करने का अधिकार है। सरकार यदि सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि अधिग्रहण करता है तो उनके उचित मुआवजा निर्धारण पर दिमाक खपाने के बजाय अधिग्रहित की जाने वाली उस भूमि की उपयोगिता के बारे में भी गहराई से विचार करना चाहिए। क्या किसान सिर्फ अपने लिए अनाजों का उत्पादन कर रहा ? किसानों की सच्चाई बयाँ किया जाए तो अनाज बोने वाले किसान ही किसी दिन आधा पेट तो किसी दिन भूखे ही गुजारा करते हंै। फिर भी चीन, इंगलैड, जापान और अमेरीका जैसे विकसित देशों के अलावा खाड़ी देशों में अनाज निर्यात होना एक सौभाग्य की बात है, पर अपने ही देश के में गरीबी और भूखमरी हमारा दुर्भाग्य है। अब अगर भूमि अधिग्रहण कानून के नजरिये से देखा जाए तो क्या खेती करना भी सार्वजनिक उद्देश्य नहीं है, क्या किसान जन हीत के लिए कार्य नही करते? इस सवाल पर गंभीर विशलेषण होना चाहिए। संकुचित सोच के दायरे से बाहर निकलकर भूमि की मुख्य उपयोगिता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। मिट्टी में पसीना सिंच कर बालू में भी अंकूर लाने का दम रखने वाले किसानों के जमीन पर आखिर कब तक कांक्रीट के जंगल उगते रहेंगे।

पिलपिले कानून के कारण ही देश के किसानों को हल और बैल छोड़कर इन्कलाबी होना पड़ा। जमीन बचाने के लिए शासन और औद्योगिक समूहो से दो चार होना पड़ा। सिंगुर का हिंसक आंदोलन जिसमें टाटा को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। नंदीग्राम में सलेम समूह द्वारा केमिकल परियोजना लगाए जाने के विरोध में किसानों द्वारा आंदोलन, हरियाणा के फतेहाबाद गोरखपुर कुम्हारिया गांव के किसानों ने हजार एकड़ से अधिक जगह में बन रहे परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध किया, दादरी में रिलायंस के पावर प्लांट के खिलाफ किसानों का आंदोलन। इसी तरह देश में कई जगह किसानों ने अपनी अधिग्रहीत की गई जमीन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। भूमि के अधिग्रहण के खिलाफ देश के बड़े भूभाग पर किसानों के बीच असंतोष बढ़ता जा रहा है।
भूमि अधिग्रहण को लेकर प्रदेश में भी अनेक आंदोलन हुए हंै, किसान खेती का काम छोड़ खेत बचाव आंदोलन में कूदने को मजबूर हो रहे हैं। आज भी उनके खेती योग्य उपजाऊ भूमि में बहुमंजिला इमारत और उद्योग उपज रहे हैं। जहां धान, गेंहू, मक्के और सरसो लहलहाते थे वहां अब कालोनी और बड़े-बड़े कारखाने बनने लगे हैं। सरकार की भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को एक बार मान भी ले की सरकार को जन हीत में उस भूमि की जरूरत पड़ी पर निजी औद्योगिक इकाई कृषि भूमि पर ही क्यो अपनी नजरे गड़ाये हुये हैं। उद्योग और रिहायसी कालोनाइजर भी लहलहाते खेत पर ही अपना आशियाना बना रहे हंै। जबकि देश में कृषि भूमि से जादा बंजर भूभाटक है जहां फसल नहीं उगाई जा सकती ऐसे जगहों का चयन उद्योग लगाने के किया जाना चाहिए। कृषि भूमि पर उद्योग लगाना एक सोची समझी साजिस भी हो सकती है, कि कृषि भूमि खत्म होने के बाद खेतों में काम करने वाले मजदूर बेकार हो जायेगे और पेट की आग बुझाने के लिए उनके ही उद्योग और कारखानों में मजूदरी करेंगे। शायद कृषि भूमि पर उद्योग न लगाते तो उन्हे मजदूर नहीं मिलते। इस तरह उद्योगों को जमीन भी मिला और मजदूर भी। 
कृषि योग्य भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग करने के दुष्परिणाम खाद्य संकट और भी गहरा सकता है। जिस तरह से खेती के रकबे में कमी आयी उससे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक दिन भारत को भी अनाज बाहर के देशों से आयात करने की स्थिति निर्मित हो सकती है। सरकार भले ही अपने उत्पादन दरों के आंकड़ों में लगातार वृद्धि दर्ज कर रही है, यह सोचने का विषय है कि खेती कम होने के बावजूद उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि कैसे हो सकती है। चलो मान भी लें कि आपके उन्नत तकनिक में दम है कि आप उस कमी की भरपाई कर सकते है पर क्या उस कृषि भूमि की भरपाई हो सकती है। 
जी तोड़ मेहनत के कर किसान जमीन को खेत बनाता है खेत की मिट्टी को उपजाऊ बनाता और उसी के भरोसे पीढ़ी दर पीढ़ी खेती करके अपना परिवार चलाता है। यहां लगभग 85 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो इसी तरह खेती से ही अपना जीवन यापन करते हैं, कृषि ही उनका आर्थिक रीढ़ है। और यही हमारे देश की अर्थव्यस्था का आधार स्तंभ है। अब यह स्तंभ डोलने लगा है, प्रतिशत का आंकड़ा भी घटकर 65 हो चुका है। बाहर देशों के पूंजी निवेशक यहां आकर जमीन में पूंजी लगाकर हमारी अर्थव्यस्था की जड़े उखाडऩे लगे हैं। जमीनों में पंूजी निवेश करने वाले निवेशक भूमि तो बड़े चाव से खरीद लेते हंै पर ये उनमें खेती करने बजाय कृषि भूमि को आवसीय में परिवर्तित करा के लहलहाती अन्नदात्री के आंचल में कंाक्रीटों के दीवार उगा देते हैं। 
देश के अनेक राज्यों में कुछ ही सालों के अंतराल में भूमि हल्ला बोल के अनेक प्रक्ररण सामने आये हैं जिनमें उत्तर प्रदेश के आगरा, अलीगढ़, चंदौली, गौतमबुद्ध नगर में 1,76,336 एकड़ जमीन। छत्तीसगढ़ के बस्तर, रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा में 42,763 एकड़। महाराष्ट्र के नागपुर, रायगढ़, रत्नागिरी, पुणे में 45,600 एकड़। उड़ीसा के जगतसिंहपुर, जाजपुर, कालाहांडी, गंजाम में 41,800 एकड़। गुजरात के भावनगर, कच्छ में 6,529 एकड़। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, किन्नौर, श्रीमौर, चंबा में 2,817। बिहार के औरंगाबाद, मुजफ्फरपुर में 1,744। आंध्र प्रदेश के ईस्ट गोदावरी, महबूबनगर, श्रीकाकुलम, नेल्लोर, विशाखापत्तनम में 21,739 एकड़। हरियाणा के फतेहाबाद में 1,500। पंजाब के मोहाली में 770। तमिलनाडु के मदुरई, तिरुवल्लुर, तूतीकोरिन में 5,000। चंडीगढ़ में 167। मेघालय में 111एकड़। केरल के कोच्चि में 100। कर्नाटक में 1800 एकड़। देश भर में लगभग इतने आंकड़ों में कृषि भूमि को गैर कृषि कार्यों में बदल दिया गया।
भविष्य में कहीं अब राष्ट्रिय धरोहर के रूप में संग्रहित करने की बारी उपजाऊ माटी की तो नहीं? क्योकि जिनकी भी संख्या घटि है शासन ने उसे बचाने के लिए राष्ट्रिय धरोहर घोषित कर विशेष संरक्षण दिया है। अब तक तो जिनका प्राकृतिक क्षरण हुआ या स्वमेव विलुप्ति के कगार में हो उसे ही बचाने हेतु धरोहर के रूप में सहेजा गया है। यदि उपजाऊ माटी की बारी आती है तो यह पहला प्रक्ररण होगा जिसका पहले दोहन किया गया फिर बचाने के लिए धरोहर घोषित किया जायेगा।

जयंत साहू
रायपुर

जयंत साहू जी छत्तीसगढी भाषा के युवा पीढी के स्थापित साहित्यकार हैं, कविता, कहानी एवं व्यंग्य के साथ ही वे समसामयिक विषयों पर भी निरंतर लिखते रहते हैं. जयंत जी का ब्लॉग है चारी चुगली.

लोक कथागायन और परिवर्तन का दौर : रमाकांत श्रीवास्तव

यादवों की कथा गायन की विशेष शैली है बांस गीत। गायक, रागी और बांसिन का दल यादव वीरों की कथा का गायन करता है। सामान्यत: ये कथाएं विवरण प्रधान होती हैं कथा गायन कई घंटों का समय लेता है। कलाकारों को कथा की जानकारी पुश्त दर पुश्त परंपरा से होती है। इस कला का सीधा संबंध चरवाहा संस्कृति से है। एक समय था कि हर गांव कस्बे में बांस गीत के कलाकार मिल जाते थे किन्तु अब इस कला का ह्रास हो रहा है।वरिष्ठ लोकगायक स्व चिंतादास बंजारे से मैंने पूछा था कि लोककथा गायन के प्रति लोगों की रुचि अब कितनी रह गई है तो उनका बेबाक उत्तर था 'अब समय बदल गया है सर। पहले छट्ठी में, मुंडन में, शादी में लोग बुलाते थे और सुनते थे। भरथरी, चंदैनी कई-कई रात लोग बैठकर सुनते थे। नाचा पार्टी कहीं जाती थी तो सारा गांव रात भर मजा लेता था। अब तो सिनेमा और टीवी देखते हैं। पहले जैसी बात नहीं रही गुरूजी।' पंडवानी गायिका ऊषा बारले से जब मैं भिलाई में उनके निवास स्थान पर मिला तब वे न्यूयार्क से कार्यक्रम देकर लौटी थीं। मैंने उनसे पंडवानी गायन के वर्तमान दौर विषय में जानना चाहा तो इस संबंध में बतलाते हुए उन्होंने स्थिति पर अपने स्पष्ट विचार व्यक्त करते हुए कहा 'आजकल तो बिजनेस हो गया है। घर बैठे टीवी सीडी में देखकर सब पंडवानी गाना सीख गये। अनगिनत कलाकार हो गये। कुछ अपने मन से बना लिया और कुछ बाजे वालों ने सुधार दिया। कार्यक्रम दो बजे है और कलाकार बारह बजे ही पहुंच जाते हैं।' युवा पीढ़ी की प्रसिध्द पंडवानी गायिका ऋतु वर्मा से उनके दर्शकवृंद के संबंध में प्रश्न करने पर उन्होंने कहा 'गांव में तो भक्ति वाले शांत रस के प्रसंग में ही मन लगाकर सुनते हैं। पर बड़े मंचों पर वीर रस के प्रसंग जैसे कीचक वध, द्रौपदी चीरहरण को ज्यादा सुनना चाहते है। गांव और शहर के दर्शकों में यह अंतर है कि गांव के दर्शक बहुत मग्न होकर गायन सुनते है तो सुनाने में भी मजा आता है। नये-नये शब्द बन जाते हैं। एक घंटा का कार्यक्रम दो-तीन घंटा भी चल जाता है।' दिलचस्प बात यह है कि ऋतु वर्मा को लगता है कि विदेशों में सबसे अच्छे दर्शक उन्हें जापान में मिले। इन लोक कलाकारों के मन्तव्यों को सामने रखकर हम लोक संस्कृति के वर्तमान परिदृश्य का आकलन करने का प्रयास कर रहे हैं। डॉ. श्यामाचरण दुबे ने अपने लेख 'संक्रमण की पीड़ा' में तेजी से बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश को गिरिजाकुमार माथुर की पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयास किया है। काव्य पंक्तियां निम्लिखित हैं-
जो कुछ पुराना है मोहक तो लगता है।
टूटन का दर्द मगर सहना ही पड़ता है॥

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी के तीव्र विकास ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि भारत जैसे सांस्कृतिक चेतना से आबध्द देश के सामने कुछ उलझनें उत्पन्न हो गयी थीं। अपनी विशिष्ट सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ाव के चलते तीव्र गति से परिवर्तित समय के साथ चलना उसके लिये कठिन हो गया। बीसवीं सदी के दौर में उत्पन्न यह उलझन शताब्दी के बीतते-बीतते एक विकट समस्या बन कर उभरी। भूमंडलीकरण, बाजारवाद और तथाकथित संचार क्रांति ने भारत के बाह्य स्वरुप को ही नहीं उसकी आंतरिक चेतना को भी झकझोर कर रख दिया। वैश्वीकरण के प्रच्छन्न उद्देश्यों ने एक ऐसी उपभोक्तवादी जीवन पध्दति का निर्माण किया जिसमें कलाओं की पवित्र प्रतिज्ञाओं के लिये स्पेस तेजी से कम होने लगा। भारत की शास्त्रीय और लोक कलाओं के मूल उद्देश्यों का स्थिर रहना संभव नहीं रह गया।

नागर और ग्राम्य जीवन के साथ अनुष्ठानों, संस्कारों, लोकाचारों के साथ गुम्फित कलारुपों का जिस तेजी से व्यापारीकरण इस दौर में हुआ वैसा किसी काल में नहीं हुआ था। यदि हम सुभाष घई द्वारा निर्मित फिल्म 'ताल' के सह नायक (जो फिल्म की कहानी में संगीत निर्देशक हैं) का संवाद याद करें तो अनुभव करेंगे कि वह बीसवीं सदी के नौंवे दशक और उसके बाद की स्थिति के लिये भी बेहद मौजूं है। ताल फिल्म के एक दृश्य में लोक गायक ताराबाबू मुंबई के फिल्म निर्देशक विक्रांत कपूर से मिलते हैं तो यह देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं कि उनके गाये हुए गीत को ही सजा संवार कर विक्रांत ने अपना कैसेट तैयार किया है। विक्रांत बिना किसी संकोच के ताराबाबू से कहता है 'आप लोग छोटी-छोटी जगहों पर जो धुनें बनाते हैं उसमें हम चार वाद्यों की आवाजें भरकर रीमिक्स करते है। रीमिक्स का मतलब है-दूसरे का माल है उसे अपना बना लो।'

बदलते संदर्भ उजड़ते लोग:-
पूरन चंद जोशी के एक लेख के शीर्षक को मैंने जस का तस यहां ले लिया है क्योंकि शीर्षक स्वयं इतना मानीखेज है कि वह स्वयं ही बहुत कुछ कहता, और सम्प्रेषित करता है। तीव्र गति से उजड़ते सामुदायिक जीवन और उसकी सांस्कृतिक विरासत को पी.सी. जोशी ने मैथ्यू आरनॉल्ड की इन पंक्तियों के माध्यम से विश्लेषित करने की कोशिश की है-

टॉर्न बिटविन टू वर्ल्ड्स वन डेड
एण्ड द अदर पावरलेस टू बी बॉर्न
विद नो वेअर यट टु ले वन्स हेड।
(फंसे है दो दुनियाओं के बीच एक दुनिया मृत और दूसरी जन्म लेने में अक्षम नहीं कोई कोई ठौर, टिकाएं सिर जहां।) 

उन्होंने अपने लेख में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं- 1. क्या लोक समुदाय अपने पारंपरिक रुप में जीवित रह सकते हैं? 2. क्या उन्हें नई परिस्थितियों में ढाला जा सकता है? 3. आज के बदलते संदर्भ में उनका क्या भविष्य है? 4. उसके सुरक्षित ही नहीं जीवंत बने रहने के क्या विकल्प हैं? छत्तीसगढ़ की कथागायन परंपरा को केंद्र में रखकर हम इन प्रासंगिक प्रश्नों पर समग्रता से विचार करें। तीव्र गति से परिवर्तित होती सामाजिक परिस्थितियों के कारण लोक समुदायों के स्वरुप का बदलना स्वाभाविक है। शहरीकरण ने गांव को अपनी जद में ले लिया है, गांव के रहन-सहन में परिवर्तन हुआ है तथा रीति-रिवाजों का शनै: शनै: विलोपीकरण हुआ। संस्कारों, पर्वों और अनुष्ठानों से जुड़े नृत्य-गीत पहले जीवन में गंभीर अर्थ रखते थे किन्तु अब वे नेपथ्य में हैं। उनके स्थान को सिनेमा के गानों ने ले लिया है। शादी, ब्याह के अवसर पर ग्रामीण अंचलों में भी पारंपरिक गीतों के स्थान पर डीजे का प्रचलन आम बात हो गई है। ग्राम्य जीवन के संघर्षों, कष्टों और रोजी के लिये पलायन ने भी लोक संस्कृति की सिसृक्षा, रसिकता और सहजता को क्षीण किया है। यह ऐसी मानव त्रासदी है जिसका सीधा संबंध समाज की आर्थिक परिस्थितियों से है। इस त्रासदी की अभिव्यक्ति एक लोकगीत में इस रुप में की है-

भुखिया के मारे बिरहा बिसरिगा भूल गई कजरी कबीर। देखि के गोरी के उठल जोबनवा अब उठै न करेजवा में पीर॥ डंडा नाच, राऊत नाच, करमा, ददरिया अब जीवन के सहज अंग न होकर सरकारी-गैर सरकारी लोकोत्सवों के आइटम के रुप में स्थानांतरित हो गये हैं। राउत नाच जैसे जातीय लोक कलारुप अब मंचों के श्रृंगार हैं। यह स्वाभाविक भी है। यादव जाति का व्यवसाय अब केवल गौ पालन नहीं रह गया है। जातिगत व्यवसायों वाला समाज अब अपना रुप बदल चुका है। पढ़े-लिखे तथा नौकरीपेशा यादव नवयुवकों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे खुमरी पहन कर सजी-धजी पारंपरिक वेशभूषा में घरों के दरवाजों पर नाचेंगे। कस्बों और गांवों में अभी भी राउत नाच होता अवश्य है किन्तु इसमें केवल वे गोपालक शामिल होते हैं जो अभी भी गौ पालन और गौचारण के कार्य से जुड़े हुए हैं। जाहिर है कि राउत नाच अब नागर मंच में महोत्सव का रुप ले चुका है जिसमें सजी-धजी नृत्य मंडलियां प्रतियोगिता में शामिल होती है। छत्तीसगढ़ के कई शहरों में राउत नाच महोत्सव होते हैं। अब यह जातीय अस्मिता का नया रुप है जिसके तार सूक्ष्म रुप से राजनीति से जुड़े हुए हैं।


यादवों की कथा गायन की विशेष शैली है बांस गीत। गायक, रागी और बांसिन का दल यादव वीरों की कथा का गायन करता है। सामान्यत: ये कथाएं विवरण प्रधान होती हैं कथा गायन कई घंटों का समय लेता है। कलाकारों को कथा की जानकारी पुश्त दर पुश्त परंपरा से होती है। इस कला का सीधा संबंध चरवाहा संस्कृति से है। एक समय था कि हर गांव कस्बे में बांस गीत के कलाकार मिल जाते थे किन्तु अब इस कला का ह्रास हो रहा है। कथा गायन की कला देवार जाति की अपनी विशेषता रही है। छत्तीसगढ़ में देवारों के अस्थाई डेरे जहां भी लगते थे वहां नृत्य गान की अपनी कला का प्रदर्शन वे करते थे। यह कला उनके जीवनयापन का आधार भी थी। परंपरा से प्राप्त कई गाथाओं का गायन वे करते थे। उनके वादन की और सुर लगाने की अपनी शैली थी। 'थी' शब्द का प्रयोग इसलिये किया जा रहा है क्योंकि बदली हुई सामाजिक स्थिति में अब लोक कथा गायन में प्रवीण देवार जाति की युवा पीढ़ी में कलाकार नहीं बचे हैं। अब उनके वाद्य सारंगी और ढुंगरु के स्वर थम चुके हैं और उनकी स्त्रियों ने पारंपरिक गायन, नर्तन छोड़ दिया है। वर्तमान समय में वे स्थाई आवास बनाकर रहने की प्रक्रिया में है तथा आमतौर पर कबाड़ एकत्र कर बेचने के व्यवसाय में वे लग रहे हैं। शीघ्र ही उनकी अगली पीढ़ी शिक्षा प्राप्त कर एक नयी जीवन शैली को अपनाने की राह पर है। ध्यातव्य है कि 'दसमत कैना' का गायन केवल देवार जाति करती थी किन्तु अब पूर्ण रुप से इस कथा का गायन करने वाले देवार कलाकार इक्के दुक्के ही बचे हैं। मंच पर इसे प्रस्तुत करने वाली संभवत: अकेली कलाकार रेखा देवार हैं। इन गाथाओं का डाक्यूमेन्टेशन हो रहा है, वही अवशेष के रुप में हमारे पास शेष रह जायेगा। कुछ विद्वान और संस्कृतिविद् इस प्रक्रिया के पक्ष में नहीं है। उनका तर्क है कि लोक संस्कृति एक बहता प्रवाह है अत: उसे जीवन के सहज अंग के रुप में समाज में जीवित कला के रुप में रहने देना चाहिए। बेशक, यह विचार एक आदर्श है किन्तु तीव्र गति से बदलती हुई जीवन स्थितियों में यह कला जीवित ही नहीं रह पायेगी तब क्या होगा? क्या यह हमारी कला संपदा का पूर्ण विलोपीकरण नहीं होगा? रामहृदय तिवारी जैसे रंगकर्मी और सिनेनिर्देशक तो यह मानते हैं कि इन्हें लुप्त होने से रोका ही नहीं जा सकता।5 हम लोक गाथाओं का ही उदाहरण लें। चनैनी का गायन छत्तीसगढ़ में उतना ही लोकप्रिय था जितना भोजपुर क्षेत्र में लोरिकी का गायन था। छत्तीसगढ़ में चनैनी केवल यादव समुदाय की कला नहीं थी, उसका गायन अन्य जातियों के कलाकारों भी करते थे। किन्तु आज समग्र चनैनी का गायन करने वाले कलाकारों का नितांत अभाव है। चनैनी की धुन अवश्य बरकरार है और उसके प्रसंगों का गायन भी होता है। किन्तु विशेषज्ञता के साथ इस लोककाव्य का सम्पूर्ण गायन अब नहीं होता। दृश्यता का दबाव- सामाजिक जीवन प्रध्दति के परिवर्तन ने ग्रामीण समाज के ऋतुचक्र से जुड़े पर्व तथा कलारुपों को प्रभावित किया है। बदली हुई जीवन शैली ने लोगों की मानसिकता और रुचि में भी परिवर्तन किया है। दृश्य माध्यम ने दर्शकों की रुचि का परिष्कार करने के स्थान पर उसे विकृत ही किया। अब स्थिति यह है कि हर कलारुप में दृश्यता की अनपेक्षित घुसपैठ प्रारंभ हो चुकी है। यही कारण है कि कथा गायन के कुछ ऐसे कलारुप ही लोकप्रिय हो रहे हैं जिनमें अभिनय की गुंजाइश है। पंडवानी इसका ज्वलंत प्रमाण है। चनैनी गायन ने धीरे-धीरे नाटक का रुप ले लिया है। मंच पर अधिक पात्रों का समावेश दृश्यता की मांग और उसका दबाव है। बिलासा केंवटिन जैसे करुण कथागीत में थोड़ी बहुत कामेडी जोड़ने का कारण भी दृश्यता की मांग हो सकती है।

कुछ कथागीत लोक कलाकारों द्वारा निर्मित भी हुए हैं। माधवानल कामकंदला तथा सुतनुका देवदीन के कथागीतों की परंपरा पुरानी नहीं है। इन कथाओं पर आधारित नृत्य तथा गीत नाटय की रचनाएं नागर मंच पर स्थान पा रही हैं। उनका प्रभाव भी लोक कथागायन पर पड़ रहा है। फिल्मों की कोरियोग्राफी का प्रभाव भी लोककला मंडलियों की प्रस्तुति में प्रवेश पा रहा है। मंचीय कला की समझ और वेशभूषा का परिवर्तन तो सहज प्रक्रिया है और कला की दृष्टि से इनमें कोई बुराई भी नहीं है क्योंकि परिवर्तन प्रत्येक काल में होते रहे हैं। किन्तु यह देखा जा रहा है कि कथा गायन की कला का ह्रास हो रहा है और अभिनय तत्व तथा मंचीयता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह भी कटु सत्य है कि इस परिवर्तन को रोका जाना संभव नहीं लगता। मंचों की सजावट, प्रकाश उपकरणों का प्रयोग, नवीन वाद्यों का संगत में शामिल होना पारंपरिक शैली को स्वयं ही बदलाव का रास्ता दिखला देता है। लोक कला मंडलियां भी इनके इस्तेमाल के लिये लालायित हैं तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। मशाल या गैस बत्ती के प्रकाश में चौपाल के कामचलाऊ मंचों पर होने वाले प्रदर्शनों का युग समाप्त हो चुका है।

लोक महोत्सवों की भगदड़-लोक जीवन के सहज अंग के रुप में कथागायन एक पुरानी परंपरा रही है। प्राचीन काल में 'गाथा,' 'नाराशंसी' और 'रैभी' का प्रचलन ऐतिहासिक सत्य है। बीसवीं सदी के छठवें-सातवें दशक तक छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में छट्ठी, मुंडन, विवाह आदि संस्कारों में तथा भागवत कथा जैसे अनुष्ठानों के समय कथागायन होता था। पूनाराम निषाद, तीजन बाई, उषा बारले, ऋतु वर्मा जैसे कलाकारों के प्रदर्शनों का प्रारंभ इसी तरह हुआ था। गणेशोत्सव, दुर्गापूजा आदि पर्वों पर ये कलाकार ससम्मान बुलाये जाते थे। इन पर्वों पर अब भी लोक कलाकारों के कार्यक्रम होते हैं किन्तु वर्तमान समय में फिल्मी गीतों और डिस्कों ने इन मंचों को अतिक्रांत कर रखा है। गांवों में भी अब यह दृश्य आम है कि विवाहोपरान्त आशीर्वाद समारोह में डीजे की धुन पर अधकचरा डिस्को हो रहा है। दुर्भाग्य से इसे आधुनिकता मान लिया गया है। समृध्द लोक कलाओं के प्रति उदासीनता का यह एक दुखद उदाहरण है। इधर शासन ने लोक कलाओं के संरक्षण और संवर्ध्दन के लिये अपनी प्रतिबध्दता प्रदर्शित की है। शासन के अतिरिक्त निजी संगठनों के द्वारा भी ये प्रयास जारी हैं। सरकारी महोत्सवों ने कई कलाकारों को विश्व प्रसिध्द होने में मदद की है। छत्तीसगढ़ के कई लोक कथागायक विदेशों में अपने कार्यक्रम सफलतापूर्वक प्रस्तुत कर यश प्राप्त कर सके हैं। इन कलाकारों के बायोडाटा में विदेश प्रवासों का उल्लेख गौरव के साथ किया जाता है। जहां तक शासन के द्वारा किये जाने वाले उत्सवों का प्रश्न है ये बहुत जल्दी निहित स्वार्थों भरी भगदड़ में तब्दील हो गये हैं। अब तो नगर महोत्सवों की बाढ आ गयी है। विभिन्न प्रांतों के वार्षिक महोत्सव भी सम्पन्न होते हैं जहां कलाकारों के अंर्तप्रांतीय समागम होते हैं। इससे लोककलाप्रेमी दर्शकों को यह लाभ अवश्य मिलता है कि वे देश के विभिन्न अंचलों के कलाकारों को देख पाते हैं। किन्तु किसी तरह के मानकों का निर्धारण न कर पाने के कारण ऐसे महोत्सव में तेजी से मिलावटी प्रस्तुतियां दिखलाई देने लगी हैं। छत्तीसगढ़ में लोक कला महोत्सवों की धूम है जिनमें बहुधा नेताओं की भागीदारी होती है। इन उत्सवों ने कथा गायन का सबसे अधिक नुकसान किया है। इनमें से कई महोत्सव आयोजकों की यशलिप्सा, खानापूरी और तुष्टिकरण की रणनीति पर टिके होते हैं। अत: अच्छी, सामान्य और ढेर सी अधकचरी कला मंडलियों को इनमें शामिल कर लिया जाता है। पंडवानी, चंदैनी या भरथरी जैसी गाथा गाने वाले कलाकार को जब बीस मिनट की समय सीमा में बांध दिया जाता है तो वह सोच में पड़ जाता है कि किस प्रसंग को वह कितना संक्षेपीकृत रुप में प्रस्तुत करे। कभी-कभी तो वह सोच भी नहीं पाता कि संयोजक का निर्देश मिलता है कि आपको बारह मिनट ही दिये जा सकते हैं। आयोजक द्वारा किसी वीआईपी को मंच पर बुलाकर उसके आशीर्वचन प्राप्त करने के चक्कर में लोक कथागायक यदि मंगलाचरण और भरतवाक्य ही सुना पाये तो गनीमत है। इन परिस्थियिों के चलते अब ऐसे कलाकार भी मिल सकते हैं जो गिने चुने प्रसंगों की पंद्रह मिनट की चमकदार प्रस्तुति में तो माहिर हैं किन्तु उन्हें कथा का पूर्ण ज्ञान नहीं है। बावजूद इसके वे आयोजकों के कृपा पात्र बनकर मंचप्रवीण कलाकार बन सकते है। चिंतादास बंजारे, लतमार दास जैसे निष्णात लोक कथागायक दूर दराज के स्थानों पर रहने के कारण तथा परिचय का दायरा न बढ़ा पाने के कारण वह स्थान नहीं पा सके जो उन्हें मिलना चाहिए था। पूनाराम निषाद जैसे विनम्र और सरल कलाकार को ख्याति इसलिये मिल सकी कि हबीब तनवीर ने सत्तर के दशक में उन्हें मंच पर प्रस्तुत किया था। आज की परिस्थिति में लोक कलाकारों की यह नियति है।

जनता की सांस्कृतिक परंपरा का श्रेष्ठ उभारने के लिये राज्योत्सवों और लोक महोत्सवों की कल्पना नि:संदेह सराहनीय है किन्तु ये उत्सव राजनैतिक दलों की वाचालता और मट्ठरपन की विलासभूमि बनते जा रहे हैं। जनजीवन के सौंदर्य के आयामों को विकसित करने के स्थान पर यह भीड़ जुटाकर वाहवाही लूटने के साधन बन गये हैं। होना यह चाहिए था कि ये उत्सव गैर राजनैतिक उपक्रम बनते जहां सरकार और प्रशासन द्वारा स्वायत्त अकादमियों को काम करने की स्वतंत्रता प्रदान की जाती। शासकों की उपस्थिति वहां विनम्र दर्शकों और श्रोताओं के रुप में ही होना उचित होती, इसके बरक्स ये आयोजन प्रथम पंक्ति में सपरिवार बैठने की लालसा के मारे अधिकारियों की अहम तुष्टि के साधन और पिकनिक भाव का मनोरंजन स्थल बनते जा रहे हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन ने लोक कथागायकों को अपने कार्यक्रमों में अवसर दिया है जिससे कुछ स्तरीय ध्वन्यांकन हो सका है। किन्तु इन कार्यक्रमों में भी समय की सीमा निर्धारित होने के कारण प्रस्तुतियां अधूरी रह जाती हैं। इन संस्थानों के संग्रहों में कलाकारों के परिचय और साक्षात्कार तो हैं किन्तु सम्पूर्ण गाथाओं का दृश्यांकन और ध्वन्यांकन है या नहीं इसकी जानकारी मुझे नहीं है। लोक कथा गायिकी का व्यावसायीकरण- बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में भूमण्डलीकरण की अंधी आंधी ने नैतिक और व्यावसायिक मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। उपभोक्तावाद रणनीति नहीं बल्कि जीवन मूल्य के रुप में स्थापित हुआ। हमारी सांस्कृतिक चेतना और जीवन दर्शन को इस व्यवसायीकरण ने गहराई से प्रभावित किया। नागर क्षेत्र हो, ग्राम्य अंचल हो या वनांचल, भारतीय जीवन शैली में सांस्कृतिक चेतना और कलाबोध सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के साथ एकाकार थे। जीवन के प्रत्येक मुकाम पर हमारे क्रियाकलापों में पारंपरिक गीत, नृत्य, चित्रांकन, कथाकथन और कथागायन का अनिवार्य जुड़ाव था। यह जीवन पध्दति एक जातीय सौंदर्यबोध की रचना भी करती थी किन्तु बाजारीकरण ने उसे या तो लुप्त कर दिया या उसे दिखावे में तब्दील कर दिया। विभिन्न अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये जो आंतरिक स्फुरण और पारंपरिक कलाबोध पीढ़ी दर पीढ़ी सम्हाल कर रखा गया था वह परिवार की दहलीज को लांघकर बाजार की वस्तु में तब्दील हो गया। ऊपरी तौर पर देखने से यह एक बड़ी सुविधा की तरह लगता है किन्तु वास्तव में यह हमारे कलारुपों का जीवन से निकलकर बाजार में स्थापित हो जाने की प्रक्रिया है। भूमण्डलीकरण और उदारवाद वस्तुत: नव उपनिवेशवाद के घटक है। पूरा संसार वैश्विक पूंजी के इशारे पर नाच रहा है। भारत की सद्य आर्थिक नीतियां उसकी अनुगामिनी है। छत्तीसगढ़ भी इस भ्रमित विकास का शिकार है। विकास की यह अधोसंरचना जन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करती है। छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक बदलाव को रेखांकित करते हुए डॉ. जयप्रकाश ने लिखा है उपनिवेशीकरण सिर्फ आर्थिक घटना नहीं है वह मानसिक स्तर पर भी घटित हो रहा है। उसका प्रभाव समाज की सांस्कृतिक जड़ों पर भी दिखाई देता है। कहने की जरुरत नहीं कि नव उपनिवेशिक प्रभाव अनेक स्तरों पर संस्कृति के भिन्न-भिन्न रुपों और निर्मितियों में दिखलाई देता है।' लोक संस्कृति को लोकप्रिय संस्कृति बनाने की मंशा बाजारीकरण का एक हिस्सा है। छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के क्षेत्र में दीर्घ काल से सक्रिय संस्कृतिकर्मी यह अनुभव करने लगे हैं कि बाजारवादी संस्कृति का दुष्प्रभाव ग्रामीण इलाकों तक फैल गया है। डॉ. कालीचरण यादव लिखते हैं बदलते हुए सांस्कृतिक परिदृश्य में बाजार के तर्क और उसके मनोविज्ञान को समझे बिना लोक संस्कृति ने मनुष्य और ज्ञान के संबंधों को कमजोर बना दिया है। वह बाजार की आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से परोसी और संचालित की जाती है। लोकप्रिय संस्कृति की अंतर्वस्तु, मनुष्य को अपने समय और समाज के प्रति उदासीन बनाने वाली और उसे एक जागरुक नागरिक की बजाय उपभोक्ता के रुप में विघटित करने वाली होती है। लोकप्रिय संस्कृति मानवीय सरोकारों से इतर मानव विरोधी भूमिका का निर्वाह करती है।7 नाचा पार्टियां और सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली मंडलियां पहले भी थीं और उन्हें खर्च, विदाई या शुल्क देने की परंपरा भी थी किन्तु उनमें व्यावसायिक नजरिया उतना नहीं था। लोक कलाकारों की सृजन इच्छा और उत्सवों में उनकी भागीदारी की भावना प्रमुख होती थी। किन्तु बदलते परिवेश में यह स्वाभाविक है कि लोककलाकारों में भी स्टार कलाकार होने लगे हैं जो खासे व्यस्त रहते हैं। चुस्त और व्यावहारिक कलाकार सम्पर्क बनाने में पटु हो गये हैं। उनके पास आयोजनों के संबंध में पर्याप्त सूचनाएं भी रहती हैं और मंच पर जमने की उन में सामर्थ्य भी रहती है। इसका विलोम परिदृश्य यह है कि दूरदराज के इलाकों के अच्छे कलाकार उपेक्षित हैं। उनके पास पारंपरिक कला की विरासत है फिर भी उन्हें मंच नहीं मिल पाता। बाजार में ढेर से कैसेट और सीडी आ गये हैं। निष्णात, सामान्य और अधकचरे कलाकारों के कथा गायन की सीडी इस समय उपलब्ध है। पंडवानी और भरथरी का चलन अधिक है क्योंकि कथाओं के कुछ गायकों को अंतर्राष्ट्रीय प्रसिध्दि मिली है। कुछ ऐसे व्यवसायी हैं जिनका दावा है कि उन्होंने लोक कलाओं का भला किया है और उसकी दृश्यात्मकता में इजाफा किया है। ऐसे एक व्यवसायी ने विश्व प्रसिध्द पंडवानी गायिका तीजन बाई के डीवीडी कुछ इस प्रकार तैयार की है कि तीजनबाई तंबूरा लेकर गा रही हैं और पृष्ठभूमि में बीआर चोपड़ा के महाभारत सीरियल का दृश्य चल रहा है। नतीजा साफ है कि तीजन बाई का गायन गौण हो गया है। सांस्कृतिक संतरण और भद्रलोकीकीरण-परिवर्तित सामाजिक परिदृश्य ने कथागायकों की मानसिकता पर भी प्रभाव डाला है।

एक विचित्र स्थिति यह निर्मित हुई है कि लोक कलाकारों का दर्शक वर्ग बदल गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में उत्सवों और अनुष्ठानों के अवसर पर आर्केस्ट्रा पार्टी और फिल्म देखने का चलन बढ़ गया है और नागर मंच पर लोक संगीत को महत्व मिल रहा है। महत्व मिलने के कारणों में लोक संस्कृति का व्यवसायीकरण, राजनीति में आंचलिक अस्मिता का दिखावा भरा उफान और आयोजकों के अपने निहित स्वार्थ भी शामिल हैं। ऐसा नहीं कि वर्तमान में नागर समाज ने लोक संस्कृति के महत्व को एकदम नहीं समझा है। बेशक, समाज के पढ़े लिखे वर्ग, बुध्दिजीवी और कलाकारों ने लोक संस्कृति के माध्यम से एक ताजगी का अनुभव किया है और उसकी शक्ति को भी पहचाना है। विगत दशकों में प्रत्येक कला विधा ने-विशेष रुप से रंगकर्म और चित्रकला ने लोककला शैली, उसके बिम्बों और प्रतीकों को अपनी सर्जना में शामिल कर अपने को सम्पन्न बनाया है। कला संस्थाओं और अकादमियों के आयोजनों ने नागर और ग्राम्य धारा के कलाकारों को एक दूसरे के निकट आने के अवसर भी प्रदान किये है। यह पूरा परिदृश्य अपने आप में एक गंभीर विरोधाभास की तरह दिखलाई देता है। आमतौर पर छत्तीसगढ़ी कथागायन में गाने के साथ उसकी व्याख्या और कथा के विस्तार के बंधों का प्रयोग होता है। स्वाभाविक रुप से गद्य में यह कथा कहन छत्तीसगढ़ी में होता है। इन दिनों लोक कथागायक नागर श्रोताओं की उपस्थिति में छत्तीसगढ़ी को हिन्दी से तरल बनाकर प्रस्तुत करने लगे हैं। गायन का अंश छत्तीसगढ़ी में होता है किन्तु कथा कहन में तेजी से भाषायी परिवर्तन हो रहा है। इस संदर्भ में तीजन बाई का उदाहरण प्रासंगिक होगा। विस्तृत हिन्दी भाषी क्षेत्र में तीजन बाई की पंडवानी की मांग है। छत्तीसगढ़ के बाहर शहरी क्षेत्र के निवासी भी उनके श्रोता हैं। तीजन बाई का कथा कहन अब सायाम हिन्दी में होने लगा है। संभवत: उनका यह सोचना है कि इससे बड़े श्रोतावर्ग तक उनकी कथा सम्प्रेषित होगी। कलाकार का यह दृष्टिकोण एक स्तर पर सही हो सकता है किन्तु एक अन्य कोण से विवेचना करने पर यह तथ्य उभरकर आता है कि पंडवानी की प्रसिध्दि का महत्वपूर्ण कारक उसकी आंचलिक गंध है। जब पंडवानी के कलाकारों को प्रसिध्दि मिलनी प्रारंभ हुई थी तब ठेठ छत्तीसगढ़ी भी सम्प्रेषण में बाधक नहीं हुई। पंडवानी की कमेण्ट्री का हिन्दीकरण भद्रजन को लुभाने का एक भ्रम मात्र है।


पंडवानी का वर्तमान स्वरुप ही अपने आप में तथाकथित भद्र लोक में शामिल होने की भावना से विकसित हुआ है। पंडवानी के मूल प्राचीन रुप को दंतकथा कहकर उसकेस्थान पर महाभारत की कथा को स्थापित करना यदि एक ओर सृजन का नया आयाम है तो दूसरी ओर यह लोक में प्रचलित पांडवों की कथा को हीन मानने की भावना है। लोकगाथा की तुलना में सबल सिंह चौहान रचित महाभारत की कथा को स्वीकार करने के पीछे प्रख्यात कथानक के प्रति आकर्षण का भाव है। परिणाम यह हुआ कि मूल पंडवानी लुप्त हो चुकी है। रही सही कसर इस प्रचार ने पूरी कर दी कि सबल सिंह के महाभारत के आधार पर प्रस्तुत की जाने वाली पंडवानी वेदमती शैली है और पुरानी पंडवानी कापालिक शैली। इस विभाजन का न तो कोई आधार है और न ही इसके पीछे कोई तर्क है। 'वेदमती' पद 'कापालिक' शब्द से अधिक आदर के योग्य माना गया क्योंकि समाज में कापालिक परंपरा का स्थान नगण्य हो गया है। तार्किक दृष्टि से सोचे तो कापालिक एक भिन्न मत है और महाभारत की कथा से उसका सम्बंध दूर-दूर तक नहीं है। अपनी कथा गायन शैली को लोक मानस में उच्चासीन करने के लिये ये नाम प्रचारित किये गये हैं। न केवल जन सामान्य ने बल्कि लोक संस्कृति के कई शोधार्थियों ने इन नामों को जस का तस स्वीकार भी कर लिया है।

कथा गायन में स्त्रियों का योगदान:-
छत्तीसगढ़ में कथागीतों की परंपरा को जीवित रखने में यहां की स्त्रियों की भागीदारी सराहनीय है। यों लोकवार्ता का समग्रता में मूल्यांकन करने पर इस सत्य को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होगी कि अनुष्ठानों, संस्कारों आदि से जुड़े उत्सवों एवं उनकी विभिन्न क्रियाओं में स्त्रियों की हिस्सेदारी प्रारंभ से रही है। कथाकथन, गायन, नृत्य, चित्रांकन जैसी विधाओं को लोक में स्त्रियों की आस्था और परंपरानुगामिता ने सुरक्षित रखा। छत्तीसगढ़ अंचल की स्त्रियां मेहनती, मृदुल, हंसमुख और खुले स्वभाव की होती हैं। यहां परदा प्रथा नहीं है अत: स्त्रियां मुक्त भाव से गायन करती हैं। धान की निंदाई, रोपाई के समय, मेले मड़ई जाते समय, अनुष्ठानों को सम्पन्न करते समय इनके गीतों को सुनकर कोई भी कलाप्रेमी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इनकी खनकती आवाज और गला (सुर) तोड़ने की सहज कला अत्यंत मनमोहक तथा चकित करने वाली है। भारतीय समाज में, जहां तक कथाकथन का सवाल है वहां दादी-नानी की कहानियां संभवत: प्रत्येक काल में आकर्षण का केंद्र रही हैं। स्त्री का यह प्रकृतिप्रदत्त गुण है कि वह भाषा को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की प्रमुख कारक रही है। छत्तीसगढ़ी कथा गायन के परिप्रेक्ष्य में यह दृष्टव्य है कि मंच पर एक लम्बे समय तक पुरुष कलाकारों का वर्चस्व रहा है किन्तु घर-आंगन में कितनी ही स्त्रियां इन कथाओं का गायन अपने परिवारजनों तथा परिचितों के बीच करती रही हैं। पारिवारिक स्तर पर यह कथागायन अगली पीढ़ी को सांस्कृतिक निधि के हस्तांतरण की एक प्रक्रिया भी रही है। देवार जाति की स्त्रियां गायन में अपने पुरुषों की संगिनी थीं। नृत्य, गान उनका जातिगत गुण था फिर भी सारंगी पर कथागायन का कार्य अधिकतर पुरुष ही करते थे किन्तु स्त्रियां भी सहज रुप से इस कला को आत्मसात करती थी। यही कारण है कि स्मृतिलोप के इस दौर में कथागायन की देवार कला आज कुकुसदा की रेखा देवार तथा कुछ अन्य कलाकारों के पास विद्यमान है। इतर जातियों की स्त्रियों का कथागायन की ओर आकर्षण, मेरी दृष्टि में उनका प्राकृतिक गुण है। बीसवी सदी के उत्तरार्ध्द का समय इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि मंचों पर कथागीतों के प्रस्तुतिकरण में स्त्रियों को मान्यता और प्रसिध्दि मिली। निकट अतीत और वर्तमान परिदृश्य को देखें तो कथागायिकाओं की संख्या पुरुष कलाकारों से कम नहीं है। भरथरी गायन की पर्याय सुरुज बाई खांडे हैं जो अपनी मीठी और दर्द भरी आवाज में भरथरी गायन को नया अर्थ देती है। इसी तरह तीजन बाई आज पंडवानी की पर्याय बन चुकी हैं। पंडवानी गायिकी के महत्वपूर्ण नामों में आज स्त्रियों की संख्या ही अधिक है।

पुरानी पंडवानी गाने वाली लक्ष्मीबाई बंजारे से लेकर नयी गायिका ऋतु वर्मा और उनके बाद उभरने वाली पीढ़ी में भी गायिकाओं की संख्या कम नहीं है। ज्ञात नामों की सूची काफी लंबी है। लक्ष्मी बाई बंजारे, बुधिया बाई, तीजन बाई, शांति बाई चेलक, रेमन बाई, पार्वती बाई, वीणा साहू, इंडिया बाई, ऋतु वर्मा, प्रभा यादव, सावित्री मीरा, सुशीला ठाकुर, प्रतिभा बाई, चैती बाई, बैसाखिन बाई, चमेली निषाद, सुरुज बाई, रेखा जलछत्री, उषा बारले, रेखा देवार, दया बाई, सुमित्रा बाई, अशोक बाई जाना बाई, कौशिल्या बाई, द्रौपदी बाई, कुन्ती बाई, अमृता साहू, प्रतिभा बाई, उत्तरा जंघेल, कुंती बाई निर्मलकर, चंद्रिका बाई, हेमिन बाई जांगड़े लोक कथा गायिकाओं के उभार को कलाकार-विशेष रुप से पुरुष कलाकार दो भिन्न दृष्टियों से देखते हैं। नई पंडवानी के जनक झाडूराम देवांगन का मत था कि महिलाएं पंडवानी के मंच की गंभीरता को तरल बना रही हैं। पूनाराम निषाद का मत भी इस ओर झुका हुआ है। वे मानते हैं कि महिलाओं के मंच पर सफल होने के कारणों में एक यह है कि उनका परिधान और ग्लैमर दर्शकों को आकृष्ट करता है। दूसरी ओर कुछ कलाकार इसे नारी जागरण से जोड़कर देखते है। पंडवानी गायक खम्मन लाल का मत है 'लड़कियों की आवाज मधुर होती है। अशिक्षित नारी होकर भी मंच पर प्रोग्राम देना बहुत अच्छी बात है। इस कारण पुरुषों की शैली अलग हो जाती है। महिलाओं की शैली अच्छी लगती है।' एक अन्य पंडवानी गायक प्रहलाद निषाद स्त्रियों के मंच पर आने के कारण की विवेचना इस तरह करते हैं 'इसके पीछे मुख्य रुप से तीजन बाई की प्रसिध्दि और प्रकाश में आना है। नारी होकर जिन्होंने छत्तीसगढ़ का नाम रौशन किया है। दूसरा कारण नारी जागरण भी है।' मेरी दृष्टि में छत्तीसगढ़ी कथागायन के क्षेत्र में स्त्री की भागीदारी के दो महत्वपूर्ण कारक हैं पहला छत्तीसगढ़ी स्त्री का गायन के प्रति सहज रुझान और पर्दाप्रथा का न होना। दूसरा कारण स्त्री की सहज प्रतिभा है जिसका विकास अनुकूल वातावरण पाकर तेजी से होता है। जहां तक कथा कथन का प्रश्न है मैं इसे पहले ही रेखांकित कर चुका हूं कि यह स्त्री का प्राकृतिक और पारंपरिक गुण है। लोक कथाओं और लोकगीतों में स्त्री की सहभागिता पुरुष से कम नहीं रही है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है।

लोक संस्कृति और जन संस्कृति:-
कथागायन की परंपरा और उसके आशयों का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि वह हमारे समाज के सांस्कृतिक प्रवाह को गतिमय बनाने में मदद करते रहे हैं। साथ ही सांस्कृतिक तत्व के रुप में वह हमारी राष्ट्रीय एकता के सूत्रों की ओर भी संकेत करते हैं। कई कथागीत विशेष जातियों की पहचान बनने के साथ ही वृहत समाज के कलाबोध को तृप्त करते हैं। हमारा वर्तमान परिदृश्य एक ओर विश्व ग्राम की धुंधली और भ्रामक तस्वीर पेश करता है तो दूसरी ओर जातिप्रथा की जकड़बंदी को बढ़ावा देता है। जातिगत अस्मिताओं को स्थूल रुप से विकसित करने का दुष्परिणाम यह है कि हमारे समाज के चिंतन को उदार और गतिशील बनाने वाले महापुरुष जातियों के आईकान बनाये जा रहे है। भारतीय राजनीति वोट की राजनीति के जाल में इतनी उलझ चुकी है कि वह जातिप्रथा को बढ़ावा देती है। इस प्रक्रिया में जाति आधारित संगठन अपनी रुढ़ मान्यताओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते जा रहे है। रचनाधर्मिता और कला की स्वाधीनता पर कट्टरता का शिकंजा कसता जा रहा है। वस्तुत: लोक संस्कृति के उदार और धर्म निरपेक्ष विचारों के आधार पर जन संस्कृति की अधिरचना का रुपाकार खड़ा करने की आवश्यकता है। लोक जीवन के व्यावहारिक ज्ञान को आत्मसात करके जो दार्शनिक, समाज सुधारक और संघर्षशील जननेता उभरे उनके जीवन मूल्य केवल उनकी जाति के सदस्यों के लिये नहीं है। कबीर, डॉ. अम्बेडकर या संत घासीदास से प्रेरणा लेने वाले उनके अपने सम्प्रदाय से बाहर के लोग भी हैं। उनका महत्व भी इसी बात में है कि उन्हें संकीर्ण सीमा रेखाओं में बांधने की चेष्टा न की जाए। लोक संस्कृति को इस्तेमाल की वस्तु बनाने के प्रयास जारी है। वहां ऐसे रचनाकार गायक, रंगकर्मी कलाकार भी हैं जो उसके उजले पक्ष को विराट जनता की चेतना को विकसित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। बदलाव हो रहे हैं और होते रहेंगे किन्तु संक्रमण के इस दौर में लोक और लोकवार्ता की संतुलित और उदार व्याख्या तथा प्रयोग जरुरी है।

रमाकांत श्रीवास्तव


संदर्भ 1. ग्राम कुर्सीपार (तहसील: डोंगरगढ़) में हुई बातचीत 2. श्रीमती ऊषा बारले से साक्षात्कार 3. श्रीमती ऋतु वर्मा से भिलाई में लिया गया साक्षात्कार 4.पी.सी. जोशी - बदलते संदर्भ उजड़ते लोक - 'लोक' : पृष्ठ 366 5.श्री रामहृदय तिवारी से दुर्ग में लिया गया साक्षात्कार 6. डॉ. जयप्रकाश-नव औपनिवेशिक शक्तियां और नया यर्थाथ - मड़ई 2008: पृष्ठ 179 7. डॉ.कालीचरण यादव- मड़ई 2008 8. डा.पीसीलाल यादव के अप्रकाशित शोध ग्रंथ से साभार 9. पद्मश्री पूनाराम निषाद से ग्राम रिंगनी में साक्षात्कार 10. डॉ.पीसीलाल यादव द्वारा लिया गया साक्षात्कार 11. वही -दाऊ चौरा, खैरागढ़, जिला राजनांदगांव (छ.ग.) 

अंकों का इतिहास

अलग अलग गणना चिन्‍ह
विश्व के विभिन्न स्थानों पर स्वतंत्र रुप से अलग-अलग तरह के गणना-चिन्हों (अंकों) व गणना पद्धतियों का विकास हुआ, जिसमें भारतीय, रोमन, मिस्री व क्रीट द्वीप के जनजातियों की गणना पद्धतियां विशेष रुप से उल्लेखनीय है, पर इन सभी में भारतीय गणना पद्धति सबसे सरल, व्यवहारिक व सटीक थी, जिस कारण उसने अन्य सभी को प्रचलन से बाहर करके सारे विश्व में अपना एकछत्र अधिपत्य कायम किया। दरअसल भारतीय अंक व गणना पद्धति भारतीय मस्तिष्क के उन कुछ महान आविष्कारों में से एक है, जिसके सामने किसी का भी टिकना लगभग असम्भव है।

हम अंकों और उस पर आधारित गणना पद्धति के इतिहास की बात करें तो विश्व के अधिकांश जगहों पर पर गणना पद्धति का प्रारम्भिक आधार दस ही रहा है और भारतीय गणना पद्धति को तो दशमिक गणना पद्धति भी कहा जाता है। इसमें एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि विश्व के अलग-अलग हिस्सों में स्वतंत्र रुप से विकसित इस गणना पद्धतियों में दस का आधार ही क्यों लिया गया? जबकि बारह अंकों वाला आधार वैज्ञानिक रुप से अधिक उपयुक्त होता क्योंकि यह आधे तिहाई व चौथाई हिस्से तक पूर्णांकों में विभक्त हो जाता। इसका जवाब देते हुए नृतत्व शास्त्री कहते हैं कि चूंकि गणना के प्रारंभिक लोग अपनी हाथों की अंगुलियों का इस्तेमाल किया करते थे। (जैसा छोटे बच्चे अब भी करते है) और हाथों में दस अंगुलियां ही होती है इसी से विश्व के अधिकांश गणना पद्धतियों में दस अंकों का आधार विकसित हुआ।

शून्‍य का पहला अभिलेखीय प्रमाण
भारतीय गणना पद्धति में ‘‘शून्य’’ वह अनुपम गणना चिन्ह (अंक) है जो इसे विश्व के अन्य किसी भी गणना पद्धति से अधिक सरल व श्रेष्ठ बनाता है। शून्य के कारण ही इसे सुव्यवस्थित सिद्धांत में पिरोया जा सका, पर शून्य कब और कैसे प्रचलन में आया इस पर एकमत नहीं है। शायद इसका आधार दर्शन रहा होगा, चूंकि भारतीय गणना पद्धति के अनुसार शून्य का मान कुछ नहीं और अनंत दोनों होता है और भारतीय दार्शनिक मान्यता है कि अनंत हमेशा जहां कुछ न हो अर्थात् शून्य में ही प्रगट होता है। इसलिए बहुत सम्भव है कि गणित में शून्य की अवधारणा दर्शन से आयी हो। हां इस बात पर सभी इतिहासकार एकमत है कि शून्य का पहला अभिलेखीय प्रमाण ग्वालियर के विष्णु मंदिर से 870 ई. में मिलता हालांकि शून्य सहित अन्य अंक इससे शताब्दियों पूर्व प्रचलन में आ चुके थे, पर अभिलेखीय प्रमाणों के अभाव में यह सुनिश्चित करना भी बेहद कठिन है कि इनका कब, किसने आविष्कार किया और कैसे इसे एक सुनिश्चित सिद्धांत में पिरोया, इसका कारण शायद भारतीयों की वह विशिष्ट पृवृति है जो विज्ञान व कला का मूल स्त्रोत ब्रह्मा को बताकर अपना कंधा विद्धता के बोझ से मुक्त कर लेते है। फिर भी ज्ञात ऐतिहासिक स्त्रोत हमें आचार्य कुंदकुंद तक लेकर जाते है। इस पद्धति को ईसा के प्रथम शताब्दी के आचार्य वसुमित्र ने भी उपयोग में लाया है जिससे इतना तो तय हो ही जाता है कि यह ईसा के प्रथम शताब्दी में ही पूर्ण विकसित हो चुकी थी, वैसे पौराणिक ग्रन्थ महाभारत के वन-पर्व में भी पद्धति से गणना की बात मिलती है।

महान आर्यभट्ट

भारतीय अंक व गणना-पद्धति की विश्व विजयी यात्रा-पूर्व की ओर उन साहसी व्यापारियों व विजेताओं के साथ शुरु होती है जिन्होंने पूर्वी एशिया में अपने उपनिवेश स्थापित किये थे, कम्बोडिया के मंदिरों के अलावा सम्बौर का श्री विजय स्तम्भ अभिलेख, पलेबंग का मलय अभिलेख (मलेशिया) जावा (इंडोनेशिया) का दिनय संस्कृत अभिलेख के अतिरिक्त इस क्षेत्र के कई अभिलेखों में भारतीय गणना पद्धति का उपयोग किया गया है, ये अभिलेख चूंकि पद्यात्मक शैली में लिखे गये है, इसलिए इसमें अंकों के स्थान पर भूतसंख्यांओं का उपयोग किया गया है। भूत संख्याऐं वे शब्द है जिनसे गणना चिन्हों को व्यक्त किया जाता है। यथा -


0 - निर्वाण
1 - चन्द्रमा (जो अद्वितीय हो)
2 - नेत्र, कर्ण, बाहु (जो जोड़े में हो)
3 - राम (तीन प्रसिद्ध राम- परशुराम, बलराम, दशरथ पुत्र राम)
4 - वेद 
5 - बाण (कामदेव के प्रसिद्ध पांच बाण)
6 - रस
7 - स्वर
8 - सिद्धि
9 - निधि

इसी तरह विभिन्न अंकों के लिए अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ है। चीन में भारतीय अंक बौद्ध धर्म के साथ पहुंचे वहां के सम्राटों को भारतीय ज्योतिष में बेहद आस्था थी। जिससे प्रेरित होकर उन्होंने बहुत से भारतीय ज्योतिष-गणित के ग्रन्थों का चीनी में अनुवाद कराया।

पश्चिम की ओर भारतीय अंकों की यात्रा का पहला पड़ाव ईरान था, जहां के पहलवी शासक शापूर ने भारतीय ज्योतिष-गणित के ग्रन्थों का बड़े पैमाने में फारसी अनुवाद कराया था। ऐसे अनेकों संकेत मिलते है कि पांचवी शताब्दी तक भारतीय अंक व्यापारियों के माध्यम से अलेक्जेfन्ड्रया के बाजारों तक पहुंच चूके थे। इसका सबसे विश्वस्त प्रमाण इस बात से मिलता है कि गणित के बहुत से भारतीय विद्वान उस समय यूनानी वाणिज्य दूत सेवरस के अतिथि रहे थे।

इस बीच इस्लाम के उदय ने भारतीयों का यूरोप से सम्पर्क को लगभग खत्म कर दिया। किन्तु इससे भारतीय अंकों की विजय यात्रा में कोई बाधा नहीं आयी, क्योंकि जब अरबों ने ईरान को विजित किया तो उन्हें वहां के खजानों के साथ-साथ फारसी में अनुवादित बहुत सी बहुमूल्य भारतीय पुस्तकें भी मिली जो गणित सहित अन्य कई विषयों से संबंधित थी। अरबों ने इनका यथायोचित सम्मान करते हुए, इनका अरबी में अनुवाद कराया। इस तरह भारतीय अंक अरबों तक पहुंचे जिन्होंने उसे अपने व्यापारिक साझीदार यूरोपियों तक पहुंचाया, यही कारण है कि भारतीय अंकों को यूरोपीय आज भी इन्डों-अरेबिक संख्याऐं कहते है।

अल ख्वारिज्म
इस्लामिक दुनिया के सिरमौर बगदाद के अब्बासी खलीफा ज्ञान के संरक्षक थे, जिन्होंने गणित वाणिज्य सहित अन्य कई विषयों के भारतीय ग्रन्थों को अरबी में अनुवादित कराया, जो उन्हें अब ईरान के अलावा भारत जाने वाले व्यापारियों व fसंध के अरब उपनिवेश के माध्यम से बड़ी संख्या में उपलब्ध हो रहे थे, इसके अतिरिक्त बहुत भारतीय ग्रन्थ बल्ख (उजबेगीस्तान) से होकर भी बागदाद पहुंचे, दरअसल रेशम मार्ग (सिल्क रुट) में स्थित बल्ख में नवसंधाराम नाम का बहुत बड़ा बौद्ध विहार था, जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय ग्रन्थ संग्रहित थे। अरब इस नववहार तथा इसके अरहतों को परमक के बजाय बरमक कहा करते थे। सातवीं शताब्दी में उन्होंने इस विहार को नष्ट कर डाला और अरहतों को इस्लाम स्वीकारने को बाध्य किया, इन अरहतों को इनके ग्रन्थों सहित बगदाद ले जाया गया। बाद में इन्हीं अरहतों में से एक का पुत्र जिसका नाम खलिद इब्न बरमक था। खलीफा अल मंसूर का वजीर बना।

कई अरब विद्वानों ने स्वतंत्र रुप से भी भारतीस अंकों व गणना पद्धति पर भी पुस्तकें लिखी, जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई सन् 825 ई. में अल ख्वारिज्म की लिखी पुस्तक ‘‘किताब हिसाब अल अद्द् अल हिन्दी’’ इसमें उन्होंने सिद्ध किया कि भारतीय अंक व गणना पद्धति न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ है बल्कि सबसे सरल भी है। यह पुस्तक ‘‘लीबेर अलगोरिज्म डिन्युमरों इन्डोरम’’ (भारतीय संख्याओं पर अलगोरिज्म की पुस्तक) नाम से लैटिन में अनुवादित होकर यूरोप पहुंची और यूरोप अंकगणित से परिचित हुआ। यही कारण है कि यूरोपिय आज भी अंकगणित को अलगोरिज्म के नाम से ही पुकारते हैं। इसके अलावा अबु युसुफ अल किन्दी की ‘‘हिसाबुल हिन्दी’’ अलबरुनी की ‘‘अल अर्कम’’ महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। अल दिनवरी ने व्यापार संबंधी हिसाब में भारतीय पद्धति का प्रतिपादन किया। साहित्य प्रेमी बुखारा के रहने वाले और अपनी रुबाईयों के लिए मशहुर उम्मर खय्याम को जरुर जानते होंगे, दरअसल वो खगोलविद् थे और उन्होंने भी बड़े जतन से भारतीय गणना पद्धति को सीखा था। बुखारा के ही एक अन्य विद्वान इब्नसीना ने अपनी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने भारतीय अंक व गणना पद्धति उन मिस्री उपदेशकों से सीखी थी जो धर्म प्रचार के लिए वहां आते थे। यह कथन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि इब्नसीना इस बात को न लिखते तो कोई स्वप्न में भी यह नहीं सोच सकता कि भारतीय अंक रुस में व्हाया मिस्र (अफ्रीका) दाखिल हुए।

पंचतंत्र का अरबी अनुवाद, एक दृश्‍य
बच्चों के लिए लिखी गयी भारतीय पुस्तक ‘‘पंचतंत्र’’ का भी यूरोप तक का सफर अंकों के सफर जैसा ही रोचक है। छठी शताब्दी में इसे फारसी में अनुवादित किया गया, जब ईरान पर अरबों का कब्जा हुआ तो यह उनके साथ उम्मैयद खलीफाओं की राजधानी दमिश्क चली आयी जहां इसका सिरियन में अनुवाद हुआ। बाद में अब्बासी खलीफाओं के समय हुआ, इसका अरबी अनुवाद बेहद लोकप्रिय हुआ, इसकी लोकप्रियता का अन्दाज आप इस बात से भी लगा सकते है कि इसके अरबी संस्करण में मुख्य पात्र किलील व दिमना (लोमड़िया) सहित कइ कहानियों को सचित्र दर्शाया गया जो किसी भी जीवित वस्तु के चित्रांकन न करने के इस्लामिक नियम के विपरीत है। इसके बाद पंचतंत्र का हिब्रु ग्रीक व लैटिन में अनुवाद हुआ और यह यूरोप जा पहुंची जहां इसको इटेलियन व स्पेनिश में अनुवादित किया गया। अतः इसे 1570 ई. में सर थामस नार्थ ने ‘‘दि मारल फिलासफी आफ डोनी’’ के नाम से ईटेलियन से अंग्रेजी में अनुवादित किया गया। इसी रास्ते यूरोप पहुंचने वाली भारतीय पुस्तकों में ‘‘वृहकत्था’’ व ‘‘सहत्ररजनी’’ चरित्र प्रमुख है। भारत में बच्चों के लिए गणित में भी कई पुस्तकें लिखी गई, जिनमें जैन आचार्य ऋषभदेव द्वारा अपनी पुत्री आनन्दी के लिए गयी ‘‘बाक्षिल पोथी’’ महत्वपूर्ण है। पर अधिक लोकप्रिय हुई भास्कराचार्य कृत ‘‘लीलावती’’ जिसे उन्होंने अपनी इसी नाम की बेटी को गणित सीखाने के लिए लिखी थी। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि गणित जैसा शुष्क विषय भी काव्य के सौन्दर्य व वात्सल्य के रस में भीगकर बिलकुल भी बोझिल नहीं लगता और इसमें आप वात्सल्य से भरे पिता के हृदय के स्पन्दन को साफ सुन सकते हैं।

भावों के प्रवाह में बहकर हम अपनी मूल धारा से दूर आ गये, चलिये वापस लौटते है। फ्रांस में जन्मे गेरबर्ट नामक व्यक्ति ने स्पेन जाकर भारतीय अंक व गणना पद्धति संबंधित ज्ञान अर्जित किया। वह इस पद्धति से इतना प्रभावित हुआ कि जब वह ‘‘सिल्वेस्टर द्वितीय’’ के नाम से पोप बना तो उसने पूरे यूरोप में भारतीय अंकों व गणना पद्धति के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

चौदहवी शताब्दी में यूनानी पादरी मैक्समस प्लेनुडेस द्वारा ग्रीक में लिखी पुस्तक ‘‘भारतीय अंक गणित जो महान है’’ इस बात का प्रमाण है कि इस समय तक पूरे ईसाई व मुस्लिम जगत में भारतीय अंक व गणना पद्धति प्रचलित हो चुके थे। यद्यपि इसमें कुछ बाधायें भी आयी। सन् 1299 में फ्लोरेन्स की नगर परिषद ने वाणिज्य लेखों के लिए भारतीय अंकों पर प्रतिबद्ध लगा दिया था पर युरोप के विभिन्न विश्व विद्यालयों जिनमें आक्सफोर्ड, पेरिस, पेदुआ व नेपल्स प्रमुख थे। भारतीय अंकों व गणना पद्धति पर अध्ययन-अध्यापन जारी रहा। अतः युरोप में प्रचलित होने के बाद ये अंक यूरोपियों के साथ अमेरिका पहुंचे और भारतीय अंकों का विश्व विजय अभियान पूर्ण हुआ।

विश्व को भारत की सबसे महान देने में पहला बौद्ध धर्म का एशिया में प्रसार है जबकि दाशमिक अंक प्रणाली को दुनिया भर में स्वीकार्यता मिलना भारतीय मस्तिष्क की दुसरी बड़ी विजय है। इनमें से एक क्षेत्र पारलौकिक ज्ञान है तो दुसरे का क्षेत्र लौकिक विज्ञान।





विवेक राज सिंह 
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 

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सभी चित्र गूगल खोज से साभार

हमनाम तुझे सलाम!

ब्लाॅग जगत में अगस्त २००६ से एवं नियिमत हिन्दी ब्लॉगिंग में अप्रैल २००७ से हूं, हिन्दी ब्लॉगिंग के आरंभिक स्पंदनों से हुंकार तक के सफर में साथ हूं. जैसा कि आप सभी जानते हैं कि मेरे ब्लॉग 'आरंभ' का यूआरएल http://www.aarambha.blogspot.in है. मेरे ब्लॉग में मुख्यत: छत्तीसगढ से संबंधी जानकारी होती है.

आज कई साथियों की शिकायत रही कि मेरे ब्लॉग में पोर्न सामाग्री है एवं पोस्ट दूसरी भाषा में है. देखने पर ज्ञात हुआ कि मेरे ब्लॉग 'आरंभ' से मिलता जुलता नेपाली भाषा का एक ब्लॉग है, उसका नाम भी अंग्रेजी में आरंभ http://arambha.blogspot.in है, उसके संचालक हैं नेपाल के पत्रकार प्रकाश गिरी जी. प्रकाश जी के इस ब्लॉग के ताजा पोस्ट में स्त्री वक्ष से संबंधित कुछ लिखा गया है और चित्र लगाए गए हैं. 

मेरा ब्लॉग आपके सामने है ... 

जतिन दास की मांग जायज है

लगभग 17 वर्ष पूर्व भिलाई स्पात संयंत्र द्वारा अपने चौकों के सौदर्यीकरण के तहत प्रसिद्व कलाकार जतिन दास के द्वारा निर्मित कलाकृतियॉं भिलाई के सेक्टर 1 स्थित संयंत्र प्रवेश द्वार के पूर्व चौंक पर लगाई गई थी. कहते हैं कि इस कलाकृति को लगाने में संयत्र का लगभग 40 लाख रूपया खर्च हुआ था जिसमें लगभग 10 लाख रूपया जतिन दास को भुगतान किया गया था. हालांकि उस समय स्थानीय स्तर पर इसका जमकर विरोध भी हुआ था कि स्थानीय कलाकारों की उपेक्षा कर बडी राशि खर्च करने का कोई औचित्य नहीं है किन्तु तत्कालीन प्रबंध निदेशक नें विरोध के बावजूद जतिन दास की कृतियों को यहॉं ससम्मान स्थापित किया.

आडे—तिरछे व उडते पक्षियों की लौह आकृतियॉं गोलाई में आकार लेकर संयत्र आने वालों का स्वागत करने लगी. वहां स्थापित कला को भिलाई के या छत्तीसगढ के कितने लोगों नें समझा यह कहा नहीं जा सकता किन्तु प्रसिद्व कलाकर की इस कृति के प्रति स्थानीय जनता की आस्था आरंभ से ही नहीं जाग पाई. जनता इस चौक को चिडियों की आकृतियों के कारण 'मुर्गा चौक' का नाम दे दिया. जतिन दास स्थापना के समय के विवाद और स्थापना के दिनों के बाद सभी के स्मृति से ओझल हो गए.


आज फिर जतिन दास जी इस लिये याद आये कि उनके द्वारा छत्तीसगढ में अपने संपर्कों से संपर्क कर यह बतलाया गया कि भिलाई स्पात संयत्र के द्वारा उनकी कलाकृतियों को उखाड दिया गया है और कबाड की तरह फेंक दिया गया है. यह बात हम स्थानीय निवासियों को भी ज्ञात नहीं थी. संयत्र के द्वारा जेपी सीमेंट को एकतरफा फायदा पहुचाने के उद्देश्य से फ्लाई ओवर का निर्माण कार्य का प्रारम्भ किया गया था और संयत्र के द्वारा बहुत साफगोई से यह प्रचारित किया जा रहा था कि संयत्र के मालवाहक ट्रकों को सुगमतापूर्वक पहुचाने के उद्देश्य से यह फ्लाई ओवर बनाया जा रहा है. इस फ्लाई ओवर के रास्ते में सेक्टर 1 का मुर्गा चौंक भी आ रहा था किन्तु हम यह सोंचते रहे कि इस चौंक पर स्थापित जतिन दास की कलाकृति फ्लाई ओवर की नीचे अपने मूल स्थान में सुरक्षित रहेगी. ज्यादा से ज्यादा कुछ मीटर आगे पीछे करके इसे बचाया जा सकेगा.


भिलाई स्पात संयंत्र ने ऐसा कुछ भी प्रयास नहीं किया बल्कि जतिन दास की कलाकृतियों को बेरहमी से उखाड कर मैत्रीबाग भेज दिया गया जहां परिवहन में कुछ कलाकृतियां टूट भी गई. मैत्री बाग में उन्हें कबाड की तरह डम्प कर दिया गया. विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि संयंत्र अब इन कलाकृतियों को मैत्री बाग में स्थापित करेगी. क्या जतिन दास को इसकी सूचना दी गई है के जवाब में संयंत्र के अधिकारी यह स्वीकारते हैं कि उन्हें सूचना दी गई है. किन्तु जतिन दास जी छत्तीसगढ में प्रकाशित खबर के माध्यम से कहते हैं कि उन्हें यह तब पता चला जब वे भिलाई मुर्गा चौंक आये और वहां से अपनी कलाकृतियों को गायब पाये. दूसरी तरफ सूत्र यह भी बतलाते हैं कि इसे मुर्गा चौक से मैत्री बाग में स्थापित करने के एवज में जतिन दास संयंत्र से मोटी रकम की मांग कर रहे हैं एवं संयंत्र द्वारा हील हवाला करने पर मीडिया संपर्कों का उपयोग संयंत्र पर दबाव बनाने के लिए कर रहे है.

अब जो भी हो इसमें जनता की रूचि ज्यादा नहीं है किन्तु आश्चर्य होता है कि संयंत्र के वास्तुविद व योजनाकार आगामी सत्रह साल के नगर परिवहन योजना का भी आंकलन नहीं कर पाये. संयंत्र के उत्पादन व कच्चे माल के परिवहन की भविष्य की आवश्यकताओं पर संयंत्र के अभियंताओं नें कैसे नहीं सोंचा यह समझ से परे है. सत्रह साल पहले 40 लाख रूपये खर्च करके मुर्गा चौंक स्थापित करने की योजना बनाते समय क्यों नहीं सोंचा गया कि अगले 17 सालों में आवश्यकतानुसार इसके उपर फ्लाई ओवर बनाया जायेगा इसलिये इसे यहां स्थापित ना किया जाय.

जिस मैत्री बाग में इसे स्थापित करने की दलील यह कह कर दी जा रही है कि यहां जनता की ज्यादा आवाजाही है, तो क्या यही बात पंद्रह साल पहले नहीं थी. तब भी मैत्री बाग उपयुक्त स्थान था किन्तु संयंत्र के दूरदर्शी अभियंताओं, अधिकारियों नें इसे सेक्टर 1 में स्थापित किया. लगाने में 40 लाख और उखाडने भी लाखों खर्च किये गए होगें अब इसे पुन: लगाने में करोडो खर्च किये जायेगें. इस करोड में बंदर बाट नहीं होगी यह भी स्वीकार करने योग्य बात नहीं है क्योंकि अभी कुछ दिन पहले ही इसी मुर्गा चौंक के पास का फ्लाई ओवर स्लेब भरभराकर गिर गया था और घटना व परिस्थितियां स्वमेव सिद्व कर गई.

ऐसे में जतिन दास जो उन कलाकृतियों के जनक है कुछ पैसे मांग भी रहे है तो संयंत्र के अधिकारियों की सांसें क्यूं फूल रही है. संयंत्र नें स्वयं फैसले करके अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जतिन दास की कलाकृतियां लगाई है तो उसे उनके सम्मान की रक्षा भी करनी चाहिए.

आज राहुल सिंह जी के फोन नें चौकाया, भिलाई स्पात संयंत्र से कोई काम नहीं पडने के कारण उधर आना जाना नहीं होता पर आज दोपहर को ही निकल पडा यह देखने कि मुर्गा चौक का क्या हाल है. चौक तो बरकरार है पर जतिन दास की कलाकृतियों का कोई अता पता नहीं है. वापस घर आते तक मित्रों के दो और मेल प्राप्त हो चुके थे जिसमें जतिन दास का विरोध भी दर्ज था. ई टीवी के दुर्ग—भिलाई प्रभारी वैभव पाण्डेय एवं अन्य पत्रकारों से वस्तुस्थिति की जानकारी लिया. शाम तक छत्तीसगढ नें प्रमुखता से इस खबर को अपने मुख्य पृष्ट पर लगा दिया था धन्यवाद छत्तीसगढ.

संजीव तिवारी 

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