मध्य प्रदेश का पूर्वीय अंचल छत्तीसगढ़ कहलाता है. इस क्षेत्र में हिंदी की एक उप भाषा छत्तीसगढ़ी बोली जाती है.छत्तीसगढ़ी का पद्य-साहित्य यथेष्ट सम्पन्न है.गत पचास वर्षों में छत्तीसगढ़ी काव्य के पितामह पं.सुंदर लाल शर्मा से लेकर वर्तमान पीढ़ी के छत्तीसगढ़ी काव्यकारों के बीच अनेक प्रतिभाशाली कवियों की एक सशक्त श्रृंखला रही है.इस श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में दुर्ग के स्व.कोदूराम “दलित” का नाम ससम्मान लिया जाता रहा है. जिन्हें काल के कठोर हाथों ने पिछले दिनों हमसे छीन लिया.
कुर्ता, पैजामा, सिर पर गाँधी टोपी, पैरों में चप्पल, एक हाथ में छाता, दूसरे में एक थैली – तथा मुख पर एक निश्छल - खिली हुई हँसी से युक्त इस सरल व्यक्तित्व को देख कर कोई भी अनुमान भी नहीं कर पाता था कि वह छत्तीसगढ़ी के एक प्रमुख कवि को देख रहा है. जब से हमने होश सम्हाला था हमने दलित जी के स्वास्थ्य में कभी कोई परिवर्तन नहीं पाया था. अत: मित्रों के बीच हम लोग उनकी चर्चा एक सदाबहार कवि के रूप में किया करते थे.
दलित जी का जन्म 5 मार्च 1910 को दुर्ग जिले के टिकरी नामक गाँव में एक निर्धन कृषक परिवार में हुआ था. बाल्यकाल सरल एवं सहृदय ग्रामीणों के बीच बीता. हरी-भरी अमराइयों, लहलहाते खेतों, महमहाते बागों एवम लहराते सरोवरों ने उनके हृदय में प्रकृति के प्रति अपार आकर्षण का बीज बो दिया था जो आगे चल कर काव्य के रूप में अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ. मिडिल तक उनकी शिक्षा अर्जुंदा नामक स्थान में हुई. एक होनहार छात्र के रूप में दलित जी नार्मल स्कूल की प्रवेश एवं अंतिम परीक्षाओं में सर्वप्रथम रहे. एक प्राथमिक शाला के शिक्षक के रूप में उन्होंने जीवन में प्रवेश किया और अंत में अनेक वर्षों तक वे दुर्ग में प्रधान अध्यापक के पद पर रहे.
दलितजी सन 1926 में एक कवि के रूप में साहित्य जगत में आये. काव्य की प्रेरणा उन्हें आशु कवि श्री पीला लाल चिनोरिया से प्राप्त हुई. दलित जी ने हिंदी तथा छत्तीसगढ़ी दोनों में काव्य रचना की परंतु छत्तीसगढ़ी के कवि के रूप में उन्हें अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई.कविता के क्षेत्र में ही नहीं , जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उन्होंने उसी लगन और उत्साह से कार्य किया था.त्रिपुरी –कांग्रेस अधिवेशन में वे एक स्वयं-सेवक के रूप में सम्मिलित हुये थे.यह सेवा का भाव उनमें जीवन पर्यंत रहा परंतु साथ ही वे स्वाभिमानी भी बड़े थे.एक प्राथमिक शाला के शिक्षक के रूप में कठिन से कठिन आर्थिक परिस्थितियों में भी उन्होंने स्वाभिमान को बिकने नहीं दिया. दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति ,दुर्ग नगर शिक्षक संघ, हरिजन सेवक संघ तथा सहकारी साख समिति आदि संस्थाओं के मंत्री के रूप में उन्होंने दुर्ग नगर की उल्लेखनीय सेवा की थी.दुर्ग के शिक्षकनगर के निर्माण की पृष्ठ भूमि में भी दलित जी के अथक प्रयत्नों की मौन गाथा है.
वे सच्चे अर्थों में एक जनकवि थे.उन्होंने वयस्कों के लिये ही नहीं ,बच्चों के लिये भी यथेष्ठ साहित्य का सृजन किया था. पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो तथा कवि सम्मेलनों के द्वारा उनकी छत्तीसगढ़ी जन-जीवन में घुलमिल सी गयी थीं. मध्यप्रदेश शासन द्वारा अनेक अवसरों पर आपकी रचनायें पुरस्कृत भी हुई थीं. दलित जी के काव्य की मुख्य तीन धाराएं हैं – नीति काव्य, राष्ट्रीय-रचनायें एवं हास्य-व्यंग्य से पूर्ण कवितायें. जहाँ तक उनके नीति काव्य का सम्बंध है, दलित जी छत्तीसगढ़ के ’गिरधर कविराय’ हैं .उनकी कतरनी (कैंची) –सूजी (सुई) शीर्षक रचना देखिये –
काटय – छाँटय कतरनी,सूजी सीयत जाय.
सहय अनादर कतरनी,सूजी आदर पाय.
सूजी आदर पाय ,रखय दरजी पगड़ी मां
अउर कतरनी ला चपकय, वो गोड़ तरी मां.
फल पाथयँ उन वइसन, जइसन करथयं करनी
सूजी सीयत , काटत –छाँटत जाय कतरनी.
( कैंची काटती-छाँटती है तथा सुई सीती जाती है फलस्वरूप कैंची को अनादर तथा सुई को आदर प्राप्त होता है. सुई को दर्जी अपनी पगड़ी में रखता है जबकि कैंची पैरों के नीचे दबाई जाती है. अपने कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को फल मिलता है.)
दलित जी में राष्ट्रीय भावनायें कूट-कूट कर भरी थी , अत: उनकी अधिकांश रचनाओं में यह देश-प्रेम किसी न किसी रूप में फूट निकला है –
झन लेबे बाबू रे , तैं फुलझड़ी – फटाका
विपदा के बेरा में दस- पंधरा रुपया के.
येकर से तैं ऊनी कम्बल लेबे तेहर
देही काम जाड़ मां , एक सैनिक भइया के.
{ बेटे इस (राष्ट्रीय) विपत्ति के समय दस – पंद्रह रुपये के फटाके मत खरीदना. इससे तू एक ऊनी कम्बल खरीदना जो ठंड में एक सैनिक भाई के काम आयेगा.}
हास्य और व्यंग्य दलित जी के काव्य का मूल स्वर है. उनका व्यंग्य शिष्ट एवं प्रभावशाली है.छतीसगढ़ी व्यंग्य काव्य में उनकी ‘कनवा – समधी’ नामक रचना का एक महत्वपूर्ण स्थान है. इस रचना में नगर की गंदगी पर किया गया व्यंग्य दर्शनीय है –
ये लाल – बम्म अंधेर अबीर – गुलाल असन
कइसन के धुर्रा उड़त हवय चारों कोती
खाली आधा घंटा के किंजरे मां समधी
सुंदर बिना पैसा के रंग गे कुरता धोती.
भन-भन , भन , भन ,भन , भिनक – भिनक के माँछी मन
काकर गुन ला निच्चट , जुरमिल के गावत हे
अउ खोर – खोर , रसदा – रसदा मां टाँका के
पावन जल अड़बड़ काबर आज बोहावत हे.
(अबीर – गुलाल सी धूल क्यों चारों ओर उड़ रही है , केवल आधे घंटे तक घूमने से ही बिन पैसे के कुरता – धोती सुंदर रंग गये हैं. भन-भन के स्वर में ये मक्खियाँ मिलकर किसका गुणगान कर रही हैं तथा आज गली- गली एवं रास्ते- रास्ते पर (गंदे) टाँके का पवित्र जल , इतना अधिक क्यों बह रहा है ?)
दलितजी ने ‘धान – लुवाई’ ( धान – कटाई) जैसी रचनाओं से ---
दुलहिन धान लजाय मने मन मुड़ी नवा के
आही हँसिया राजा मोला लेगिही आज बिहा के.
( लाज भरी धान की फसल मन ही मन सिर झुका कर सोचती है कि हँसिया राजा आयेगा और मुझे विवाह करके ले जायेगा) ------
छत्तीसगढ़ी को न केवल काव्य – गरिमा प्रदान की है बल्कि साथ ही ‘ चरर – चरर गरुवा मन खातिर बल्दू लूवय कांदी ( बल्दू गायों के लिये चरर-चरर घास काटता है) जैसे अनेक ध्वनि चित्र एवं ‘सुटुर- सुटुर सटकिस समधिन हर , देखे खातिर नाचा ( समधिन शीघ्रता में चुपचाप नाच देखने निकली) जैसे दृश्य-चित्र भी उन्होंने रखे हैं. छत्तीसगढ़ी के शब्दों पर उनका असाधारण अधिकार था.
‘सियानी-गोठ’ (नीतिपरक काव्य संग्रह) दलित जी का एक मात्र प्रकाशितग्रंथहै.’ दू मितान ‘ ,’कनवा-समधी’, ’हमर देश’, ’ छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियाँ और मुहावरे’ तथा छत्तीसगढ़ी शब्द भंडार’ आदि आपके अनेक अप्रकाशित ग्रंथ हैं.
28 सितम्बर 1967 को दुर्ग में छत्तीसगढ़ी के इस कर्मठ कवि का स्वर्गवास हो गया. इस मृत्यु से दुर्ग ने अपना एक कीमती लाल खो दिया, छत्तीसगढ़ ने अपना एक अमूल्य रत्न खो दिया.
-हनुमंत नायडू
{ नवभारत टाइम्स , बम्बई (अब मुम्बई) दिनांक 03 मार्च 1968 से साभार }
जनकवि स्व.कोदूराम 'दलित' जी की रचनांए आप सियानी गोठ में पढ़ सकते हैं, उनकी रचनाओं को सर्वसुलभ बनाने के लिये उनके पुत्र श्री अरूण कुमार निगम जी अपनी व्यस्तता के बावजूद सियानी गोठ में जनकवि स्व.कोदूराम 'दलित' जी की रचनाओं का नियमित प्रकाशन कर रहे हैं।
कुर्ता, पैजामा, सिर पर गाँधी टोपी, पैरों में चप्पल, एक हाथ में छाता, दूसरे में एक थैली – तथा मुख पर एक निश्छल - खिली हुई हँसी से युक्त इस सरल व्यक्तित्व को देख कर कोई भी अनुमान भी नहीं कर पाता था कि वह छत्तीसगढ़ी के एक प्रमुख कवि को देख रहा है. जब से हमने होश सम्हाला था हमने दलित जी के स्वास्थ्य में कभी कोई परिवर्तन नहीं पाया था. अत: मित्रों के बीच हम लोग उनकी चर्चा एक सदाबहार कवि के रूप में किया करते थे.
दलित जी का जन्म 5 मार्च 1910 को दुर्ग जिले के टिकरी नामक गाँव में एक निर्धन कृषक परिवार में हुआ था. बाल्यकाल सरल एवं सहृदय ग्रामीणों के बीच बीता. हरी-भरी अमराइयों, लहलहाते खेतों, महमहाते बागों एवम लहराते सरोवरों ने उनके हृदय में प्रकृति के प्रति अपार आकर्षण का बीज बो दिया था जो आगे चल कर काव्य के रूप में अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ. मिडिल तक उनकी शिक्षा अर्जुंदा नामक स्थान में हुई. एक होनहार छात्र के रूप में दलित जी नार्मल स्कूल की प्रवेश एवं अंतिम परीक्षाओं में सर्वप्रथम रहे. एक प्राथमिक शाला के शिक्षक के रूप में उन्होंने जीवन में प्रवेश किया और अंत में अनेक वर्षों तक वे दुर्ग में प्रधान अध्यापक के पद पर रहे.
दलितजी सन 1926 में एक कवि के रूप में साहित्य जगत में आये. काव्य की प्रेरणा उन्हें आशु कवि श्री पीला लाल चिनोरिया से प्राप्त हुई. दलित जी ने हिंदी तथा छत्तीसगढ़ी दोनों में काव्य रचना की परंतु छत्तीसगढ़ी के कवि के रूप में उन्हें अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई.कविता के क्षेत्र में ही नहीं , जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उन्होंने उसी लगन और उत्साह से कार्य किया था.त्रिपुरी –कांग्रेस अधिवेशन में वे एक स्वयं-सेवक के रूप में सम्मिलित हुये थे.यह सेवा का भाव उनमें जीवन पर्यंत रहा परंतु साथ ही वे स्वाभिमानी भी बड़े थे.एक प्राथमिक शाला के शिक्षक के रूप में कठिन से कठिन आर्थिक परिस्थितियों में भी उन्होंने स्वाभिमान को बिकने नहीं दिया. दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति ,दुर्ग नगर शिक्षक संघ, हरिजन सेवक संघ तथा सहकारी साख समिति आदि संस्थाओं के मंत्री के रूप में उन्होंने दुर्ग नगर की उल्लेखनीय सेवा की थी.दुर्ग के शिक्षकनगर के निर्माण की पृष्ठ भूमि में भी दलित जी के अथक प्रयत्नों की मौन गाथा है.
वे सच्चे अर्थों में एक जनकवि थे.उन्होंने वयस्कों के लिये ही नहीं ,बच्चों के लिये भी यथेष्ठ साहित्य का सृजन किया था. पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो तथा कवि सम्मेलनों के द्वारा उनकी छत्तीसगढ़ी जन-जीवन में घुलमिल सी गयी थीं. मध्यप्रदेश शासन द्वारा अनेक अवसरों पर आपकी रचनायें पुरस्कृत भी हुई थीं. दलित जी के काव्य की मुख्य तीन धाराएं हैं – नीति काव्य, राष्ट्रीय-रचनायें एवं हास्य-व्यंग्य से पूर्ण कवितायें. जहाँ तक उनके नीति काव्य का सम्बंध है, दलित जी छत्तीसगढ़ के ’गिरधर कविराय’ हैं .उनकी कतरनी (कैंची) –सूजी (सुई) शीर्षक रचना देखिये –
काटय – छाँटय कतरनी,सूजी सीयत जाय.
सहय अनादर कतरनी,सूजी आदर पाय.
सूजी आदर पाय ,रखय दरजी पगड़ी मां
अउर कतरनी ला चपकय, वो गोड़ तरी मां.
फल पाथयँ उन वइसन, जइसन करथयं करनी
सूजी सीयत , काटत –छाँटत जाय कतरनी.
( कैंची काटती-छाँटती है तथा सुई सीती जाती है फलस्वरूप कैंची को अनादर तथा सुई को आदर प्राप्त होता है. सुई को दर्जी अपनी पगड़ी में रखता है जबकि कैंची पैरों के नीचे दबाई जाती है. अपने कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को फल मिलता है.)
दलित जी में राष्ट्रीय भावनायें कूट-कूट कर भरी थी , अत: उनकी अधिकांश रचनाओं में यह देश-प्रेम किसी न किसी रूप में फूट निकला है –
झन लेबे बाबू रे , तैं फुलझड़ी – फटाका
विपदा के बेरा में दस- पंधरा रुपया के.
येकर से तैं ऊनी कम्बल लेबे तेहर
देही काम जाड़ मां , एक सैनिक भइया के.
{ बेटे इस (राष्ट्रीय) विपत्ति के समय दस – पंद्रह रुपये के फटाके मत खरीदना. इससे तू एक ऊनी कम्बल खरीदना जो ठंड में एक सैनिक भाई के काम आयेगा.}
हास्य और व्यंग्य दलित जी के काव्य का मूल स्वर है. उनका व्यंग्य शिष्ट एवं प्रभावशाली है.छतीसगढ़ी व्यंग्य काव्य में उनकी ‘कनवा – समधी’ नामक रचना का एक महत्वपूर्ण स्थान है. इस रचना में नगर की गंदगी पर किया गया व्यंग्य दर्शनीय है –
ये लाल – बम्म अंधेर अबीर – गुलाल असन
कइसन के धुर्रा उड़त हवय चारों कोती
खाली आधा घंटा के किंजरे मां समधी
सुंदर बिना पैसा के रंग गे कुरता धोती.
भन-भन , भन , भन ,भन , भिनक – भिनक के माँछी मन
काकर गुन ला निच्चट , जुरमिल के गावत हे
अउ खोर – खोर , रसदा – रसदा मां टाँका के
पावन जल अड़बड़ काबर आज बोहावत हे.
(अबीर – गुलाल सी धूल क्यों चारों ओर उड़ रही है , केवल आधे घंटे तक घूमने से ही बिन पैसे के कुरता – धोती सुंदर रंग गये हैं. भन-भन के स्वर में ये मक्खियाँ मिलकर किसका गुणगान कर रही हैं तथा आज गली- गली एवं रास्ते- रास्ते पर (गंदे) टाँके का पवित्र जल , इतना अधिक क्यों बह रहा है ?)
दलितजी ने ‘धान – लुवाई’ ( धान – कटाई) जैसी रचनाओं से ---
दुलहिन धान लजाय मने मन मुड़ी नवा के
आही हँसिया राजा मोला लेगिही आज बिहा के.
( लाज भरी धान की फसल मन ही मन सिर झुका कर सोचती है कि हँसिया राजा आयेगा और मुझे विवाह करके ले जायेगा) ------
छत्तीसगढ़ी को न केवल काव्य – गरिमा प्रदान की है बल्कि साथ ही ‘ चरर – चरर गरुवा मन खातिर बल्दू लूवय कांदी ( बल्दू गायों के लिये चरर-चरर घास काटता है) जैसे अनेक ध्वनि चित्र एवं ‘सुटुर- सुटुर सटकिस समधिन हर , देखे खातिर नाचा ( समधिन शीघ्रता में चुपचाप नाच देखने निकली) जैसे दृश्य-चित्र भी उन्होंने रखे हैं. छत्तीसगढ़ी के शब्दों पर उनका असाधारण अधिकार था.
‘सियानी-गोठ’ (नीतिपरक काव्य संग्रह) दलित जी का एक मात्र प्रकाशितग्रंथहै.’ दू मितान ‘ ,’कनवा-समधी’, ’हमर देश’, ’ छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियाँ और मुहावरे’ तथा छत्तीसगढ़ी शब्द भंडार’ आदि आपके अनेक अप्रकाशित ग्रंथ हैं.
28 सितम्बर 1967 को दुर्ग में छत्तीसगढ़ी के इस कर्मठ कवि का स्वर्गवास हो गया. इस मृत्यु से दुर्ग ने अपना एक कीमती लाल खो दिया, छत्तीसगढ़ ने अपना एक अमूल्य रत्न खो दिया.
-हनुमंत नायडू
{ नवभारत टाइम्स , बम्बई (अब मुम्बई) दिनांक 03 मार्च 1968 से साभार }
जनकवि स्व.कोदूराम 'दलित' जी की रचनांए आप सियानी गोठ में पढ़ सकते हैं, उनकी रचनाओं को सर्वसुलभ बनाने के लिये उनके पुत्र श्री अरूण कुमार निगम जी अपनी व्यस्तता के बावजूद सियानी गोठ में जनकवि स्व.कोदूराम 'दलित' जी की रचनाओं का नियमित प्रकाशन कर रहे हैं।
आपका गर्व देश का गर्व है।
जवाब देंहटाएंदलित जी से मिलने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हुआ लेकिन मेरे छत्तीसगढ़ आगमन के प्रारम्भिक दिनों में उनके पुत्र और मेरे मित्र अरुण से पहली बार उनका नाम और उनकी रचनाओं के बारे में जानने का अवसर प्राप्त हुआ । फिर अन्य कवि मित्रों से भी यह जानकारी प्राप्त हुई । यह सही है कि दलित जी जनकवि थे और अपने समय में उनकी रचनाओं से समाज को एक दिशा मिली है । उनका सम्पूर्ण साहित्य जनता के सामने आना चाहिये । अरुण कुमार निगम का इस दिशा में प्रयास सराहनीय है ।
जवाब देंहटाएंबढिया जानकारी।
जवाब देंहटाएंनमन कोदूराम जी को...
आभार.............
अपन अंचल के एक बड़े जन कवि के बारे मा जानकारी दे के आप ला बहुत बहुत बधाई अउ आभार घलो। सही मायने मा इहां बैठे ले हमर बर खास कर, नवा नवा जानकारी मिल जथे नइ त घर मा किताब उताब संकलित करे के…, अरे पढ़े च के आदत नइ होय के कारण भईगे जयरामजी के हे ए सब बर…
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