छत्‍तीसगढ़ी शब्दकोशों की दशा

सामान्यत: कोश किसी न किसी रूप में भण्डार, ढेर या खजाने को सूचित करने वाला शब्द है। संस्कृत हिन्दी शब्दकोश में 'शब्दकोश' को शब्दार्थ संग्रह कहा गया है, तो अशोक मानक हिन्दी-हिन्दी शब्दकोशकार ने अंग्रेजी के 'डिक्शनरी' के पर्याय के रूप में परिभाषित करते हुए लिखा है कि 'वह ग्रंथ जिसमें किसी विशेष क्रम से शब्द और उनके अलग-अलग अर्थ का पर्याय हो।' कुछ इसी तरह की मिलती-जुलती बात भार्गव आदर्श हिन्दी शब्दकोश में भी कही गई है। देखिए- अकारादि क्रम में लिखी हुई पुस्तक जिसमें शब्दों के अर्थ दिए हों। बोली के शब्दकोश के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए रामहृदय तिवारी कहते हैं कि 'लगभग तीन हजार भाषाओं वाले इस सभ्य संसार में अनगिनत बोलियां हैं। इन बोलियों के अलग-अलग रंग हैं पर गंध सबकी एक है- माटी की गंध। माटी चाहे किसी भी देश या अंचल की हो, उनकी आत्मा में एक ही तडप होती है-फूल बन कर खिलने की, हरियाली बनकर लहलहाने की। सारी सीमाओं के पार माटी की यह मासूम तडप, बोलियों की शक्ति है और माधुर्य भी, जिन्हें अर्थ के आयाम देते हैं शब्द| शब्द ज्ञान जगत की अद्भुत उपलब्धि है। ऐसी प्राणवान परम्परा जो अज्ञान अंतरिक्ष के द्वार खोलती है। सनातन मूल्यों को वहन करती हैं इस प्रणम्य परम्परा का-संरक्षण और संवर्धन के गंभीर दायित्व है, जिसकी निपुणता से निर्वहन करता है- शब्दकोश।
सुविख्यात भाषाविद श्रद्धेय डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा के शब्दों में कहें तो- अच्छे कोश किसी भाषा के लिए पौष्टिक भोजन के समान है।
छत्तीसगढी भाषा के लिए उपलब्ध शब्दकोशों में पौष्टिकता पर्याप्त मात्रा में नहीं है। इसलिए इस भाषा में कुपोषण का खतरा उत्पन्न हो गया है। छत्‍तीसगढ़ राज्य बनने के पहले छत्तीसगढ़़ी भाषा का अध्ययन एवं वर्गीकरण भाषा शास्त्रीय आधार पर किया जाता रहा है। लेकिन कोश के निर्माण में तेजी राज्य गठन के बाद आई । तेजी इतनी कि लगभग होड्-सी मच गई । किसी को प्रथम आने की तो किसी को शब्द भण्डार बढाने की। इस आपाधापी का परिणाम यह हुआ कि छत्तीसगढी भाषा के अनेक शब्द कहीं-कहीं अपने स्वाभाविक अर्थ को ही खो बैठे। मसलन-कमचिल, मुहलेडी, मुरहा, उपला, खुरहोरी या खुरेरी इत्यादि। यह सच है कि जैसा कि पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलपति कौशल प्रसाद चौबे छत्तीसगढी-शब्दकोश के आमुख में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि 'शब्दकोशों के प्रकाशन के बिना किसी भाषा या बोली का व्यापक विकास संभव नहीं है; बल्कि उसके मानक रूप के निर्धारण में उनका व्याकरणों के समान ही महत्वपूर्ण योगदान रहता है। अंग्रेजी में बीसियों छोटे-बडे शब्दकोशों को देखकर उसकी सम्पन्नता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।' लेकिन यह भी सच है कि मात्रा के साथ-साथ उसके गुणवत्ता को भी बनाए रखना आवश्यक है। उपलब्ध कोशों को देखने के बाद हमें लगा कि उनमें अर्थ की प्रमाणिकता की दृष्टि से सुधार की काफी गुंजाइश है, याने गुणवत्ता की कमी।

अब हम चर्चा करना चाहेंगे उपलब्ध कोशों में दिए गए अर्थों की। हमें यह देखकर दुखद आश्चर्य हुआ कि छत्तीसगढ़़ी के शब्द प्रचलन में होने के बाद भी छत्तीसगढ़़ी शब्दकोशों में हिन्दी या संस्कृत के शब्द अनावश्यक क्यों हुए हैं? यह बात छत्तीसगढ़़ी भाषा के लिए चिन्तनीय हैं। देखिए- कालाजाम-छत्तीसगढ़़ी हिन्दी शब्दकोश-सम्पादक- डॉ.पालेश्वर शर्मा पृष्ठ 54 - इसे काला बडा व मीठा जामुन कहा गया है। छत्तीसगढ़़ी में इसके लिए रायजाम शब्द प्रचलन में है। इस लिए कालाजाम शब्द गढने की आवश्यकता हमें समझ में नहीं आई । मजेदार बात तो यह है कि इस शब्द का प्रयोग किसी छत्तीसगढि़या को करते नहीं पाएंगे उपला की भी यही स्थिति है। छत्तीसगढ़़ी शब्दकोशों में इसे सूखा गोबर बताया गया है। उपला मूलत: संस्कृत का शब्द है सूखा गोबर को छत्तीसगढ़़ी में खर्सी कहते हैं। जो प्राय: खेतों में पड्डा मिल जाता है, जिसे गांव में बच्चे और विशेष कर महिलाएं बिनकर (चुनकर) लाती हैं। वाक्य देखिए- 'चल खर्सी बिने बर जाबो।' उपला के जब छोटे-छोटे टुकडे कर दिए जाते हैं या हो जाता है, तब उसे भी खर्सी कहा जाता है। उदाहरण- 'बइला हा छेना ल रडंद के खर्सी बना दिहिस। वास्तव में छत्तीसगढ़़ी में उपला को छेना कहा जाता है; जिसे गोबर में धान का भूसा, पैरा या पेरोसी ( धान मिंजाई/मिसाई के कारण पैरा के छोटे- छोटे तुकडे) को मिलाकर थाप (पाथ) कर बनाया जाता है। हिन्दी में इसे कण्डा कहा जाता है, और छत्तीसगढ़़ी भाषा के वृहद कोश का दंभ भरने वाले छत्तीसगढ़़ी शब्दकोश-लेखक- चन्द्रकुमार चन्द्राकर, ने भी उपला को सूखा गोबर बताया है, वस्तुत: उपला का प्रयोग आम छत्तीसगढ़़ी में नहीं होता। इस कोश में वृहद के फेर में अनगढ, हास्यास्पद, बेतुके छत्तीसगढ़़ी संस्कृति के विपरीत स्वनिर्मित शब्द हुए बहुतायत में मिल जाएंगे। यथा- अंखियउनी-आंख से संकेत करने या आंख मारने का पारिश्रमिक भोजनोपरान्त हाथ-मुंह धुलाने का पारिश्रमिक। भोजनोपरान्त हाथ-मुंह धुलाना। छत्तीसगढ़़ में पवित्र कार्य याने मेहमाननवाजी का एक शिष्ट परम्परा माना जाता है। मात्र इस कार्य के लिए

पारिश्रमिक अर्थ को कोई भी छत्तीसगढिया स्वीकारने को तैयार नहीं होगा। इसी तरह से अंचवाल भोजनोपरान्त हाथ-मुंह धुलाया हुआ। वास्तव में शब्द तभी शब्द है जब उनमें पद बनने की क्षमता हो या वाक्य के तौर पर उनका प्रचलन हो। अंचवाल शब्द का प्रयोग अब तक मुझे कहीं भी देखने या सुनने को नहीं मिला। इस कोश में ऐसे शब्दों की लम्बी सूची है। अत: हम केवल और एक-दो उदाहरण देकर काम चलाना चाहेंगे। देखिए-उलरडनी, उलराल-असंतुलन, कंझाल- अधिक विलाप कराने या अधिक परेशान करने का खर्च या पारिश्रमिक | चखङनी, चखवङडनी, चखौनी, चखाल-अनुभूति करने या कराने का खर्च या पारितोषिक। चखने का काम पकती सब्जी में नमक का अंदाजा लगाने के लिए किया जाता है। उदाहरण-साग ल चिख के देख ले निमक हा बरोबर (ठीक) हावे के नहीं । कबियउनी, कबियाल-दोनों बांहें फैला कर पकडने का खर्च या पारिश्रमिक इत्यादि। निश्चित ही इस प्रकार की प्रवृत्ति से भाषा की पौष्टिकता में कमी आती ही है और वह यदि बोली हो तब उसकी गंध और तड्प का प्रभावित होना स्वाभाविक है। जैसा कि रामहृदय तिवारी ने शब्दकोश के निर्माण को गंभीर दायित्व कहा है । मुझे लगता है कि इस दायित्व को बडी गंभीरता के साथ ही निभाया जाना चाहिए था; पर ऐसा नहीं हो सका। छत्तीसगढी के प्रारंभिक कोश विशेष रूप से 'छत्तीसगढ ज्ञानकोष ' लेखक जाने-माने रचनाकार हैं-हीरालाल शुक्ल। प्रकाशक-मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी में दिए शब्दार्थ को देखकर एक छत्तीसगढिया का मन निश्चित ही विद्रूपता से भर जाएगा। इसी विद्रूपता ने हमें लिखने को बाध्य किया। इस कोश से सम्पादक श्री शुक्ल के अनुसार रेवरेण्ड ई.डब्लू मेंजेल, बिसरामपुर 1939 है। यदि हमें संशोधन नहीं किया गया है तो अर्थदोष को स्वाभाविक ही कहा जा सकता है। क्योंकि छत्तीसगढी के जानकार से ऐसी गलती की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसी अद्भुत स्थिति चाहे और कहीं देखने-सुनने को मिले या न मिले पर छत्तीसगढी में अवश्य देखने को मिल जाएगा कि लोग शब्दकोश पढने के बाद कहते हैं-घिरिया ला या/जामुन ला छत्तीसगढी में का कथे जानथस ? नहीं ? घररख्वा/ कालाजाम। दरअसल छत्तीसगढी शब्दकोशों में घररख्वा का अर्थ छिपकली दिया गया है। वास्तव में छत्तीसगढी में इसके लिए ज्यादा प्रचलित शब्द 'घिरिया' है। घिरिया के दो प्रकार होते हैं, एक-भूरी खुरदुरी और दूसरा-चिकनी तैलीय। चिकनी तैलीय को यहां चिकनी घिरिया कहते हैं। चन्द्रकुमार चन्द्राकर को छोड अन्य कोशों में छिपकली को छिपकली ही बताया गया है। चन्द्राकर ने घररख्वा शब्द का प्रयोग किया है; पर यह नहीं बताया कि घररख्खा भूरी खुरदुरी छिपकली है या चिकनी तैलीय । इतना सच है कि छत्तीसगढ के कुछ भागों में इस शब्द का प्रयोग कभी-कभार ही होता है । घररख्वा शब्द का प्रयोग कभी-कभार क्यों होता है ? इसका उत्तर भाषा विज्ञान में सहजता से मिल जाएगा। वास्तव में भाषा सहजता को स्वीकार करती है और क्लिष्टता से अपना पल्ला झाडने लगती है। घिरिया शब्द घररख्वा की अपेक्षा ज्यादा सरल, सहज एवं बोलने में सुविधाजनक है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से कहें तो इसमें मुखसुख का गुण है। यही गुण शब्दों को बहुप्रयोगी ही नहीं बनाता; अपितु उसे जीवित रखने में भी सहायता करता है। अतएव होना यह चाहिए था कि-छिपकली का अर्थ घररख्वा के साथ घिरिया भी बता देते या लिख देते तो अर्थ में भी सहजता का गुण आ जाता। कालाजाम के संबंध में चर्चा हो चुकी है इसलिए उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

वैसे शब्दों के अर्थों को समझाने और समझने की क्रिया आसान नहीं है। जब तक कि शब्दों के इर्द-गिर्द के शब्दरूपों या भावभंगिमाओं, क्षेत्रविशेष की परम्परा और प्रचलन से पूरी तरह से परिचय प्राप्त नहीं कर लेते तब तक उनके सही-सही पर्यायवाची शब्द दे देना जल्दबाजी होगा। मसलन कमचिल को ही लें। वास्तव में बांस का टुकडा यदि लगभग सीधा और थोडा कम से कम 1 फीट लम्बा हो तो उसे डंडा कहते हैं।यही अर्थ हिन्दी कोशों में भी है, और यदि डंडा 3 से 6 फीट के आस-पास है तब उसे लाठी- छत्तीसगढी में लडठी और मोटा हुआ तो ठेंगा कहते हैं। अशोक मानक हिन्दी कोश में लाठी को बडा डंडा कहा गया है। अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है, जैसा कि मुझसे भी पूछा गया था कि आप ही बताइए कमचिल को क्या कहेंगे? दर-असल कमचिल, कमचिल है । जैसा कि प्राय: शब्दों के पर्यायवाची नहीं होते ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़़ी में भी कमचिल के पर्यायवाची नहीं है। लेकिन इसका आशय यह भी नहीं है कि इसे समझाया नहीं जा सकता। वास्तव में शब्दकोश में शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए उसके निकटतम के ऐसे शब्द को प्रस्तुत किया जाता है, जो लगभग उसका पर्याय हो। इसे समझने के लिए छत्तीसगढ़़ी के तुमा एक अच्छा उदाहरण हो सकता है। छत्तीसगढ़़ी शब्दकोशों में तुमा को लौकी कहा गया है।

सामान्यत: सब्जी के रूप में पकाकर खाया जाने वाला फल लौकी छत्तीसगढ में विभिन्न आकार-प्रकार में पाई जाती है- 1. नीचे मोटा ऊपर पतला 2. छोटे कद्दू के आकार की गोल 3. लम्बा पतला मुगदर के आकार का 4. लम्बा पतला 5. लंबा गला बीच फूला हुआ और अंतिम सिरा पतला-सूखने पर इसका बीन बनाया जाता है।
प्रथम प्रकार के आकार वाली, मगर उससे छोटी जो प्राय: कडुवी होती है उसे तुम्बी कहते हैं।यह तुमा का छठा प्रकार है।इसका उपयोग सूखने पर बीज को निकाल कर तथा ऊपरी भाग में छेद कर उसे पीने के लिए पानी भरने के काम में लाया जाता है। अति प्राचीनकाल से आज तक सुदूर गांवों में इसका प्रयोग वाटर बैग के रूप में ही किया जाता रहा है।
प्राचीन भारतीय कथाओं में इसका यही प्रयोग मिलता है। श्रवण को राजा दशरथ द्वारा शब्द-भेदी बाण मारने की कथा का संबंध इसी से जुडा हुआ है। द्वितीय आकार वाले फल को सूखने पर छत्तीसगढी के गायन पंडवानी का प्रसिद्ध वाद्य- यंत्र तमूरा (इकतारा) बनाया जाता है। यद्यपि छत्तीसगढी में लौकी शब्द का प्रचलन लम्बा पतला आकार वाले फल के आगमन के साथ हुआ, जो उक्त प्रकार वाले फल (तुमा) से बहुत बाद का है। लेकिन इसने शब्द स्तर पर अन्य आकार- प्रकार के फलों को यहां से लगभग निगल चुका है। इसलिए तुमा के लिए लौकी अर्थ एकदम उपयुक्त है।

जब तक कि मैं कमचिल शब्द के इर्द-गिर्द के शब्दरूपों का भाव-रूपों से पूरी तरह से परिचय प्राप्त नहीं किया था, तब पूछने वालों को कह दिया करता था- बांस या बांस का वह टुकडा जो दो या दो से अधिक भागों में विभक्त हो कमचिल कहलाता है, पर जब अध्ययन के दौरान विविध लोगों से संपर्क करते रहा, तब मुझे ज्ञात हुआ कि-खडे बांस या बिना टुकडा किए बांस को फाड कर अलग किया जाता है, उसे कलमी कहते हैं। जिसे प्राय: कच्चे घरों के सज्जा; जिस पर खपरा ( खपरैल) छाया जाता है, के लिए प्रयोग में लाया जाता है और जब उसका टुकडा कर दिया जाता है या हो जाता है, तो उसे कमचिल कहते हैं। कहीं-कहीं कलमी के लिए भी कमचिल शब्द का प्रयोग किया जाता है । छत्तीसगढ ज्ञानकोश पृष्ठ क्रमांक 360 में कमचिल के स्थान पर कलमी शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ बांस का हिस्सा बताया गया है। निष्कर्ष के तौर पर कहें तो कलमी हर हालत में कमचिल से लम्बा होता है, जबकि कमचिल खडे बांस सा बांस के टुकडे से निर्मित हो सकता है ? इसलिए कमचिल को कलमी का टुकडा कहना बेहतर होगा। बांस के कितने भी टुकडे कर दिए जाएं उसका आकार गोल ही रहेगा और वह जब तक गोल रहेगा कलमी या कमचिल नहीं कहलाता । चाहें तो उसे डंडा या लडठी कह सकते हैं।

शब्दों के सटीक पर्यायवाची शब्द तलाशना तब और कठिन हो जाता है जब एक ही शब्द के अलग-अलग कोशों में भिन्न- भिन्न पर्यायवाची दिए गए हों । हमें भी ऐसे अनेक शब्दों से गुजरना पड्म । हमें लगता है कि यहां पर एक-दो शब्दों के उदाहरण देने मात्र से हमारा अभीष्ट सिद्ध हो जायेगा। सो- 1.आंतर- 1.-दही का थक्का। छत्तीसगढी शब्दकोश-चन्द्रकुमार चन्द्राकर (पृष्ठ 40) 2.-जुताई से छूट गई भूमि छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश-डॉ.पालेश्वर शर्मा (पृष्ठ 19) 2. खोर- 1.- मकान के सामने की जगह, प्रवेश द्वार- छत्तीसगढी शब्दकोश (पृष्ठ 131) 2. दरवाजे के आगे की जगह घर के पास का रास्ता, या गली, पौर छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश (पृष्ठ 79) छत्तीसगढी में खोर गली को कहते हैं। यहां टोटका के रूप में व्यक्तियों के नाम खोरबाहरा, खोरबाहरिन रखा जाता है। कामचोर गली में घूमने वाले पुत्रों को मां-पिता या बडे बुजुर्ग अक्सर डांटते हुए कहते हैं-बस । खोरे-खोर घूम, कोई काम-धाम नई हे ? हिन्दी में इसके लिए गली शब्द का प्रयोग किया जाता है । वाक्य होगा गली-गली घूम; कोई काम-धाम नहीं है ?
ऐसे शब्द भी कम परेशानी पैदा नहीं करते जिनका प्रयोग एक कोश में तो होता है पर दूसरा उसे छोड देता है, मुंहलेडी, खर्सी ऐसे ही शब्द हैं। मुंहलेडी छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश में है, जहां उसका अर्थ चूहे की लेडी, मुसलेड्डी बताया गया है । मुस का अर्थ चूहा तो समझ में आता है, पर चूहा के लिए मुंह का प्रयोग समझ से परे हैं । वास्तव में मुंहलेडी यहां अजगर की प्रजाति का एक सुस्त सांप को कहते हैं। 

समय के साथ-साथ प्राय: परम्परा एवं रीति-रिवाजों में भी बदलाव आता रहता है। कुछ परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों, पहनाओं आदि के साथ-साथ पारम्परिक पकवान तक में भी बदलाव आ जाता है। इनमें प्राय: कुछ नई जुड जाती है और कुछ लुप्त हो जाती है । लुप्त होती परम्पराएं, रीति-रिवाजों और पकवानों को कुछ वर्षों के बाद उनके ठीक- ठीक पहचान करने में कठिनाई उत्पन्न होने लगती है । ददा-दाई, आजा-आजी, ठेठरी-खुरमी, तस्मई ऐसे ही शब्द हैं। कोश ऐसे शब्दों की पहचान कराने में सहायक होता है। लेकिन  कल्पना कीजिए कि कोश ही गलत अर्थों से युक्त हो तब क्या होगा? हमें लगता है कि यहां पर संक्षिप्त उदाहरण ही पर्याप्त होगा। आजा-आजी, ददा-दाई जैसे अनेक शब्द नए आगत शब्दों के कारण अपना अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे में शब्दकोश में दिए गलत अर्थ बाद में परेशानी का कारण बनेगा-देखिए आजा-दादा, बाबा।
आजी-दादी। छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश पालेश्वर शर्मा (पृष्ठ 20) ।
छत्तीसगढ का निवासी अच्छी तरह से जानता है कि आजा का पर्याय-नाना और आजी का पर्याय-नानी है, दादा या दादी नहीं। तसमई जिसका जिक्र आगे किया गया है, इसे हमारे कथन के प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है।

यदि भाषा भावों की संवाहिका है तो शब्द अर्थों का वाहक और कोश उसका आईना । यदि आईना ही दाग-धब्बों से भरा हो, तब भाषा का साफ एवं स्पष्ट चेहरा नहीं देखा जा सकता तथा अस्पष्टता के कारण समाज को कितना नुकसान होगा या समाज में कैसी विकृति फैल सकती है, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। शब्दकोशों में कमचिल के गलत बयानी का ही परिणाम है कि आज छत्तीसगढ का नवयुवक सिद्धान्त याने किताबी या प्रतियोगिता पास करने के लिए कमचिल को बांस का टुकडा लिखता है और आम जीवन में कलमी के टुकडे का प्रयोग करता है। मैंने बांस के टुकडे और कलमी के टुकडे का अलग-अलग ढेरी बनाया और लोगों से कमचिल लाने को कहा हर बार सब ने कलमी के टुकडे को ही लाया। पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर के एमए हिन्दी की वार्षिक परीक्षा में इसका पर्याय लिखने को कहा गया था। जिन परीक्षार्थियों ने इसका उत्तर
लिखा था उनमें से सभी ने बांस का टुकडा लिखा था। विश्वविद्यालय के पाठ्य-पुस्तक में भी यही छपा है। दूसरों को छोडिए जो प्राध्यापक छत्तीसगढ का रहवासी है वह कमचिल के लिए कलमी का तो प्रयोग करता है, लेकिन पढाने और मूल्यांकन करने में बांस के टुकडे का। भाषा के साथ ऐसी विडंबना और कहीं देखने को मिले न मिले छत्तीसगढी में प्राय: देखने को मिल जाएगा इसका एक बडा कारण जो हमें लगता है वह है प्रमाणित शब्दकोश का अभाव या पाठ्यपुस्तक तैयार करने वालों में छत्तीसगढी शब्दों के साथ रचे-बसे होने का अभाव। निश्चित ही यह छत्तीसगढी के जानकारों के लिए अत्यधिक सोचनीय और चिन्तनीय है। छत्तीसगढ के विश्वविद्यालयों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

खैर... दूसरा उदाहरण भी दिलचस्प ही नहीं, व्यापक छान-बीन और चर्चा का मोहताज है। वह है तसमई-जिसे खीर कहा गया है। चर्चा के दौरान एक महिला ने मुझे बताया कि शिक्षाकर्मी की पिछली परीक्षा में यह प्रश्न पूछा गया था। सही उत्तर किसे दिया गया होगा ? इसका और बाद में उसके परिणाम का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है । हमने इसका सही अर्थ जानने के लिए कई दिनों तक कई भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों से संपर्क किया। हिन्दी से लेकर छत्तीसगढी सभी शब्दकोशों में इसे खीर कहा गया है । छत्तीसगढ के लुप्त प्राय: व्यंजन होने के कारण से आज कुछ लोगों में भ्रम की स्थित बनी हुई है। जब मैं लोगों से जानना चाहा कि यह व्यंजन दूध से बनाई जाती है या मही (मट्ठा) से ? तब एक मत कभी भी नहीं बन सका। साधारण लोगों को छोडिए दिवाली मिलन के अवसर पर महाजन बाडी राजनांदगांव में उपस्थित साहित्यकारों और चिन्तकों के सामने भी जब तसमई का अर्थ जानना चाहा तब उनमें एक मत बनाने में काफी जद्दोजहरद करनी पडी, पर स्वीकारोक्ति में भी संशय और हिचकिचाहट बरकरार रही । मरकाटोला जिला राजनांदगांव के एक संभ्रान्त बुजुर्ग प्यारेलाल सिन्हा ने इसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए बताया कि मही घर में रहता तब पिताजी मां से कहते थे- ' महीं राखे हे घर में तमसई बना ले। तसमई चाहे दूध से बने या मट्ठा से उसे बगैर सब्जी के भी खाया जाता है। आशय हुआ खीर दूध से बनाई जाती है जो मीठा होता है तो तसमई मही से जिसमें नमक डला होता है। वैसे छत्तीसगढ में मही से खीर की तरह शक्कर नहीं नमक डाल कर जो व्यंजन बनाया जाता है उसको महेरी कहते हैं । चन्द्रकुमार चन्द्राकर के कोश को छोड कर हिन्दी से लेकर छत्तीसगढी के कोशकारों ने महेरी का आशय या तो छोड दिया है या पत्नी बताया है। जबकि चन्द्राकर ने इसे खट्टी खीर कहा है, जो कि समीचीन है। हिन्दी कोशों में मुझे खट्ठी खीर का कहीं उल्लेख नहीं मिला। जबकि खट्टी खीर तब भी बनता रहा होगा ? कुछ लोगों ने खट्टी खीर के समर्थन में यहां तक कहा कि-तसमई, तसमइही का ही बिगडा रूप है। व्यापक चर्चा न हो पाने तथा पूर्ण निष्कर्ष प्राप्त नहीं कर सकने के कारण हम यहां पर पुराने अर्थ को ही स्वीकार कर रहे हैं। जैसे विशेष रूप से क्रिकेट में संदेह का लाभ प्राय: बल्लेबाज को मिल जाता है, कुछ उसी तरह से हमने भी संदेह का लाभ पुराने अर्थ को दे दिया है- (इसके लिए पाठक हमें क्षमा करें)। छत्तीसगढी के कोशकारों ने यदि व्यापक चर्चा कर कोश को तैयार किए होते तो शायद अर्थ को लेकर इतना विरोधाभास नहीं होता।
प्राय: शब्दों में कई-कई अर्थ चिपके होते हैं। व्याकरण में इसे अनेकार्थी शब्द कहा जाता है। छत्तीसगढी के कोशों में ऐसे अनेक शब्द देखने को मिल जायेंगे । जिनके अन्य अर्थ सामान्य बोलचाल में व्यवहृत है; पर उन्हें शब्दकोशों में स्थान नहीं मिल सका है । हम यहां एक-दो उदाहरण देकर ही अपनी बात की पुष्टि करना चाहेंगे। यथा- 1. चिला- चावल आटे से बनाई जाने वाली दोसा जैसे एक पतली रोटी । जल में उत्पन्न होने वाली एक घास । 2. चिकट- विवाह की एक रस्म । 3. चिटहा, चिटहिन- उम्र के आधार पर शारीरिक रूप से छोटा। 4. चिटकी-चुटकी 5. पखार-माड्युक्त भात, ऊंची भूमि, खेत का ऊंचा भाग।

उपर्युक्त उदाहरणों में चिला के साथ अलसी की मिसाई के बाद का कुचला डंठल, चिकट के साथ मिट्टी का एक प्रकार, लारदार या फिसलने वाली वस्तुएं जैसे कोचई आदि। चिटहा चिटहिन के साथ गंदा, चीटयुक्त ग्रीस या बैलगाडी का काला तेल लगा शरीर या कपड्र। इसी तरह से चिटकी के साथ थोडी-सी । उदाहरण-मनटोरा चिटकी तेल दे तो, हमर घर में तेल का खतम हो गेहे । लाहूं त दे देहूं । पखार के साथ- पार, तरफ मेंड का किनारा । उदाहरण- तेंहा ए पखार ला देख में हा ओ पखार ल देखत हों ( पखारे पखार जाबे) । क्रिया- धोना, उदाहरण-भांचा ह आय हे ओकर पांव पखार ले पुन्न मिलही (पांव पखारना) जैसे अर्थों को भी लिखा जाना चाहिए था।
शब्दों के अर्थ को परखने या समझाने का एक अच्छा तरीका वाक्य प्रयोग, कविता, कहानी या मुहावरा आदि भी हो सकता है। जैसाकि अनेक प्रतिष्ठित कोशकार करते आ रहे हैं। आक्सफोर्ड उनमें से एक है। छत्तीसगढी शब्दकोश में भी इसका अधिक से अधिक प्रयोग होना चाहिए था। छत्तीसगढी हिन्दी शब्दकोश, तथा छत्तीसगढी शब्दकोश में कुछेक प्रयोग हुआ है, पर पर्याप्त नहीं है। हम यहां पर एक ही उदाहरण देकर बताना चाहेंगे कि कैसे शब्दकोश में दिए गलत अर्थ को सही अर्थ में प्रस्तुत किया जा सकता है । अर्थ की वास्तविकता को प्रकट करने के लिए हम यहां पर लोकगीत की पंक्तियों को प्रस्तुत करना चाहेंगे। चन्द्रकुमार चन्द्राकर के छत्तीसगढी शब्दकोश के पृष्ठ 418 में बेर ढरकना को दोपहर होना तथा बेर ढरकाना को दोपहर करना कहा गया है; जबकि छत्तीसगढी लोकगीत की पंक्ति- बेरा ढरकगे नांगर ढिलागे, होगे बियारी के बेरा हो संगी होगे बियारी के बेरा । परबुधिया सजन नहीं आइस जाने कोन जनम क फेरा जाने कोन जनम के फेरा । से साफ जाहिर हो रहा है कि बेर ढरकना को दोपहर होना तथा बेर ढरकाना दोपहर करना या कराना नहीं कहा गया है । वास्तव में बियारी का अर्थ रात्रि का भोजन होता है। प्राप्त सभी कोशों में यही अर्थ दिया भी गया है । गांव में बेरा को दो भागों में बांटा गया है, जैसा कि हिन्दी में भी होता है- पूर्वान्ह और अपरान्ह याने बेरा और उतरती या ढरकती बेरा । अर्थात लोक गीत के उपर्युक्त पंक्ति के आधार पर भी बेर ढरकना या बेरा ढरकाना का अर्थ आसानी से-समय बिताना या सांझ होना या कर देना, लगाया जा सकता है।

छत्तीसगढी के भी अनेक उप बोलियां हैं इसिलए एक ही वस्तु को अनेक नामों, अनेक रूपों में बोला जाता है । जैसे- टमाटर को सरगुजा में विलायती, बिलासपुर में पताल और राजनांदगांव में बंगाला कहा जाता है। टमाटर के संबंध में चर्चा करते हुए ललन कुमार प्रसाद ने नवनीत पत्रिका 1992 सेहत का खजाना टमाटर में इसके जन्म स्थान के संबंध में अपना अभिमत देते हुए लिखा है- चूंकि टमाटर का जन्म- स्थान दक्षिण अमेरिका है और आकृति में यह कुछ-कुछ गोल आकार वाले बैंगन से मिलता-जुलता है। इसलिए गांवों में किसान भाई इसे विलायती बैंगन के नाम से भी पुकारते हैं। इसी तरह से बिस्तर को कहीं दसना, डसना या रास्ता को रद्दा, रस्ता, रेंगना या रेंगान। ये तरफ, और तरफ को बिलासपुर में एलंग, ओलंग । रायपुर में येती, ओती या ये कोती, ओ कोती आदि कहते हैं। ऐसे शब्दों के कारण शब्द-संख्या तो बढती है, पर समस्या फिर भी अनुत्तरित रह जाती है कि किन उप बोलियों को प्रमुखता दी जाए ? इसे हल करना नामुमकिन न सही टेडी खीर अवश्य है। अभी तक छत्तीसगढी भाषा के जितने भी शब्दकोश निर्मित हुए हैं सभी में प्राय: रायपुर और बिलासपुर को केन्द्र में रखा गया है। अन्य क्षेत्र प्राय: या तो नजरअंदाज कर दिए गए हैं या फिर उनका एक अलग कोश ही बना दिया गया है। मसलन-गोंडी-हिन्दी शब्दकोश (त्रिलोचन पाण्डेय) |

हर जीवित भाषा परिवर्तनशील होता है । भाषा के बदलते स्वरूप को देख कर ही शायद कबीर दास को कहना पड्मा- भाखा बहता नीर। यदि अपने ही आलेख से शब्द उधार लूं तो कहना होगा- 'इस नीर में विविध भाषाओं के शब्द बह- बह शामिल होते रहते हैं।' हिन्दी भाषा के संदर्भ में हरिशंकर परसाई जी का भी यही मानते रहे हैं कि जो शब्द अंग्रेजी के आ गए हैं, आते जा रहे हैं, उन्हें हिन्दी बना लेना चाहिए। उन्हें अपनी व्याकरण में ढाल लो, लिंग वचन दे दो। लोग बोलते ही हैं ट्रेनें लेट आ रही हैं। अपढ आदमी भी बोलते हैं। वाइफ का अबार्सन हो गया। इन्हें कौन रोक सकता है।
इस बात को सभी भाषा विज्ञानी एक मत से स्वीकार करते हैं कि भाषा तभी तक जीवित रहती है जब तक उसमें बहाव अर्थात अपने आप को समय के अनुरूप बदलते रहने की क्षमता होती है ठीक बडी नदियों की तरह-जब तक भाषा रूपी नदी दूसरों से शब्द रूपी जल को आपने में समेट कर अपना आकार बढाता रहेगा तब तब उसकी पहचान बनी रहेगी। छत्तीसगढी को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता है। विशेष रूप से वैज्ञानिक संसाधनों के विकास के जहां कई नए शब्द भाषा में जुड जाते हैं वहीं परम्परा के कुछ शब्द लुप्त भी हो जाते हैं। छत्तीसगढी के कनोजी, कुडेरा, ( कुंडेरा) केजा, कोरी, खड्पडी खासर, गोना, घिरनी, चपडा या चापड, धारन, पखरिया, बसनी, मेंडवार, मेंढिया, रास आदि लुप्तप्राय शब्द हैं तो गैस-गैस चुल्हा, कूकर, कूलर, पाना, पेंचिस, रेजा-कूली, मशीन ट्रेक्टर, मास्टर, डॉक्टर, ठेसन, गांठ या गांठ बाबू, गिराहक या गिराहेकी इत्यादि अनेकानेक शब्दों का प्रवेश छत्तीसगढी में अंग्रेजी से हो गया है। छत्तीसगढी में भी हिन्दी के आगत शब्दों की तरह कुछ को ज्यों के त्यों स्वीकार कर लिए गए हैं तो कुछ को अपना रंग दे दिया गया है, जैसे-गार्ड बाबू का गांठ बाबू (ट्रेन कंडक्टर) । इंस्पेक्टर का निस्पेक्टर, डॉक्टर का दाग्दर, ग्राहक का गिराहक या गिराहिक इत्यादि।

दुर्ग जिला के गुरुर के पास के गांव ढोकला के मोतिन बाई ने मुझे लुप्तप्राय एक वस्तु बसनी दी है। बसनी रुपए- पैसे रखने का धागे से बुना जालीदार समानान्तर लम्बी आकार वाली एक प्रकार की थैली है, जिसे विशेष रूप से महिलाएं कमर में बांधती हैं । दिया गया बसनी जो काफी गंदा हो चुका था, मैंने उसे साफ कर अपने पास रख लिया है।
जब छत्तीसगढ सरकार ने कोश का निर्माण कराया तब ऐसे आशा जगी थी कि यहां के विद्यार्थी और बुद्धिजीवियों को एक प्रमाणित कोश मिल जायेगा तथा अर्थ संबंधी विसंगतियों से निजात मिल जायेगी क्यों कि इसे बनाने के लिए न केवल बडी धनराशि खर्च की जा रही थी बल्कि छत्तीसगढी के जानकारों का एक बडा समूह इसे बनने में काम कर रहा था। लेकिन जब कोश छपकर आया तब आशा निराशा में बदल गई । मेरे निराश होने के कारणों की एक बानगी मेरे छत्तीसगढी आलेख- ' अरथ ल मत लोकाक्षर जनवरी-मार्च 2010 के अंक 56 में भी देखा जा सकता है। देखिए, उसी आलेक से सीथा-भात। कोस में वाक्य लिखे हे- तोर होंठ मा सीथा चटके हे, धो ले। वइसे भी चटके हे उपयुक्त नई लागे । काबर चटके हे केहे मे बलपूरवक चिपके के जादा करीब अरथ हे अइसन लागथे। होना चाही लटके हे । जे हा लटके रथे ओ हा अपने आप छुए भर ले गिर जथे, अउ चटके ल निकाले बर थोडुकुन बल लगाये या परयास करेबर परथे। छत्तीसगढी में बासी के अन्न दाना ल सीथा कहिथें। वाक्य हावय सीथा-सीथा ल खा लिहिस अउ पसिया ल छोड दिहिस। बासी या पेज में भात हा पानी में बूडे रथे उही दाना अरथात सोझहा अन्न के दाना न होके बासी अथवा पेज के अन्न के दाना ल सीथा कइथें।

वइसने हावे-अंगोछना-पोछना। कोस के वाक्य लिखे हे- नहाय के बाद सरीर ल बने अंगोछना चाही । नहाने के बाद सरीर ल सुख्वा कपडा ले पोछे जाथे अउ गीला कपडा में सुख्वा सरीर ल अंगोछे जाथे। जो लइका सियान नहाय के लइक नई हे तेला कपडा ल गीला करके अंगोछे जाथे। परचलित वाक्य हावे-(नाम कोई भी हो सकत हे) रमेसर ला बहुत बुखार हावे त ओला मत नहवा गरम पानी से सरीर ला बने अंगोछ दे।
एक ठन गडबडी अउ देखो-अंधना-चावल पकने का गर्म पानी । समझायेबर वाक्य लिखे हे- चांडर बर अंधना चढा दे। ये बात ह उहिच कोस में ही लिखे हे। सही में देखौ त अंधना गरम पानी नोहे । तब अरथ में चावल पकने का गर्म पानी काबर लिखिस होही। नई जाने तेमन ला लगही कि चावल पकाय बर कोई गरम पानी होवत होही । अट्डसन नईहे । चाडंर ल पकाय के टैम पहली साधारना पानी ल पकाये वाले भंड्वा में डार देथें। तेकर बाद चुल्हा आदि में आगी बारथें। जब धीरे-धीरे अंधना के पानी ह गरम होथे अड गरम होत- होत खडले के करीब आ जाथे तब ओमें सनसनाहट होथे। उही अवस्था ल कथें अंधना आगिस । वाक्य बनथे-देख अंधना आगिस का ? चांडर ल डार दे।
अन्त में हम डॉ. रमेशचन्द्र महरोत्रा के शब्दों से सहमति जताते हुए यही कह सकते हैं कि अच्छे कोश किसी भाषा के लिए पौष्टिक भोजन के समान है। अब आवश्यकता है उस पौष्टिकता को बनाए रखने की।

डॉ.पी.आर. कोसरिया
मिसियाबाडा, डोंगरगढ


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