विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
राजिम दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन
संगोष्ठी में 200 से अधिक शोध पत्र प्रस्तुत, विदेश से भी आया शोध पत्र
रायपुर- राजिम के राजीव लोचन शासकीय महाविद्यालय में लोक साहित्य में जनजातीय संस्कृति व परंपरा पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन 7 जनवरी को हो गया। समापन मौके पर बतौर मुख्य अतिथि सासंद चंदूलाल साहू, अध्यक्षता छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष विनय कुमार पाठक, विशिष्ठ अतिथि प्राचार्या डॉ. आभा तिवारी और मुख्य वक्ता प्रोफेसर वीरेन्द्र मोहन शुक्ल रहें।
समापन मौके पर सांसद चंदूलाल साहू ने कहा कि राजिम संस्कृति संगम की नगरी है। छत्तीसगढ़ के भीतर संस्कृति और परंपरा की आदिम इतिहास है। प्रदेश की जनजातियों के विकास के लिए सरकार बेहतर काम कर रही है। ये सच है कि उनके संस्कृति और परंपरा को बचाने निरंतर शोध होते रहना चाहिए साथ विकास के नाम पर उनकी संस्कृतियों को हनन ना हो यह भी देखना जरूरी है। वहीं अध्यक्षता कर रहे डॉ. विनय कुमार पाठक ने कहा कि लोक साहित्य में छत्तीसगढ़ का कोई तोड़ नहीं है। यहां कि वाचन परंपरा बहुत ही प्राचीन है। जनजातियों की संस्कृति और परंपरा में साहित्य के रस मिलते हैं। भले ही वह मौखिक तौर है। जरूरत है कि हमें इसे सहेजने की। लोक साहित्य में जनजातियों की संस्कृति और परंपरा पर अभी बहुत काम होना बाकी है।
महाविद्यालय की प्राचार्या डॉ. आभा तिवारी ने कहा कि हमारी संस्कृति का आधार लोक ही है। आदिम सभ्यता से ही जनजातीय संस्कृति परंपरा में देखने को मिलता है। लोक संस्कृति उन्नत होगी तो लोक मजबूत होगा। अपनी लोक संस्कृति के लिए देश ही नहीं विदेश में रहने वाले लोग भी चिंतित है। लोक संस्कृति को समझने के लिये लोक समाज से जुड़ना होगा।
बतौर मुख्य वक्ताप हरि सिंह गौर केंद्रीय वि.वि. के प्रोफेसर डॉ वीरेंद्र मोहन शुक्ल ने कहा कि भारत में हर 7वां आदमी आदिवासी और जनजातीय है। आर्यो के आने के पहले भी जो भी सभ्यता थी भारत की थी वो मूलनिवासी आदिवासियों की थी और बहुत विकसित थी। विकास के नाम , उन्नति के नाम पर , जंगल के नाम पर जनजातीय संस्कृति का विनास हुआ है। लुप्त होती जनजातियों को बचाना ही लोक साहित्य को बचाना होगा। औद्योगिक घरानों से जनजातीय संस्कृति को नुकसान हुआ है। जनजातियों को मुख्यधारा में नहीं बल्कि उन्हें मुख्यधारा मानकर विकास करना होगा।
वहीं आयोजन के पहले दिन संगोष्ठी का शुभारंभ केरल से आए कालीकट विवि के प्रोफेसर बतौर मुख्य अतिथि डॉ आर सुरेन्द्रन ने किया था। प्रो. आर. सुरेन्द्रन ने कहा कि लोक भाषा है तभी साहित्य। और लोक संस्कृति में ही साहित्य परंपरा निहित है। छत्तीसगढ़ पदुमपुन्नालाल बख्शी, गजानंद माधव मुक्तिबोध, मुकुटधर पाण्डेय, और माधव सप्रे जैसे हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों की भूमि है। ऐसे भूमि में आना मेरे लिए गौरव की बात है। हम जनजतीय संस्कृति से सीखते है वो हमसे नहीं। उनके संस्कृति और परंपरा को दूर कर हम उन्हें आधुनिक नहीं बना सकते। लोक साहित्य का विकास जनजातीय संस्कृति परंपरा से ही है।
संगोष्ठी को प्रो. अल्का श्रीवास्ताव, डॉ. रीता यादव सहित अन्य कई विद्धानों ने भी संबोधित किया। संगोष्ठी में विभिन्न कॉलेज से आए 200 से अधिक प्रोफेसर और शोधार्थी छात्र-छात्राओं ने शोध पत्र प्रस्तुत किया। खास बात ये कि विदेशों से भी शोध पत्र संगोष्ठी में आये। कार्यक्रम का संचालन प्रोफेसर जी.पी. यदु और आभार गोवर्धन यदु ने किया।
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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)