भीम सम विधान


हमारा संविधान सचमुच में भीम है, इसलिए नहीं कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर उसके निर्माता हैं। बल्कि अपनी सम्पूर्णता में वह भीम है। हमारा संविधान विश्व का सर्वश्रेष्ठ भारतीय नागरिक संहिता है। भीम शब्द को इसके साथ युग्म करना सार्थक है क्योंकि संविधान को अम्बेडकर से और अम्बेडकर को संविधान से पृथक नहीं किया जा सकता। हमारे देश के चौक-चौराहों में लगी प्रतिमाओं में भी संविधान भीम के साथ उपस्तिथ है जिसे अम्बेडकर ने पोटार कर रखा है, बच्चे की तरह। दुनिया में संभवत: भारत ही ऐसा देश है जहां चौराहों में संविधान मूर्ति के रूप में उपस्थित है।

स्थूल मूर्तियां प्रतीक रूप में जीवन को सक्रिय करती हैं शायद इसलिए मूर्तियों को चौक चौराहों में लगाने की भारतीय परंपरा रही है। यह अलग बात है कि इन मूर्तियों में पक्षी बीट करते हैं और उसकी रखरखाव तरीके से नहीं हो पाती है। किन्तु भारत में अन्य लोगों के बरस्क अंबेडकर की प्रतिमा का देखरेख बहुत अच्छे ढंग से होता है जो यह सिद्ध करता है कि भारत में उनकी जबरदस्त साख है। होना ही चाहिए, उन्होंने दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान जो हमें रच के दिया है जिस पर हमें गर्व है।

इसीलिए इस महान भीम की महिमा अक्षुण रखने के वास्ते इनके अनुयायी संविधान दिवस को भी भीम दिवस के रूप में देखते हैं। इस बात के लिए तो छत्तीसगढ़ियों सहित सभी भारतवासियों को इनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। हालाँकि छत्तीसगढ़ अभी इस भीम के पगरइती को ठीक-ठीक से समझता नहीं है।छत्तीसगढ़ में भीम के मायने वही गदा वाले से है। आदि काल से जो लोक का नायक है, जिससे पंडवानी की अजस्र धारा प्रवाहित है। यहाँ के गांव में 'जय भीम-जय भीम' नारा लगाने से, गाँव का व्यक्ति पाण्डव वाला भीम समझ के ही जय-जय नरियाता है। जो थोड़े-बहुत इस भीम रचित संविधान को जानते हैं वे बस्तर में इस संविधान के पन्नों को फाड़कर चखना धरते है और फटहा संविधान, बाद में बिलासपुर के बोदरी में खिला जाता है।

भीम के साथ संविधान निर्मात्री सदस्यों में दुर्ग के घनश्याम गुप्ता भी थे। सुना है कि वे दाऊ थे शायद इसीलिए उनके वारिसनो को उनके इतने बड़े अवदानो का सुरता नहीं है, कुछ सहेज कर रखा भी नहीं है। वैसे भी उन्हें इसकी कोई जरुरत भी नहीं है वे तो पीढ़ीगत दऊई में मस्त हैं, ये तो जनता का कर्तव्य है कि घनश्याम गुप्ता के अवदानों को अपने स्वयं के संसाधनों से सकेलें और बगरायें। यह हम छत्तीसगढ़ियों का भोलापन है या दऊई अख्खड़पन। भीम के साथ कदम-पे-कदम मिलाते संविधान निर्माण के लिए चलते हुए भी, घनश्याम गुप्ता संविधान को पोटार के फोटू नहीं खिंचा सके।

इसके बावजूद हमारी नासमझी या बकौल पद्मश्री डॉ सुरेन्द्र दुबे कहें तो सुप्पर इंटेलिजेंट छत्तीसगढ़िया चीजों का संतुलन और अर्थ अपने सुविधा के अनुसार बनाता है। मेरे एक दोस्त को ही ले लो, वह उंगली करने में माहिर है, कहीं RTI लगाएगा तो कहीं शिकायत पत्र लेकर पहुंच जाएगा, कभी चौक में धरना-आंदोलन करने लगेगा तो कभी मुर्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाने लगेगा। जब मैं उसे पूछता हूं कि तुम्हें यह उंगली करने की का ज्ञान कहां से प्राप्त हुआ तो वह अपने पास रखे संविधान की ओर इशारा करता है। संविधान का इस तरह भी महत्त्व हो सकता है यह तत्कालीन संविधान निर्माता दल ने नहीं सोंचा होगा।

जो भी हो, आज संविधान दिवस है और आज अपने महान संविधान को सोरियाने का अवसर है। किन्तु आज के समाचार पत्रों में छपे विज्ञापनों को देखते हुए अंबेडकर के प्रति पूर्ण आदर के साथ लगता है कि विज्ञापनदाताओं के लिए, संविधान गौड हो गया है व्यक्ति महत्वपूर्ण हो गया है।

- तमंचा रायपुरी
26.11.2016
(हम भारत के लोगों के साथ सिटी बस में सफ़र करते हुए)

जो छली है वही बली है

सभा-गोष्टियों में बचपन से सुनते आ रहा हूं कि छत्तीसगढ़िया सदियों-सदियों से छले गए, हमें फलाने ने छला, हमें ढेकाने ने छला, ब्लाँ-ब्लाँ-ब्लाँ-ब्लाँ। इसे सुनते-सुनते अब ऐसी मनःस्थिति बन चुकी है कि छत्तीसगढ़िया छलाने के लिए ही पैदा हुए हैं। नपुंसकीय इतिहास से सरलग हम पसरा बगराये बैठे हैं कि आवो हमें छलो।

हम सीधे हैं, सरल हैं, हम निष्कपट हैं, हम निच्छल हैं। ये सभी आलंकारिक उपमाएं छल शास्त्र के मोहन मंत्र हैं। हम इसी में मोहा जाते हैं और फिर हम पर वशीकरण का प्रयोग होता हैं। बिना रीढ़ के हम जब पूरी तरह से उनके वश में हो जाते हैं तब हमें चाउर चबा के पूज दिया जाता है। मरे हुए हम, उच्चाटन का इंतजार करते रहते हैं किंतु हमारे लिए कोई भी उच्चाटन मंत्र का जाप करने नहीं आता क्योंकि इस छल शास्त्र में उच्चाटन मंत्र का अध्याय ही नहीं है।

हमें छलने वालों की संख्या हमसे कम है किंतु वे भुलवारने में निपुण है। उनके पास कपट के दिव्याश्त्र हैं जिससे वे हमारी एका विदीर्ण करते हैं। वे हम पर राज करते है, क्योंकि फूट हमारी पहचान है और एका उनकी शान। ऐसे में कोई एक यदि क्रांति का छत्तीसगढ़िया बाना उचाता भी है तो इनके एका के आगे क्या टिकेगा?

हिन्‍दी के एक बड़े साहित्‍यकार भारतेंदु, सदियों पहले हमारी इस दशा से वाकिफ थे इसीलिए उन्होंने अपने नाटकों में हमारी इस दुर्दशा को लिख दिया था कि 'छलियन के एका के आगे लाख कहो, एकहु नहीं लागे।' सनातन इतिहास तो छल की महिमा से परिपूर्ण है, यहाँ कृष्ण ने छल का प्रयोग धर्म की स्थापना के लिए किया वहीँ नारायण ने तीनो लोकों के राजा बली को छल दिया। इसी समय से छल को अहम् राष्ट्रीय चरित्र मान लिया गया। भारतेंदु इसे पुन : स्‍थापित करते हुए कहा 'प्रगट सभ्य अंदर छलधारी, सोई राजसभा बल भारी।' मने संतों, इन छलियों के छल से निबटने का एक ही रास्ता है जो राजसभा से निकलता है। इस छल के हथियार को बउरना सीखो। बहुसंख्यक जन के हित में उनके साथ तुम भी छल करो जिन्होंने हमें छला है। धधकती मूर्खता और छलकती धूर्तता के बीच कुछ तो रास्‍ता निकालना पड़ेगा।

- तमंचा रायपुरी
आगामी छत्‍तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के मध्‍ये(?) नजर

चेथ्थुल : ललियाये चेथी को सहलाते हुए

चेथ्थुल ठेठ देसी खेल है, इस पर हमारा कॉपीराइट भी है। यह अलग बात है कि इस में निपुण परदेसिया लोग ही हैं। कमोबेश पृथ्वी के हर हिस्से में यह खेल अपने आदिम स्वरुप में विद्यमान है। मुझे यह खेल बचपन में बहुत पसंद था, शायद इसलिए कि इस खेल के लिए सहमति आपको जोखिम के प्रति सचेत करती है।
पिछले दिनों अनुपम ने इसे याद दिलाया था, अनुपम का चेथ्थुल अनुपम था सो उसके ही बात को लमाया जाय।

अनुपम के यहां हांथो की छोटी ऊँगली को जोड़कर चेथ्थुल खेला जाता था। जैसे ही पहले के छीनी उंगली का संबंध दूसरे के छीनी अंगुली से अलग होता, एक झन्नाटेदार रहपट चेथी पर पड़ता। मेरे यहां चेथ्थुल जोरदार घोष के साथ आरंभ होता और जो चेथ्थुल कहने के बाद भी अपने सिर के पीछे हाथ नहीं रखता, उसके चेथी पर अनचेतहा थप्पड़ पड़ता। यह खेल जहाँ चाहे जिस प्रकार से खेला जाता हो यह सिर के पिछले हिस्से में झन्नाटेदार थप्पड़ मारने का खेल है।

चेथ्थुल नंदाने वाला खेल नहीं है, इसका स्वरुप भर बदला है। आज भी लोग चारो तरफ चेथ्थुल खेल रहे हैं। राजनीति में ही ले लीजिये, पिछले दिनों भूपेश ने अमित के साथ तो अजीत ने भूपेश के साथ चेथ्थुल खेला जिसकी गूंज तो आपने भी सुनी होगी। अभी-अभी मोदी ने भी काला धन वालो के साथ चेथ्थुल खेला और चेथी खजुवाते लोग लाइन में लग गए। कलेक्टर का तहसीलदार को और तहसीलदार का बाबू-पटवारियों को चेथ्थुल मारना आम है। खास तो यह है कि अपनी गलती अपने मातहत पर डालना चेथ्थुल है। इसके साथ ही कर्तव्यविमुख लोगों को याद दिलाने का नाम भी चेथ्थुल है।

यह खेल फेसबुक में भी बदस्तूर जारी है, यहां हमारे एक बड़े भैया हैं। वे हमारे साथ चेथ्थुल खेलते हैं, खेल का नियम है कि छत्तीसगढ़ी छत्तीसगढ़ी छत्तीसगढ़ी बोलते रहना है। जैसे ही आप छत्तीसगढ़ी बोलना बंद करोगे बड़े भैया आपके चेथी में जोरदार चेथ्थुल मारेंगे।

- तमंचा रायपुरी

पनही के बहाने

पनही पर भक्ति काल के कवियों ने बहुत कुछ लिखा है। उस समय के सभी दास कवियों ने पनही संस्कृति को अपने-अपने मंजुल मति अनुसार समृद्ध किया है। तत्कालीन ब्रांड एम्बेसडर संत रविदास तो इसकी जियो ब्रांडिंग करते हुए, कई बार संतों को तथा जनसाधारण को बिना कीमत लिये ही पनही भेंट कर दिया करते थे। यदि इन कवियों ने पनही पर उस समय अपना ध्यान केंद्रित नहीं किया होता तो उपेक्षित सा पनही घेरी-बेरी आज के सन्दर्भों में उफला नहीं पाता। बेकाम संत मोको कहाँ सीकरी सो काम लिखते हुए भी उस समय की राजधानी सीकरी गए। हमें बताया कि रियाया की शोभा गोड़ से ही होती है मूड़ तो शहनशाहों का ही होता है। पनही को मूड़ पर मुकुट जइसे मढ़ाया नहीं जा सकता, उसकी फितरत खियाने की ही होती है।

गांव में पनही पहिरि चमाचम ग्वाला खांधा मा डारे नोय घूमता था। कोई कहता कि छाड़ि दे ग्वाला बजनी पनहिया छाड़ि खांधा के नोय तो वह झट मना कर देता। इस बजनी पनही के दम पर सात बिआही नौ उढ़री सोरह सखी कुंवारि उस पर मोहित है। मने आप समझ सकते हैं इसकी महिमा।

हमारे जीवन में भी इस पनही का बहुत महत्व रहा है, घर में नौकर एक-एक जोड़ी भंदई-पनही और दो खण्डी धान में लगता था। नांगर-बखर के लिए जोंता-बरही संग परिवार के बाकी लोगों के लिए भी पनही बनवाना होता इसके कारण साल-दो साल में दो जोड़ी ही मिल पाता था। एक कड़े चमड़े वाला जो खेत-खार जाने के लिए और एक नरम चमड़े वाला जो बाहर गांव-गौंतरी जाने के लिए उपयोग में लाया जाता। इनके चिरा जाने पर भी घेरी-बेरी सिलवा-सिलवा कर फटते तक पहनना होता था। पनही का नाप देने दूसरे गांव जाना होता। एक सप्ताह बाद चमचमाती पनही दरवाजे पर मिल जाती थी, जो अंदर आते ही ललचाती थी। बाबूजी डाँटते थे, गांव-गौंतरी जाने के लिए खरीदी गई पनही यूँ ही कभी भी पहनी नहीं जा सकती थी। बाल मन मानता नहीं था और पनही पैरों में लहा के देखने के बहाने गली-खोर में निकल आती थी। बिना दांत के छीनी अंगरी और एडी के ऊपर चाबने के बाद भी पनही पैरों से स्वामिभक्ति दिखाते रहती। प्रभु की चाल बता देती थी कि टुरा नवा पनही पहना है।

बारात-सारात जाने के लिए चचेेरे भाई से एक-दो दिन के लिए सहरी पनही उधार भी ली जाती रही और क्रीम पालिस कराकर वापस की जाती रही। मुझे याद आता है एक बार के ऐसेही पनही उधारी में, राज्य परिवहन की खटखटिया बस से उतरते समय फटे पायदान में फसकर फट गई। अब उधारी देने वाला नया पनही मांगने लगा और परिवार के सामने नोटबंदी से बड़ी समस्या आन पड़ी। जैसे-तइसे सिलवा कर पनही वापस की गई, पनही का रौब भूल जाने की शिक्षा मिली।

बाढ़ने के बाद भी हमारे लिए पनही दुर्लभ रही क्योंकि तब करोना और बाटा का सस्ता स्लीपर आ गया था। इस स्लीपर ने ही हमारे पांवो की शोभा और नंबर दोनों बढ़ाई। बचपन से पनही के लिए ललचाते मन को अभी दसेक सालों से संतुष्टी मिली, अब हमारे पास चार जोड़ी है। यह दरवाजे के पास रखे रैक में सजाने का काम भी आती है।

इन चारों में से एक इम्पोर्टेड है, अर्जेंटीना के मगरमच्छ के खंडरी से बना एकदम नरम। पैर में डालते ही इसका अहसास लम्बे कदम चलने का विश्वास भर देता है। यह पनही मुझे बहुत पसंद है, इसलिए कि इसे मेरे मालिक ने दिया है। या यूँ कहें बाप-बेटे के पनही संबंधी मुहावरों सा कुछ। हालाँकि मालिक ने मुझे इस महँगे पनही को इसलिए दिया है कि यह उनके नाप से बड़ा है। मालिकों का पैर हमेशा छोटा होता है और नौकरों का बड़ा। मालिक का दिया नौकर के लिए क्या अहमियत रखती है, इसको मेरे जैसा हर भूतपूर्व गौंटिया बेहतर ढंग से समझ सकता है। तब जब हमारे पास जमीनें थी और नौकर भी थे, तब हम महसूस करते थे कि नौकरों को हमारे दिए कपडे और पनही बहुत पसंद आते थे। अब स्थिति ऐसी नहीं रही, गौंटी छिन गई और हम किसी के नौकर हो गए।

खैर.., मैं पिछले तीन साल से इस इम्पोर्टेड पनही को सरलग पहन रहा हूं। अब यह काफी खिया गया है, श्रीमती जी कहती है कि अब इसे बदल लो, मगर मन है कि मानता नहीं, पनही-प्रेम जो है।
- तमंचा रायपुरी

कैशलेश छत्तीसगढ़

कैशलेश (नोटबंदी, विमुद्रीकरण) मौद्रिक योजना की बात जो आप अभी कर रहे हैं, यह तो छत्‍तीसगढ़ की परंपरा ही रही है। हमारे प्रदेश में आरंभ से ही कैशलेश अर्थव्यवस्था विद्यमान है। हम वस्‍तु के बदले वस्‍तु प्राप्‍त करने के अभ्‍यासी हैं। हम जीवन की आवश्यकता की अन्य चीजें क्रय नहीं करते थे बल्कि उसे अन्‍न के बदले प्राप्‍त करते थे। हमारे प्रदेश में वस्तु के बदले वस्तु के विनिमय की अर्थव्यवस्था धान के भरपूर पैदावार के कारण थी। हम धान के कटोरा कहे जाने वाले प्रदेश के वासी हैं और हमारे लिए धान मुद्रा का विकल्‍प रहा हैं। हमारे यहां नौकर, पहटिया, नाई, पौनी-पसारी भी धान के काठा-खंडी के वार्षिक मेहनताना पर लगाये जाते रहे हैं। यहां तक कि एक जमानें में, शिक्षा देनें वाले गुरूजी भी बच्‍चों के सिर के हिसाब से गुरू दक्षिणा धान के रूप में लेते थे। सेवा देनें वाले और लेने वाले बिना किसी का हरताल किये, इस मौद्रिक व्‍यवस्‍था से पूर्ण संतुष्‍ट रहते थे। ये सब होता इसलिए था कि हमें बचपन से ही सिखाया जाता कि पैली भर धान के बदले केंवटिन काकी दो पईली मुर्रा देगी। हम सीला इसलिए बिनते कि उसके बदले में चना-मुर्रा-लाई ले सकें, हम लासा और पैरी बीजा के बदले नमक लेते, कोसा के बदले चुस्‍की बरफ लेते। अरे, हम तो एक नारियल में रात भर नाचा कर देते थे, हमारे लिए उस नारियल की मौद्रिक मूल्‍य ऐसा कि हम चिंता में पड़ जाते थे कि 'नरियर ले डरे हंव'। हमारा यह नारियल लेना तुम्‍हारे सुपारी लेने जैसा ही था किन्‍तु तुमने सुपारी को पैसे में तौल लिया, हमने आज भी उसकी सनातन वैल्‍यू बरकरार रखा है।

हम अपने उत्‍सवों के लिए उधारी भी खाते थे और जब हमारा फसल आता था तो उसे चुका देते थे। हमारी जुबान एटीएम थी, जो बोल दिया मिल गया। हम दहरा के भरोसा बाढ़ी भी खाते थे और बिना किसी से शिकायत किये राम भजते थे क्‍योंकि हमें पता है इसके लिये कौड़ी और छदामा नहीं लगता। धान, गेहूं, चना, मसूर, लाखड़ी के बदले अपने जीवन की हर आवश्‍यकता को पूरा कर लेने वाले छत्‍तीसगढि़या इस कैशलेश वस्‍तु विनिमय की अर्थव्‍यवस्‍था के आदी थे। हालांकि लोटा लेकर छत्तीसगढ़ में व्यवसाय के लिए आए दूसरे प्रदेश के लोगों नें इसका भरपूर दोहन किया और उन्‍होंनें ही हमारी अर्थव्‍यवस्‍था को बिगाड़ा भी। वे ही हमें कौंड़ी से छदाम की राह में धीरे-धीरे ले गए, इधर उधारी लेने और बाढ़ी खाने की परम्‍परा को निरंतर अकाल नें पुष्‍ट कर दिया। दैव विपताओं और हमारी सहज वस्तु विनिमय के व्‍यवहार से फायदा उन्हीं को हुआ जिनके पास व्यापार था। विनिमय में ज्‍यादा मूल्यों के वस्‍तु पर कम मूल्यों का सामान देकर उन्‍होंनें हमें निरंतर लूटा। काठा-पईली-चुरकी का जमाना समाप्त हुआ और टिकली पैसे से हजार के नोट नें हमें कागज के पैसे का गुलाम बना दिया और इस हजार के नोट नें हमें कहीं का नहीं छोड़ा। एक पईसा के भाजी ल दू पईसा म बेंचें गोई कहते हुए शेख हुसैन गाते रहे, मंंहगई के मारे कम्‍मर टुट गे ना गुलैती कहती जयंत्री यादव चिचियाती रही, कुछ ना हुआ। 

आज चारों तरफ पांच सौ- हजार के नोटों के बंद होने के कारण अफरा तफरी मची हुई है। विधवा-विलाप और केजरीय-प्रलाप से देश में हाहाकार मचा है, छत्‍तीसगढि़या इन सबसे मजे ले रहा है। शहरों में लगे लम्‍बे-लम्‍बे लाईनों से उसे कोई फरक नहीं पड़ा है, वह अगोर रहा है मुनाफाखोर और घूसखोर, काला धन सकेलने वालों के खटिया लहुटने का। यह तो निश्चित है कि आज नहीं तो कल इनका बबा जरूर मरेगा और हम इनके तेरही में बरा भी मजे ले-लेकर खायेंगें।

- तमंचा रायपुरी
(यूं ही, जियो सिम वाले मोबाईल से, नोट बदलवाने के लिए लाईन में लगे-लगे)

सेकंड मैन : कहानी की कहानी

तापस चतुर्वेदी हिन्दी कथा की दुनिया में एक नया नाम है जिनकी छः कहानियों का एक संग्रह 'सेकेंड मेन' अभी-अभी प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में 'ज्यादा हरा मुल्क', 'नट', 'नदी के किनारे', 'दादी का घर', 'एक शरीफ विधुर के सपने' और 'सरासम' शीर्षक से कहानियाँ संग्रहित है। लेखक तापस चतुर्वेदी पेशे से पत्रकार हैं एवं स्क्रिप्ट राइटर हैं। इस संग्रह के प्रकाशक डबल लिटरेचर ने तापस के लिए लिखा है कि 'वह लेखन तकनीक में गति और ठहराव पर प्रयोग कर रहे हैं।' इस लिहाज से इस संग्रह की कहानियों में तापस के प्रयोग से रूबरू होने, हमने इन कहानियों को पढ़ा और एक पाठक के नजरिये से जो महसूस हुआ उसे आप सबसे शेयर कर रहे हैं।

लेखक ने संग्रह की कहानियों को आधुनिक कथा लेखन शैली से लिखा है, कहानी के पारंपरिक ढांचे से इतर ये कहानियां आख्यानिक ढंग से लिखी गई है। लेखक के पत्रकार होने के कारण उसकी स्वाभाविक लेखन शैली भी इसमें उभर कर सामने आई है। कहानियों में घटनाओं और काल-परिस्थितियों का चित्रण विवरणात्मक है जिसे पढ़ते हुए पात्रों और स्‍थानों में जीवंतता का अहसास होता हैं। यह कहानियां तापस की स्वप्न कथाएं सी प्रतीत होती हैं जिसे उसने शब्दों में संजोने का सुन्दर उदीम किया है। इन कहानियों की भाषा शैली प्रणव है, शब्दों-वाक्यांशों का सटीक प्रयोग यह दर्शाता है कि लेखक के पास पर्याप्त शब्द भंडार हैं और वह स्वाभाविक खिलंदड़पन के साथ कहानियों में उसे प्रस्तुत किया है।

कहानियों में संवेदना का चित्रण भी लेखक ने बड़े प्रभावी तरीके से किया हैं। इन कहानियों के पात्रों में अमानत की भूख, माधव और मुख्य-मंत्री बन गए बेटे आत्मा की मन की भावनाएं, विनोद की संवेदना, गजेंद्र जोशी की जिजीविषा, अपराधी सरासम की चतुरता और परिवार के प्रति उसका कर्तव्य बोध, सभी दिल को छू जाते हैं। लेखक इन कहानियों में जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध नजर आते हैं। जिसमें उसके निजी तर्क मुखरित होते हैं जो उन तर्कों के जरिए कथा के अंत में मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। बदलते परिवेश में एक दशक में समाज, जीवन पद्धति और चिंतन की दिशा बदल जाती है। हम यदि आज प्रेमचंद की कहानियों को आधार मानकर कहानी लिखेंगे तो वह आज की कहानी नहीं कही जाएगी, उसे आज के परिवेश से जोड़ना होगा। इसीलिए कथाकार नव प्रयोग करते रहे हैं और आधुनिक कथानक पर कहानी गढ़ते है। तापस ने भी कुछ अलग हट कर इसे अपने सांचे में गढ़ा है। इन सभी कहानियों की बुनियाद में आदर्श समाज का चित्र सामने आता है, एक कहानी 'नदी किनारे' को गूंथने में लेखक कुछ बिखर गया है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। इस कहानी को पढ़ते हुए, मेरे दिमाग के घिसे-पिटे फ्रेम में  मत्स्यकन्या और ऋषि पाराशर आते-जाते रहे। इस कारण हो सकता है कि तापस जो कहना चाहता है उसे मैं सही तरीके से पकड़ नहीं पाया।
लेखक ने कहानियों में कुछ विशिष्ठ वाक्यांशों को सामान्य से बड़े अक्षरों में लिख कर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। पारंपरिक कहानी लेखन शैली में इस तरह का प्रयोग देखने को नहीं मिलती, इस कारण यह पठनीयता को के प्रवाह को किंचित बाधित करती है। किंतु वही यह उन पाठकों को कहानी को पूरा पढ़ने के लिए विवश भी करती है जो किताबों को सरसरी तौर पर पढ़ने के आदी हैं। इसके साथ ही संग्रह के अनुक्रम पृष्ठ पर देवी आराधना के वाक्यांश का उल्लेख लेखक को आशावादी एवं धर्म के प्रति आस्थावान प्रदर्शित करता है जो प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकारों को शायद अटपटा लगे। प्रकाशक नें ऐसा क्‍यूं किया है यह एकबारगी समझ में नहीं आया।

कहानी के विकास क्रम में नई कहानी के युग से नव प्रयोग आरंभ हुए हैं और कहानी के पारंपरिक ढांचे में आए इस बदलाव ने कहानी को चिंतन से जोड़कर, खालिस मनोरंजर से इतर, पाठकों को सोचने के लिए विवश किया है। इसी के चलते वर्तमान संकट के समय में कहानी विधा ने मानवीयता को स्थापित करने का बहुविधि प्रयास किया है। कथा आलोचकों का कहना यह भी है कि कहानी, समय सापेक्ष, युग सापेक्ष और संदर्भ सापेक्ष होता है। कथाकारों ने समय-युग और सन्दर्भ के नब्जों को टटोलकर कहानी के रूप में उसे अभिव्यक्त किया है। ऐसे ही कथाकारों के पद चिन्‍हों पर चलते हुए तापस नें इन कहानियों को बुना है। तापस बधाई और ढ़ेर सारी शुभकामनायें..

- संजीव तिवारी

सेकंड मैन (कहानी संग्रह), प्रकाशक - डबल ए लिटरेचर, पृष्‍ट संख्‍या - 48, मूल्‍य - रू. 110/-, लेखक का संपर्क - 09407761007, लेखक का ब्‍लॉग - आजाद हवा.

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संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...