सभा-गोष्टियों में बचपन से सुनते आ रहा हूं कि छत्तीसगढ़िया सदियों-सदियों से छले गए, हमें फलाने ने छला, हमें ढेकाने ने छला, ब्लाँ-ब्लाँ-ब्लाँ-ब्लाँ। इसे सुनते-सुनते अब ऐसी मनःस्थिति बन चुकी है कि छत्तीसगढ़िया छलाने के लिए ही पैदा हुए हैं। नपुंसकीय इतिहास से सरलग हम पसरा बगराये बैठे हैं कि आवो हमें छलो।
हम सीधे हैं, सरल हैं, हम निष्कपट हैं, हम निच्छल हैं। ये सभी आलंकारिक उपमाएं छल शास्त्र के मोहन मंत्र हैं। हम इसी में मोहा जाते हैं और फिर हम पर वशीकरण का प्रयोग होता हैं। बिना रीढ़ के हम जब पूरी तरह से उनके वश में हो जाते हैं तब हमें चाउर चबा के पूज दिया जाता है। मरे हुए हम, उच्चाटन का इंतजार करते रहते हैं किंतु हमारे लिए कोई भी उच्चाटन मंत्र का जाप करने नहीं आता क्योंकि इस छल शास्त्र में उच्चाटन मंत्र का अध्याय ही नहीं है।
हमें छलने वालों की संख्या हमसे कम है किंतु वे भुलवारने में निपुण है। उनके पास कपट के दिव्याश्त्र हैं जिससे वे हमारी एका विदीर्ण करते हैं। वे हम पर राज करते है, क्योंकि फूट हमारी पहचान है और एका उनकी शान। ऐसे में कोई एक यदि क्रांति का छत्तीसगढ़िया बाना उचाता भी है तो इनके एका के आगे क्या टिकेगा?
हिन्दी के एक बड़े साहित्यकार भारतेंदु, सदियों पहले हमारी इस दशा से वाकिफ थे इसीलिए उन्होंने अपने नाटकों में हमारी इस दुर्दशा को लिख दिया था कि 'छलियन के एका के आगे लाख कहो, एकहु नहीं लागे।' सनातन इतिहास तो छल की महिमा से परिपूर्ण है, यहाँ कृष्ण ने छल का प्रयोग धर्म की स्थापना के लिए किया वहीँ नारायण ने तीनो लोकों के राजा बली को छल दिया। इसी समय से छल को अहम् राष्ट्रीय चरित्र मान लिया गया। भारतेंदु इसे पुन : स्थापित करते हुए कहा 'प्रगट सभ्य अंदर छलधारी, सोई राजसभा बल भारी।' मने संतों, इन छलियों के छल से निबटने का एक ही रास्ता है जो राजसभा से निकलता है। इस छल के हथियार को बउरना सीखो। बहुसंख्यक जन के हित में उनके साथ तुम भी छल करो जिन्होंने हमें छला है। धधकती मूर्खता और छलकती धूर्तता के बीच कुछ तो रास्ता निकालना पड़ेगा।
- तमंचा रायपुरी
आगामी छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के मध्ये(?) नजर
- तमंचा रायपुरी
आगामी छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के मध्ये(?) नजर
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