विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
कैशलेश (नोटबंदी, विमुद्रीकरण) मौद्रिक योजना की बात जो आप अभी कर रहे हैं, यह तो छत्तीसगढ़ की परंपरा ही रही है। हमारे प्रदेश में आरंभ से ही कैशलेश अर्थव्यवस्था विद्यमान है। हम वस्तु के बदले वस्तु प्राप्त करने के अभ्यासी हैं। हम जीवन की आवश्यकता की अन्य चीजें क्रय नहीं करते थे बल्कि उसे अन्न के बदले प्राप्त करते थे। हमारे प्रदेश में वस्तु के बदले वस्तु के विनिमय की अर्थव्यवस्था धान के भरपूर पैदावार के कारण थी। हम धान के कटोरा कहे जाने वाले प्रदेश के वासी हैं और हमारे लिए धान मुद्रा का विकल्प रहा हैं। हमारे यहां नौकर, पहटिया, नाई, पौनी-पसारी भी धान के काठा-खंडी के वार्षिक मेहनताना पर लगाये जाते रहे हैं। यहां तक कि एक जमानें में, शिक्षा देनें वाले गुरूजी भी बच्चों के सिर के हिसाब से गुरू दक्षिणा धान के रूप में लेते थे। सेवा देनें वाले और लेने वाले बिना किसी का हरताल किये, इस मौद्रिक व्यवस्था से पूर्ण संतुष्ट रहते थे। ये सब होता इसलिए था कि हमें बचपन से ही सिखाया जाता कि पैली भर धान के बदले केंवटिन काकी दो पईली मुर्रा देगी। हम सीला इसलिए बिनते कि उसके बदले में चना-मुर्रा-लाई ले सकें, हम लासा और पैरी बीजा के बदले नमक लेते, कोसा के बदले चुस्की बरफ लेते। अरे, हम तो एक नारियल में रात भर नाचा कर देते थे, हमारे लिए उस नारियल की मौद्रिक मूल्य ऐसा कि हम चिंता में पड़ जाते थे कि 'नरियर ले डरे हंव'। हमारा यह नारियल लेना तुम्हारे सुपारी लेने जैसा ही था किन्तु तुमने सुपारी को पैसे में तौल लिया, हमने आज भी उसकी सनातन वैल्यू बरकरार रखा है।
हम अपने उत्सवों के लिए उधारी भी खाते थे और जब हमारा फसल आता था तो उसे चुका देते थे। हमारी जुबान एटीएम थी, जो बोल दिया मिल गया। हम दहरा के भरोसा बाढ़ी भी खाते थे और बिना किसी से शिकायत किये राम भजते थे क्योंकि हमें पता है इसके लिये कौड़ी और छदामा नहीं लगता। धान, गेहूं, चना, मसूर, लाखड़ी के बदले अपने जीवन की हर आवश्यकता को पूरा कर लेने वाले छत्तीसगढि़या इस कैशलेश वस्तु विनिमय की अर्थव्यवस्था के आदी थे। हालांकि लोटा लेकर छत्तीसगढ़ में व्यवसाय के लिए आए दूसरे प्रदेश के लोगों नें इसका भरपूर दोहन किया और उन्होंनें ही हमारी अर्थव्यवस्था को बिगाड़ा भी। वे ही हमें कौंड़ी से छदाम की राह में धीरे-धीरे ले गए, इधर उधारी लेने और बाढ़ी खाने की परम्परा को निरंतर अकाल नें पुष्ट कर दिया। दैव विपताओं और हमारी सहज वस्तु विनिमय के व्यवहार से फायदा उन्हीं को हुआ जिनके पास व्यापार था। विनिमय में ज्यादा मूल्यों के वस्तु पर कम मूल्यों का सामान देकर उन्होंनें हमें निरंतर लूटा। काठा-पईली-चुरकी का जमाना समाप्त हुआ और टिकली पैसे से हजार के नोट नें हमें कागज के पैसे का गुलाम बना दिया और इस हजार के नोट नें हमें कहीं का नहीं छोड़ा। एक पईसा के भाजी ल दू पईसा म बेंचें गोई कहते हुए शेख हुसैन गाते रहे, मंंहगई के मारे कम्मर टुट गे ना गुलैती कहती जयंत्री यादव चिचियाती रही, कुछ ना हुआ।
आज चारों तरफ पांच सौ- हजार के नोटों के बंद होने के कारण अफरा तफरी मची हुई है। विधवा-विलाप और केजरीय-प्रलाप से देश में हाहाकार मचा है, छत्तीसगढि़या इन सबसे मजे ले रहा है। शहरों में लगे लम्बे-लम्बे लाईनों से उसे कोई फरक नहीं पड़ा है, वह अगोर रहा है मुनाफाखोर और घूसखोर, काला धन सकेलने वालों के खटिया लहुटने का। यह तो निश्चित है कि आज नहीं तो कल इनका बबा जरूर मरेगा और हम इनके तेरही में बरा भी मजे ले-लेकर खायेंगें।
- तमंचा रायपुरी
(यूं ही, जियो सिम वाले मोबाईल से, नोट बदलवाने के लिए लाईन में लगे-लगे)
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