- विनोद साव
दुर्ग-भिलाई रहवासियों के लिए कार ड्राइव के लिए सियादेवी एक आदर्श दूरी है। आना जाना मिलाकर डेढ़ सौ किलोमीटर। छह सात घंटे का एक अच्छा पिकनिक प्रोग्राम। सियादेवी का रास्ता बालोद मार्ग पर झलमला से कटता है। दुर्ग से चौव्वन किलोमीटर झलमला और वहॉ से पन्द्रह किलोमीटर सियादेवी। यह बालोद से बीस और रायपुर से धमतरी होकर सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। नये जिलों के निर्माण के बाद अब यह दुर्ग जिले से निकलकर बालोद जिले के क्षेत्र में आ गया है। वैसे भी बालोद क्षेत्र अपनी कृषि भूमि, जंगल, कुछ पहाड़ियॉ, तांदुला व सूखा नदी और लगभग आधे दर्जन बॉंध व कई नहरों से समृद्ध भूमि है। यहॉ मैदानी और वन्य जीवन का सुन्दर सम्मिश्रण है। सवर्ण और आदिवासी जीवन का अच्छा समन्वय है। यहॉ समृद्ध किसान भी हैं और भरे पूरे आदिवासी भी। यह क्षेत्र अपने किसान आंदोलनों के लिए भी जाना जाता है और आदिवासी चेतना के लिए भी। बालोद स्कूल से पढ़कर निकले कई मेधावी छात्र इंजीनियरिंग एवं प्रशासन में बड़ी संख्या में अपनी पहचान बना चुके हैं। एक समय में बालोद नगर पालिका को पुराने दुर्ग जिले की ग्यारह नगर पालिकाओं में सबसे आदर्श नगर पालिका माना गया था। दुर्ग की तरह बालोद में भी उर्स पाक का भव्य आयोजन होता है। यहॉ जख्मी साहब जैसे बड़े शायर हुए थे। अपनी कला चेतना में यह शहर बड़ा संगीत प्रेमी रहा है। यह एक छोटा लेकिन साफ सुथरा और सुन्दर नगर है और वैसे ही यहॉ के रहवासी। इस शहर से नौ वर्षों तक मेरा सम्बंध रहा है जब मैंने अपनी पहली नौकरी वर्ष 1974 में बालोद पी.डब्लू.डी. में आरंभ की थी, तब हम अक्सर अपनी सायकलें उठाकर तांदुला और सूखा नदी पर बने आदमाबाद डैम की ओर निकल जाते थे। इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक चार किलोमीटर सायकल दौड़ाते थे। कभी इसमें नहाते थे।
सियादेवी के लिए मुड़ने से पहले उस डैम के दूसरे सिरे को याद करते हुए उस ओर अपनी कार मैंने मोड़ ली थी। यहॉ सिंचाई विभाग का कभी भव्य गेस्ट हाउस हुआ करता था जिसकी बागवानी मन मोह लेती थी। यहॉ एक व्यू पाइंट है जिसमें चढ़ने से बॉध का विहंगम दृष्य दिखता था। अब व्यू पाइंट पुराने पेड़ों से ढॅक गया है, अब यहॉ पहले जैसी मोहकता नहीं है। बागवानी नष्ट हो गई है । छत्तीसगढ़ की सरकार ने अब इस गेस्ट हाउस को रिसोर्ट बनाने के लिए ठेके पर दे दिया है। पता नहीं यह रिसोर्ट कब और कितना उपयोगी साबित हो पाएगा?
मैंने झलमला में एक गुमठी वाले से रास्ता पूछकर सियादेवी के लिए अपनी कार मोड़ ली थी। साथ में पत्नी और बहू थीं। अब हम पन्द्रह किलोमीटर के वन परिक्षेत्र में थे, जिसमें सघन वन के बीचोंबीच पतली पगडंडी की तरह एक साफ सुथरी सड़क थी। यह सड़क आधी पक्की बन पाई है बाकी निर्माणाधीन है। रास्ते में रानी मॉ का एक मंदिर बना है, जहॉ राजा रानी की मूर्ति है। यहॉ वैसे ही जोत जलाये जाते हैं जैसे माता के मंदिरों में। आदिवासी समाज में अपने राजा रानियों के प्रति गहरी आस्था रही है। हो सकता है ऐसी ही कोई ममतामयी और उपकारी रानी मॉ रही होगी जिनकी स्मृति में मूर्ति बनाकर पूजा की जा रही है। इसके समीप जो गॉव है उसका नाम नर्रा है। हमें थोड़ी भूख लग आई थी तो हमने नर्रा में छत्तीसगढ़ का सबसे मीठा छीताफल और उसना सिंघाड़ा खरीद लिया था।
नर्रा से चार किलोमीटर का कच्चा रास्ता नारागॉव जाता है जहॉ सियादेवी अर्थात माता सीता का मंदिर है। कहा जाता है कि वनवास के समय राम, सीता और लक्ष्मण दंडकारण्य आते हुए यहां से निकले थे। यहॉ एक समान भावना यह देखने में आई है कि जिस तरह नर्रा गॉव वालों ने अपनी रानी मॉ का मंदिर बनवाया है और पूजा है उसी तरह नारागॉव वालों ने रानी सीता का मंदिर बनवाकर उन्हें अराध्य देवी माना है। यहॉ भी जोत जलायी जाती है। आदिवासी क्षेत्र होने के बाद भी सियादेवी की व्यवस्था एकदम चाक चौबन्द है। मुख्य प्रवेशद्वार से पहले फैला पसरा पार्किग स्थल है, जहॉ दस रुपये की परची देकर चौपहिया वाहनों को रखा जाता है। कारों, जीपों और मोटर-सायकलों का अम्बार था। आसपास के गॉवों से उत्साहीजन ट्रैक्टर व ट्रकों में भी भर भरकर आए थे।
सियादेवी का यह स्थान पहली ही दृष्टि में मन को भा जाता है। उतार-चढ़ाव में बसा यह सुन्दर उपवन है। पहाड़ी नाले से यहॉ कहीं कहीं सुन्दर झरने बन गए हैं। मुख्य मंदिर के दर्शन के बाद ही झरनों और गुफा के लिए रास्ता जाता है। नीचे झरने के सामने खड़े होकर, फोटो खिंचाकर स्केनर से उसके तुरंत प्रिंट लेते हुए लोगों का उत्साह देखते बनता था। भिलाई के एक परिचित फोटोग्राफर महापात्र जी से यहॉ भेंट हुई तो उन्होंने झरने के सामने हमारा भी चित्र खींच लिया। दर्शन के बाद लगे बाजार में चाट गुपचुप के ठेले भारी मात्रा में लगे हुए हैं। अब आदिवासी समाज को भी इस चाट कचौड़ी की चट लग गई है।
लौटते समय हमने उस नारागॉव को देखा जहॉ हमारे साथ आई बहू ने पॉच बरस पहले अपनी नौकरी आरंभ की थी और यहॉ से स्थानांतरण लेकर गई थीं। बीच जंगल में बसे गॉव में बहू ने उस उप स्वास्थ्य केंद्र को देखा जहॉ स्कूटी चलाते हुए वह ड्यूटी पर आया करती थी। उस घर को देखा जहॉ उसने नौ महीने बिताए थे। उन लोगों से मंदिर में उसकी भेंट हुई जो कभी इस इलाके में उसके साथ हुआ करते थे। लौटते समय उसके चेहरे में अतीत को फिर से देख पाने का भाव हिलोरें ले रहा था।
20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com
सुन्दर यात्रा वर्णन । हम लोग भी 1995 में सेक्टर पॉच के बच्चों को लेकर सियादाई गए थे । झलमला से हम लोग पैदल गए थे । बहुत मज़ा आया था ।
जवाब देंहटाएंरोचक पठनीय विवरण.
जवाब देंहटाएंशकुन्तलाजी आपने यात्रा वृतांत पढ़ा और टिपण्णी की यह अच्छा लगा !
हटाएंराहुल जी आपने बहुत दिनों से कुछ पोस्ट नहीं किया, शायद और कही व्यस्त है !
जवाब देंहटाएंअच्छा है
जवाब देंहटाएंभ्रमणीय स्थान, सुन्दर वर्णन।
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