मूल संस्कृति की चर्चा करते कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता?
संपर्क: म.नं. 41-191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)रायपुर
किसी भी अंचल की पहचान वहां की मौलिक संस्कृति के नाम पर होती है, लेकिन यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है कि पृथक राज्य निर्माण के एक दशक बीत जाने के पश्चात् भी आज तक उसकी अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान नहीं बन पाई है। आज भी यहां की संस्कृति की जब बात होती है तो यहां की मूल संस्कृति को दरकिनार कर उत्तर भारत की संस्कृति को यहां की संस्कृति के रूप में बताने का प्रयास किया जाता है, और इसके लिए हिन्दुत्व के नाम पर प्रचारित उन ग्रंथों को मानक माने जाने की दलील दी जाती है, जिन्हें वास्तव में उत्तर भारत की संस्कृति के मापदंड पर लिखा गया है, इसीलिए उन ग्रंथों के नाम पर प्रचारित संस्कृति और छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में कहीं पर भी सामंजस्य स्थापित होता दिखाई नहीं देता।
वास्तव में छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक मौलिक संस्कृति है, जिसे हम सृष्टिकाल की या युग निर्धारण के मानक पर कहें तो सतयुग की संस्कृति कह सकते हैं। यहां पर कई ऐसे पर्व और संस्कार हैं, जिन्हें इस देश के किसी अन्य अंचल में नहीं जिया जाता। ऐसे ही कई ऐसे भी पर्व हैं, जिन्हें आज उसके मूल स्वरूप से परिवर्तित कर किसी अन्य घटना के साथ जोड़ दिया जाता है। आइए कुछ ऐसे ही दृश्यों पर तार्किक चर्चा कर लें।
सबसे पहले हिन्दुत्व की उस बहुप्रचारित व्यवस्था पर जिसे हम चातुर्मास के नाम पर जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि चातुर्मास (आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी तक) में देवता सो जाते हैं, इसलिए इन चारों महीनों में किसी भी प्रकार का मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ के संदर्भ में देखें तो यह व्यवस्था यहां लागू ही नहीं होती। यहां चातुर्मास पूर्ण होने के दस दिन पहले ही भगवान शंकर और देवी पार्वती का विवाह पर्व ‘गौरा पूजा’ के रूप में मनाया जाता है। अब जब भगवान की ही शादी देवउठनी से पहले हो जाती है तो फिर उनका सोना (शयन करना) या फिर इन महीनों को मांगलिक कार्यों के लिए किसी भी प्रकार से अशुभ मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि यहां पर यह कहना ज्यादा अच्छा होगा कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति में चातुर्मास के इन चारों महीनों को ही सबसे ज्यादा शुभ और पवित्र माना जाता है, क्योंकि इन्हीं चारों महीनों में यहां के सभी प्रमुख पर्व संपन्न होते हैं।
श्रावण अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व ‘हरेली’ से लेकर देखें तो इस महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को ‘नागपंचमी’ तथा पूर्णिमा को ‘शिव लिंग प्राकट्य’ दिवस के रूप में मनाया जाता है। भादो मास में कृष्ण पक्ष षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय का जन्मोत्सव पर्व ‘कमर छठ’ के रूप में, अमावस्या तिथि को नंदीश्वर का जन्मोत्सव ‘पोला’ के रूप में, शुक्ल पक्ष तृतीया को देवी पार्वती द्वारा भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किए गए कठोर तप के प्रतीक स्वरूप मनाया जाने वाला पर्व ‘तीजा’ तथा विघ्नहर्ता और देव मंडल के प्रथम पूज्य भगवान गणेश का जन्मोत्सव पर्व।
क्वांर मास का कृष्ण पक्ष हमारी संस्कृति में स्वर्गवासी हो चुके पूर्वजों के स्मरण के लिए मातृ एवं पितृ पक्ष के रूप में मनाया जाता है। शुक्ल पक्ष माता पार्वती (शक्ति) के जन्मोत्सव का पर्व नवरात्र के रूप में (यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहां की संस्कृति में वर्ष में दो बार जो नवरात्र मनाया जाता है उसका कारण शक्ति के दो बार अवतरण को कारण माना जाता है। प्रथम बार वे सती के रूप में आयी थीं और दूसरी बार पार्वती के रूप में। सती के रूप में चैत्र मास में तथा पार्वती के रूप में क्वांर मास में)। क्वांर शुक्ल पक्ष दशमीं तिथि को समुद्र मंथन से निकले विष का हरण पर्व दंसहरा (दशहरा) के रूप में मनाया जाता है। (बस्तर में इस अवसर पर जो रथयात्रा का आयोजन किया जाता है वह वास्तव में मंदराचल पर्वत के माध्यम से समुद्र मंथन का पर्व है। आगे इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे)। तथा विष हरण के पांच दिनों के बाद क्वांर पूर्णिमा को अमृत प्राप्ति का पर्व ‘शरद पूर्णिमा’ के रूप में मनाया जाता है।
इसी प्रकार कार्तिक मास में अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला भगवान शंकर तथा देवी पार्वती का विवाह पर्व ‘गौरा-पूजा’ में सम्मिलित होने के लिए लोगों को संदेश देने का आयोजन ‘सुआ नृत्य’ के रूप में किया जाता है, जो पूरे कृष्ण पक्ष में पंद्रह दिनों तक उत्सव के रूप में चलता है। इन पंद्रह दिनों में यहां की कुवांरी कन्याएं ‘कार्तिक स्नान’ का भी पर्व मनाती हैं। यहां की संस्कृति में मेला-मड़ई के रूप में मनाया जाने वाला उत्सव भी कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि से ही प्रारंभ होता है, जो भगवान शंकर के जटाधारी रूप में प्रागट्य होने के पर्व महाशिवरात्रि तक चलता है।
चातुर्मास के अंतर्गत हम ‘दंसहरा’ की चर्चा कर रहे थे। तो यहां यह जान लेना आवश्यक है दशहरा (वास्तव में दंस+हरा) और विजया दशमी दो अलग-अलग पर्व हैं। दशहरा या दंसहरा सृष्टिकाल के समय संपन्न हुए समुद्र मंथन से निकले विष के हरण का पर्व है तो विजयी दशमी आततायी रावण पर भगवान राम के विजय का पर्व है। यहां के बस्तर में दशहरा के अवसर पर जो ‘रथयात्रा’ का पर्व मनाया जाता है, वह वास्तव में दंस+हरा अर्थात दंस (विष) हरण का पर्व है, जिसके कारण शिवजी को ‘नीलकंठ’ कहा गया। इसीलिए इस तिथि को नीलकंठ पक्षी (टेहर्रा चिरई) को देखना शुभ माना जाता है, क्योंकि इस दिन उसे विषपान करने वाले शिवजी का प्रतीक माना जाता है।
बस्तर के रथयात्रा को वर्तमान में कुछ परिवर्तित कर उसके कारण को अलग रूप में बताया जा रहा है, बिल्कुल वैसे ही जैसे राजिम के प्रसिद्ध पारंपरिक ‘मेले’ के स्वरूप को परिवर्तित कर ‘कुंभ’ का नाम देकर उसके स्वरूप और कारण को परिवर्तित कर दिया गया है। पहले दशहरा के अवसर पर प्रतिवर्ष नया रथ बनाया जाता था, जो कि मंदराचल पर्वत का प्रतीक होता था, क्योंकि मंदराचल पर्वत के माध्यम से ही समुद्र मंथन किया गया था। चूंकि मंदराचल पर्वत को मथने (आगे-पीछे खींचने) के कार्य को देवता और दानवों के द्वारा किया गया था, इसीलिए इस अवसर पर बस्तर क्षेत्र के सभी ग्राम देवताओं को इस दिन रथयात्रा स्थल पर लाया जाता था। उसके पश्चात रथ को आगे-पीछे खींचा जाता था, और जब आगे-पीछे खींचे जाने के कारण रथ टूट-फूट जाता था, तब विष निकलने का दृश्यि उपस्थित करने के लिए उसे खींचने वाले इधर-उधर भाग जाते थे। बाद में जब वे पुन: एकत्रित होते थे, तो उन्हें विष वितरण के रूप में दोने में मंद (शराब) दिया जाता था। वर्तमान में इस देश में बस्तर के अलावा केवल कल्लू में ‘विषहरण’ का यह पर्व मनाया जाता है।
इस बात से प्राय: सभी परिचित हैं कि समुद्र मंथन से निकले ‘विष’ के हरण के पांच दिनों के पश्चात ‘अमृत’ की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए हम लोग आज भी दंसहरा के पांच दिनों के पश्चात अमृत प्राप्ति का पर्व ‘शरद पूर्णिमा’ के रूप में मनाते हैं।
यहां के मूल पर्व को किसी अन्य घटना के साथ जोडक़र लिखे जाने के संदर्भ में हम ‘होली’ को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। छत्तीसगढ़ में जो होली मनाई जाती है वह वास्तव में ‘काम दहन’ का पर्व है, न कि ‘होलिका दहन’ का। यह काम दहन का पर्व है इसीलिए इसे मदनोत्सव या वसंतोत्सव के रूप में भी स्मरण किया जाता है, जिसे माघ महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि से लेकर फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि तक लगभग चालीस दिनों तक मनाया जाता है।
सती आत्मदाह के पश्चात तपस्यारत शिव के पास आततायी असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं द्वारा कामदेव को भेजा जाता है, ताकि उसके (शिव) अंदर काम वासना का उदय हो और वे पार्वती के साथ विवाह करें, जिससे शिव-पुत्र के हाथों मरने का वरदान प्राप्त असुर के संहार के लिए शिव-पुत्र (कार्तिकेय) की प्राप्ति हो। देवमंडल के अनुरोध पर कामदेव बसंत के मादकता भरे मौसम का चयन कर अपनी पत्नी रति के साथ माघु शुक्ल पक्ष पंचमीं को तपस्यारत शिव के सम्मुख जाता है। उसके पश्चात वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से शिव-तपस्या भंग करने की कोशिश की जाती है, जो फाल्गुन पूर्णिमा को शिव द्वारा अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे (कामदेव को) भस्म करने तक चलती है।
छत्तीसगढ़ में बसंत पंचमी (शुक्ल पंचमी) को काम दहन स्थल पर अंडा नामक पेड़ (अरंडी) गड़ाया जाता है, वह वास्तव में कामदेव के आगमन का प्रतीक स्वरूप होता है। इसके साथ ही यहां वासनात्मक शब्दों, दृश्यों और नृत्यों के माध्यम से मदनोत्सव का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। इस अवसर पर पहले यहां ‘किसबीन नाच’ की भी प्रथा थी, जिसे रति नृत्य के प्रतीक स्वरूप आयोजित किया जाता था। ‘होलिका दहन’ का संबंध छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पर्व के साथ कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। होलिका तो केवल एक ही दिन में चिता रचवाकर उसमें आग लगवाती है, और उस आग में स्वयं जलकर भस्म हो जाती है, तब भला उसके लिए चालीस दिनों का पर्व मनाने का सवाल ही कहां पैदा होता है?
मूल संस्कृति की चर्चा करते कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता? जबकि बस्तर के लोक गीतों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि शिवजी देवी पार्वती के साथ अपने जीवन वाला सोलह वर्ष बस्तर में रहकर व्यतीत किए हैं।
इस संदर्भ में एक कथा प्राप्त होती है, जिसके अनुसार भगवान गणेश को प्रथम पूज्य का आशीर्वाद प्राप्त हो जाने के कारण उनके ज्येष्ठ भ्राता कार्तिकेय नाराज हो जाते हैं, और वह हिमालय का त्याग कर दक्षिण भारत में रहने के लिए चले जाते हैं। उन्हीं रूठे हुए कार्तिकेय को मनाने के लिए शिवजी देवी पार्वती के साथ यहां बस्तर में आकर सोलह वर्षों तक रूके हुए थे। छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में शिव और शिव परिवार का जो वर्चस्व है, शायद उसका यही कारण है कि शिवजी यहां सोलह वर्षों तक निवासरत रहे थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे इतिहासकारों को इतना गौरवशाली अतीत क्यों ज्ञात नहीं हुआ? क्यों वे यहां के इतिहास को मात्र द्वापर और त्रेता तक सीमित कहते हैं? तो इन सबका एक सीधा सा उत्तर है कि उनके ज्ञान का मानक स्रोत ही गलत है। वे जिन ग्रंथों को यहां के इतिहास एवं संस्कृति के मानक के रूप में उद्घृत करते हैं, वास्तव में उन्हें छत्तीसगढ़ के मापदंड पर लिखा ही नहीं गया है। इस बात से तो सभी परिचित हैं कि यहां के मूल निवासी शिक्षा के प्रकाश से कोसों दूर थे, इसलिए वे अपनी संस्कृति और इतिहास को लिखित स्वरूप नहीं दे पाए। इसलिए जब बाहर के प्रदेशों से यहां आकर बस जाने वाले लोगों ने यहां के इतिहास और संस्कृति को लिखित रूप देना प्रारंभ किए तो वे अपने साथ अपने मूल प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों और संस्कृति को मानक मानकर ‘छत्तीसगढ़’ को परिभाषित करने लगे।
आज उस लिखित स्वरूप और यहां की मूल (अलिखित) स्वरूप में जो अंतर दिखाई देता है, उसका वास्तविक कारण यही है। इसलिए यहां के मूल निवासी जो अब स्वयं भी शिक्षित हो चुके हैं, वे चाहते हैं कि यहां की संस्कृति एवं इतिहास का पुनर्लेखन हो, और उस लेखन का आधार बाहर के प्रदेशों से लाए गए ग्रंथों की बजाय यहां की मूल संस्कृति और लोक परंपरा हो।
सुशील भोलेसंपर्क: म.नं. 41-191, डॉ. बघेल गली, संजय नगर (टिकरापारा)रायपुर
इस आलेख के लेखक श्री सुशील भोले जी छत्तीसगढ़ी साहित्य के चर्चित हस्ताक्षर हैं, वे मुखर पत्रकार हैं एवं हिन्दी व छत्तीसगढ़ी में समान रूप से निरंतर लिखते हैं। विगत वर्षों से वे छत्तीसगढ़ी भाषा में लोकप्रिय कालम 'गुड़ी के गोठ' लिख रहे हैं जिसमें वे सामयिक विषयों व सामाजिक विद्रूपों पर तगड़ा प्रहार करते हैं। वर्तमान में सुशील भाई दैनिक छत्तीसगढ़ प्रकाशन समूह की साप्ताहिक पत्रिका 'इतवारी अखबार' के संपादक हैं।
संस्कृति के साथ मौलिक विशेषण के प्रयोग और इतिहास लेखन की यहां उल्लिखित अवधारणा से आंशिक असहमति किन्तु लेख के व्यवस्थित विवरण दृष्टिकोण और प्रस्तुति के लिए आप दोनों को बधाई.
जवाब देंहटाएंइतिहास के समय पटल पर छत्तीसगढ़ को विस्तारित करने का श्री भोलेजी का प्रयास स्तुत्य है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रविष्टि ! आप जानते हैं कि व्यस्तता के चलते,चाहकर भी प्रतिक्रिया टंकित नहीं कर पाऊंगा !
जवाब देंहटाएंइसलिए मेरी हाजिरी और शुभकामनायें क़ुबूल फरमाइये !
sundar, jankari dene valalekh. ise mai apni patriaka ke agale ank men le raha hoon.
जवाब देंहटाएंतार्किक आधार काफी सटीक हैं.आपके विचारों से सहमत हैं.
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ़ की संस्कृति में आज भी सतयुग की महक विद्यमान है.
इस कथन की सत्यता के लिए कोई तर्क देने की आवश्यकता नहीं है.
"महक" को तर्क या वर्णन के द्वारा प्रमाणिक नहीं किया जा सकता
केवल अनुभूति से ही जाना जा सकता है .
छत्तीसगढ़ के किसी दुर्गम ग्राम में कोई कुछ दिन गुजार कर देखे,
सतयुग की महक से साक्षात्कार हो जायेगा.
bahut sarthak post.
जवाब देंहटाएंहमारी संस्कृति के धार्मिक पहलुओं को आपने प्रस्तुत किया बहुत अच्छी अच्छी जानकारी देने के लिए धन्यवाद.कहीं कहीं आपके कथन से असहमति है| शायद आप सही होंगे|अपन तो आम आदमी.
जवाब देंहटाएंबस आप जैसे विद्वानों से नई नई जानकारी से अपडेट ओ जाते है.नई जानकारी प्रदान करने के लिए पुनः धन्यवाद