हिन्दी में पक्षी के पर्यायवाची अनेक शब्द हैं, लेकिन सबसे सामान्य बोलचाल का शब्द है – चिड़िया. बस इस लाइन पर रुक कर आँख बंद करें और मन में शब्द दोहराएँ 'चिड़िया'. अब बताएं आपने अपनी कल्पना में कौन सा पक्षी देखा? आपकी कल्पना में गौरैया ही रही होगी. गौरैया हमारे मन में जीवन में रची-बसी ही इस तरह है कि वही चिड़िया का पर्याय हो गई है. सबने बचपन में एक छोटी सी कविता सुनी और सुनाई होगी-
"चिड़िया आ जा,
दाना खा जा
पानी पी जा
फुर्रर्रर से उड़ जा."
इस कविता को सुनते हुए मेरी कल्पना में जो चिड़िया आती,दाना खाती,पानी पीती दिखती वह गौरैया ही होती थी.
पहले आंगन की ओर खुलते बरामदे में बीनने-चुनने के कार्यक्रम का अक्सर दोपहर भोजन के बाद आयोजन होता था. गप-शप चलती जाती और अभ्यस्त उंगलियाँ अनाज के दानों से कंकड़, घास के बीज चुन फेंकती जाती, उन्ही के साथ अनाज के कुछ दाने भी बरामदे में बिखर जाते. इन्ही के लिए आई गौरैया हमारी समय बिताने की साथी होती क्योंकि हमें पता था कि यदि बड़ों की बातों में देंगे दखल तो हम यहाँ से कर दिए जायेंगे बेदखल.
हमें गौरैया की ची-ची, उसका फुदकना बहुत अच्छा लगता और फिर इसे हथेली में सहेजने की इच्छा बहुत बलवती हो जाती इसके लिए तरह- तरह के उद्यम किये जाते बचपन में शायद आपने भी किये होंगे. कभी बरामदे में दो चारपाई को जोड़ कर ऊपर से चादर ढँक कर, बाहर सूपा खड़ा कर उसके सामने अनाज बिखरा दिया जाता और दोनों चारपाइयों के बीच बिना हिले-डुले, साँस रोके बैठे होते कि किसी हरकत से गौरैया को हमारी उपस्थिति का अहसास न हो जाये. मानो युगों-युगों के इंतजार के बाद गौरैया दाने खाने आती तो चारपाई के छिद्रों के बीच से टहनी से सूपा को धक्का देते पर ऐसा होता की सूपा के गिरने तक का समय गौरैया की छठी इन्द्रिय जागृत करने पर्याप्त हुआ करता और अनेक बार की असफल कोशिशो के बाद फिर अगले दिन यही प्रक्रिया दुहराई जाती. बारम्बार चलने वाले इस उद्यम में कुछ हम सफल रहे लेकिन सुपे को चादर से ढँक सूपा हल्के से टेढ़ा कर हाथ डाल कर गौरैया निकालते वक़्त चिड़िया फुर्रर्रर्र ये जा वो जा.....
इसके अलावा कभी कमरे में गौरैया आ जाने पर कमरा बंद कर उसे पकड़ने का उद्यम करते, कभी उसके घोसलों के नीचे चक्कर लगाते आशंका और आशा करते कि कोई बच्चा उड़ना सीखते-सीखते गिर गया तो उसकी सेवा का अवसर हमे मिल जाये. यदि कैसे भी ऐसा अवसर मिल जाता उस दिन स्कूल में विशिष्ट बन जाते, सभी को अनुभव मिर्च-मसालों के साथ सुनाया जाता, पर “चिड़िया ठीक हो उड़ गई” बताते शर्म आती तो महानता के भाव के साथ कहते - "मम्मी ने कहा चिड़िया पकड़ के नहीं रखते इसलिए उसे उड़ा दिया." कभी अनुभव नकारात्मक भी होते, कभी पंखे से कट जाने के तो कभी घोंसले से गिर चींटी लग जाने के. पर सबसे सहमा देने वाला अनुभव होता बम्भन चिरई के छुवाछूत का. तब गड्ढा खोद उसमे सुला कर उपर से मिट्टी से ढँक देते, फूल अगरबत्ती लगा देते. वह बड़ा उदास दिन होता.
गर्मियों में घर के सामने मोंगरे की पुरानी बेल जिसकी लचकदार हरी बेलों ने कड़ी लहरदार लकड़ियों का रूप ले लिया था में दो मिट्टी के बर्तन में दाना-पानी लटका दिया जाता. जिनमे से अधिकांश दाने तो गिलहरियाँ और चींटियाँ ही खा जाती पर वो मोंगरे की बेल दुपहरी में गौरैयों की आरामगाह या बैठक-कक्ष हुआ करता जहाँ से दिन भर संसद सत्र सा शोर सुनाई आता रहता. सबकी आवाज एक साथ मिश्रित रूप में. कभी रात में संसद-सत्र शुरू होता तो समझ जाते कि जरूर कोई सांप वहां आ गया है, हमे वहां जाना पड़ेगा. सुबह का शोर जीवन का जश्न होता तो रात का जीवन की जंग.
आंगन में फुदकती गौरैया कभी उथले पानी में नहाते दिखती तो कभी अपने परों को फुला, धूल में पंख फडफडा, परों पर धूल की परत चढ़ाते. हम आप यह कह कर रह जाते कि- "हाय बड़ी गर्मी हो रही है कब राहत मिलेगी?" पर गौरैया क्रमशः धूल या पानी में नहा के बता देती कि अब जल्दी ही वर्षा होगी या और गर्मी बढ़ेगी . आखिर घाघ-भड्डरी भी कह गये हैं - कलसा पानी गरम रहै, चिड़िया नहाये धूर, चींटी ले अंडा चढे, तो बरखा भरपूर.
गौरैया को छत्तीसगढ़ी में गुरेडिया, उड़िया में चुटिया, अंग्रेजी में हाउस स्पैरो कहते है. ये गौरैया ही थी जिसने वैज्ञानिक नाम की आवश्यकता समझाई . इसने ही बताया कि हर भाषा के अलग नाम के जगह यदि इसे 'पेसर डोमिसटीकस' कहा जाये तो सारे विश्व में इसका मतलब 'गौरैया' ही होता है. इस तरह जीवन में गौरैया के साथ परंपरागत विज्ञान का सम्मान और आधुनिक विज्ञान का ज्ञान दोनों ही सहज में ही जुड़ गए है .
इसके बाद गौरैया मानो वैज्ञानिक नजरिये की खिड़की खोल कही दुबक गई. पढ़ाई का दबाव बढ़ता गया, अच्छे नम्बर लाने हैं, अपने पैरों पर खड़ा होना है, मम्मी-पापा हम पर गर्व कर सके ऐसा अवसर लाना है. बस गौरैया से मानो सम्पर्क ही टूट गया. यह सम्पर्क केवल तब ही बहाल होता जब छुट्टियों में घर आते .
इन कुछ वर्षों में दिन बड़ी तेजी से बदलते गये. गाँवों ने कस्बों कस्बों, कस्बों ने नगरों और नगरों ने शहरों का रूप ले लिया. हरियाली सिमटती ही गई, आंगन-बरामदे भी ख़त्म होते गये जिधर देखो कंक्रीट के जंगल उस पर प्रदूषण, विकिरण. इसके साथ ही घरो में भी गौरैया का घोंसला कचरे की उपमा पा परेशानी का सबब बनने लगा था अर्थात न सिर्फ भौतिक अपितु सांस्कृतिक परिवर्तन भी तेजी से हुए . गौरेयों की संख्या भी बड़ी तेजी से घटने लगी. अब भी स्थिति बहुत बदली नहीं है लेकिन भला हो `सेव द बर्ड कैम्पेन' का जिसके प्रयासों ने पक्षियों की स्थिति के प्रति जागरूकता फैलाई है.
रायपुर में यूँ भी गौरैया अधिक हैं .मेरे जीवन में भी गौरैया वापस लौट आई है वह रोज सुबह अपनी चहचाहट से जगाती है, बालकनी में लटके दानों की डोली से दाना खाती है और गोल उथले गमले में बने पिस्टिया के तालाब का पानी पीते सुबह की चाय की साथी बनती है और पेपर पढने पर उस पर भी फुदक एक नजर मार लेती है.
आज पेपर पर फुदकते हुए मानों उसने कहा "कल बीस मार्च को विश्व गौरैया दिवस है क्यों नहीं मेरे लिए कुछ लिखती. अस्तु बचपन से अब तक गौरैया के साथ स्मृतियों का लेखा प्रस्तुत है इसे पढ़ क्यों न आप भी आंखे बन्द कर एक बार स्मृतियों के उपवन से गुजर जीवन में रची-बसी गौरैया से लगाव का खोया अहसास फिर से पा लें. पक्षियों को बचाने के विविध प्रयासों में एक अकिंचन प्रयास कि 'अहसास ही तो प्रयासों को जन्म देते है'.
रायपुर
सबसे उपर वाले गौरैया का चित्र उदंती डाट काम से साभार
सबसे उपर वाले गौरैया का चित्र उदंती डाट काम से साभार
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जवाब देंहटाएंप्रयासों में एहसास का अंश हो तो उसका परिणाम सार्थक ही होगा. स्मृति और संवेदनाओं का इस तरह शब्दों में ढलना कितना सुखद हो सकता है लेखक और पाठक दोनों के लिए. अतिथि आपकी, स्वागत हम भी कर रहे हैं इस कलम का.
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी जानकारियों से भरा आलेख!
जवाब देंहटाएंआपको और आपके पूरे परिवार को रंगों के पर्व होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
विश्व गौरैय्या दिवस पर श्रद्धा थवाइत का आलेख ,बेलौस चिड़िया सी फुदकन का अहसास कराता हुआ अत्यंत सहज भाव से इन नन्हे परिंदों के प्रति उनकी सुचिन्ताओं का उदघोष कर जाता है ! सरल संस्मरणात्मक शैली में लिखे गये इस आलेख से 'सन्देश' के पहुँचने में कोई चूक , किसी भ्रम ,किसी भटकाव की कोई गुंजायश नहीं ! अतिथि कलमकार के रूप में उन्हें साधुवाद !
जवाब देंहटाएंप्रिय श्रद्धा !प्यार
जवाब देंहटाएंगोरैया पर लिखा ये आर्टिकल सचमुच बहुत जानकारी भरा और प्यारा है.
मेरे घर के पिछवाड़े छोटा सा गार्डन है.यूँ है तो छोटा किन्तु शहतूत,अमरुद,आम,आंवला,नीम,शीशम,कनेर,और पीले फूलों से लद जाने वाला 'केस्यासामा' भी लगा है.रोज रोटी के बारीक़ टुकड़े करके डालने के कारन कुछ पक्षी रोज आ जाते हैं और.....हम भूल भी जाये तो चहचहा के बोल देते हैं.पानी भी रोज भर कर रखते हैं हम.हमे इन पक्षियों के प्रति संवेदनशील और जागरूक होना होगा. नही तो ये सिर्फ किताबों में रह जायेंगे....स्कूल में भी हमने पेड़ों पर चार जगह पानी के परिंडे बाँध रखे हैं...... तुम्हारे इस आर्टिकल को पढ़ने के बाद शायद जो भूल चुके हैं वे वापस इन परिंदों और खास कर इस नन्ही सी चिड़िया के लिए दाना पानी की व्यवस्था करने लग जाये.तब समझना 'ये' आर्टिकल लिखने की वसूली हो गई. है ना? प्यार मेरी नन्ही गोरैया!
ओह ये कमेन्ट पोस्ट क्यों नही हो रहा?
बहुत दिनों बाद एक अच्छा लेख पढने को मिला है | मुझे तो आज तक ये पता ही नहीं था की इसे गौरैया कहते है हमारे यंहा भी इसे चिड़िया ही कहते है |संजीव भाई आपको होली की शुभकामनाये |
जवाब देंहटाएंप्यारी सी गौरया।
जवाब देंहटाएंमौसम हँसी-ठिठोली का।
जवाब देंहटाएंदेख तमाशा होली का।।
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होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!manish jaiswal
bilaspur
chhattisgarh
BAHUT SUNDAR ..RACHANA
जवाब देंहटाएंHOLI PARAV KI BADHAI ....
चूँ - चूँ करती , धूल नहाती गौरैया.
जवाब देंहटाएंबच्चे , बूढ़े , सबको भाती गौरैया.
कभी द्वार से,कभी झरोखे,खिड़की से
फुर - फुर करती , आती जाती गौरैया.
बीन-बीन कर तिनके ले- लेकर आती
उस कोने में नीड़ बनाती गौरैया.
शीशे से जब कभी सामना होता तो,
खुद अपने से चोंच लड़ाती गौरैया.
बिही की शाखा से झूलती लुटिया से
पानी पीकर प्यास बुझाती गौरैया.
दृश्य सभी ये ,बचपन की स्मृतियाँ हैं
पहले- सी अब नजर न आती गौरैया.
साथ समय के बिही का भी पेड़ कटा
सुख वाले दिन बीते, गाती गौरैया.
(mitanigoth.blogspot.com)