घंटी
काका थकते नही कभी. थकान को काका के चेहरे पर कभी सवार होते हुए नहीं देखा. किसी ने भी. बरसों बीत गए इस तरह हंसता मुस्कुराता चेहरा देखते हुए. मान लिया गया कि तकलीफ नहीं है काका को. भरा - पूरा परिवार और बच्चों की नौकरी के बाद बचता क्या है जीवन में. सुन सुनकर सच ही मान लिया इसे काका ने. लेकिन जीवन में सुबह आज उस वक्त नहीं आई जिस वक्त रोज आती है. नींद खुलती है और सुबह खड़ी दिखती है. आज रोशनी नहीं दिखी, दिखा अंधियारा. आज 26 जनवरी है. झण्डा फहराने का दिन. आज काका को पूरी नींद चाहिए लेकिन नहीं मिली. सुबह मिले नी मिले, नौकरी तो करनी है के साथ ही बिस्तर छोड़ा और सफेद कपडों पर इस्तरी करवाने धोबी के घर चल पडे़, मुंह धोये बिना. कपड़ों की इस्तरी करवाने के इरादे पर थकान सवार होने लगी. सचमुच आज थक गये काका लेकिन मानने को तैयार नहीं. इस तरह तो काका हमेशा ही काम करते है, हॅंसते हुए, बतियाते हुए लेकिन कल हंसी नहीं थी. काम था. बोझ भरे बोल थे जो पूरे शरीर को छलनी कर गये.
बुलाया गया, काका हाजिर हुए.
थकान भरे मन से उसी शरीर को घर से लेकर दफ्तर आये. सफाई की और पानी हैण्डपम्प से निकालते-निकालते आखिरकर चेहरे की रौनक निकल गई. आज ही जानी थी रौनक ?
बचा था तिरंगे को बांधने का काम इसलिए पानी लेकर बैरोनक आए. तिरंगा काका ही बांधते आ रहे है. आजाद चौक का तिरंगा बांधने के बाद दफ्तर पर तिरंगा, छत चढकर बांधना पड़ता है. तिरंगे तक पहुंचने के लिए सीढ़ी नहीं है. बबूल के कॅंटीले झाड़ पर चढ़ने के बाद छज्जे पर फिर दोनों हाथों से ताकत लगाकर जंप करना पड़ता है. फिर छत आती है. छत पर फ्लेग स्टेण्ड है. उस पर चढती है रस्सी. रस्सी पर होता है तिरंगा, जो इस तरह से मुड़ा हुआ होता है कि नीचे खड़े साब जब रस्सी को झटका देते है तो गॉंठ खुलती हैं. साब हमेशा झटका देता है. झटका शब्द दफ्तर के अलावा उस दुकान के सामने बोर्ड पर लिखा मिलता है, जहां मटन बिकता है. झटका ....... झटका लगा था काका को. अब झंडे की बारी है. गांठ बॉंधने की कला में माहिर हैं काका, सभी कहते है. काका और तिरंगा एक दूसरे से जुडे हुए हैं. काका न हो तो तिरंगा कौन बांधेगा ? यह सवाल इस बरस काका के कान ने सुना. काका तिरंगे के भीतर गुलाब के फूल की पंखुडिया और गुलाल रख रहे तब, तब गुलाब की खुशबु आ रही तभी काका की जगह कौन लेगा ? सुना, सुनकर अचकचा गए और फिर अपना ध्यान केन्द्रित किया. हडबडाहट में गलती न हो. वरना निपट जाओगे, यही कहा था साब ने. अभी तक इस तरह के शब्द नहीं सुने थे. क्यों निपट जाउंगा ? जब गलती ही नहीं करूंगा तो ................
‘तो भी निपट जाओगे ........ इतना मुंह मत चलाओ‘
कुछ भी ............ कुछ भी समझ नहीं पाए थे काका. साब के कहने के बाद.
समझ में तो अभी भी कुछ नहीं आ रहा. गुलाब की पंखुरियॉं का स्पर्श सुकून नहीं दर्द दे रहा. तिरंगा का कपड़ा कुछ ज्यादा ही खुरदरा लगने लगा. जबकि काका जानते है खादी खुरदरी ही होती है. फूल और गुलाल की मनाही के बावजूद फूल और गुलाल, झण्डे के भीतर रखे जा रहे हैं. नियम कायदों का पालन क्यों नहीं करते .......... क्यों नहीं पालन करते तमीज से बात करने का ..... निपट जाउंगा .... ? मैं तो निपटूंगा लेकिन तुम भी नहीं बच पाओंगे मिश्रा साब. जेल हो जाएगी जेल. मेरा क्या ? इस बुढ़ापे में अब बचा ही क्या ? लगातार गांठ बंध रही, झंडे के लिए, काका के लिए.
दफ्तर के झंडे की तमाम गांठे बांधने के बाद पुलिस लाईन वाला झण्डा बचा था. पुलिस लाईन पर जिले का सबसे बडा कार्यक्रम होता है. मंत्रीजी आते हैं. रात को सोते हैं और सुबह सलामी लेते हैं. यहां पर भी उतना ही चौकस रहना जरूरी हैं. मेरे बाद कौन ? सवाल के साथ निपट जाओगे, का प्रहार लगातार झेलते हुए पुलिस लाईन की तरफ जा रहे है काका. रोड पर बच्चे है. बच्चों के हाथ में प्लास्टिक के झण्डे हैं. पुलिस लाईन की तरफ जाते हुए हॅंसते खिलखिलाते, उमंग और जोश के साथ. बच्चों को देखकर ही आई मुस्कुराहट. मुस्कुराते हुए कदमों ने गति बढा ली.
यहां मंच पर झण्डा बांधने के लिए पुलिस के जवान भी है.
‘‘क्यों काका देर कर दी ?‘‘ अपनत्व से भरे अल्फाज वर्दी से निकले.
‘‘हॉं, हो गई थोडी देर, पर हो जायेगा.‘‘
‘‘काका हो, तो किसे फिकर ?‘‘ हंसी निकली भरोसे और सुकून से भरी हुई वर्दी से और उसकी चमक काका के सफेद कपडों पर आ गई.
फिकर की बात से याद आया, झगडिया कह रहा था झण्डा बडा रिस्की चीज है. कटा-फटा, उलटा लग गया तो नौकरी पे आ जाती है. तो भई इससे दूर ही रहना भला है‘‘
‘‘तू तो हर काम से दूर रहता है.‘‘ काका ने कहा था.
‘‘दूर रहने का जमाना है. फंस जाओ तो कोई हथेली नी लगाता. उल्टे फंसवा देते है.‘‘
‘‘ऐसा काम करना ही नहीं चाहिए.‘‘
कौन भडवा करता है. खुद हो जाये तब की बात के रहा हूं.‘‘
‘‘साब लोग है न.‘‘
‘‘ये साब, साब मेरे सामने मत किया कर. कितनी भाग दौड करता है तूझे. स्वर्ग मिलेगा ....... ? उतना ही दौड़ाकर जितनी उमर है. ज्यादा टेंशन पालेगा, नरक भी नी मिलेगा. तेरी उमर नहीं रही अब, कुछ तो सीख, कितना बदल गया जमाना. तू नी बदला. अब बदल जा वरना खटिया पर खांसते-खांसते तेरा टे हो जायेगा.‘‘ झगड़िया बोलता है तो एक सांस में बोलता है वरना चुप ही रहता.
‘‘फिकर करनी चाहिए साब लोगों की. उनकी कलम से ही घर चलता. रोजी रोटी देते है.‘‘ संतन काका कह रहे थे लेकिन कोई समझना नहीं चाह रहा था.
‘‘साब है कोई भगवान तो नहीं. साब की तो ऐसी की तैसी........ उसके घर से पगार देता है क्या ? वो भी सरकार का नौकर हम भी सरकार के नौकर. वो बड़ा नौकर हम छोटे नौकर. क्या फरक हैं उसमें - हम्मे. वो अंदर बैठता. हम बाहर. वो भी इंसान हम भी इंसान ?‘‘
‘‘तो भी बहुत अंतर है‘‘ काका का अंतिम तर्क था.
‘‘तेरे दिमाग में है. दिमाग मैं. तेरे दिमाग में वो गांव वाली बात है न साली. वही घुसी है. बडे लोगे छोटे लोग वाली. बड़े लोग जैसी बात है साली. ना वो बदलना नहीं चाहते है और न बदलने देते है. उस पर तुम जैसे मिल जाते हो जो बदलना ही नहीं चाहते.‘‘झगडिया उतर आया था मैदान में. कुछ नहीं बोल पा रहे थे संतन काका. सिर्फ बोलने के लिये बोला,‘‘ तू बदल गया न वहीं बहुत है.‘‘
‘‘तू तो बिल्कुल नी बदला ..... तू तो वैसा ही है ............ फिर भले ही इनाम मिले नी मिले.‘‘ झगड़िया ने दुखती रग पर हाथ रख दिया था. बोलती बंद कर दी थी काका की अप्रैल में कहे हुए शब्दों ने.
काका हर साल उम्मीद बटोरते, पालते और 26 जनवरी के दो एक हफ्ते पहले ही उन उम्मीदों के बिखरने का वक्त आ जाता. उत्कृष्ट कार्य के लिए चतुर्थ श्रेणी से एक कर्मचारी का चयन किया जाता और मंत्रीजी के हाथों पुरस्कार दिया जाता है. उस पुरस्कार को पाने की लालसा अभी भी उतनी ही जवान है, जितनी नौकरी के पहले साल भर थी. हर साल की तरह साल भर दफ्तर के गलियारे और होटल गुमटी के भीतर वह सुनता. लोग सुनते. सब कहते सबसे मेहनती और हर समय हाजिर होशियार अगर कोई है तो वह काका. सुनकर काका की खुशी पूरे शरीर के भीतर दौड़ लगाती.पूरा शरीर महसूस करता. उत्साह उतना ही बढ़ जाता. पूरी मेहनत, जी-जान से घर वाली की परवाह किये बिना काम करते. कहते है लोग तिरंगे का काम काका के अलावा कोई कर भी नहीं सकता. कोई करना भी नहीं चाहता. जोखिम का काम है. कोई साहस नहीं करता. न अफसर न चपरासी. सिद्धहस्त, काबिल भरोसे लायक कोई है तो बस काका. काका को लगता सौ बका और एक लिखा होता है. इसीलिए चाहता है प्रमाण-पत्र.
इसी उम्मीद में ही काका ने कोई जवाब नहीं दिया था झगड़िया को. बात से बढे़गी बात और ये अच्छी बात नहीं है. वही खडा था रामनाथ. साब के कान भरेगा रामनाथ. चुगल खोर. सुबह शाम साब के घर हाजरी लगाता. छोटे मोटे काम बाजार के करता फिर इधर-उधर भटकता, सट्टा लगाता, लगवाता, इसे ही मिला इस साल का उत्कृष्ट कार्य का पुरूस्कार. पता नहीं क्या देखते है साब लोग. साहब लोग तो अच्छे होते है ...... इसी विचार को फिर पकड़ते है काका. सोचते, अब साब की क्या गलती ? जब ठण्ड बहुत थी कितनी मेहनत की थी रामनाथ ने. साब के घर की रखवाली. सब्जी लाना. बच्चों को स्कूल छोड़ना. किराना सामान लाना. क्या नहीं किया था रामनाथ ने ? दफ्तर के काम के अलावा. रामनाथ के पास लूना है. पुरानी ही सही लेकिन काम तो करती है और उसी के कारण झटपट काम कर लेता. वहीं काका को साईकिल चलानी भी नहीं आती. हालांकि साब के घर के लिए पहले काका का ही नाम रखा गया था सामने. बडे़ बाबू ने बोला था काका को यह जानते हुए कि ताउम्र नहीं किया काका ने बंगले पे काम, अब भी नहीं करेगा. लेकिन काका ने एक सिरे से नकार दिया.‘‘ बंगले पे काम नहीं करूं. चाहे जितना काम बताना हो. यहां, वो बता देना. घण्टी पे बैठना, डाक देने जाना, पानी पिलाना सब कर लूंगा लेकिन बंगले पे काम नी करूं.‘‘ बड़े बाबू को ताज्जुब के साथ अपमान लगा. चार घण्टे बंगले पर काम होता है. यहां काका सुबह 9 से शाम 6-7 बजे तक काम करता है लेकिन बड़े बाबू की इतनी सी बात नहीं मानता. कौन से अपने घर का काम करवाने का कह रहा हूं. एक मामूली से चपरासी की ये औकात ? इतनी हेकड़ी ? दिमाग के भीतर विचारों ने दिमाग में ही किसी कोने में न जाने क्या क्या कब से रखा था. उन सबको जगा दिया. लेकिन बडे़ बाबू ने जुबान से मिठास से कहा.‘‘ ठीक है काका.‘‘ काका को बडे़ बाबू ने रवाना किया और खुद को साब के कमरे के भीतर.
‘‘बंगले के लिए काका को बोला. लेकिन वो गुस्से में बोला, साब कौन होते है मुझे बंगले पर काम बताने वाले ...... मैंने समझाया उसे. बंगले का झाडू लगाना, पौंछा और दो घण्टे का काम दिन भर आराम लेकिन काका बात समझने को तैयार नहीं. वो तो बोला, चाहे नौकरी ले लो लेकिन इस साब के बंगले का काम नी करूं ...... फिर समझाउंगा काका को .......‘‘उतार चढाव में अपनी बात सरका दी बड़े बाबू ने चश्में को नीचे सरकाकर गर्दन झुकाते हुए साब के कान से दिमाग के भीतर.
‘‘कोई जरूरत नहीं समझाने की.‘‘
पांचवा दिन था साहब का, यहां ज्वाईन करने के बाद घर पर चपरासी की नितांत आवश्यकता थी और जरूरत यह भी कि आते से ही रौब जमा लिया जाय. लेकिन ये अपमान लगा था. भीतर तक लगा.
‘‘क्या नाम है उसका ?‘‘
‘‘जी काका कहते है सभी‘‘
‘‘काका .... नाम तो होगा उस चपरासी का ?‘‘
“काका ..... चौहान काका भी कहते है उसे ?‘ बड़े बाबू भूल चुके थे नाम. मिश्राजी को बड़ा अजीब लगा. इतने बरस होने के बाद भी बडे़ बाबू को चपरासी का नाम तक नहीं मालूम, नाम नहीं मालूम, लगातार प्रश्नों के सीसे उलझन की आग में गरम होने लगे. सम्भाला, संयत किया और मिश्राजी ने फिर किया सवाल.
‘राजपूत है ?‘‘
‘‘अरे नहीं सर, मांगीलाल राजपूत में नहीं होते, मांगीलाल, हॉं मांगीलाल नाम है उसका‘‘
याद आने पर खुश हुए बडे बाबू मोगाम्बों की तरह और तप गए मिश्रा जी. सिर के ऊपर गरम सीसा, परत की तरह चेहरे पर गिरने लगा, पूरे चेहरे पर गरम सीसा छा गया था.
‘‘बुलाना उसे ?‘‘
‘‘मांगीलाल .....? मिश्राजी ने चेहरे पर क्रूरता से भरी मुस्कुराहट आ गई. ‘‘मांगीलाल का मतलब क्या होता है बड़े बाबू ?‘‘ जानते हुए पूछते है मिश्राजी.
‘‘मांगने वाला............ मंगता...... मांग मांग कर खाने वाला......... मना करता है झाडू लगाने से‘‘
“यह भी गजब है बडे बाबू, हम जमाने को कहते है कि हम ही है मंगते, मांग कर खाने वाले, वो तो और गजब है, भीख को हम भिक्षा कहते, कहते है दान.‘‘
‘‘सर ये मांगीलाल तो सरकारी दामाद है, सरकारी कोटे वाला.‘‘
“हम भगवान के दामाद है. धार्मिक कोटा .............है ना बडे़ बाबू.”
“सर ................. भक्त है, पुजारी है सर”
“पुजारी ? ............. भक्त .............. क्या मजाक करते हो ? अपनों से ही ............”
बुलाया गया, काका हाजिर हुए.
‘‘क्या नाम है रे तेरा ?‘‘ तू तड़ाक कर मिश्रा बोले.
‘‘साब जी............‘‘
समझ ही नहीं पाए काका. जवाब सुझा ही नहीं.
“नाम पूछा है नाम ............ क्या नाम है तेरा ?”
‘‘काका ? ये नाम है या सरनेम है तेरा ?” तल्ख अंदाज था.
‘‘मांगीलाल चौहान‘‘
क्या समझता है खुद को ?
‘‘कुछ नी‘‘
‘‘तो ज्यादा समझ में आ रही है ?‘‘
‘‘नी साब‘‘ हॅंसता हुआ चेहरा खो गया था.
‘‘ये दांत क्यों दिखा रहा है ?‘‘
कुछ नहीं बोले काका. लगा कुछ गड़बड़ हो गई. अंदाज लगाया बडे़ बाबू को मना करने का नतीजा ही है. सिर झुकाये हाथ बांधकर खड़े थे काका. सफेद झक दांत को अंदर बिठा दिया.
‘‘क्यों खड़ा है .......... चल काम कर अपना‘‘ ऑंखे दिखाई थी साब ने. चश्में के भीतर से बाहर आ गई, बड़ी बड़ी ऑंखे. मेरी उम्र का तो लिहाज करना चाहिए, सोचा और बाहर चल दिए काका.
‘आप फिक्र न करें सर. मैं देखता हूं. ‘बड़े बाबू ने अपने आदेश की अवहेलना करने वाले को दे दी सजा. निशाना सही जगह बैठा था. अभी जुलाई बीत रहा था. एक बारिश के बाद फसलों को खुद के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया था मौसम ने. काका को साब ने. कहते है लोग कि अगर अगले दो चार दिन में बारिश नहीं हुई तो मर जायेगी फसल. फसल की चिंता, नहीं दिखती अखबार में, समाचार में. सोने के भाव, शेयरों की चढ़ाई, नये मॉल खुलने की बातों के बीच काका धॅंस गए किसी खेत की मेढ़ पर.
काका ने दफ्तर की याद, मरती हुई फसल और खेत की मेढ़ से निकलते हुए पुलिस लाईन के तिरंगे को आखरी गॉंठ बॉंधी और उदासी बिखर गई काका के भीतर. मैदान में स्कूली ड्रेस में बैठे और खड़े बच्चों के कदमों तले, जहां धूल थी, कंकड़ थे वहां आम जनता नहीं है. नहीं आती आम जनता, न बुद्धिजीवी, वहां उपस्थित है बच्चे और अपमानित होता हुआ काका का मन.
‘‘बंध गई गॉंठ अच्छी तरह से ? ‘‘ वर्दी ने आश्वस्ती चाही और खेत और दफ्तर से बाहर हुए काका के मन के भीतर हजारों गॉंठ बॅंध चुकी थी. एक दिन में गॉंठे कितनी भारी हो गई. नहीं उठा पा रहे है काका. ऑंखों में नमी और जबान में भारी पन के साथ कहॉं‘‘ हां बंध गई ...... मजबूत है.‘‘
‘‘कोई बात हो गई काका ?‘‘
‘‘नहीं कुछ नी‘‘ हंसी की गॉंठ खोलनी चाही. झटके मार मारकर लेकिन नहीं खुल सका मन. नहीं रूकना चाहा. लेकिन रूक गए कदम. जब तक झण्ड़ा फहराया नहीं जाता तब तक सफेद टोपी पहनकर ही खडा रहना पडे़गा. झण्डे़ के पीछे, लोगों के पीछे. इतना पीछे कि सामने क्या हो रहा है दिखता नहीं. फिर झण्ड़े को ही देखना पड़ता है. लोगों को नहीं. गरदन उठाकर इत्मीनान होता है कि तिरंगा बॉंध दिया है मजबूती से.
अगले दिन दफ्तर खुला. खुले स्मृति दिन बडे़ बाबू के, मिश्राजी के. मिश्राजी ने कहा ‘‘जगत के काका को, मांगीलाल बनाओ भई‘‘ बडे़ बाबू ने सुना, मुस्कुराहट लाई और चल दिए बडे़ बाबू होटल की तरफ. पीछे से रामनाथ ने आवाज लगाई ‘‘ साब ने बोला कल साढे़ दस बजे रजिस्टर पे अपसेंट की क्रास लगाना.‘‘ सुना और तत्काल लौटे बडे़ बाबू साहब के कमरे में.
‘‘काका सुबह नौ बजे आकर पूरे दफ्तर में झाडू लगाता है. फिर हैण्डपम्प से पानी तीन मटकों में भरता है और रात होने पर ही घर जाता है. इसलिये हाजरी के लफडे़ में मत पड़िए सर.‘‘ कुर्सी पर नहीं बैठे बडे़ बाबू. खडे है. पूरे सम्मान के साथ और अदब के साथ धीरे से बोले.
‘‘है क्या ये ?‘‘ सवाल को समझ कर नहीं समझे बडे़ बाबू.
‘‘उसको निपटाने के लिए दूसरा तरीका अपनाना पडे़गा सर.‘‘
‘‘अच्छों अच्छों को निपटाया है मैंने. ये है क्या ....? क्या औकात है‘‘ मिश्राजी तैश में आ गए. बडे़ बाबू ने अपने अनुभव देते हुए किसी और तरीके से फंसाने के तरीकों पर चर्चा की. जिसे रणनीति बताया जाता है. काका का चाल चलन, व्यवहार, शौक सोहबत के साथ तमाम कमजोरियों को एक एक कर ढूंढा गया. विश्लेषित किया गया लेकिन सफलता नहीं मिली. सिविल सेवा आचरण नियम में दर्ज कदाचरण के तहत क्या-क्या आ सकता है और उसे कैसे लागू किया जा सकता है, सोचने के बाद निर्ष्कष ने शून्य का साथ दिया तब रामनाथ को बुलाया गया. बडे़ बाबू ने मिश्राजी को कहा ‘‘अपने वाला है, भरोसेमंद‘‘
‘‘जानता हूं बडे़ बाबू. विचित्र किस्म की हंसी आई मिश्राजी के चेहरे पर फिर बोले, “सबसे पहले इसी बात की खोज करता हॅं.‘‘
नमस्कार कर एक कोने में खड़े होने के बाद रामनाथ से पूछा गया‘‘ काका कभी तो पीता होगा.‘‘
‘‘अभी तक तो नी सुना.‘‘
‘‘तुम्हारे साथ है. तुम अच्छी तरह से जानते होंगे. उसकी कमजोरियां. डाक लाने में लेतलाली करता है. बुरा बोलता है. कुछ तो गड़बड़ होगी उसमें.‘‘ मिश्रा साब बेबस थे, कैसे समझाये कि कुछ तो बोले... सच नहीं बोल सके तो ये झूठ बोले. झूठ. लेकिन बेवकूफ टाइप का लगा रामनाथ. जिसे बोलने का मौका मिलता है, वह झूठ को सच में मिला देता है. झूठ से भरी किवदंती मिथक में तब्दील होती हुई इतिहास बन जाती है. ये स्साला अपना वाला होकर इतना भी नहीं जानता है कि झूठ बोलना कितना जरूरी है. बेवकूफ........... इस तरह के लोगों के कारण ये दिन देखने पड रहे है.
रामनाथ तमाम विरोध और काका से जम न पाने की पीडा के बावजूद कुछ नहीं बता पाया तो बोले मिश्रा जी, ‘‘वह इतना दूध का धूला है या तुम्हारी ऑंख दिमाग समझ नहीं है ? समझ में नहीं आ रहा कि क्या चाह रहा हूं ?”
दिनभर की मेहनत भाड में चली गई. ऐसा कोई आरोप ऐसा कोई बात जिसके कारण काका को निपटाये, सूझ नहीं पड़ रहा. जांच दण्ड तो बहुत की और करवाई. मिश्राजी ने सैकड़ों को पटरी पर लाया. बीस साल की नौकरी में जब जी चाहा उसको छोटी सी बात पर निपटा दिया. कांपते थे कर्मचारी, पता नहीं किस बात पर रगड़ दे और यहां पर एक अदने से चपरासी को निपटाना मुश्किल पड रहा. ये हार है अपमान है या पद को चुनौती. खुद को या कुर्सी को. मिश्राजी ने जाना ये दोनों को चुनौती दी गई है. ये दोनों का अपमान है. आदेश की अवहेलना हैं. इतनी लम्बी नौकरी में चपरासी की ये मजाल जो घर का काम करने से इंकार कर दे. हमारे घर का, जहां इस तरह के आदमी के कदम तो क्या गंध भी वर्जित है, वहां झाडू लगाने से मना कर दे ? सोचते-झुंझलाते परेशान होते रहे मिश्राजी. उससे ज्यादा झटका लगा कि रामनाथ समझ नहीं पा रहा है. समझा नहीं पाएंगे रामनाथ को. मिश्राजी की उम्र 50 पार हो गई और बाल सफेद होने लगे जिसे डाई से काला करवाते है. मूंछ को भी काली करवाते है. तोंद के नीचे बेल्ट कुछ ज्यादा ‘टाइट‘ लगने लगा. तोंद बढ़ी नहीं फिर टाइट कैसे? ऐसे वक्त में मिश्रा जी का हाथ न मूंछ की तरफ जा रहा न बेल्ट की तरफ. वे टेबल पर रखे पेपरवेट को उछालने लगे. उन्हें लगने लगा, चपरासी जिसे सभी ‘काका‘ कहते है वो सामने आ जाए तो उसका सिर फोड़ दें. मांगीलाल का खून बहा दे. दिल को सुकून मिलने के वे तमाम तरीकों पर सोचते रहे और परेशान होते रहे. ये उसकी मजाल ? उसकी दो टके का आदमी.
शाम ढली तो बडे़ बाबू फिर आ गये साहब के सामने. ‘मूड़ बदल गया होगा, के साथ. वे सीधे कुर्सी पर बैठ गए. रामनाथ को पहले ही चाय का बोल दिया था. कुछ कहते उसके पहले रामनाथ चाय के साथ हाजिर हो गया. नये कप में आई चाय. ओंठ से लगाया कप और जबान के उपर चढ़ा दी चाय कि रख दिया कप और बोले मिश्रा जी ‘‘ये चाय है या ................... इतनी भी अक्ल नहीं है.‘‘
‘‘क्यों छन्नू की दुकान से नहीं लाया था.‘‘ बड़े बाबू ने तत्काल कमान सम्भाल ली. “तो काका को बोल अच्छी चाय बनवा के लाये.‘‘ बडे़ बाबू ने गुस्सा तोडना ही चाहा लेकिन दांव उल्टा हो गया. ‘‘उसको क्यों भेज रहे हो, ये जायेगा, लायेगा.‘‘
‘‘फिर आप नाराज होगें. ........ ‘‘बडे़ बाबू कमरे से उठकर बाहर आये. अजीब आदमी से पाला पड़ा है, खुद से कहा.
कैलेण्डर न होता तो पता ही नहीं चलता कि दिन बदल गये. महिना बदल गया. लेकिन मिश्राजी नहीं बदले. बदले तो इस तरह कि अब काका का हॅंसता चेहरा, याद कर सोचते, काश मैं भी इतना हॅंसमुख होता. इतनी उमर में बाल सफेद न होते, न निकलवाना पड़ती दाड़, दांत पीले न पड़ते, होते काले बाल काका की तरह तो कितना अच्छा होता. इस उम्र में भी कितना ‘टन‘ है ये काका, पता नहीं क्या क्या खाता है साला. दिल भी हुआ कि पूछे कि क्यों रहता है इतना खुश ? क्या राज है ? क्या खाता पीता है ? पूछने में क्या बुराई है ? मिश्राजी के अन्दर से किसी आदमी ने कहा, वे सोचते उसके पहले ही दूसरे ने कहा, उससे पूछोगे ? उससे ? उसकी क्या औकात है, करोगे बात मांगीलाल से ..................? करोंगे ...... कि क्या खाता है क्या पीता है. खाने पीने की बात करोगे उससे .......... ?
जवाब आया तो लहुलुहान होकर. बैचेन हो गए मिश्राजी. बैचेनी बढ़ गई तो बडे़ बाबू को बुला लिया. चाय पीने के लिए. ऐसा अक्सर होता. मिश्राजी का जब मूड़ गड़बड़ होता तो वो बडे़ बाबू को ही बुलाते. बडे़ बाबू किचन तक जाते. बडे़ बाबू बेडरूम में घुस सकते. बडे़ बाबू के भरोसे ही रहता पूरा घर. बहुत खुल गये मिश्राजी. यहां दफ्तर में बडे़ बाबू के अलावा कोई और है नहीं. जिससे बात की जा सके. बात करने के लिए भी दस जरूरत होती है. बड़े बाबू अपने वाले है. नर्मदा के पार वाले. नर्मदा नदी पावन नदी है. दर्शन मात्र से पाप धुल जाते. नर्मदा स्नान के लिए सपरिवार गये थे मिश्राजी, बडे़ बाबू के परिवार के साथ. महेश्वर घाट इतनी भीड़ में नहाने के लिए न चाहते हुए उतर गए और ऑंखों में जलन हुई कि मंत्र पूरे बोले उसके पहले ही बाहर निकले. निकल गई गालियां, हरामियों के कारण कितनी गंदगी बढ़ गई. पूरे बदन में खुजली हो रही. ऑंख जल रही. पता नहीं कौन-कौन आ जाते है नहाने. ‘‘नर्मदा नदी में इतनी गंदगी ? जब दर्शन से ही पुण्य मिल जाता है, तो साला नदी में जाने की क्या जरूरत थी ? ये तो मूर्खता है, साली मूर्खता ............ और ये साले गंवार, न जाने कहां कहां से चले आते हैं और नदी में डुबकी लगा देते है ............ गंदे स्साले सारी गंदगी इनकी ही है, पता नहीं कब से नहीं नहाते है-गंदे................. ये सारा इन्ही का किया धरा है, सारी आबादी तो इन्हीं की है. हम है ही कितने ? सोचते है पुण्य मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा ........ नरक बना रखा है ... पूरा देश ही नरक बन गया ............. वो जमाना भी क्या जमाना था ........... सतयुग जब इनकी छाया भी हम पर नहीं पड़ती थी...... अब कलयुग आ गया .......... कलयुग.......... महेश्वर घाट की घटना अचानक ही याद आ आई. आये नहीं अब तक बडे़ बाबू.
अब दफ्तर में ही बनती है चाय. रामनाथ के हाथ बनती है चाय. घर से आता है चाय के लिए पानी. दूध का पैकेट सॉंची कार्नर से आता है, आधा लीटर, सांची गोल्ड. सुकून मिलता है चाय पीने में. अपने घर का पानी, अपनों के हाथ से बनी चाय दुगुना स्वाद देती है. उसी स्वाद में डूबे डूबे पूछा ‘‘उस चपरासी की उमर कितनी होगी ?‘‘
‘‘इसी साल रिटायरमेंट है.‘‘
‘‘ये बताओ, मेरी उम्र कितनी होगी ?‘‘
‘‘मुझसे दो तीन साल बडे़ होंगे.‘‘
बडे़ बाबू न होते तो थूक देते बोलने वाले के मुंह पर मिश्राजी. इतना गुस्सा आया. मिश्राजी बडे़ बाबू को 55-56 साल के आसपास का समझते है और खुद 50 साल के होकर भी 40 के खुद को लगते है. मिश्राजी उम्मीद कर रहे थे कि ये 40 के आसपास लग रहे है, ऐसा कहेगा मगर इस हरामी ने तो बूढ़ा बना दिया. साला 50 ही बोल देता. जो है उतना ही बोलता. क्या इसने मेरी सेवा पुस्तिका नहीं देखी ? बोलना ही था तो अपने से छोटा बोलता. झुर्रियों से भरा दिखा बडे़ बाबू का चेहरा. बालों को डाई लगाने से उम्र छोटी नहीं होती. सिंग काटने से ढ़ोर बछड़ा नहीं बन जाता. चाय अधूरी ही छोड़ी और छोड़ दिये बोल-‘‘बडे़ बाबू तुम हमसे बहुत बडे़ हो, उमर में, आईने को भले ही धोखा देना. मुझे कोई धोखा नहीं दे सकता.‘‘
‘‘मैं तो यूं ही अन्दाजन ....................‘‘
‘‘अरे ये कोई अन्दाज है ............. छोडो, ऑडिट पार्टी की व्यवस्था बराबर हो गई है ?‘‘
बडे़ बाबू के लिए अनपेक्षित था. जो लगा वो बोल दिया. इतना खुलने के बाद तो समझना चाहिए. बडे़ बाबू भूल गये कि अफसर अपनी उम्र कम, अनुभव और बुद्धि दूसरों से ज्यादा समझते है. अब दस बाते और सामने आ गई बडे़ बाबू के. मिश्राजी का टोन, बोल, बर्ताव बेहद घटिया है और तो और आता जाता कुछ नहीं. बस जोर से बोलते है. जोर से बोलने से कोई बुद्धिमान नहीं होता. अपने आप को पता नहीं क्या समझते हैं ? बड़े बाबू समझ गये कि पहले वालों की तरह ये भी चापलूसी ही पसन्द करता है. इतनी सी देर में कितना विश्लेषण कर डाला बड़े बाबू ने मन ही मन में और उन विचारों को हटाकर बोले- ‘‘सर आपके आर्शीवाद से सब ठीक है. आप चिन्ता न करें.‘‘
मिश्रा जी को चिन्ता तो थी लेकिन वह पीड़ा देकर आनंद लेने की. वह नहीं मिल रही. काका को कभी इन्दौर तो कभी भोपाल की डाक लेकर भेजा जाने लगा. शाम ढलने के इंतजार में डाक रोके रखते है और जब दफ्तर बंद होने लगता है तब लिफाफा पकड़ाया जाता है. ‘‘कल सुबह इस डाक को लगा देना. हॉं, पावती जरूर लेना. अब काका तुमसे ज्यादा भरोसेमंद कोई नहीं. कोई नहीं भरोसेलायक.‘‘ बड़े बाबू समझाते है. काका सोचते है मीठे बोल बहुत अच्छे लगते थे पहले. उनमें अब कीडे नजर आने लगे. इतना मेहनती हूं भरोसेमंद हूं तो फिर क्यों नहीं देते प्रमाणपत्र ? क्यों दौड़ाते समय असमय. काका जानते है इस मुस्कुराइट, समझाईश को. सुन्दर आकर्षक पैकिंग के भीतर जमा किये हुए षड़यंत्र को. परेशान करने की नियत को. लेकिन कुछ नहीं कहते है इस बारे में काका. मुस्कुराते है अपनी सदाबहार खुशी के साथ. हंसते हुए ही कहते है काका, ‘‘कोई बात नहीं. अभी सीधे निकल जाता हूं. सात वाली बस खडी होगी. आखिरी बस है, उसी से निकल जाता हूं. सुबह डाक लगा दूंगा.‘‘
इंकार नहीं. विवशता नहीं. परेशानी नहीं. समस्या नहीं.. कुछ नहीं झंझट. घर की चिंता नहीं. खुद की चिंता नहीं. बताते है बडे़ बाबू तो परेशान हो जाते है मिश्राजी. ‘‘ये आदमी है या कुछ और. पैसा, भूख, सोना, हगना ....... कुछ भी नहीं सोचता ये आदमी?‘‘ कहते हुए परेशान हो जाते है मिश्राजी. परेशानी पूरे कमरे में फैल गई. काका, मटमैला धुंआ, जिनके विषैले कण छा गये. पूरे कमरे में भर गए. कुछ नहीं दिख रहा है, कुछ नहीं सूझ रहा है मिश्राजी को. वे सोचते है ये परेशान क्यों नहीं हो रहा है. कितनी जगह टाईम बेटाईम दौड़ाया जाता है इसे, दौड़ जाता है. कहता नहीं कुछ भी. नहीं मांगता मदद. नहीं जोड़ता हाथ. नहीं झुकता. जैसे कि कोई मशीन हो कि बटन दबाया और चल दी. हर बार. हर बार मुस्कुराते हुए जाता है और लौट आता है. कब खाना खाता, कितना वक्त घर पर रहता. हर दम इतना तरोताजा कैसे रहता है. खिला हुआ फूल. इस उम्र में भी ? मुझसे कम से कम दस साल बड़ा होगा. बल्कि ज्यादा. रिटायरमेंट के करीब है. सेवा पुस्तिका में व्यक्तिगत जानकारी पढ़ने के बाद ही जाना और जानकर दुःख के अलावा कुछ भी नहीं मिला. काका के परेशान न होने और खुश होने से जन्म लेती है मिश्राजी की पीड़ा और फिर बढ़ती जाती है.
पूनम के चांद ने अंधेरे के अहसास को कम किया लेकिन काका की भूख ने मजबूर किया कि घर जाये. घर जाने में दिक्कत है. साहब अभी बैठे है. दफ्तर के आडिट के चक्कर में सब बैठे रहते. मैं बैठा हूं तो कुछ अलग नहीं हूं. ठीक है सुबह से कुछ नहीं खाया. एक दिन न खाये तो मर तो नहीं जाता आदमी और आड़े वक्त काम न आये तो फिर काहे की नौकरी. चाय-पानी का वक्त नहीं काका के पास. साब के कमरे में भजिये थे. काका तब स्टोर रूम में थे. अंधेंरे कमरे में सालों पुरानी चीजों की सफाई करते हुए. तभी पुकार लगी थी और वैसे ही अंधेरे से निकले तो बल्व की रोशनी ने ऑंखों में मिर्ची सी रोशनी का झोंका दे दिया. अंधेरा रोशनी के साथ ऑंखों के भीतर आ गया. गलियारे से साब के कमरे में दाखिल हुआ.
‘‘अभी तक काम खत्म नहीं हुआ ?‘‘ सवाल है साब का.
‘‘जी करता हूं.‘‘
‘‘तुम लोग कामचोरी कब बंद करोंगे ? दो दिन से दो कमरे साफ नहीं हो रहे. मक्कारी मत करो, दो घण्टे में पूरी सफाई चाहिए मुझे ..................... अब खडे़ खडे़ हमें खायेगा क्या ? ............. काम कर काम‘‘ बदन को लहुलुहान करते शब्दों में मिर्ची है, खुले हुए घाव पर ड़ाले जाने वाली मिर्ची के अलावा कुछ नहीं. पूरे तनमन को काटकर मिर्ची रखी गई. अब सूझ नहीं पडे. क्या जवाब दे. नौकरी में ये पहला मौका है. काका को ड़ॉंट कभी नहीं पड़ी थी. ये डांट नहीं थी. ये तो मान मर्दन था. कितना काटा. अबोध बच्चे को कुत्ते इसी तरह काटते है. अस्पताल के पीछे कुत्ते और सूअरों को देखा है जो भ्रुण को काटते खाते है. कुत्ता ही है साब, खूंखार कुत्ता. यही सोचते हुए काका ने भरपूर थूक इकट्ठा किया, और कमरे के पास बहते हुए गंदे पानी में थूंक दिया. थू .................. थू.................... थू............... इतनी तीखी आवाज थू-थू की थी कि साब के कमरे में चली गई.
‘‘कौन मादर .................... थूक रहा है.................... चीखे साब. चीख को सुना काका ने और जोर से थू दिया ............... थू.......... खांसी चढ़ आई. खांसी ने लाल रंग, मिर्ची वाला ऑंखों में चढ़ा दिया. बदन में दौड़ा दिया. न बैठते बने न खड़े रहते. खांसी का दौर शुरू हुआ. लगातार खांसते रहे और लगातार बजती रही घंटी ........... घंटी पर रामनाथ की ड्यूटी है. रामनाथ नहीं दिखता घंटी पर. रामनाथ के ही जिम्मे है साहब की चाय-पानी और नाश्ता. रामनाथ के अलावा कोई चाय या पानी नहीं ले जाता. काका का काम दफ्तर खोलना बंद करना, पानी भरना, सफाई करना और डाक बांटना है. डाक का काम झगड़िया भी करता लेकिन उसे लापरवाह मानकर काम नहीं दिया जाता. न उससे दूसरा काम लिया जाता. एक तिवारी था उसने अपना तबादला ससुराल करवा लिया. वह साहब के बंगले का चपरासी था. कभी कभार दफ्तर आता था. घूमने-फिरने. सबके काम बंटे हुए थे. काका का मन घंटी की आवाज के साथ भटकने और घूमने लगा.
काका ने खांसी रोकी और फिर पानी पेड़ की जड़ पर चढ़ा दिया.
‘‘दीवाले तुड़वायेगा तू. इनको पानी दे दे के.‘‘ रामनाथ ने प्रकट होकर कहा.
‘‘इसकी छाया में एक दिन बैठेगा तब समझ में आयेगी.‘‘
‘‘तब तक दुनिया में कौन रहता है भगवान जाने. बेमतलब अपना दिल नहीं लगाना चाहिए काका, कुछ समझ में आया.‘‘
‘‘इसकी तो समझ में नी आये. बच्चे को नौकरी लग जाने के बाद भी दिन रात यही काम करता है. काका का बेटा यहां भी आता है और रिटायरमेंट लेने का कहता है. लेकिन ये किसी की भी न माने. भगवान जाने इसकी आत्मा यहीं हो.‘‘ झगड़िया आ चुका था घर जाने के लिए.
‘‘लोग बाग अच्छे बच्चों के लिए तरसते है. ये बच्चों को तरसाता है. कितना कहते हैं रिटायरमेंट ले लो लेकिन इस भोले भण्ड़ारी के पल्ले कुछ नहीं पड़ता.‘‘
‘‘काका को दफ्तर का नशा है नशा. दफ्तर के बिना चैन नहीं पड़ता काका को. छुट्टी के दिन भी कमरों की सफाई करके ही आत्मा को शांति मिलती है‘‘
‘‘काका की तो यहीं कब्र खोदनी पडे़गी.‘‘ रामनाथ बोला.
झगड़िया ने हंसते हुए कहा, ‘‘इसे गाड़ना नी रे, नहीं तो उठ उठ के देखेगा-सफाई हुई की नहीं, मटके में पानी डाला की नहीं, डाक बंटी की नहीं, इसलिए जलाना पडे़गा काका को. ‘‘रामनाथ चाह रहा था काका कुछ कहे लेकिन काका ने खामोशी ओढ़ी और स्टोर के दरवाजों पर ताले जडे़. अपने अपने घरों की तरफ चल पडे़.
काका बैठते है जब थोड़ी मिलती है फुरसत, तो बात करते है अहिरवार बाबू और काम्बले बाबू के साथ. 26 दिसम्बर था दिन. उसी दिन बोल रहे थे बड़े बाबू ‘‘एक महिना रह गया 26 जनवरी को. ‘‘नया झण्ड़ा लाने के लिए मिले थे रूपये. तब आकाश में सूरज छिपा हुआ था और काले बादल थे. उत्तर भारत की शीत लहर का असर था. धूप के लिए खड़े थे और बात हो रही थी ‘‘सबके लिए पानी‘‘ कार्यक्रम के पंड़ाल से बाहर खड़े खडे़.
‘‘तो काका जिस पानी को मटके में भरते हो, उस पानी लिए लडे़ थे बाबा. बाबा साहब ने 26 दिसम्बर को चवदार तालाब से पानी के लिए आन्दोलन चलाया था. पानी सबके लिए होना चाहिए. अरे और तो और देश के आजाद होने के बाद संविधान में लिखना पड़ा सबके लिए एक जैसा होगा. लेकिन आज भी उतना फरक नहीं पड़ा जितना होना चाहिए. ‘‘बोले अहिरवार बाबूजी. ‘‘लडाई लड़ी तब मिला पानी का हक.‘‘
‘‘क्रांति तो हुई थी लेकिन अधूरी. आज भी कई हरामियो के पिल्लों को नहीं पच पाता. अभी भी पानी नहीं मिलता सबको. आज भी कई गांवों में सभी के लिए नहीं है सभी कुएं, सभी हैंडपम्प. अब तो बांट दिए पानी के लिए और तो और अब बोतल बंद पानी का जमाना आ गया. इसे हम जैसे पी नहीं सकते है तब बाबा साहब पानी के लिए लड़े थे आज भी हालात नहीं बदले है. वे ही लोग है, उन्हीं लोगों से लड़ना है. वे ही नहीं चाहते सबको मिले साफ पानी. पानी के लिए फिर लड़ना होगा. पानी के लिए अब नये अम्बेड़कर को आगे आना पड़ेगा. ‘‘अहिरवार बाबूजी गुस्से में बोलते बोलते रूके.
‘‘काका, सारे दफ्तर के लोग पानी पीते है तुम्हारा भरा हुआ लेकिन तुम्हारे साब और बडे़ बाबू क्यों नहीं पीते. ‘‘काम्बले बाबूजी ने पूछा.
‘‘वो घर का लाते इस कारण.‘‘ काका ने कहा.
‘‘गिलास में तो यहीं पे भरते है.‘‘
‘‘कौन भरता है गिलास में पानी ?‘‘ जानते हुए पूछते है काम्बले.
‘‘जिस की ड्यूटी हो वो ----- वो रामनाथ.‘‘ काका ने सहज उत्तर दिया.
‘‘इसके पहले कौन पिलाता था पानी ?‘‘ अहिरवार बाबूजी ने जिज्ञासा जगाने के लिए पूछा.
‘‘तिवारी. फिर उसके पहले पंड़ित जी-------बस.‘‘
काका सोचते गए बोलते बोलते.
‘‘तुम क्यों नहीं ?‘‘ अहिरवार बाबूजी में यही खराबी मानी जाती. वे आक्रमण करते.
‘‘क्योंकि मेरी ड्यूटी नहीं.‘‘
‘‘क्यों नहीं ?‘‘
‘‘साब की मर्जी‘‘ काका ने कहा और चल दिए थे.
मैं क्यों नहीं ? यह सवाल काका के आगे आगे घर से दफ्तर तक चलता रहा. स्टोर में ताले लगे थे और दिमाग में खुल रहे. कुछ मौके आये थे जब घंटी पर रामनाथ या तिवारी नहीं होता तो काका पानी पीला देते. कितनी बार पिलाया होगा ? तो कुल जमा पूरे चालीस साल की नौकरी में चार-छः बार. वे गिनते है वक्त और साब और सुनते है घंटी की आवाज. कर्कश. साब के पास बड़े बाबू है. दोनों फाईलों में डूबे हुए. ऑडिट का जवाब बनवाते हुए. यह जानते हुए कि साब दफ्तर का पानी नहीं पीते यह समझते हुए कि पानी पिलाने की ड्यूटी रामनाथ की है. काका को नहीं दिखा रामनाथ. याद आये काम्बले तो पानी के लिए बढे़ काका. काका को पानी पिलाना पुण्य काम लगता. वह हर किसी को पानी पिलाते. पीने वाले आदमी का चेहरा असीम तृप्ति दे जाता. पानी इतना महत्वपूर्ण है.
‘‘कोई रेलगाड़ी छुट रही या लाड़ी मर रही जो भागे जा रहा है.‘‘ झगड़िया ने ताना मारा.
‘‘ऐसा कुछ नी ......................... तू रहने दे‘‘
‘‘अरे साब तो निकला बाहर, वो देख‘‘
‘‘शायद दौरे पे जा रहे हो. ऑड़िट है ही साला खराब. दिन रात जान लेने पे तुला है. छोड़ तू‘‘
पानी का गिलास लेकर आये काका यह जानते हुए भी कि कुर्सी से उठ गये साब. लेकिन जीप की आवाज आने से आशा थी कि अभी गाड़ी रवाना नहीं हुई. मतलब साहब नहीं गये. पानी पिला दूं. बहुत प्यास लगी होगी. कल थूक ही निकाला था, मन तो वैसा ही था काका का, उसी मन में खयाल आया पता नहीं किस गांव जा रहे ? वहां का पानी कैसा क्या होगा ? गांव के लोग तो बिना देखे परखे सोचे समझे पीते है पानी. कितना गन्दा होता है गांव का पानी. यह काका ने दफ्तर के कांच के गिलास में साफ पानी को देखने के बाद ही जाना था. अब साब जिस गांव जा रहे वहां हैण्डपम्प होगा ? पता नहीं कब लौटे ? इतनी तेजी से आये सवाल- चिन्ता और यादे जो कदमों से सौ गुनी तेज होगी. सोचा और धोकर गिलास, भरा पानी. कांच के गिलास में भरे स्वच्छ पानी को देखा, स्वच्छ मन से. कहीं कोई गंदगी या कचरे का अंश तो नहीं ? लेकर गिलास साहब के कक्ष की तरफ चल दिए कि सामने से बड़े बाबू आये. बड़े बाबू ने पानी मांगा. बड़े बाबू को कभी नहीं पिलाया पानी. बडे़ बाबू के मुंह में पान हमेशा रहता. बड़े बाबू ने पान थूक दिया गलियारे में. ‘‘इतने साल हो गए मगर ये स्साला. समझ नहीं आती. चूना तेज कर दिया भो ------ वाले ने.‘‘ पानी से निकाला पान. जबान से निकाली गाली और इतने में दिल नहीं माना तो कहा- ‘‘ये साहब भी ------ पता नहीं क्यों नहीं समझते. छोटी छोटी बातों के जवाब में दिन भर लगा देते. न खुद चैन लेते न लेने देते. बड़े़ बाबू चूने के असर को खत्म करने के लिए लगातार पानी मुंह में लेकर थूकते और बड़बड़ाते रहे. काका के दिमाग में मुस्कुराहट की नस दौड़ने लगती है जिसे चेहरे पर आने से रोकते है. खाली गिलास में उतार देते है मुस्कुराहट. उसे लेकर फिर जाते है मटके के पास.
घण्टी बजती है फिर लगातार. भुनभुनाते है मिश्राजी. उतारते है बडे़ बाबू पर. ‘‘इतनी छोटी सी बात आपके भेजे में नहीं आती. ‘‘कागज फेंकते है मिश्राजी और उठते है कुर्सी से.‘‘ पानी, पानी कब से कर रहा हूं. कोई सुनता ही नहीं. स्साले जाहिल कहीं के. कहां चला गया रामनाथ का बच्चा. ‘‘बोलते-चिखते हुए मिश्राजी कक्ष से बाहर आ गये. टकराते हुए बचे काका. छलक गया पानी.
‘‘सर, पानी‘‘ नम्रता से ही कहा काका ने, जो इतनी मासूम थी कि चीख, गुस्सा और गाली से टकराकर नीचे गिरी और पानी की बूंद में मिल गई. मिश्राजी ने गिलास हाथ में लिया.
‘‘तू क्यों लाया रे पानी ? तेरी ड्यूटी है ? बेवकूफ ........... मक्कार अपना काम तो करता नहीं और चला आता है ---- चल भाग, यहां से ...............” गिलास फैंक दिया. कांच का गिलास सैकडों टुकड़ों में पानी से बिछड़ कर बिखर गया. कांच के टुकड़े प्यासे हो गए या मासूम पानी की बूंदे. कुछ भी समझ नहीं पाये काका, इस तरह से चार लोगों के बीच अपमानित किया. क्या गलती की काका ने, काका सहित कोई भी समझ नहीं पाया. कई महिनो से प्रताड़ित हो रहे काका. ऐन 26 जनवरी के पहले दफ्तर के सारे कमरों की सफाई करवाने के बाद भी चैन नहीं पड़ा कि स्टोर की सफाई का हुकूम दे डाला था. डाक के लिए दौड़ाना ठीक था. लेकिन बेटाईम ? सिर चकराने लगा. प्रतिवाद करना चाहा लेकिन शब्द नहीं मिले, निर्जिव हो गए काका.
आज आठवा दिन है. नहीं गए दफ्तर काका. दिन रात घर पर ही पडे़ रहे. तबियत बिगड़ गई. दवा और डाक्टर से दूर रहे काका. उनकी जरूरत ही नहीं पड़ी. अब क्यों जाऊं डाक्टर के पास ? सनकी कहते है काका को. एक बार ठान ले तो ठान ले. फिर कोई संशोधन, परिवर्तन नहीं होता. सनक सवार हो गई, डॉक्टर को न दिखाने की.
‘‘नहीं देखी साहब ने एपलीकेशन. बोले चपरासी है कोई तोपचंद तो नहीं. लिखे तो आ भी सके. पैर तो नी टूटा.‘‘ रूआंसी हो गई काका की पत्नि. बुढ़ापा आ गया लेकिन कभी नहीं गई थी दफ्तर. जिन्दगी में पहली दफा गई. गुस्सा किया काका ने. मर जाऊं तब जाना दफ्तर. ऐसा बोलने के बाद झगड़िया के साथ आई थी और ये सुनने को मिला. नहीं सुनाया काका को और बुला लिया बेटे को. बेटा सेकंड क्लास अफसर है. बडे़ पद पर है. बहुत मानते है काका इस बेटे को. इसकी बात नहीं टालते है. दो दिन बाद आया बेटा.
‘‘डॉक्टर को दिखाते है बाबा.‘‘ बेटा ने कहा.
‘‘क्या हुआ है मुझे ? कौन सा रोग हुआ जो डॉक्टर के पास जाऊं ? तू तो ये एपलीकेशन दे आ फिर बात करते हैं.‘‘ काका संयत होकर बोल रहे. खुद को तौल रहे.
‘‘दे आऊंगा, मत करो फिकर उसकी. कुछ नी होता.‘‘
‘‘जानता हूं लेकिन कुछ ऐसा वैसा कर दिया तो बुढ़ापे में बदनामी नहीं झेल पाऊंगा. ये गई थी एपलीकेशन देने लेकिन नहीं ली. फेंक दी और गरियाने लगा. ये ना बोले लेकिन ऐसा ही हुआ होगा.‘‘ पत्नी की तरफ देखते हुए कहा काका ने. कुछ गुस्सा था, कुछ दर्द, कुछ अपमान, कुछ चिंता सभी को लेकर बेटा दफ्तर पहुंचा, उसी दिन शीत लहर फिर आई. फरवरी में बेमौसम ओले पडे़ और तेज आंधी में मजबूत पेड़ भी उखड़ गये, जो बचे वे लचीले थे. लचीला ही है बेटा. कर लेता है एडजस्ट. इस सर्दी में कांपते हुए बदन के साथ पहुंचा मिश्राजी के पास.
“मैं मांगीलाल जी चौहान का बेटा हूं.‘‘ दफ्तर में पहुंचने पर भी पिता के साथ हुए बर्ताव को भुला नहीं पा रहा काका का बेटा.
‘‘कौन मांगीलाल ?” उपहासात्मक रूप में ही कहा मिश्राजी ने, जानते हुए.
‘‘आपके कार्यालय के भृत्य, काका कहते है सब.‘‘
‘‘तो‘‘
‘‘ये एपलीकेशन है‘‘
‘‘तो‘‘
‘‘तो रखिए‘‘
‘‘वह तो बिना बोले बताये भाग गया. उसकी तो डी ई स्टार्ट हो गई.‘‘
‘‘एपलीकेशन लीजिए आप.‘‘ जिन शब्दों का उपयोग चबा चबाकर कर रहे है. मिश्राजी वे नागवार लग रहे. पिता, पिता होता है. उनके बारे में इस लहजे में बात सुन नहीं पा रहा बेटा. तो भी संयत रहा.
‘‘इसकी कोई जरूरत नहीं. अपसेंट लग रही है.‘‘
‘‘एपलीकेशन लेने में क्या दिक्कत हो रही है आपको ? आप चाहे नामंजूर कर दे.‘‘
‘‘नामंजूर तो पहले ही हो गई ?‘‘
‘‘बिना एपलीकेशन ?‘‘
‘‘इसमें मेडिकल कहां लगा है ?‘‘
‘‘बाद में लगायेंगे ?‘‘
‘‘वो तो कल मार्केट में मटरगश्ती कर रहा था.‘‘
‘‘माइन्ड योर लैंग्वेज सर वो मेरे पिता हैं.‘‘
‘‘वो बीमार कहां है ?‘‘
‘‘वो वास्तव में बीमार है‘‘
‘‘तो बिस्तर पकडे़. बाजार में ----------.‘‘
‘‘आप खाम खां सलाह दे रहे है.‘‘
‘‘आप मेरा समय बर्बाद कर रहे है.‘‘
‘‘आप नियमों के तहत काम नहीं कर रहे है.‘‘
‘‘आप कौन होते है सिखाने वाले.‘
‘‘आपको एपलीकेशन तो रखनी ही पडे़गी.‘‘
‘‘ये आपका हुकुम है या आपके बाप का.‘‘
‘‘हम सबके बाप का. ये रही एपलीकेशन अब जो बने सो कर लेना.‘‘
‘‘धमकी दे रहा है तू, मेरे दफ्तर में, मेरे दफ्तर में तू धौंस दे रहा है ........ तू मुझे जान से मारेगा. सरकारी काम में बाधा डाल रहा है. कोई पुलिस को बुलाओ.‘‘ मिश्राजी की आवाज गलियारे में आ रही है. सब सुन रहे है. सुन रहे काका जो बेटे के पीछे पीछे चले आए दफ्तर. काका सुन रहे और बेटे के साथ हो रहे बर्ताव को झेल रहे, मेरे बेटे को ............ मेरे बेटे के साथ ऐसी बातें ......... धमकी......... काका के कदम मिश्राजी के कक्ष के भीतर पहुंचे.
घंटी लगातार बजती रही. मिश्राजी बजाते रहे घण्टी और चिल्लाते रहे. कर्कश घंटी के बीच मिश्राजी के गाल पर पडे़ चांटे से सुर निकल रहे.
कैलाश वानखेड़े
संयुक्त कलेक्टर
जिला नीमच (म.प्र.)
मोबाईल नं. 09425101644
युवा कथाकार कैलाश वानखेड़े जी वर्तमान में नीमच में संयुक्त कलेक्टर हैं. इनकी तीन कहानियॉं पूर्व में प्रकाशित हुई हैं, जिसमे से एक "अंतर्देशीय पत्र" को अखिल भारतीय कथादेश कहानी प्रतियोगिता में तीसरा स्थान मिला. इस कहानी पर कथादेश के अंकों में चर्चा भी हुई और ढ़ेरों प्रतिक्रिया भी प्राप्त हुई. कैलाश जी का जन्म मध्य प्रदेश के इंदौर नगर में 11 जनवरी 1970 को हुआ था. इन्होंनें समाजशास्त्र में एम.ए.किया एवं राज्य प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए. दायित्वपूर्ण प्रशासनिक कार्यों में अतिव्यस्त होते हुए भी कैलाश जी लेखन के लिए समय निकालते हैं, वे अपनी भावनाओं को कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त करना चाहते हैं. जीवनानुभव, भावनाओं एवं विचारों को शब्द देती उनकी रचना धर्मिता पाठक को चिंतन के लिए विवश करती है. इस माह हिन्दी साहित्य जगत में आई दो पत्रिकाओं में कैलाश जी की कहानी प्रकाशित हुई है. कथादेश के दिसंबर' 2010 अंक में प्रकाशित "कितने बुश कितने मनु" को हमने पिछले दिनों यहां पब्लिश किया था। बया के जुलाई-सितम्बर' 2010 में प्रकाशित कहानी ''घंटी '' को हम अपने पाठकों के लिए यहॉं प्रस्तुत किया है।
संजीव भाई, जोहार.
जवाब देंहटाएंआपको इस साहित्य सेवा के लिए साधुवाद. निरपेक्ष भाव से आपका जो स्नेह और सहयोग मिलता है..कि मन विभोर हो जाता है.
संजीव जी .आपका मनपूर्वक शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंNice blog nice story
जवाब देंहटाएंhttp://www.englishinbhilai.com/
muze hindi typing nahi aata kripya maaf karna
जवाब देंहटाएंaapki kahani aachi lagi
http://www.englishinbhilai.com/