कैलाश वानखेड़े की कहानी : कितने बुश कित्ते मनु सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

कैलाश वानखेड़े की कहानी : कितने बुश कित्ते मनु

युवा कथाकार कैलाश वानखेड़े जी वर्तमान में नीमच में संयुक्त कलेक्टर  हैं. इनकी तीन कहानियॉं पूर्व में प्रकाशित हुई हैं, जिसमे से एक "अंतर्देशीय पत्र" को अखिल भारतीय कथादेश कहानी प्रतियोगिता में तीसरा स्थान मिला. इस कहानी पर कथादेश के अंकों में चर्चा भी हुई और ढ़ेरों प्रतिक्रिया भी प्राप्‍त हुई. कैलाश जी का जन्म मध्‍य प्रदेश के इंदौर नगर में 11 जनवरी 1970 को हुआ था. इन्‍होंनें समाजशास्‍त्र में एम.ए.किया एवं राज्‍य प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए. दायित्‍वपूर्ण प्रशासनिक कार्यों में अतिव्‍यस्‍त होते हुए भी कैलाश जी लेखन के लिए समय निकालते हैं, वे अपनी भावनाओं को कहानियों के माध्‍यम से अभिव्‍यक्त करना चाहते हैं. जीवनानुभव, भावनाओं एवं विचारों को शब्‍द देती उनकी रचना धर्मिता पाठक को चिंतन के लिए विवश करती है. इस माह हिन्‍दी साहित्‍य जगत में आई दो पत्रिकाओं में कैलाश जी की कहानी प्रकाशित हुई है. कथादेश के दिसंबर' 2010 अंक में "कितने बुश कितने मनु" और बया के जुलाई-सितम्‍बर' 2010 में ''घंटी ''. हम इन दोनों कहानियों को अपने पाठकों के लिए यहॉं प्रस्‍तुत करेंगें. आज प्रस्‍तुत है कैलाश जी की कहानी -

कितने बुश कित्ते मनु
राब हो रहे ‘मूड का जब घड़ा भर जाता, सूरज भी सिर चढकर लौटने लगता है तब बुलाते है बीडीओ अपने कुछ कारीन्दों को. कारीन्दे इंतजार में रहते है बुलावे का लेकिन तत्काल नहीं जाते है, जान बुझकर सोच विचार कर. बडा मजा आता है उन्हें कि कुछ देर बीडीओ मन ही मन कलपे. बहुत परेशान किया था स्साले ने. जल्दी न जाये तो सैकडों बाते सुनाता 9, चिल्लाता 9. अब बता बेटा ? तो इसी सोच और इतिहास के साथ ही कदम रखे. जानते हैं सब बीडीओ सबसे पहले सरकार को कोसते है. इसीलिए बात सरकार से की जाती है. शर्मा बाबू ने बैठने से पहले ही कह दिया, इस देश का सिस्टम बहुत खराब है, स्साला. पल्ले ही नहीं पडते आदेश. अब ये देखों ............. ‘‘फैक्स से आया कागज आगे बढ़ा देते है.
‘‘ऊपर बैठे मादर.............. में अक्ल नाम की चीज ही नहीं है. जैसा बाबू कहे, उस पर चिडिया बैठा देते है. इन बडे अफसरों ने बंटाधार कर दिया. पता नहीं क्या होगा इस देश का ? ‘‘ बीडीओ ने फैक्स पढते पढते कहा. वे भूल गये कि सामने बाबू ही बैठे है. वे हमेशा ही भूलते है. सहमति में सिर हिलाया शर्माजी ने और कहा. ‘‘ कलयुग है साहब. कलयुग. सब उल्टा पुल्टा हो रहा है. धरम रसातल में चला गया. जिनकी औकात हमारे सामने खडे रहने की नहीं थी वे कुर्सियां तोड़ रहे है.‘‘
‘‘ऊपर वाले भी तो कुर्सियां तोड रहे है. वो तो अपने ही वाले हे. उनकी अकल घास चरने गई क्या ? ‘‘बीडीओ क्रोध में तमतमाये. वे जानते है शर्माजी के भावार्थ को.
‘‘मति भ्रम हो जाता है कभी कभी‘‘ शर्मा हार नहीं मानता, ‘‘मति ?‘‘ उपहासजनक लहजे में ही बोले बीडीओ. सवाल का जवाब नहीं किसी के पास. कोई कुछ नहीं बोला. किसे गाली दे, समझ में नहीं आया तो चुपचाप बैठ गये.
‘‘कई दिनों से देख रहा हूं ये कमल न पानी पिलाता है और न ही चाय. ‘‘शर्मा ने विषयांतर कर दिया.
‘‘अरे वो तो झाडू को हाथ नहीं लगाता अब ? श्रीवास्तव बाबू ने इस तरह कहा गोया कोई नई बात बता रहे हो.
 ‘‘बस कम्प्यूटर में घुसा रहता है भो...... वाला‘‘ शर्मा को गुस्सा आ गया.
‘‘अपनी औकात भूल गया औकात. जिनके बाप दादा झाडू लगाते आये और ये हमको नखरे दिखा रहा है ?‘‘ श्रीवास्तव बाबू ने शर्मा के गुस्से को विस्तार दिया.
‘‘उसकी मां क्या करती थी, स्साला भूल गया ?.......... याद दिलाये उसे ........ क्या है उनका काम, सेवा करना. सेवा ..........‘‘ बीडीओ के टेबल के पास रखी प्लास्टिक की छोटी बाल्टी में थूकने के बाद फिर कहते कहते घोषणा कर दी, कलयुग है साहब कलयुग.‘‘
‘‘आगे आगे देखो होता है क्या ? श्रीवास्तव ने कहा.
शर्मा जानता है उसका इस तरह से थूकना बीडीओ को नागवार गुजरा है. मैं किसी से कम नहीं हूं के भाव से ही वह थूका था. अपने भीतर के भाव को छिपाते हुए कहने लगा, ‘‘अब देखो यार, बीडीओ के ऊपर सीईओ को बैठा दिया. जिसे कल तक नाडा बांधना नहीं आता था, वो हमको सिखाता है.‘‘ आग लगाना फिर बुझाना फिर फूंक मारना. ....... ये रणनीति के तहत ही करते है.
‘‘पिछले हफ्ते तो हद कर दी, मैंने उसे बुलाया लेकिन नहीं आया. कितने भाव बढ गये. ‘श्रीवास्तव ने चाय का घूंट लिया. चटका लग गया.
बीडीओ के सामने बैठे शर्मा बाबू का पुट्ठा कुर्सी के तल को छोड रहा, गरदन कुर्सी के पिछले हिस्से से नीचे आ गई और श्रीवास्तव बाबू ने भी पैर पसार दिए. ये जताने के लिए कि बीडीओ साहब आप हमारे बड़े साहब नहीं हो अब, हम आपके सामने कैसे भी बैठ सकते है, कुछ भी बोल सकते है. बीडीओ जानते है अपनी पदावनति. तमाम अशिष्टताओं को स्वीकार कर चुके. दफ्तर में अलग थलग पडने की नियति को भांप चुके. वे सुनते है. वे बहुत कम बोलते है जबान से. मन ही मन लगातार संवाद चलता रहता. जी चाहता है उनका कि वे एक लाईन में सबको खडा करे. जिनकी वजह से वे बॉस नहीं रहे. तमाम अफसर-बाबू को लाईन में खडा करना चाहते हैं. वे चाहते है सबसे पहले इस शर्मा को और श्रीवास्तव को खडा करे और फिर जोर से थप्पड रसीद करे, पूरी ताकत से लगाये थप्पड और बताये उनकी हद. उनकी औकात. उन सभी को बुलाकर उनके कपड़े उतारें और उनके पुट्ठे पर लात मारकर भगा दें.  वे मन ही मन तैयारी करते है थप्पड मारने की. इतने साल दफ्तर के मुखिया रहने के बाद. एक फरमान से अधीनस्थ हो गए और जो कभी अधीन थे, वे एक चालु टाइप की परीक्षा पास करके सीईओ हो गए. चुभता है. रिसता है और कर्मचारियों पर टपकता है. कर्मचारी अब बीडीओ की बातों को गंभीरता से नहीं लेते है- आदत बना ली. अखरता है बीडीओ को. बीडीओ बडे से छोटे साहब हो गए और छोटा होना अपने ही दफ्तर में, नागवार गुजरता मगर क्या कर सकते है ?
बिजली नहीं. खिडकी के भीतर से हवा नहीं आ रही. मई के तपते हुए मौसम में बुरा हाल बना रखा. मूड अपसेट होने में मौसम ने अपना योगदान दिया तो वहीं अपने अपने दुःखों ने सबके सिर भारी कर दिये.
शर्मा उठा खिडकी के पास जाकर थूंक आया. कोई कुछ बोले इसके पहले ही चलते चलते ही बोला, ‘‘अब कुछ ज्यादा बोलों तो ये अपनी जाति पे आ जाते है. स्साले दस नये नाटक है.‘‘
‘‘पूरे सिस्टम की ऐेसी तैसी कर दी. अब इन अनुकम्पा नियुक्तियों की क्या गरज? हम लोगों के बच्चों के लिए वैसे ही नौकरी के दरवाजे बंद कर दिए. इन्हें तो आरक्षण रोस्टर में नौकरी मिल जाती. सब वोट बैंक के वास्ते विशेष भर्ती अभियान चला रखा है साला ! श्रीवास्तव कुछ देर रूका फिर बोला,‘‘ कहां मर गया ये साला चाय वाला .... ?
‘‘हर साल तो चलता है विशेष भर्ती अभियान लेकिन नौकरी तो किसी को नहीं मिलती. नाटक है नाटक.‘‘ खान बाबू ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई.
‘‘हमारे लिए तो नाटक भी नहीं. आस भी नहीं.‘‘ श्रीवास्तव ने फिर दरवाजे की तरफ देखकर कहा, ‘‘मादर....... कहां गया. चाय ला.‘‘
‘‘अनुकम्पा में तो सभी को नौकरी मिलती है. कल खुदा ना खास्ता बड़े बाबू आपका इंतकाल हो गया तो भाभीजी को नौकरी मिलेगी. ‘‘खान बाबू बोलते हुए जितने सहज थे उतने ही असहज हो गया शर्मा.
‘‘मैं क्यों मरू ? तुम मरों तो तुम्हारी लुगाई को लगवा लेना‘‘
‘‘उनको तो फोर्थ क्लास की नौकरी मिलेगी, लगायेगी झाडू‘‘
श्रीवास्तव नें बिना लाग लपेट के बोला मगर दिशा भटक गई. समझ गए शर्मा और लगभग चीखते हुए, श्रीवास्तव की बात पौंछने के लिए बोले, ‘‘उस हरामी को बुलाओ. देखता हूं उसे. वह अपनी औंकात में रहे. कम्प्यूटर की ऐसी की तैसी. नहीं करवाना हमे कम्प्यूटर से काम. यहां चाय चाय बोलते हुए गला सुख गया. साला अपने आपको क्या समझता है ? ‘‘खडे हो गए और बोलते-चीखते हुए बरांडे़ तक आ गए.
सीधे सीधे मुझे गालिया दी जाने लगी. बैठे हुए सभी जानते है कि उनकी आवाज मुझ तक पहुंच रही है. आवाज खिडकी से, दरवाजे से मेरे पास आ रही है और पटक रही सिर, मेरे सिर पर. मेरा सिर भारी हो रहा है लेकिन जबान कही खो गई, किसी जंगल में, किसी पुराने सडते हुए ग्रंथों के किसी श्लोक में. दब गई किसी मंदिर के गर्भगृह में. क्या हुआ आखिर मेरी आवाज को नहीं जानता मैं. सच में नहीं जानता. इतना जानता हूं कि आक्रोश जैसी कोई चीज मेरे भीतर पनप रही है. मैं की बोर्ड पर तेजी से हाथ चलाने लगा. पूरा पढ़ें .....

इस दफ्तर का कम्प्यूटर का काम शर्मा बाबू के बेटे की दुकान से होता था. उसी दुकान से फोटोकापी और फैक्स भी करवाये जाते थे. कम्प्यूटर वाले कागज मेरे पास आने लगे तो वही फैक्स की बजाय ई-मेल की संख्या बढने लगी और दोनों काम लगभग बंद हो गए दुकान से. सबसे महंगा पडता था फैक्स का बिल. एक पेज के 40 रूपए लगते है. फैक्स का बिल आता और अगले ही दिन भुगतान हो जाता. सिर्फ यही दुकान है जहां का भुगतान इतनी तेजी से होता. दफ्तर के पास इस इकलौती दुकान का सारा फायदा उठाया जा रहा था. फैक्स के इनकमिंग होने पर पच्चीस रूपए लगते. इनकमिंग फैक्स भी बडी संख्या में आते. शर्मा बाबू को फोन पर यह कहते हुए सुना जा सकता है कि, वो कागज हमारे यहां नहीं आया है. आप तो जानते ही हो डाक व्यवस्था. प्लीज इतना कर दीजिए कि उसे फैक्स करवा दो. अभी जानकारी बनाये देता हूं.
डाक की गडबडी के नाम पर कागज को दबाकर बैठता है शर्मा और वरिष्ठ कार्यालय से फैक्स मंगवाता है. पांच रूपए का काम चालीस रूपये में होता और सैकड़ों कागज उज्जैन, भोपाल के नाम किय जाते. हर बार अर्जेण्ट के नाम पर फैक्स होता ऊपर से दुहाई दी जाती कि चपरासी को कहां कहां भेजे, बिचारा एक तो परेशान हो दूसरी तरफ उसका टी.ए.डी.ए. चार गुना पडता है तो फैक्स करो. समय, पैसा और आदमी को बचाओ और फैक्स करो.
सब जानते है किसे बचाये जाने का दावा किया जा रहा है. उसे नहीं बचाया जा रहा है लेकिन जबान कोई क्यों खोले ? जो बोले वो दुश्मनी मोल ले. इस विषाक्त वातावरण में जो भी वाक्य निकलता या शरीर कहता, उसके अपने अर्थ, मायने निकाले जाते. स्पष्टीकरण के लिए आपको वक्त नहीं मिलता, आदमी नहीं दिखता, कब किससे कौन खफा हो, नहीं जानते. लेकिन सब जानते कि नौकरी तो मिली है मुझे चपरासी की लेकिन बैठा रहता हूं कुर्सी पर कम्‍प्‍यूटर के सामने, पानी पिलाने वाला, चाय के झूठे कप उठाने वाला मैं, कम्‍प्‍यूटर लेकर काम करता रहता हूं, ये नागवार गुजरता उन्‍हें. लेकिन उनकी मजबूरी है कि उनके काम मैं कर देता. जानता हूं लेकिन मुझे खुशी मिलती कि अपनी काबिलियत दिखाने का मौका मिला है कि चाय पिलाने के काम की जगह यहां बैठा हूं. अफसर भी मेरी खुशी की कीमत वसूल करते, कम्‍प्‍यूटर पर सारा काम करवाते, चपरासी के वेतन में आपरेटर कहॉं मिलेगा ?
मैं भी नहीं जानता था कि मेरे दुश्मन होंगे यहां. क्यों करेगा कोई मुझसे दुश्मनी ? मैं सोचता. मैं गलत ही सोचता हॅूं. यही शुरूआत हुई थी. सात साल में तो यह अहसास हो गया कि मैं इस दफ्तर के लोगों के बीच का नहीं हॅू. मेरी पहचान के तमाम अर्थों में एक यह थी कि मैं बिना कम्पटीशिन के आया हॅूं मतलब मुझमें नहीं है काबिलियत. मतलब यह है कि एक अदद चपरासी की योग्यता नहीं मुझमें. मतलब यह भी है कि मैं बाबू का काम करने के साथ नहीं करता काम सफाई का. कि नहीं उठाता झाडू अब तीन साल से कि पानी पिलाने के लिए जाउं तो टाईप करवाने वाला बाबू रोकता है मुझे कि पहले टाइप कर फिर देखना कि फिर मैं देख नहीं पाता कि देख लेगे, के भाव में बढोतरी होती जाती. जानता हॅूं लेकिन उधर जाता हूं तो इधर सीने पर खडा आदमी दिखाता है आखं और फिर बडे ही नाटकीय ढंग से जबान को करता है मीठा. इस सारे खेल में शर्मा बाबू से दुश्मनी हो गई. यह गणित कई महिनों के बाद समझ में आया कि शर्मा के बेटे की कम्प्यूटर और फैक्स के काम को पटरी से उतार दिया कि सीधे सीधे मिलने वाले दाम को बंद कर दिया. श्रीवास्तव बाबू के बीवी की फाईल टाइप न करने का खामियाजा भुगत रहा हूं कि अब हर कागज कम्प्यूटर के टाइप से ही निकालने की आदत बाबूओं को लग गई. कम्प्यूटर न हो टाइप मशीन हो गई. हर कोई चढाई करता, हर किसी को अर्जेंसी लेकिन कोई मुझे नहीं देखता कितना काम करता हूं. नहीं जानता चाहते है.
यह तो मैं भी नहीं जानता कि तसल्ली से खाना पिछली बार कब खाया था मैंने. चपाती, कभी गरम तो कभी बासी, वक्त भी सुबह के नौ और रात के ग्यारह के आसपास का होता. दफ्तर की प्रताडना, पिता की गालियों के साथ बीवी के तानों के बीच, लगातार काम करने में पूरी नींद नहीं होती नहीं होता भरपेट खाना. पेट गडबड होने लगा. डॉक्टर से बिना पूछे मेडिकल स्टोर से टेबलेट लेता, जो कभी सिरदर्द तो कभी बदन दर्द की और कभी कभार कब्ज-एसीडीटी के लिए होती. ये सिलसिला पांच-छः महिने से कुछ ज्यादा ही बढ गया.
छोटे साहब ने बुलाया. यह हमेशा ही होता आया कि बुलाने के बाद भी छोटे साहब फाईलों में ही रहते और उनके सामने जिन्दा आदमी वैसा खड़ा रहता है, गोया कोई फाईल हो, जब तक दूसरा उसे खोले नहीं. कोई देख नहीं सकता. फाईल बनने की प्रक्रिया में खड़े-खड़े अभिवादन किया मैने.
’’अरे, कब से खड़े हो?‘‘ फाईल में से निकले छोटे साहब.
’’बस अभी आया हूँ‘‘ सकपका गया जवाब देते हुए, यह अनपेक्षित सवाल था. आदेश की बजाय कुशलक्षेम पूछने जैसा.
‘‘अरे, खडे़ क्यों हो...................?’’
‘‘जी सर’’ जवाब नहीं. न हो सकता. खड़ा इसलिए हूँ कि खडे़ रहने की ही नौकरी है मेरी. आदेश सुनने और करने के पशोपेश के भीतर ही. साहब को कहीं प्रमोशन तो नही मिला. जो इतने खुश होकर बात कर रहे. ये कभी भी सीधे मुंह बात नहीं करते और आज......... नजर उठकर दीवारों पर जाने लगी. कहीं धूल, गंदगी तो नहीं है.......... फिर टेबल के आसपास नजर को धूल नहीं दिखी. डाँटने का नया अन्दाज हो. डॉट के अलावा कुछ न देने वाला उदारता से बात करने लगा तो बैचेन हो गया मैं.
’’बैठो‘‘
’’नहीं साहब, मैं ठीक हूँ ऐसे ही.‘‘ कमाल हो गया. बैठने का कह रहे है. जिसने सुना होगा कि साहब मुझे बैठने का कह रहो, उसे अपने कान में दोष या साहब के दिमाग का खिसक जाना लग रहा होगा. जैसे मुझे लग रहा. सात साल मतलब 72 महिनों मतलब 26424 दिनों में पहली बार इस तरह का संवाद हो रहा है.
’’बैठो, भई...... मान लो.‘‘
’’नहीं सर......ठीक है सर.........सर आदेश‘‘
’’पहले बैठो फिर देता हूँ आदेश‘‘
’’नहीं सर, मैं...............‘‘
’’चलो ऐसा करो, दो कॉफी का बोल आओ‘‘
आल्हादकारी लगा. बहुत खुशियों से भरा. मेरे भीतर ऊर्जा उम्मीद से भरी हुई भर दी साहब ने. मन के भीतर एक साथ कई गाने बजने लगे. ढ़ोल और तमाम वाद्ययंत्र एक साथ बज रहे. दफ्तर के बाहर गुमटी पर दयालु को कहा, ‘‘जरा स्पेशल दो कॉफी बनाना‘‘
’’बहुत खुश है, कोई लॉटरी लगी क्या?‘‘ दयालु, गुमटी का किरायेदार बोल उठा.
’’नहीं लॉटरी-वॉटरी क्या खुलेगी, दिल खुल गया‘‘
’’स्टूल पे बैठ भाई,‘‘
आज हर कोई मुझे बैठने का बोल रहा. यहां गुमटी पर रखे स्टूल पर किसी को नहीं कहता, दयालु बैठने का. मुझे भी नहीं.मैं बैठ जाता हूँ, .
गुमटी पर चार कांच की बरनियां है, जिसमें सेंव, मिक्चर, दाल और मूंगफली के दाने है. दयालु को कई बार परमल, चने रखने का बोला, लेकिन मानता नहीं. परमल भंकस हो जाते. रबर की तरह. खाने का मजा बिगाड़ देते और यहां के चनों में वो स्वाद नहीं जो होना चाहिए. आज मेरा मन सेंव परमल खाने का हो रहा. कितने बरस बीत गए सेंव परमल खाये बिना? सेंव परमल ने घर और दोस्तों की याद एक साथ दिलाई. बरगद के पेड़ के सहारे गुमटी रखी हुई है. बरगद की छाह में ही बैठते है चाय पीने और बरनियों में रखी चीजों का नाश्‍ता करने वाले. दो रुपये के नाश्‍ते के साथ एक चाय पी जाती और उनका मन मान लेता है कि आज तन की जरुरत पूरी हो गई. तन भी मन का साथ देता और लगता आज का दिन सफल हो गया. पिज्जा और बर्गर के विज्ञापनों के साथ ही तमाम विज्ञापन दूसरे ग्रह के लोगों की जरुरत के लगते. पढ़ता हूँ अखबार कि आर्थिक प्रगति बढ़ गई कि देश
महाशक्ति बनने वाला है, तो लगता है इसके सम्पादक और रिपोर्टर विज्ञापन वाले ग्रह के निवासी है.
’’दीवाली के मौके पर विशेष छूट वाले विज्ञापन से अखबार का पूरा पेट भर गया. अखबार कंपनियों के चारण भाट बन गए.‘‘ मैने कहा तो दयालु, जिसकी उम्र 40 के करीब थी और सफेदी बालों से चमक रही थी, जिसका वही पुराना पेंट, एक टी शर्ट के साथ सात फेरे ले चुका, उसने उसी को पहना था और कूट कर रखी हुई अदरक को चाय के तपीली में डालकर, एक गंदे से कपड़े से हाथ पोंछकर, चाय की उबाल देखते हुए बोला,‘‘ चारणभाट नहीं ये तो...............इन हरामियों की छोड़ तू बता क्या चल रहा है?‘‘
’’आज तो कमाल हो गया. छोटे साहब ने प्यार से बुलाया, बैठने का बोला‘‘
’’जरुर कोई गड़बड़ है. कुता भौंकना बन्द करे तो मतलब काटेगा, जरा संभलकर‘‘
’’तुम्हें तो हर बात में खोट नजर आती है.‘‘
’’इन आंखों का क्या करुं?
’’इन आंखों को फोड दे. साली पता नहीं क्या-क्या पढ़ती और देखती है. इसे होना ही नही चाहिए. मैं तो कहता हूँ जिनके पास कार हो उसी के पास आंख होनी चाहिए.‘‘ हम दोनों हंसे. हंसी की गर्माहट के साथ वापस आया मैं छोटे साहब के पास.
’’बैठो भई कमल‘‘
अबूझ सी पहेली में डूब गया हूँ मैं. उबड़-खाबड़ हो रहा फर्श जिस पर रखी कुर्सीयों की हालत भी अच्छी नहीं लेकिन वो कुर्सी थी. उसी कुर्सी पर? वह भी साहब के सामने बैठने की हिमाकत नहीं कर सकता. लेकिन इतना बोलने के बाद न बैठने की हिमाकत की.
कॉफी आई तो दूसरी मेरे पास आई. आल्हादकारी क्षण जो नौकरी में पहली बार आया. कॉफी की चुस्कियों के साथ खुशी ही है जो दिल दिमाग से पूरे शरीर में रक्त के साथ संचरण कर रही, नेट पर गो को क्लिक करते ही गेंद घूमती है, वैसे ही. मुझे घोर आश्‍चर्य हो रहा कि जो काम मैं दफ्तर में कर रहा था वो छोटे साहब को कैसे मालूम पड़ गया और उसके बारे में डिटेल क्यों पूछ रहे! सारी जानकारी लेकर कहा छोटे साहब ने ’’अच्छा काम कर रहे हो, इस देश के प्रति हमारी जिम्मेदारी है. हम कहीं भी हो, कुछ भी हो जितना हो सके उतना अच्छा काम करना चाहिए............... कोई तकलीफ हो तो बताना, ठीक है.‘‘ छोटे साहब की आंखों से देश प्रेम और मेरे प्रति अपनत्व ही दिखा और मुझे दुनिया का सबसे बड़ा सुख मिल गया. एक महीने के ट्रेनिंग पर गए हैं सीईओ. उनका काम देख रहे हैं बीडिओ. बीडिओ को कमल के प्रोगरामिंग की जानकारी मिली तो पंद्रह दिन बाद होने वाली जिला योजना समिति के बैठक में मंत्री के सामने खुद को काबिल बताने का ख्‍याल आ गया. प्रमोशन इस तरह भी मिलते हैं या फिर इस सीईओ को हमेशा के लिये भगा दूं और सीईओ के एडीशनल चार्ज में ही रहूं तो क्‍या बुरा है
मैं पिछले दो महिने से आंकड़ों और नामों का संग्रहण कर एन्ट्री कर रहा था. वो जूनून ही है कि टेबल दर टेबल जा-जाकर बाबुओं से माथा पच्ची कर पुराने रिकॉर्ड की धूल उड़ाता हुआ उन्हें वर्षवार करना, उनको योजनावार जमाते हुए सामान्य, एससी, एसटी, के कॉलम में फिट करता रहा. पुराने सालों में व्यक्तिवार आंकड़ों को ढ़ूंढ़ने में बहुत तकलीफ हो रही. रिकॉर्ड को लेकर कई बाबुओं से तनातनी हो गई. सबसे बडी वजह थी कि जितना आंकड़ा बताया जा रहा है, उतने नाम नहीं मिल रहे. श्रीवास्तव बाबू ने तभी तो कहा, ’’क्या फरक पड़ता है, लिखने का शौक  है तो लिख दे ललवा, फलवा, रामदीन...... कौन टेली करता है? आंकड़े बराबर होना चाहिए. नाम में क्या रखा है?
’’नाम में बहुत कुछ रखा है.‘‘ मैने कहा.
’’इतना मत सुना, लिखना हो तो लिख अभी फुरसत नहीं मेरे पास‘‘
’’पर .......‘‘
’’तो जा साब के पास ले ले उससे नाम. यहा कायके लिए मगजमारी कर रहा है?‘‘
इसके आगे बात करना संभव नहीं था. लौट आया. कल देख लूंगा, आज श्रीवास्तवजी का मूड अच्छा नहीं है, सोचते हुए मैं कम्प्यूटर में घुस गया. मैं अपनी प्रोग्रामिंग में गांव की वर्ष 2001 के वर्गवार आंकड़ों को फिड कर चुका. अब इन 72 गांवों में किस-किसको, कौन-कौन सी सरकारी योजना का लाभ मिल चुका, किसको किस स्कीम में लोन मिला, की जानकारी ’एड‘ करने जा रहा हु. इसके साथ ही प्राथमिक, माध्यमिक विद्यालय के बच्चों की संख्या और कहां होना चाहिए के आंकड़ों के साथ जूझता रहा. इन जानकारी, आंकड़ों के आधार पर कई सुविधाओं को को-रीलेट कर, ग्राम की जरुरत जैसी चीज लिख रहा हूँ. इन बातों ने मुझे पागल जैसा कर दिया. ’’बड़ा इंटलीजेंट बनता है,‘‘ शर्माजी ने हंसते हुए कहा.
’’तू तो योजना आयोग चला जा, तेरी जरुरत वही है. यहां इतना सोचना अच्छा नहीं ‘‘ श्रीवास्तव बाबू ने साथ दिया.’’मैं तो कहुं तू यहां के लायक नहीं‘‘ हंसे फिर हंसे शर्माजी. ’’तो नालायक है.........‘‘ श्रीवास्तव ने मजे लेते हुए पूछा. ’’श्रीवास्तव तु भी समझेनी, मतलब........‘‘ धूल और जाले से भरे कमरे में हंसी के बीच मैं कुछ भी नहीं बोल सका. मेरे पास प्रतिवाद के लिए जो शब्द थे वे जाले में अटक गए. निरपेक्ष भाव से मैं फिर फाईल ढ़ूंढ़ने में लगा. फाइलों का ढ़ेर इस तरह से पड़ा हुआ है कि कोई दूसरा बाबू भी उसमें से संबंधित फाईल नहीं ढ़ूंढ़ सकता. अपनी टेबल, अपनी अलमारी अपने हिसाब से प्राथमिकता व जरुरत के मद्देनजर फाईलों को रखा हुआ है. टेबल पर रखी फाईलों को कोई भी दूसरा ’डिस्टर्ब‘ नहीं कर सकता. अलमारी के अंदर, ऊपर रखी फाईलें सड़ने की तरफ जा रही है. जब माहौल सड़कर गल गया तब खामोशी को तोड़ते हुए शब्द आये, ’’सड़ जायेगी ये फाईलें. इनका कम्प्यूटरीकरण करवा दो‘‘ खान बाबू ने कहा तो ठहाका नहीं लगा. मुस्कुराहट छा गई, शर्मा बाबू को छोड़कर बाकि चेहरों पर. ’’किस किसका कम्प्यूटरीकरण करोगे? जो मिलने आता है, जो काम करवाने आता है, उसका करोगे कम्प्यूटरीकरण?‘‘ शर्मा ने उखड़ते हुए कहा. ’’वो क्यों मिले? आवेदन करे उसे पावती दो फिर अगले दिन खिड़की पर मिल जायेगी जानकारी?‘‘ मैने आवेदन करने वाले की प्रक्रिया के बारे में कहा. ’’हम लोग ........? तेरे इरादे अच्छे नहीं है. तु चाहता है तेरा राज हो दफ्तर पर. इसका कम्प्यूटरीकरण उसका कम्प्यूटरीकरण.............. ..... करेगा कौन?  तु....... चलायेगा. कौन ........तु.......... हम क्या भाड़ झोकने के लिए आयेगें यहाँ..... ना भई अपना माथा मत खा‘‘ शर्माजी कहते-कहते चिल्लाने लगे.
’’सभी को सीखना चाहिए कम्प्यूटर........ वैसे भी सरकार कहती है हर बाबू को आना चाहिए‘‘ प्रतिवाद की तरह दिया जवाब मैने. ’’ सरकार तो बहुत कुछ कहती है............... करना चाहती है सरकार.
............ वो चाहती है कम्प्यूटर से पी.टी.उषा बन जाये.......... ये सिखायेगा हमें कि क्या कहती है सरकार...............ये.........ये......... सरक-सरक के चले वो सरकार.‘‘ शर्मा गुस्से में आकर हंसने लगा. ’’जो सरक जाये वो सरकार‘‘ श्रीवास्तव बाबू ने कहा. ’’ये सरक गया तो इसे लग रहा, ये है सरकार. सरकार को तो हम चलाते हैं हम. सरकार को अंधी-बहरी तभी तो कहते है.‘‘ शर्मा फिर हंसा. ’’एक सरकार तो कहती है बच्चों को सेक्स एजुकेशन दे........ उसे नहीं मालूम यहाँ पैदा होते ही बच्चा सेक्स का मतलब समझ जाता है.‘‘ श्रीवास्तव बाबू ने विषयांतर कर दिया. यह उनकी खासियत है.
’’लो ये हमें अब सेक्स पर भी बतायेगा. उसे नी मालूम कितनों को निपटाया‘‘ शर्मा होश में आ गया.
’’शर्माजी बात तो सही है. गलत क्या है इसमें.‘‘ श्रीवास्तव बोले.
’’तुम भी सरक गये. हमारी संस्कृति पर ये हमला है‘‘ ’’हमारे बेडरुम में ये हमला...................?‘‘ श्रीवास्तव बोले और सब चुप हो गए.
कम्प्यूटरीकरण का काम अक्सर ऐसी ही बातों के बीच स्थगित करना पड़ता है. लेकिन मैं उनकी टेबल से अपने जरुरत के आंकड़ों को ढूंढ़ता और उनकी एंट्री कर देता. पिछले साल के आंकड़ों से शुरु किया था. अगर बाबू अपनी मर्जी से फाईलें दे देते तो छः महिने का काम एक महिने में हो जाता. लेकिन तसल्ली थी कि चलो आज नहीं तो कल हो जायेगा. कोई प्रेशर या टारगेट तो है नहीं.
आज शर्मा और श्रीवास्तव की बातों ने दिमाग की नस फुला दी. बैचेनी और गुस्से के साथ कम्प्यूटर चलाते-चलाते सिरदर्द हुआ और चक्कर आ गये. अस्पताल में होश आने के बाद मुझे मालुम हुआ कि खड़े-खड़े गिर पड़ा, सरकारी अस्पताल के टूटे पलंग पर टूटा हुआ था मैं. पिचकी हुई सलाइन से बून्द-बून्द मेरे हाथ की नस से जा रही. सलाइन की जगह बीवी दिख रही थी, पिचकी हुई. कितने साल हो गए जो पूरे मन से नहीं देखा कल्पना को. इन बरसों में कितने दिन मेरे साथ बह गए. दमकता चमकता चेहरा कहीं छोड़ आई, ये तो कोई और है बेजान, जिसकी आंखों के नीचे काला घेरा बनाकर निराशा की सेना खड़ी है. अकेली ही दिखी, उस सेना के सामने. कल्पना ने अपना हाथ मेरी हथेली पर रखा. ठंडा............बेहद ठंड़ा हाथ. ठंडे हाथ की आग पूरे शरीर में दौड़ने लगी और मुझे रोना आ गया. आंखों की नमी देखकर ही उसने हाथ मेरे माथे पर रखा. मैं हूँ ना, की आश्‍वस्तिभाव के साथ. मैं हूँ?
सताइस साल की उमर में अस्पताल के भीतर पलंग पर क्यों हूँ. सवाल खुद से किया, पलंग पर ही थी माँ. पलंग पर ही थे चक्कर. पलंग पर मैं हूँ और चक्कर, माँ.......... माँ की याद आने लगी. माँ होती तो मैं यहां नहीं होता. माँ..........खाँसती हुई, पलंग को पकड़ती हुई, यही इसी अस्पताल में दम तोड़ दिया था माँ ने. माँ. मेरी आंखों से आंसू झरने लगे. मरती हुई माँ पलंग पर दिखने लगी. माँ मैं मरना नहीं चाहता. जबान नहीं चली मेरी. भीतर से ये शब्द आये और कहकर रुक गए. रुका नहीं दफ्तर. आठ दिन अस्पताल में काटकर चार दिन घर पर रहा.
इस बीच सौम्या को चिकनगुनिया हो गया. चिकनगुनिया पूरे जिले में फैला हुआ था. तपता बदन, टूटता बदन, तड़पता बदन कोई इलाज नहीं इसका. कमजोर हो गई सौम्या. उससे बोला नहीं जाता. लेटी रहती. चला आया दफ्तर.
मैं सुबह नौ बजे तीन चपाती खाकर ऑफिस पहुंच जाता.लौटने का वक्त तय नहीं रहता. कभी छह तो कभी आठ-दस बज जाते जब घर के भीतर पैर रखता हूँ. पैर पड़ते ही चिड़चिड़ाहट से भरा घर खामोशी के पिंजरे में तब्दील हो जाता. हर निगाह देखती है मुझे. अपने पर हुए जुल्म का हिसाब मांगकर, मुझे अपराधी घोषित करती है. हर रोज अपराधी सिद्ध कर देती है तमाम आंखें. आंखों से नहीं मिलती मेरी आंखें. डरती है. बहुत बड़ा अपराध कर लौटा हूँ कई सालों के बाद, यही ख्याल रहता. हद तो तब हुई जब खुद ही को खुद ने घोषित किया अपराधी. अपराध कौन-सा बाकि है, यही सवाल मेरे जेहन में घूमता और मैं भारतीय दण्ड विधान के अलावा उन तमाम पोथी और चन्द लोगों की भाषा में लिखी हुई किताबों के पन्नों में समा जाने की ख्वाहिश रखकर सो जाता हूँ.
सुकुन के लिए चार लोगों का परिवार तरसता. पत्नी, पिता, बेटी और मैं, ये परिवार है हमारा. पत्नी और पिता की नहीं पटती. अबोल होकर सिर्फ ताने तीर की तरह चलते और तीर एक जगह पर नहीं लगता वह घर के भीतर ही घूमता. हमारे घर के भीतर हजारों तीर घूम रहे है. चारों को तानों का तीर चुभता, चारों के भीतर से निकलता और फिर ऊर्जा प्राप्त कर तेजी से घूमता. कम्प्यूटर पर गेम खेलते हुए कोई पात्र दूसरी बाल को मारकर खुद शक्तिशाली बनता, तो तीर दूसरों पर लगकर खुद ताकतदार बन जाता.
सुबह पिता के जागने पर होती. बरतन गिरता, उनकी झंनझनाहट पूरे घर के भीतर गुंजती और हमारे सपने के भीतर जाकर हमें कहती, उठ. पिता का दाये हाथ-पैर ने काम करना बन्द कर दिया था. पैरालिसिस अटैक चार साल पहले आया था. बहुत भाग दौड़ की लेकिन ठिक नहीं हो पाया. भरोसा न होने पर भी पिता के कहने पर ओझाओं से लेकर तमाम मालिश करने वालों के यहां ले गया था. किसी जगह पर शायद उपचार हो जाय. तमाम भागदौड़ ने घर के हालात को तोड़ दिया. दफ्तर और पिता की भागदौड़ के बीच बेघर सा हो गया. खाने-सोने नहाने के अलावा इस घर से नाता दरक गया. कब बीवी से दूरियां बढ़ी, पता ही नहीं चला.
पिता के इलाज में तमाम कोशिशें जब असफल हुई तो पिता ने कहा,‘‘ प्राईवेट अस्पताल में भर्ती करा दे. डॉक्टर दुबे बोल रहा था, महिना भर अस्पताल में रहूंगा तो ठिक हो जाऊंगा.‘‘
’’इतना खर्चा नी उठा सकता. मैं तनख्वाह के रुपयों से ब्याज दे रहा हूँ, अब नहीं हो पायेगा खर्चा,‘‘ यह जानते हुए कि पिता जानते है फिर भी कहा.
’’बाप के लिए नी करे तो किसके लिए करेगा खर्चा?‘‘
’’समझो बाबा, ब्याज का पैसा चुकाते-चुकाते मेरे बाल सफेद हो जायेंगे.‘‘
’’तो मेरे लिए लिया था सारा पैसा? तेरी घरवाली के ऑपरेशन के लिए कहां से लाया पैसा? उसके बाप ने दिया था?‘‘ ’’मुझे बीच में क्यों घसीट रहे हो?‘‘ कल्पना ने कहा.
’’तूने ही कान भरे होंगे, इस हराम जादे के. कभी मुँह नहीं चलाया इसने, अब देखो कुत्ते की तरह भौंक रहा है?‘‘ ’’तूतड़ाक कब तक बोलते रहोगे? बेटी बड़ी हो गई अब हमारी.‘‘ कल्पना का सीधा संवाद पहली दफा हो रहा. मैं असहज हो गया. हमारी पांच साल की बेटी सौम्या, सब समझने लगी. घर के वातावरण में उसका बचपन कुछ दबने लगा, घर की कच्ची दीवार की तरह.
’’तू सीखायेगी कैसे बोलना...................?’’ पिता में दफ्तर के शर्मा बाबू का रुपान्तरण कब हो गया पता नहीं चला. पिता जिन्होंने ताउम्र कोई काम नहीं किया, जो माँ की तनख्वाह पर ऐश करते रहे. वो पिता जिनका होना न होना बराबर था. वो पिता जिनसे कोई उम्मीद हम भाई बहनों और माँ को नहीं थी. वो पिता हमसे हमारी जिन्दगी छिनना चाहते है. बचपन की धुंधली बदरंग तस्वीरें, संवाद के साथ आगे ही बढ़ रही थी, घृणा का संचार करते हुए. माँ चपरासी थी. माँ की नौकरी पर घर चलता. पिता की दारु, बीडी के बंड़ल के पैसे पगार में से ही जाते. सरकारी नौकरी के बावजूद घर मजदूर के घर भी गये बीते हालात का था. पिता का विरोध बेटियों को पढाने को लेकर हमेशा रहा. पढ़ने लिखने में पैसा बर्बादी लगती वहीं माँ को लगता थोडा पढ़ लिख लेगी तो अपने पैर पर खड़ी होगी. पिता जैसा निकम्मा पति बेटियों को मिला तो पूरी जिन्दगी बर्बाद हो जाएगी. निकम्मा पति मिल जाने का ही भरोसा हो गया था माँ को. तीन बेटी एक बेटे के पढ़ाई को ढ़ोते हुए माँ कब मरीज हो गई, पता ही नहीं चला. माँ की बीमारी के समय में भी बहनें कॉलेज और मैं स्कूल जाते. माँ की बीमारी बाद में पता चली, तमाम इलाज के बाद टी.बी. है, तो दादी की मौत जैसे माँ के चेहरे पर दिखने लगी. माँ ने एम.ए. प्रीवीयस में पढ़ने वाली बडी बहन सुधा की शादी झटपट कर दी. सुधा का पति बारहवी पास भी नहीं था.
सुधा ने ही किया था सवाल, ’’तो मुझे इतना पढ़ाया क्यों?‘‘ ’’शादी के लिए नहीं पढाया. पैर पे खड़ी हो इसलिए पढ़ाया. अपने पैर पे................ कितना पढ़ेगी तू........ फिर क्या करेगी?........... अभी तक तो इतनी समझ आ ही जानी थी कि आगे क्या.........?’’ माँ के गुस्से का प्रतिवाद नहीं कर पाई सुधा. अगले बरस में तो बी.एस-सी. फायनल में पढ़ने वाली कमला की शादी कर दी. दो साल बाद सेकेंड ईयर के दौरान ममता की शादी कर दी. तीनों के पति बेरोजगार थे.
जैसे कल ही मरने वाली हो, यही सोचा माँ ने और झटपट अच्छे घर के चक्कर में शादी कर दी. कर्ज की पूरी पोटली मेरे सिर पर रखकर मर गई माँ. तब मैं बारहवीं का इम्तहान दे चुका था और ढ़ेर सारे ख्वाब बुन लिये थे.
क्या-क्या बनने और करने का इरादा था,? सारे ख्वाब माँ की चिता की आग में जल गये. कॉलेज का मुँह नहीं देख पाया, ये तो अच्छा हुआ कि कम्प्यूटर का डिप्लोमा बारहवी पढ़ते वक्त ही ले लिया था. लेकिन इस डिप्लोमा ने नौकरी लगाने में कोई मदद नहीं की. माँ की मौत के बाद अनुकम्पा नियुक्ति के लिए पहले तो एक साल बालिग होने में लगा और जब मताधिकार मिला तो मेरा वर्ग का पद होकर भी पद नहीं था. आरक्षित वर्ग के पद के लिए ’’विशेष भर्ती अभियान‘‘ के तहत विज्ञापन निकला था लेकिन आगे की कार्यवाही नहीं हो पा रही थी. विज्ञापित हो चुके पद को रिक्त नहीं माना जा रहा था. कलेक्टर कार्यालय ने कमिश्‍नर को लिखा, वहाँ से पूरे संभाग में मेरा आवेदन, रिक्त पद की तलाश में भटकता रहा. पद खाली है या नहीं, इस जानकारी में साल बर्बाद हो गया. मैं घर का रहा न घाट का. बस भटकता ही रहा. तब भोपाल लिखा चार-छः जगह कि मैं भटक रहा हूँ, परेशान हो रहा हूँ. भूखे मरने की कगार में हूँ कि कर्जा वाले मेरी जान ले लेंगे कि मैं मर जाऊंगा. पता नहीं कितना पढ़ा गया मेरा पत्र लेकिन फाइल चलने लगी और शाजापुर में पद रिक्त होना बताया गया. वहाँ भी पूरा साल-चक्कर लगाते गुजरा. मॉं की मौत से चेहरे की चमक, आवाज की खनक और गानों के नेचर बदल गये थे. ख्वाहिशें तो खैर चिता में ही जल गई थी. राख हो गई और जो बचा था उसमें कुछ भी ऐसा नही था जो साबुत हो. जो मिला वह नौकरी. अनुकम्पा नियुक्ति. झाडूलगाने, पानी पिलाने, सफाई का काम विरासत में मिला था. हमारे घर में दीवाली नहीं आती. हम नहीं मनाते दीवाली. नहीं जलते दिये. दिये जलाने की बात पर पिता के साथ हम दोनों हर साल लड़ते और आखिरकार एक दिया जलाते है पिता. दिया जलाना हमें फिजूल खर्ची के साथ निरर्थक लगता और दीवाली पूजन तो तमाम विवाद के बाद भी नहीं करते. दीवाली पूजन नहीं किया कभी माँ ने. माँ-पिता के झगड़े में त्यौहार मनाने नही  मनाने को लेकर होता था. माँ त्योहारों को नहीं मानती थी. माँ की बात का असर मुझ पर भी पड़ा. बड़ी बहन और पिता एक तरफ बाकि हम चार एक तरफ होते. जीत हमारी ही होती. करीब दस साल पहले इसी बात को लेकर झगड़ा हो गया था घर में. माँ कहती, ’’तस्वीर पूजने और दिये जलाने से न सुख मिलता न ही समृद्धि आती. अगर लोग कहते हैं कि हर इंसान में भगवान है, हर जगह भगवान है, तो फिर क्यों पूजते है, पत्थर और पोस्टर?‘‘
’’तेरे को तो अकल ही नहीं है. अकल होती तो पक्का अच्छा घर होता, पैसे होते.‘‘ पिता तर्क नहीं करते. तर्क करना भी नहीं चाहते.
’’गली में देखो, कितने लोग हर साल पूजा करते है, उनका घर देखो खाने को भी नहीं ढंग का, पहनने ओढ़ने की बात तो दूर, क्यों नहीं अमीर बनते है ये गली वाले, व्रत-उपवास, पूजा करके भी?‘‘
’’तेरी समझ में नी आये, समझने के लिए अकल चाहिए, जो नहीं है तेरे पास............... ये तो आस्था है आस्था?‘‘ ’’निकम्मों, निठल्लों का कहना होता है आस्था, आस्था.
.......... आस्था?‘‘ दोहराया था व्यंग्यात्मक रुप से शब्दों को खोलते हुए. चीरफाड़ करती थी माँ. पिता ने अंतिम वाक्य बोला था, ‘‘गधों से तो जबान नहीं लड़ाई जा सकती है न‘‘ इन सवाल-जवाब में माँ की बातें हमेशा सीधे दिमाग में उतरती. पिता से घृणा के तमाम सबब में से एक यह भी था कि वे माँ को हमेशा कमतर, बेअक्ल, बेवकूफ और गधी ही कहते-समझते थे. माँ पिता के बोझ को ढ़ोते ही रही. इस बार पिता के कुछ कहने से पहले ही दिये खरीद लिये थे.
बाजार में विज्ञापन, बड़े-बड़े पोस्टरों पर थे, सजी हुई थी दुकानें. जेब की तलाश करती दुकानदारों की आंखें, कमतरता का अहसास दिलाते हुए अहसान करने के लिए ब्याज पर सामान, वस्तुएं देने के लिए खड़े दिखते. दबोचना चाह रहा भेड़िया रुप बदलकर. मैं बचता हूँ. नजर नीचे करते हुए गुजरने के लिए ही गुजरा और छोटे तालाब की गंदगी का भभका आया तो मैंने गरदन ऊंची की. गंदगी में गरदन और आंखें ऊंची हो जाती है मेरी. छोटे तालाब को मेरा ही इंतजार रहता है कि मैं आऊं और वह अपनी गंध छोड़ देता. छोटे तालाब में तमाम घरों से गुजरकर गंदगी जाती. लोग घरों के भीतर हगते-मूतते और सीधे पाइप से छोटे तालाब में भेज देते. कई लोगों ने अतिक्रमण किया और पक्के मकानों के पिल्लर पर खड़े किये अपने आशियाने. उसी तरफ एक छोटा मंदिर, हर साल बड़ा होता जा रहा. तालाब की तरफ मंदिर के खिसकने से श्रद्धालुओं की भीड़, गाड़ी बढ़ती जाती.बाजार में और मंदिर में बढ़ती भीड़ के बीच खुद को बचाते हुए आगे बढ़ने लगता हूँ कि लगता है मुझे भगाया जा रहा है. मेरी जरुरत नहीं यहाँ. अजनबीपन कहीं से उतर कर मुझ पर छा जाता और उदासी की गंदगी अपने भीतर बहती हुई नजर आती. छोटे तालाब का सड़ता पानी, काई की लम्बी हरी चादर ओढ़कर निर्जीव लगता. समाज से बेदखल किये जा रहे छोटे तालाब सा ही खुद लगता. शर्मा, श्रीवास्तव के घर दिमाग की बदबूदार गंदगी को जगह के लिए मेरा किनारा भी मिलता और मैं समेटता जा रहा हूँ वो आंकड़ों को इकट्ठा करने का जुनून ही है जिसने मुझे जिन्दा होने का अहसास दिया. उन्हीं आंकड़ों के बीच मैं अपनी जिन्दगी गुजार रहा हूँ.
काम में तब्दिली सात साल बाद आई थी जब खान बाबूजी को पता चला कि मैंने कम्प्यूटर में डिप्लोमा किया है. दफ्तर में दो साल से स्टोर में पडे हुए कम्प्यूटर को मैने ही चालू किया. एक अतिप्रिय काम जिसने मेरी खोई चमक और ख्वाहिशों को जगाने का काम किया. जिन्दा होने का अहसास तो मुझे अपनी बेटी सौम्या के कारण भी होता है. पांच साल की बेटी को सुबह साढ़े सात बजे स्कूल छोड़कर आया तो मैं याद करने लगा कि पिता ने कभी स्कूल छोड़ा था मुझे? उन यादों से जो टीस पैदा हुई वह अपनी बेटी के दिल में न आये, के विचार ने मजबूत किया कि हर रोज सोमअकरुंगा. सुकून, तसल्ली का लेप पूरे बदन पर चिपक गया. अखबार पढ़ने की ललक पैदा हुई लेकिन घर पर नहीं आता अखबार और देश दुनिया को जाने बगैर नहीं आता चैन. दफ्तर से ’नेट‘ चलाते हुए ’समाचार‘ पढ़ता. कभी समूह बहस में शामिल होता और देश दूनिया वाली भूख शांत करता.
जिला योजना समिति की बैठक में कलेक्टर के सामने बी.डी. ओ. लेपटॉप चलाते हुए प्रोजेक्टर पर ग्राफ और आंकड़ों को बता-समझा रहे. प्रसन्नता के भाव आपस में आ जा रहे. बदलती स्लाइड़ खुशी को बढ़ा रही. ब्लॉक की वार्षिक योजना में विभिन्न कल्याणकारी कार्यक्रम के लक्ष्यों को अलग-अलग ग्रामों में बांटकर समन्वित विकास की बात कर रहे. बी.डी.ओ. कह रहे कि ब्लॉक को आठ समूह में विभाजित कर पारिवारिक समूह को लाभ देते हुए उस क्षैत्र का आधारभूत विकास को जोड़ा गया. एक योजना अगर पशु देती है तो दूसरी योजना से पशु आहार की दुकान तो तीसरी से दुग्ध भंड़ारण को और चौथी वाहन उपलब्ध कराती हुई शहर से जोड़ती. इस तरह बागवानी, सब्जियों के साथ परिवहन व बाजार की उपलब्धता के एक रुप करने वाला प्रोग्राम है.
’’बहुत बढ़िया,‘‘ ये शब्द कलेक्टर ने कहे. ’’सर, इस प्रोग्रामिंग का आइडिया तो उसी दिन आया जब मेरी टेबल पर पचास फाइल एक साथ रख दी. अब उनके आंकड़े और जानकारी को कैसे टेली करु? पचास फाइल मेरी टेबल पर खुल नहीं सकती तो मैं कम्प्यूटर पर बैठा और आंकड़े डाले और साथ में प्रोग्रामिंग की........सर मुझे लगता है देश का विकास नागरिकों के जीवन में आर्थिक समृद्धि से ही हो सकता और आर्थिक विकास का फायदा अगर सब जगह नहीं पहुंचा तो लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं.‘‘ बी.डी.ओ. बोलते जा रहे, भाषण की तरह. कलेक्टर खुश.
लेपटॉप पर मेरी उंगलियां गलने लगी. कितना बड़ा झूठ बोल रहे बी.डी.ओ., मेरे सामने? ये मेरा आइडिया, मेरी मेहनत, मेरा काम है, मेरे शब्द वाक्य. जिसे अपना बता रहे है. चीखना चाह रहा हूँ कि ये बी.डी.ओ. का नहीं काम. सबको बता दूं ये मेरा आइडिया है, ये काम है मेरा. मेरे है विचार. मैं बाबूओं के चेहरों की तरफ देखता हूँ. उनके चेहरों में अपने प्रतिरोध की आवाज ढ़ूंढ़ता हूँ. वे खामोश है. निर्जिव. इतनी खामोशी में बैठे हुए मुर्दों में नामर्द बी.डी.ओ. इतना बड़ा धोखा कैसे दे सकता है? दूसरों की मेहनत, बुद्धि और काम को कोई अपना कैसे बता सकता है? चीख में होती आग तो पूरे दफ्तर को जलाने का मन कर रहा. ’’वेरी गुड़, वेल बहुत अच्छा काम किया‘‘, कलेक्टर भी बहुत प्रभावित हुए. ’’सर हमारे यहाँ कम्प्यूटर ऑपरेटर नहीं है. सरकार ने कम्प्यूटर तो दे दिए लेकिन ऑपरेटर नहीं दिया. निवेदन है एक ऑपरेटर मिल जाता तो मैं सारे दफ्तर का कम्प्यूटीकरण कर दूंगा.‘‘ धूर्त बी.डी. ओ. ने कहा. हॉल के भीतर के नये पंखे लटकते हुए घूम रहे. न जाने क्या कहा, सुना जा रहा. मैं पंखे में कब बदल गया मालूम ही नहीं पड़ा. पंखे को कोई चला रहा. पंखे का चलना उसकी नियति है.
मेरी नियति भी चलना ही है.कितना कुछ सुना सहा और आखिर में क्या मिला? क्या मिलेगा?........... कुछ नहीं........... कुछ नहीं............ तेज हो गये पंखे. तेज हो गई मेरे भीतर की आवाज और तेज होती गई. मुझसे रहा नहीं गया और मैं उठकर चला आया. कैम्पस में हैण्डपम्प पर सात-आठ साल की लड़की पानी भरने के लिए जूझ रही. उस लड़की को देखते ही मुझे अपनी सौम्या याद आई. लड़की एक घड़ा पानी भरने के लिए हैण्डपम्प के हैण्ड़ल चलाने में अपनी जान लगा रही. ठंड से कांपती, घर वालों की प्यास बुझाने के लिए संघर्ष करती लड़की के बाल बिखरे हुए, फ्रॉक फटी हुई. सौम्या को कब दिलाई फ्रॉक? नहीं याद आता महिना, साल. उस लड़की के पैर में नही थी चप्पल, वही किचड़ में खड़ी एक छोटे से घड़े को नहीं भर पाई. वह कभी घड़े को तो कभी हैण्ड़ल को देखती. उसकी नजर उम्मीद से नहीं देखती किसी को. कितनी जल्दी सीख गई लड़की, उम्मीद न करने के पाठ को. मैं अभी तक नहीं सीख पाया. मैं हैण्डपम्प के पास चला आया और बिना कुछ बोले हैण्ड़ल चलाने लगा. घड़े के भीतर पानी की बून्दें नही खुशियां भर गई, जिसे लेकर लड़की मुस्कुराने की कोशिश करती
हुए चली गई. मुझे संतोष मिला लेकिन मुस्कुराहट नहीं आ पाई चेहरे पर. बी.डी.ओ. की धूर्तता थी या फिर सौम्या का तपता शरीर, कि मैं मुस्कुरा नहीं पाया. मेरी आंखों में आंसू आ गए और मैं सीधा घर की तरफ चल दिया. सौम्या के नन्हें हाथों को छुआ मैंने. बुखार में तप रहा सौम्या का बदन. जबान से नहीं निकल रहे थे मेरे शब्द. क्या पूछूं? क्या कहुं.......... कुछ भी नहीं समझ पा रहा हूँ. बेबस हो गया. कितना बेबस हो गया हूँ मैं. कितना कमजोर.......सौम्या के साथ दफ्तर की बातों ने आंखों से आंसू निकाल दिए. आंसू थमे नहीं मेरे कि दरवाजे पर ऑफिस का चपरासी खड़ा दिखा. ’’साहब ने अर्जेन्ट बुलाया, जैसा हो वैसा आ जाये वरना.............‘‘ आगे कुछ नहीं बोला चपरासी. आगे कुछ नहीं पूछा मैंने और चला आया दफ्तर. ऑफिस में हंगामा मचा हुआ. बी.डी.ओ. चिल्ला रहे. सस्पेण्ड करने का पत्र टाइप कर रहा टाइप राइटर पर जोशी. बिना कारण बताये अनुपस्थिति के आरोप में सस्पेण्ड़ करने का फरमान पर शब्दों के तोप दागे जा रहे. मैं बी.डी.ओ. के सामने पहुंचा कि डॉटना शुरु किया बी. डी.ओ. ने.
’’बड़ा नालायक है, इतनी मक्कारी, इतना अहंकार....... लेपटॉप छोड़ के चला गया तू........?‘‘ ’’सर वो .........‘‘
’’बहस करता है हरामी की औलाद‘‘ ’’मैं आज...........‘‘ ’’जबान लड़ाता है? क्या समझता है तू..........तेरे बिना हम काम नहीं कर पायेंगे? तू है क्या चीज?‘‘ जैविक हथियार इन्ही शब्दों को कहते होंगे. पूरी तरह से मन-मस्तिष्क के भीतर. तमाम नसों को नेस्तनाबूद करते हुए शब्दों ने तोड़ दिया मुझे. शब्दों की जहरीली गैस मेरे भीतर थी और बाहर............ गैस जो हंसा रही थी बाकि लोगों को. दम घुट गया मेरा. मौत इसको कहते हैं?
मौत. अंततः आज छोटे तालाब पर ठहरे कदम. छोटे तालाब के किनारे सीढ़ियां है, जिस पर कचरा बिखरा है. उसकी कुछ सीढ़ियां तालाब के भीतर काई के नीचे होने का अहसास देती. पानी के भीतर आखरी सीढ़ी को ढूंढ़ने की कोशिश करती है आंखें और नम होती कि आखरी सीढ़ी नहीं पहली सीढ़ी है जो मर-खप गई होगी. भीतर सीढ़ी तो नहीं दिखी.
दिखा माँ का चेहरा. मिट गई माँ. मिट गई सीढ़ी. ऊपर वाली सीढ़ी भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ती दिखी. ट्रेचिंग ग्राउण्ड में तब्दिल होते तालाब में मैं क्या ढूंढ रहा हूँ. कौन किसकी तलाश में है? ये ऊपर सड़क से लगी हुई सीढ़ी जिसे पहली कहे या आखरी उसे अपने नींव वाली सीढ़ी की दरकार है. दूर तक फैली गंदगी और तालाब के तीन तरफ बढ़ते हुए मकानों के साथ सड़क की तरफ वाले हिस्से में कचरे के ढ़ेर के बीच सीढ़ी ढूंढ़़ता हूँ. ऊपर वाली सीढ़ी टूट-फूट गई. लम्बी पतली ईंट के तुकड़े दिख रहे. ऊपर से चौथी सीढ़ी के ओंठ पानी को छूते दिखे, पांचवी गले तक होगी, छठी के नाभी के पास पानी आकर ठहर जाता होगा........... . सीढ़ियां कितनी होगी? कहते है आसपड़ौस वाले कि बहुत गहरा है तालाब. तालाब बुलाता है सोचने के लिए और बलि ले लेता है. हर बरस एक जवान खून चाहिए इसे. दो साल पहले एक लड़की मरी. लड़कियां की ज्यादा बलि लेता है तालाब. खून का प्यासा है. नहीं जाना चाहिए तालाब के पास. तालाब को खून न मिले तो दिमाग खराब कर देता है. पागल करके भटकने के लिए अभिशाप देता है तालाब. अव्वल तो जाना नहीं तालाब और गये तो नहीं सोचना, फटाक से हट जाना. वापस चले जाना तालाब से. तमाम सुनी हुई बातों को याद आने के बाद नहीं हटना चाहता मैं छोटे तालाब से. लोगों ने सीढ़ियों को ध्वस्त करके, सीढ़ियों को काई, जल कुंभी से ढ़ंक दिया और तालाब न माना तो कचरा है ही अस्तित्व मिटाने के लिए. मुझे, मेरे परिवार को ध्वस्त कर मेरे लोगों का अस्तित्व मिटाने में ही लगे है लोग सदियों से. दफ्तर के भीतर आते ही गले के भीतर से आवाज आती और गाने लगती जबान. बड़ा अजीब लगता, जब सोचता हूँ मैं. ये गाने कब प्ले हो जाते, कब सिलेक्ट कर लेता उन्हे ? कब वॉल्यूम बढ़ जाता इनका, इको साउण्ड में. घर में, राह में, कभी ख्याल भी नहीं आता गाने का और दफ्तर में सुबह हो या रात के लौटने के बाद......... आवाज गाने में तब्दिल हो जाती. गले की नलिका खुल जाती. ‘‘मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया हर फिक्र को धुंअे में उड़ाता चला गया.............., गाते-गाते ही खुला दफ्तर का कमरा. बिजली दोपहर 12 से 4 जाती. सुबह और रात का उपयोग होता कम्प्यूटर के लिए. इर्न्वटर की मांग की लेकिन बड़े साहब के दफ्तर के अलावा उसका कोई उपयोग नहीं होता. मैं दिन में डाटा कलेक्शन करता. बाबूओं से सिर खपाता. आज दो बड़ी फाइलें मिली.
हर कागज महत्वपूर्ण लगा जैसे दो महिने की तनख्वाह अतिरिक्त मिल जाये. बिजली का इंतजार करते हुए वही कम्प्यूटर के पास बैठा रहा. फाइलों के पन्ने पलटता रहा और खशहोता रहा. बिजली आई तो सबसे पहले
’मीडिया प्लेयर‘ को क्लिक कर किशोर कुमार के हिट गाने शुरु किये. गाने कम्प्यूटर के भीतर से नहीं खुद मेरे भीतर से निकले. मैं गा रहा झूम रहा तभी बी.डी.ओ. साहब कमरे के भीतर आये. आते ही गुस्से से कहा, ’’ये ऑफिस है या सिनेमा हॉल? गाना बजाना..... क्या-क्या चल रहा है? नाच गाना भी होता होगा........क्यों........
..क्या-क्या होता है यहाँ?‘‘ ’’नहीं सर, ऐसी बात नहीं‘‘ अपराधबोध के साथ बोला मैं. ’’फिर कैसी बात है? मुझे समझायेगा? मुझे?‘‘ तमतमा उठे बी.
डी.ओ. ’’मैं...................बस...............‘‘ मेरी स्वर नलिका चौक हो गई. दिमाग के भीतर कोई हैण्डपंप का हैण्ड़ल चलते-चलते रुक गया, इसलिए नहीं आ पाए आंखों से आंसू. आंखें दिखाई बी.डी.ओ. ने तो मेरी आंखों में गीलापन नहीं दिखा और चले गए बी.डी.ओ. दफ्तर से भी चिढ़ होने लगी अब. फाइलों को ढूंढ़ता हूँ. अपने टेबिल के कोने की खिड़की में थूकने और नाक साफ करने में नहीं हिचकते बाबू. शर्मा बाबू अपनी नाक साफ करने के बाद सर्दी से पैदा हुई बल गम को निकालते देखा तो नहीं रहा गया मुझसे. ’’जहां बैठते वहीं थूकना, नाक साफ करना?‘‘
’’हमारा बस चले तो हम यहीं खिड़की पर हगे मूते. तुझे क्या दिक्कत?‘‘ कड़कती आवाज में आंख निकालते हुए कहा शर्मा ने. ’’मेरा मतलब ये नहीं था.‘‘
’’तो हमें सिखायेगा क्या था तेरा मतलब? इतना तो हम भी जानते है, हमें मत बता.............. अपना काम कर काम............‘‘
बोलने के बाद शर्माजी को जैसे कुछ याद आया फिर बोले, ’’चल अपना काम कर, झाडू लगा, झाडू. चार अक्षर पढ़ने से औकात मत भूल. कम्प्यूटर पे बैठता है तो हमारी बराबरी करेगा?............... मत भूल अपनी......................‘‘ न चाहते हुए शर्मा ने शब्दों को चबाया दबाया और रोक दिया लेकिन उनका अर्थ फूटकर फैल चूका मेरे दिमाग के भीतर नस-नस में अर्थ सवार हो चूका. ’’क्या भूला हूँ मैं...........................?‘‘ न जाने कहां से चला आया गुस्सा. प्रतिरोध के शक्ल में. शर्मा ने कुछ नहीं कहा.
मैं दिन रात काम करता हूँ. पानी पिलाता हूँ. तमाम पत्र और पाक्षिक-मासिक जानकारियां टाइप कर देता हूँ. प्रोग्रामिंग की उसे चुरा लिया बी.डी.ओ. ने. बाबुओं ने चैन. क्या चाहते है ये लोग मुझसे? उस दिन भी जब जोशी को कहा था ये दो लाइन का पत्र अपने ही हाथ लिख दो तो जोशी बोला था, ’’ज्यादा नखरे मतकर, टाइप कर टाइप.‘‘ तो मैंने कहा था ’’ये टाइपिंग मशीन नहीं है कम्प्यूटर है, कम्प्यूटर.‘‘ फिर जोशी बाबू बोला ’’हमें भी मालूम है. तू बता क्या होता है कम्प्यूटर?‘‘ था जवाब लेकिन नहीं कहा कुछ भी, लेकिन अब तो हद हो गई. इतना सब कुछ करने के बाद शर्मा बोल रहा, मत भूल अपनी...............मत भूल.............मत........भूल...... अपनी............. मत भूल....................
दिमाग चकराने लगा तो मैं चाय की गुमटी पर आ गया. मौसम में अचानक बदलाव आ गया. ठंडी हवाओं के बीच ओले पड़ने लगे. ’’चलो अच्छा हुआ. मावठा गिर जाने से फसलों को फायदा होगा‘‘
दयालु ने कहा. कुछ नही बोल सका मैं, तो फिर बोल उठा दयालु, ’’तेरा चेहरा क्यों लटका है? ओले तेरे अन्दर भी गिर रहे हैं?‘‘ तब भी कुछ नहीं कहा मैने अखबार के दूसरे पन्ने को पढ़ते-पढ़ते दयालु ने कहा,‘‘ बशने इराक पर हमले में एन्थ्रेक्स, अगनर्व गैस, नाभिकिय हथियारों का भी उपयोग किया. मस्टर्ड गैस युक्त तोप गोले, रासायनिक हथियारों से इराक पर बमबारी की. सद्दाम से मुक्त कराने में बशने लाखों को मौत के घाट उतारा और हजारों को जेल में बन्द किया. इन लोगों को मजबूर किया गया कि वे पहले अपना खाना लेट्रिन में फेंकें फिर उसमें से खाना उठाकर खायें. कई लोगों को नंगा कर उनके गुदा में डंड़ा ड़ाल दिया गया कई.....................’’ मैं अखबार पढ़ने लगा. सम्पादक के नाम पत्र के कॉलम के कोने में छोटा-सा पत्र, नागपूर के खैरलांजी मे चार दलितों की हत्या पढ़ने लगा. प्रियंका नाम की लड़की को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाया गया. गांव की बुद्धिमान लड़की, पढ़ाई में अव्वल रहती. साईकिल से स्कूल जाती. उसका बुद्धिमान होना, साईकिल पर जाना, उसका दलित होना................. अखर गया लोगों को. प्रियंका को अपनी औकात में रखने, सबक सिखाने के लिए नंगा किया, बलात्कार किया सरे आम. तब भी बर्बरता की हद समाप्त नहीं हुई इसके बाद माँ-बेटी और दो भाई की हत्या कर दी गई. हिन्दी के अखबार से गायब था समाचार. इसके पहले नहीं पढ़ पाया था मैं. गुमटी पर चाय पीते-पीते कहा मैंने, ’’खैरलांजी की घ् ाटना कितनी बर्बर है?‘‘ ‘‘क्या हुआ?‘‘ महिला बाल विकास विभाग के बाबू गब्बूलाल ने कहा, ’’चार दलितों की हत्या.............सबसे खतरनाक बात माँ और बेटी को नंगाकर गाँव में घुमाने के बाद भीड़ के सामने बलात्कार किया और उन राक्षसों का तब भी जी नहीं भरा तो उनकी हत्या कर दी....
......हत्या?‘‘ ’’तू इतना उत्तेजित क्यों हा रहा है?‘‘ ’’गुनाह क्या था प्रियंका का? उसका बदन, उसका दिमाग, उसकी हिम्मत................. उसका आर्मी में जाने का सपना...............बराबरी करने का इरादा..............17 साल की लड़की का क्या गुनाह है?‘‘ ’’तेरा गुनाह क्या है? जो तुझे हर दिन जलील किया जाता, क्या अपराध किया तूने? तू भी इंटलीजेंट है.............हर समय काम में लगा रहता, घरबार की परवाह किये बिना काम करना................ ? क्या ये तेरा गुनाह है?‘‘
चाय ठंडी हो गई. दिमाग गरम हो गया. इस तरह नहीं सोचा था कभी. नहीं पी पाया मैं चाय.’’
क्या सोच रहा है?‘‘ दयालु ने सवाल उठाया.
’’सबक सीखाने का तरीका है. सबक.......... जो नहीं मानेगा बात, उसके साथ ऐसा ही किया जायेगा.‘‘ गब्बूलाल की चाय खत्म हो चूकी, बात कहते-कहते.
’’हाँ सबक...........बुश ने क्या-क्या नहीं करवाया............. सिर्फ सबक सिखाने के लिए. बशकहता हम स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए काम कर रहे है...........‘‘ गब्बूलाल की बात पूरी होने से पहले दयालु ने कहा,‘‘ हम भी तो कहते है वसुधैव कुटुम्बकम.................. हम भी तो कहते है नारी होती है देवी............... हम पूजते हैं नारी.......... हम भी करते हैं प्रियंका को नंगा............हम भी करते हैं दलितों की हत्या ...........मनु की औलादें भी सबक सीखाती हैं. उधर बुश इधर मनु’’ कहते-कहते दयालु ने अखबार फाड़ा और स्टोव जलाने के लिए उसमे आग लगा दी. स्टोव के मुंह से निकले केरोसीन से भभका उठा. धुंए और आग से भरा हुआ. जिसके भीतर लगातार टकराती रही प्रियंका की लाश, प्रियंका के सपने, प्रियंका की बुद्धिमता...........प्रियंका की माँ-भाई की लाशें........ लगातार घूमते रहे शर्मा बाबू..............श्रीवास्तव बाबू............... जोशी बाबू............ मत भूल............मत भूल......... नहीं भूल पा रहा हूँ जार्ज बुश........लाख मौतें .........मनु.............. ..चार लाशें........हजारों कैदी........................... उन्हीं मरे हुए, कैद हुए लोगों के बीच खुद को देख रहा हूँ.

कैलाश वानखेड़े,
संयुक्त कलेक्टर
जिला नीमच (म.प्र.)
मोबाईल नं. 09425101644
Email-Kailashwankhede70@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. पहली बार ब्लॉग पर आया हूँ /
    बिहार से हूँ /
    कहानियां पढता हूँ /समयाभाव के कारण लिख नहीं पाटा /
    कविता लिखता हूँ /
    कभीमेरे ब्लॉग पर भी आये / सादर

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  2. aap ki kahani mai jeevan ka satya hai jante hum sabhi hai us ko sweekar nahi pate ,shubhakamnaye .mai bhi blog jagat mai nayi hu kabhi mere biog ko bhi padiyega ,

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. विधा पर कैलाश जी सिद्धहस्त हैं...उनकी रचनाधर्मिता उद्येश्यपूर्ण है. कहानी का शिल्प, विन्यास सहज और विषयवस्तु के साथ फबते हैं. संजीव भाई आपको बहुत आभार, इस तरह आप अच्छे साहित्य और रचनाकार दोनों को एक सार्थक मंच उपलब्ध करा रहे हैं.

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