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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

अपनी अपनी संतुष्टि - कहानी

उसने टेबल से उठते हुए एक बड़ी पैग हलक में उतारी, प्लेट में कुछ शेष बच गए काजू के तुकडों को मुट्ठी में उठाते हुए बार से बाहर निकल गया। लडखडाते कदमों से बाहर खडे बाईक के इग्नीशन में चाबी डालते हुए वह ठिठक गया।
‘चाबी अंदर भूल गये क्या सर ? ‘ बाहर खडे रौबदार मूंछों वाले गार्ड नें उससे पूछा।
उसे पता था कि चाबी तो उसके हाथ में ही है, उसने गार्ड के प्रश्न का उत्तर दिये बगैर कमीज के उपरी जेब और पैंट के चारो जेबों को बारी बारी से टटोला, सब चीज अपने स्थान में था। उसने अपने सिर के पिछले भाग को खुजलाते हुए महसूस किया कि उसका दिमाग उसके खोपडी से गायब है। शायद वह टेबल में छूट गई है, उसने बाईक को पुन: साईड स्टैंड लगा कर खड़ी कर दिया और उससे उतर गया।
‘मैं देखता हूं सर !’ गार्ड बार के अंदर जाने को उद्धत हुआ।
’अरे .. क्या खाक देखोगे तुम........., चुप रहो! चाबी मेरे पास में ही है।‘ उसने चाबी व की रिंग को हिलाकर गार्ड को दिखलाते हुए कहा।
‘तो क्या भूल गए सर !’ गार्ड नें पुन: मुंह खोला, अब उसका दिमाग खराब हो गया और उसे याद आ गया कि खराब दिमाग तो उसके खोपडी में ही है। वह वापस लौटकर बाईक में बैठ गया और बाईक स्टार्ट कर फुर्र हो गया।
‘सर को आज ज्यादा चढ गया था लगता है।‘ मूंछे वाले गार्ड नें बार के गेट में सटे पानठेले वाले से कहा।
‘हॉं लगता है, आज उसने सिगरेट भी नहीं ली।‘ पानठेले वाले नें मायूसी से कहा। ’पिछले दो महीनों से आ रहे हैं ये साहब, जानते हो कहॉं काम करते हैं।‘ गार्ड नें पानठेले वाले से बातें बढाई। ’कोई सरकारी अफसर लगता है, क्लासिक सिगरेट पीता है।‘ पानठेले वाले नें सिगरेट से उसके औकात का अनुमान लगाते हुए कहा।
‘अरे वो वंदना स्पात में पर्सनल मनिजर है, सेठ का खास है, पूरे कारखाने में इसकी तूती बजती है, मालिक के बाद इसी की तो चलती है वहाँ।‘ गार्ड नें तम्बाखू मलते हुए कहा। ’ऐसा क्या, तो.... वो चउबे साहब येही हैं क्या ?’ पानठेले वाले नें मुंह में पान भरते हुए कहा। ’अरे हां, हॉं बिलकुल सही पहचाना तुमने। मेरे भानजे को गांव से बुला कर इन्हीं को बोलकर वहां उसकी नौकरी लगवाया था मैंनें‘ गार्ड नें खुश होते हुए कहा।
बार में आने जाने वालों की भीड बढ रही थी, पानठेले पर भी पान-सिगरेट लेने वाले खडे हो रहे थे पर गार्ड एवं पानठेले वाले की बातें जारी थी।
‘बहुत सज्जन आदमी हैं, कारखाने में बहुत मिहनत करता है बिचारा, सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक कारखाना, सरकारी आफिसों अउर बैंकन में दउडते भागते रहता है।‘
‘फिन एक बात बतायें..... साहब आजकल बहुत परेशान लग रहें हैं, हमारे भांजें नें बतलाया है कि साहब की मेहरारू घर छोड कर अपने माइके चली गई है दूई महीने से, तब से पी रहे हैं, पहले कभी दारू का छींटा भी नहीं लगाते थे।‘
‘दूनों के बीच में खटर-पटर बहुतै दिनों से चल रही थी ....’
अब गार्ड की बातें पानठेले वाले को कुछ बोर करने लगी थी और उसने बात को दूसरी ओर मोड दे दिया था, उसकी बातें वहीं समाप्त हो गई थी, कल तक के लिये जबतक वह पुन: रात को आफिस से लौटते हुए बार ना आ जाए।

उसने बाहर वाले मेन गेट को बाईक में चढे-चढे ही खोला और बाईक को चालू हालत में ही अंदर पोर्च में लाकर स्टैंड कर दिया। घर के अंदर के दरवाजे का ताला खोलकर सोफे पर आकर बैठ गया और मोजे खोलने लगा।
‘जल्दी मोजे खोलो, आलसी से मत बैठे रहो..... अभी एक घंटे नहाने में लगाओगे, भूख के मारे हमारा बुरा हाल है।‘
अपनी पत्नी की कर्कस वाणी को सुनकर उसका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ गया। वह बोलना चाहता था कि मैं भी तो सुबह नव बजे से खाकर गया हूं, मुझे भी तो भूख लग रही होगी, पर घर आकर चंद मिनट सोफे पर टेक नहीं लगा सकता .... और भी बहुत कुछ। उसे किताबों में पढी गई और फिल्मों मे देखी गई बातें याद आती है कि कैसे पति के काम से वापस घर आने पर पत्नियॉं आते ही मुस्कुराते हुए पानी का गिलास लेकर जब पति के हाथ में देतीं हैं तो उस पानी से शरीर की सारी तृष्णा और उस मुस्कान से दिन भर का सारा श्रम दूर चला जाता है। पर यहां ऐसा अपेक्षा करना एवं बोलना व्यर्थ था, यह लगभग रोज का नाटक था। नाहक रार को बढाना था इसलिये वह जल्दी-जल्दी पैंट शर्ट उतार कर टायलेट में घुस गया।
ठंडे पानी के सिर पर पडते ही उसे खयाल आया कि वह तो स्वप्न देख रहा था उसकी पत्नी तो दो महीने से इस घर में नहीं है। वह ठंडे पानी के शावर को और तेज चलाते हुए जोर जोर से हंसने लगा।
‘आज दारू कुछ ज्यादा चढ गई है लगता है ...’ वह अपने आप में बुदबुदाने लगा और मुस्कुराने लगा। मुस्कुराते हुए वह नहा कर निकला और झटपट खाना बनाने किचन में घुस गया, चार पराटे और दो आलू की सब्जी बनाकर चटकारे लेते हुए खाने लगा, उसे सचमुच में बडी जोर की भूख लगी थी। यह सब करते हुए उसे अब ग्यारह बज गए थे।
‘ओअमम’ वह संतुष्टि का डकार लेते हुए टीवी चालूकर बेड पर बैठ गया।
‘सब बकवास सीरियल हैं साले, चारित्रिक पतन और महानगरीय संस्कृति को बढावा दे रहे हैं, अच्छी खासी सांस्कारिक महिलाओं को बिगाड रहे है .......’ भद्दी गाली बकते हुए वह रिमोट से चैनल पे चैनल बदलने लगा। उसे याद आ गया कि कैसे वह अपनी पत्नी के हाथ से रिमोट हथियाता था और बटन दबाते हुए चैनल पे चैनल ऐसे बदलता था जैसे संपूर्ण विश्व का कन्ट्रोल उसके हाथ में है, जबकि वह जानता था कि उसके हाथ में तो उसके घर का भी कंट्रोल नहीं है। आंखें मूंद सी जाती है।
‘दिन भर घर में अकेले बैठे-बैठे पागल जैसे लगता है टीवी न देखें तो क्या करें, तुम्हे तो पिक्चर दिखाने और घुमाने फिराने की फुरसत ही नहीं।‘ और अगले ही पल पत्नी रिमोट अपने हाथ में ले लेती है। वह मुस्कुराते हुए अपने सिर को झटका देता है और उस खयाल को भगाता है, अभी तो रिमोट मेरे पास है, वह फिर टीवी स्क्रीन पर आंखें गडा लेता है। दयालदास को नारी विमर्श पर लेखन के कारण साहित्य पुरस्कार मिलने के समाचार पर उसकी रिमोट पर दबती उंगलिंया ठहर जाती है। समाचार चैनल पर देश के सर्वोच्‍च साहित्य पुरस्कार प्राप्त करने वाले दयालदास का इंटरव्यू चल रहा है।
टीवी पर नारी विमर्श पर चर्चा करते हुए दयालदास बेहद प्रभावशाली नजर आ रहे हैं। आंखों में आत्मविश्वास और नारियों के प्रति श्रद्धा की दलीले पेश करते हुए दयालदास के साथ उसकी प्रशंसक महिलायें मुस्कुराते हुए उंगलियों से वी का चिन्ह दिखा रहीं हैं। टीवी एंकर दयालदास के विशाल प्रशंसक समुदाय की दुहाई दे रहा है और दयालदास किसी चकलाघर से संतुष्ट होकर निकलते हुए से मुस्कुरा रहा है।
‘नहीं देखनी है मुझे इसकी दुष्ट मुस्कान को .........’ वह अपनी आंखें बंद कर करते हुए बुदबुदाता है।
‘पर आंखें बंद कर लेने से तो बेहतर है चैनल बदल लो !’ उसके अंदर से आवाज आती है। ’नहीं मैं टीवी ही बंद कर दिये देता हूं, इस कम्बख्त टीवी के कारण भी मेरी पत्नी से बीसियों बार लडाई हुई है और हमने महीनों एक घर में रहकर भी बेगानों से रहे हैं। ..... फोड देता हूं इस टीवी को ....।‘ वह फिर बुदबुदाता है।
वह टीवी बंद कर देता है और लाईट बुझा कर सोने का प्रयत्न करने लगता है। उसकी स्मृतियों में उसकी पत्नी छाने लगती है। कभी मुंह फुलाये हुए तो कभी प्यार से बाहें फैलाये हुए, बहुत सारे वाकये चलचित्र की मानिंद उसके जेहन में घुमडने लगते हैं।
कुल जमा दस साल के वैवाहिक जीवन में शुरूआती पांच साल बच्चे पैदा करने एवं सम्हालने, घर, मॉं-बाप बनाम सास-ससुर से एडजेस्ट करने व करवाने एवं दुनिया-दारी में बीत गया था और बाकी के पांच साल को आर्थिक तंगी के साथ शुरू हुए खटपट और मत भिन्नता नें बरबाद कर दिया था।
थोडे से पैसे के लिये जी तोड मेहनत करना उसे कतई रास नहीं आता था पर जब वह परिवार एवं अपने दोनों बेटों के भविष्य के संबंध में सोंचता था तो फिर हल में जुते बैल की तरह सामंजस्य से बढते जिन्दगी के हल को दूसरी ओर के हील-ढील के बावजूद खींचे जा रहा था।
इस बीच उसने नारी विमर्श की कई-कई किताबें, कहानिंया व संग्रह घोंट कर पी गया था पर वह अपनी पत्नी के मन के थाह को नहीं जान पाया था। अपने एक सीनियर महिला मित्र जो साइकोलाजिस्ट भी है से उसने इस संबंध में लम्बी चर्चा भी की थी और उसके सुझावों को अक्षरश: अमल में भी लाया था पर सब बेकार था।
’आखिर चाहती क्या है ...., क्या भरा है इसके मन में ......’ वह आंखें बंद किये हुए ही बुदबुदाता है। नारी, नारी, नारी !, क्या उसकी ही भावनायें सर्वोपरि है, पुरूष की भावनाओं और समर्पण का कोई मान नहीं, क्या उसे अपने परम्परागत पुरूष समाज के संस्कार के कारण समय बे समय प्रकट हो गए भावों को भी मन के अतल गहराईयों में दफ्न करने का दर्द नहीं सालता होगा।
वह जानता था यह स्वप्न उसके स्वयं का है इस कारण वह इसमें अपनी बातें दृढता से रख सकता है और अपने पक्षों को सुदृढ कर अपनी पत्नी को दोष देकर संतुष्ट होकर सो जाता है।
सुबह दूध वाले के बेल से उसकी आंखें खुलती है, वह अनमने से दरवाजा खोलता है दूध का डिब्बा अंदर लेता है और दरवाजा पुन: बंद कर बेड पर लेट जाता है। उसके मन में रात की जीत मुस्कुरा रही है। कुछ देर ऐसे ही लेटे रहने के बाद उसे आभास होता है कि उसकी पत्नी उसके पैर के अंगूठे को हौले से खींचते हुए कह रही है ‘उठो ना जी ! चाय लाई हूं’ वह उठ जाता है और वहां चाय और पत्नी दोनों को ना पाकर किचन में चाय बनाने चला जाता है। चाय के कप के साथ दरवाजे में पडे अखबारों को समेटकर बेडरूम तक आता है और बेड में बैठकर चाय के चुस्कियों के साथ अखबारों में खो जाता है। आंखों के सामने से शव्द ओझल हो जाते हैं और उसे नजर आने लगता है उसकी पत्नी जो उसके साथ ही बेड में बैठकर अखबार पढ रही है, अरे हॉं वह अपना पसंदीदा अखबार हिन्दुस्तान पढ रही है, और मैं नवभारत टाईम्स।
‘हमारी औकात दो दो पेपर मंगाने की नहीं है, और ..... इसकी आवश्यकता भी तो नहीं है एक ही समाचार को दो-दो पेपर में पढना।‘ उसने एक दिन कहा था जिसके जवाब में उसकी पत्नी नें मुंह बनाते हुए कहा था कि हिन्दूस्तान मैं बचपन से पढते आ रही हूं, मैं नहीं छोड सकती इसे, ... और नवभारत टाईम्स में आपके आर्टिकल्स जो छपते हैं इसलिये उसे भी बंधाया है। उसकी दृढता के आगे कोई भी दलील नाकारा साबित होती थी सो चुपचाप समाचारों को या एडीटोरियल को पढने में ध्यान एकाग्र करना ज्यादा जरूरी होता था और वह शव्दों में डूब जाता था। पेपर पढते-पढते समय भागता था तो झटपट उठकर वह फ्रेश होता था और साढे आठ बजे तैयार होकर खाने की मेज पर बैठने के पूर्व किचन को झांकता था पर वहां पत्नी और खाना दोनों नदारद। उसकी पत्नी अब हिन्दूस्तान निबटाकर नवभारत टाईम्स पढ रही है। वह चाहता है कि पेपर उसके हाथ से छीन ले और उसे समय का ध्यान दिलाए पर वह ऐसा नहीं कर पाता क्योंकि उसे पता है ऐसा कहने भर से घर में अशांति छा जायेगी। वह पुन अपना रटा-रटाया जवाब देगी कि दिनभर घर में बोर होती हूं यही तो एक सहारा है मनोरंजन का, उसे भी मन से पढने नहीं देते। वह आश्चर्य से उसकी आंखों की ओर देखेगा मानों कह रहा हो कि अभी यह मनोरंजन आवश्यक है या मेरा भूखे पेट आफिस जाना ? उसके बाद खटपट और बेवजह मनमुटाव का दौर महीनों तक चलेगा।
यादों को दिमाग के गहराईयों में डुबोते हुए वह फिर समाचारों में वापस आ जाता है, अब उसे शव्द नजर आ रहे हैं। झटपट दोनों समाचार पत्र पढता है और कुकर में खाना चढाकर टायलेट में घुस जाता है।

रात के नौ बजकर पचास मिनट हो गए है बार का मुच्छड गार्ड बेचैन है, लगभग दस बार पानठेले वाले से पूछ चुका है कि साहब बार में आ गये क्या। पानठेले वाले नें प्रत्येक बार उसे नहीं में जवाब दिया है । ’क्यों इतने उतावले होते हो यार, आये या ना आये हमें क्या ।‘ पानठेले वाले नें कहा
‘नहीं भाई पता नहीं क्यूं, उसे देखकर ऐसा लगता है कि जैसे वो मेरा कोई नाते रिश्तेदार हो, इन दो महीनों में उसे जिस दिन भी नहीं देखता मन में कुछ कुछ होने लगता है।‘ गार्ड नें संजीदगी से कहा पानवाला हंसनें लगा यूं जताते हुए कि यह सब बकवास बातें हैं, उसका तुम्हारा क्या संबंध कैसी नातेदारी। उनके बातों के बीच ही वंदना स्पात का एक प्यून बार से दारू के नशे में चूर बाहर निकला और पानठेले वाले से सिगरेट मांगने लगा। ’कौन सी सिगरेट ?’ पानठेले वाले नें पूछा ’क्लासिक ‘ प्यून नें नसे से लडखडाते जुबान से कहा, गार्ड की नजरें प्यून पर जम गई।
‘तुम... तुम तो चउबे साहब के आपिस में काम करते हो ना ?’ गार्ड नें प्यून के पास आकर पूछा, प्यून नें हॉं में जवाब दिया।
‘कहॉं है साहब आज आये नहीं ?’ गार्ड नें पुन: पूछा। ’अरे..... वाह! ...... तो वह दारू भी पीता है ? ...... वाह !’ प्यून नें नशे भरी आंखों को गोल घुमाते हुए कहा और सिगरेट की गहरी कश को छोडते हुए मुस्कुराने लगा। गार्ड और पानठेले वाले को उसके बात में छुपे राज को जानने की कुलबुलाहट बढ गई। ’आफिस में तो सती सबित्री बनता है’
‘तो क्या साहब बदचन है .... ?’ गार्ड को सहसा विश्वास नहीं हुआ। ’अरे नहीं नहीं बदचलन नहीं, दारू के संबंध में कह रहा हूं, आफिस में तो ऐसा दिखाता बताता है कि दारू को हाथ भी नहीं लगाता और हिंया रोजे आता है, हा... हा... हा .... !’ प्यून अब अट्टहास करने लगा था।
‘ओके मेहरारू आई गईन का ?’
‘क्या लडाई थी इसके और इसके पत्नी के बीच में ?’ गार्ड और पानठेले वाले नें एक साथ प्रश्न किया।
‘बहुत चालू चीज है भाई ये चउबे, बहुतै हरामी है, आफिस में सब को परेशान करता है, इसे बस काम चाहिये, चाम से इसे कउनो मतलब नहीं, मरते हो तो मर जाओ पर उसके काम को पूरा करो नहीं तो पेमेंट काट देगा या नउकरी से भगा देगा, भाग गई होगी इसकी मेहरारू इसके किचकिच से, हा... हा... हा .... !’ प्यून नें अपनी भडास निकाली और हंसने लगा।
’नहीं .... आदमी तो ऐसा नहीं लगता, सज्जन आदमी है !’ गार्ड नें अपने विश्वास को बिना डिगाये कहा।
’मैं उसी के आपिस में चपरासी हू पिछले दस साल से, मैं ज्यादा जानूंगा कि तुम !’
‘हां भईया तुम ज्यादा जानोगे, पर ये तो बतलाओ कि आज वे आये क्यूं नहीं ?’ गार्ड नें पूछा। ’आज आपिस में उसके बडे भाई आये थे उसके दोनों छोटे बेटों को लेकर, मैं चाय-पानी लेकर गया था तो उनकी बातें सुन रहा था। उसके भाई नें उसे बहुत समझाया और बच्चों के परेम नें उसे पिघला दिया। उसके बाद वे आपिस से छुट्टी लेकर अपनी फटफटिया कारखानें में छोडा अउर अपने बडे भाई के कार में ही अपनी मेहरारू को लेने चला गया। अब दूई-चार दिन आराम रहेगा ......‘ प्यून चउबे साहब की बुराई और बतलाना चाहता था उसको नंगा करना चाहता था पर गार्ड को अब उसके बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह संतुष्ट था कि साहब अपने मेहरारू को लेने चला गया है।
संजीव तिवारी

(इस कहानी को लगभग छ: माह पूर्व कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन हेतु वापसी के टिकट लगे लिफाफे के साथ भेजा था, कहानी वापस नहीं आई और ना ही प्रकाशन का कोई संदेशा आया (कहीं प्रकाशित हुई हो तो सूचित करियेगा) सो समुचित समय उपरांत यहॉं प्रकाशित कर रहा हॅूं।  आपके आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियों का इंतजार है)

टिप्पणियाँ

  1. कहानी बड़ी दमदार है पर मैं इसमें ज्यादातर समय अपने कुछ मित्रों को टटोलता रह गया ! चौबे जी के बारे में क्या क्या सोच गया मैं :)

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  2. संजीवजी आप कहानी भी इतनी अच्छी लिखते हैं यह तो हमें मालूम ही नहीं था .. और लिखीं हैं तो एक एक कर ब्लॉग पर लगाईये .अच्छी कहानी के लिए आपको हार्दिक बधाई !

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  3. पता नहीं कल सुबह उतारा होगा भी कि नहीं ,चौबे जी जेहन से निकल ही नहीं रहे हैं :)

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  4. बढिया कहानी
    जब ले ने चला गया तो
    मेहरारु को लेकर ही आएगा।

    आभार

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  5. हमारे सामाजिक परिवेश व वैवाहिक मंचनों का सारांश प्रस्तुत करती कृति।

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  6. @ धन्‍यवाद अली भईया
    पात्र को कहीं ना कहीं से उठाकर कहानी में फिट तो करना ही होता है चउबे जी दुबे जी सब हमारे अपने बीच से ही होते हैं. :)

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  7. @ प्रज्ञा जी, प्रयास करूंगा, कि कुछ और कहानियां ब्‍लॉग पर दूं.

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  8. सामाजिक दृश्य को चोबे जी के माध्यम से उतारा है कहानी में .... अछा पात्र बुना है ...

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  9. bahut acchi kahaani, likhane kaa tarika itna acchaa ki kahaani baandh kar rakhata hai....choubeji kaa paatr a aaj ke samaajik sthiti ki den hai....usake liye choube nahi bulki samaaj dishi hai.

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  10. कहानी बढ़िया है -सुखांत भी .,परिवेश ,चरित्र चित्रण,कथानक ,कथावस्तु सब चौचक और औत्सुक्य भाव भी है ..सुबह का भूला शाम को लौट घर आये तो वह भूला थोड़े ही है !
    बधाई कहानी के ब्लॉग प्रकाशन पर !

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  11. कहानी बेहद सशक्त है …………………बहुत ही सुन्दर लेखन्………

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  12. संजीव जी,कहानी बहुत अच्छी लगी। बधाई।

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