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कई गांवों में रावत नाच के साथ 'मडई' भी चलता है। मडई लम्बे खडे बांस में साडी-धोती और बंदनवार को बांधकर बनाया जाता है। इस मडई को गांव के मडईहा परिवार के लोग मन्नत मांगने के लिए बनाते हैं एवं गांव में दीपावली से लेकर 'मडई' मनाए जाने तक बनाए रखते हैं। जब भी रावत नाच पार्टी के साथ इन मडईहा परिवार को रावत नाच उत्सव या मातर आदि का निमत्रण दिया जाता है ये मडई रावत नाच के पीछे पीछे अपनी लम्बी पताका लिए मौजूद रहता है।
छत्तीसगढ में दीपावली की रात गउरा उत्सव के रूप में मनाया जाता है, यहां गांवों में दीपावली का असली मजा दीपावली के दूसरे दिन ही आता है, गावों में इस दिन को गोवर्धन पूजा के रूप में मनाया जाता है। कृषि प्रधान इस प्रदेश में पशुधन के महत्व को रेखांकित करने वाला यह त्यौहार गायों के श्रृंगार और पूजन का त्यौहार है। इस त्यौहार का संपूर्ण प्रतिनिधित्व यादव - ग्वालों (रावत) के समुदाय के हाथों रहता है, गांव में 'बाजा लगाने' (रावत नाच के साथ वाद्य यंत्र बजाने के लिए वाद्यकों के समूह एवं नृत्य करने के लिए स्त्री के रूपधारी पुरूषों को निश्चित पारिश्रमिक पर तय करना। इस पारिश्रमिक की व्यवस्था सामूहिक सहयोग से की जाती है) से लेकर मातर मनाने तक चलने वाला यह लगभग पंद्रह दिनो का उत्सव होता है। बाजे के साथ श्रृंगार किये हुए ग्वालों का समूह घर घर जाकर नृत्य करता है जिसे 'जोहारना' कहा जाता है 'ठाकुर जोहारे आयेन .... जैसे दोहों के साथ, रावत नाच प्रस्तुत किया जाता है।
भगवान कृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाकर बृजवासियों और गोधन की रक्षा करने की स्मृति को जीवंत बनाने के लिए गोवर्धन पूजा किया जाता है। ग्वालों का विश्वास है कि वे यदुवंशी कृष्ण के वंशज है इसलिए वे परंपरागत रूप से इस त्यौहार को मनाते आ रहे हैं जो संपूर्ण छत्तीसगढ में मनाया जाता है। इस दिन सुबह गायों की पूजा की जाती है और उन्हें 'खिचडी' खिलाई जाती है। संध्या गांव के सहडा देव (जो सांढ देवता के रूप में पूज्य होता है)के पास गोवर्धन पर्वत के प्रतीक के रूप में गाय के गोबर से गोवर्धन भगवान की प्रतिकृति बनाई जाती है, एवं ग्वालों की पत्नियां उसकी पूजा करती हैं।
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गोवर्धन खुंदवाने के बाद गोवर्धन की प्रतिकृति के बिखरे गोबर को बडे बुर्जुगों के माथे पर लगा कर आर्शिवाद ली जाती है। अजब प्रेम है यहां का, बेमोल गोबर को माथे में लगाकर सम्मान करने की इस परंपरा का सम्मान इस प्रदेश के सभी रहवासियों को करना ही चाहिए।
हे ग्राम्य देवी, हमारे स्नेह की बाट जोहते इन ग्रामीण बच्चों की चेहरों में मुस्कान और इनकी आंखों में दीपों की आभा देखने हम हर दीपावली आते ही रहेंगें।
संजीव तिवारी
गावों में ही परम्पराएँ जीवित हैं .. हर त्यौहार इंसान को प्रकृति से जोड़ता है .. गोबर माथे पर लगाकर गोबर की महत्ता बढती है उसका एंटिसेप्टिक होने का प्रमाण है ये . तभी घरों को गोबर से लीपने की परंपरा रही है . प्रकृति दूर होकर आदमी अपना पतन कर रहा है . बहुत अच्छा लगा आपका लेख पढ़कर !
जवाब देंहटाएंBeautiful Sanjeev, after reading this I feel like going to any village on such occasions. very nice.
जवाब देंहटाएंबुटीफ़ूल संजीवा यु आर ग्रेट, देख मैं इंगरेजी घला सीख डरे हंव,ये मन हमर पुरखा के गोड़ मन ला तोरे रिहिस त एखरो करजा ला .............
जवाब देंहटाएंसबके डौउकी इंगिड-बिंगिड,
जवाब देंहटाएंमोर डौउकी अलबेला रे,
होय,दिंग दिंगिड,दिंग दिंगिड,
दिंगिड,दिंगिड,दिंगिड्।
क्या मज़ा आता था,
क्या जोश रह्ता था,
धीरे-धीरे सब यादों के खज़ाने मे जमा हो रहा है,
हां गांव मे भी हैलेकिन अब न बेंज़ो की झंकार सुनाई देती है और ना ढोल-मंजीरे की थाप्।बस सायकिल पर एक सिंथेसायसर लिये एक ही आदमी पूरी मंडली का काम कर देता है।बहुत बढिया लिखा संजू भैया।पढ कर ही पता चलता है आजकल तो।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति की जानकारी बहुत रोचक ढंग से दी आपने।
जवाब देंहटाएंकृपया गोड़िन गौरा पर भी लिखें।
इस सांस्कृतिक परम्परा से परिचय पाकर अच्छा लगा। आभार।
जवाब देंहटाएं( Treasurer-S. T. )
संजीव मै तुमसे कहने ही वाला था कि इस गाँव की दिवाली पर लिखो । तुमने यह इच्छा पूरी कर दी । अब अगले साल हम दोनो साथ मे किसी गाँव चलेंगे और यह सब आनन्द लेंगे ।
जवाब देंहटाएंहमर छत्तीसगढ़ीया त्यौहार मनाये के ढ़ंग ला आप मन यहां रखे हो ऐखर सती गाड़ा गाड़ा बधाई स्वीकार करौ हमर राउत मन राउत नाचा से लेकर हमर छोटे देवारी के गोवर्धन पूजा ला आप मन सब झान ला बताए हो
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ़ीया चौपाल म स्वागत करेओ ओखर बर धन्यवाद