छत्तीसगढ के पारंपरिक लोक नाट्य नाचा के संबंध में अनेकों विद्वानों नें लिखा है एवं इसके मूल स्वरूप को अपने अपने विचारों में प्रस्तुत किया है । प्रस्तुत है छत्तीसगढ के ख्यातिनाम लोकनाट्य एवं फिल्म निर्देशक श्री राम हृदय तिवारी जी से इस संबंध में उनके विचार जो उनकी कलापारखी निगाहों एवं छत्तीसगढ की संस्कृति के गहरे अनुभव व अध्यन का सार है :-
छत्तीसगढ – भारत का ह्रदय स्थल – एक प्यारा सा प्रान्त, जिसे इतिहास ने दक्षिण कौशल के नाम से पुकारा है, भूगोल ने धान का कटोरा कहकर स्नेह से दुलारा है, पुरातत्व ने जिसे महाकान्तार की संज्ञा से संवारा है – वहीं संस्क्रति ने लोक कलाओं का कुबेर कहकर अंचल का मान बढाया है ।
यह एक सच्चाई है कि कला और संगीत ने संभवत: किसी समाज को इतना अधिक प्रभावित और अनुप्राणित नहीं किया होगा, जितना इन्होंने हमें किया है । करमा, ददरिया और सुआ की स्वर लहरियॉं, पंडवानी, भरथरी, ढोलामारू और चंदैनी जैसी गाथाएँ सदियों से इस अंचल के जनमानस में बैठी हुई हैं । यहां के निवासियों में सहज उदार, करूणामय और सहनशील मनोव्रत्ति, संवेदना के स्तर पर कलारूपों से बहुत गहरे जुडे रहने का परिणाम है । छत्तीसगढ का जन जीवन अपने पारंपरिक कलारूपों के बीच ही सांस ले सकता है । समूचा अंचल एक ऐसा कलागत – लयात्मक – संसार है, जहां जन्म से लेकर मरण तक – जीवन की सारी हल-चलें, लय और ताल के धागे से गूंथी हुई हैं । कला गर्भा इस धरती की कोख से ही एक अनश्वर लोकमंचीय कला स्रष्टि का जन्म हुआ है – जिसे हम सब नाचा के नाम से जानते हैं ।
नाचा छत्तीसगढ की लोक संस्क्रति की आबोहवा का एक महकता झोंका है । नाचा इस अंचल के सरल सपनों का प्रतिबिम्ब है । अनगढ जनजीवन से जन्म लेने वाला सुगढ नाचा, सच पूछिए तो, ग्रामीण कलाकारों द्वारा पथरीली जमीन पर चन्दन बोने की हिमाकत है । समूचे छत्तीसगढी लोक जीवन की नब्ज को टटोलने का सबसे कारगर माध्यम है नाचा ।
नाचा का अलग रंग है, भाव है, मस्ती है, प्रवाह है । एक ओर जहां इसमें परंपरा निर्वाह की चाह है, वहीं अनचाही परंपरा की चट्टानों को तोडने की अदम्य शक्ति भी है । नाचा, नगरीय रंगमच के बौद्विक विलास से उबे मन की विश्रान्ति है । उसमें लोगों को विमुग्ध करने और मन के तारों को झंक्रत करने की अदभूत क्षमता है । और है ऑंसुओं को पीकर मुस्कान, बॉटने की सहज सरल चेष्टा । छत्तीसगढ अंचल की सम्पूर्ण सहजता, सरलता, मोहकता और माधुर्य जहां एक मंच पर सिमट आए हों, उस मंच का नाम नाचा है । अपनी दीनता, हीनता, अशिक्षा, उपेक्षा और अपमान की आग में तपकर ग्रामीण कलाकार जिस कला संसार की स्रष्टि करते हैं, उस संसार का नाम है नाचा । नाचा न्रत्य गीत और गम्मत का अनूठा संगम है ।
इन सबके बावजूद, सदियों से उपेक्षित, तिरस्क्रत और हेय समझे जाने वाले इस नाचा की ओर विद्वानों की द्रष्टि अभी हाल के वर्षो में गई । नाचा ने ऐसे भी दिन देखे हैं, जब शिष्ट और सभ्रान्त समाज नाचा देखना अपनी गरिमा के विरूद्ध समझता था । आज इस विश्वविख्यात नाचा पर बहुत कुछ लिखा गया है । इस पर आज अनेक शोधार्थी शोधकार्य में संलग्न है, कई पी.एच.डी. की डिग्री ले चुके हैं । हालत आज यह है कि गांव के चौपालों से उठकर महानगरों की अट्टालिक मंचों पर नाचा के भव्य प्रदर्शन हो चुके हैं । अपनी अनोखी शैली, सादगी, संप्रेषणीयता और आडंबरहीनता के कारण आज नाचा लोकमंचीय आकाश में एक चमकता हुआ नक्षत्र बन चुका है । आइए अब हम उन साहित्यकारों, विद्वानों और कलामनीषियों की राय जानें, जिन्होंने नाचा को अपने-अपने ढंग से अलग-अलग अवसरों पर परिभाषित किया है । डॉ. शिव कुमार मधुर की राय है – नाचा अपने नाम के अनुरूप मूलत: न्रत्यप्रधान विधा है । नाचा यानि न्रत्य प्रधान छत्तसीगढ का लोक मंच । निरंजन महावर लिखते हैं – नाचा एक सर्वजातीय रंग विधा है, जिसका उदभव और विकास ग्रामीण समाज में हुआ तथा उसमें अनेक परंपरागत विधाओं ने सम्मिलित होकर उसे सम्रद्ध किया है । नाचा मूलत: एक हास्य प्रधान नाट्य विधा है । म.प्र. आदिवासी लोक कला परिषद से जुडे नवल शुक्ल कहते हैं - नाचा नृत्य भाव और मुद्राओं का लयात्मक संसार है, यह आदमी की जिजीविषा और अभिव्यक्ति का संसार है । नारायण लाल परमार जी की राय थी कि नाचा पूर्ण रुपेण एक जीवन केन्द्रित लोक विधा है । मनोरंजन और शिक्षण का जैसा मणिकांचन संयोग इसमें मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्भभ है । नाचा अंचल के उत्थान पतन का आरसी है । डॉ विनय पाठक के अनुसार- लोक नाठ्य नाचा की सहजता उसका श्रृंगार है और उसका अल्हड़ कमनीय सुघड़ रुप उसका आकर्षण । शांति यदु लिखती है- छत्तीसगढी लोक नाट्य नाचा का मौखिक इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानवीय संस्कृति और सभ्यता का इतिहास । स्व. राम चन्द्र देशमुख कहते थे - नाचा छत्तीसगढ के गांवों की सहजता, निश्छलता और बेलाग रिश्तों की पृष्ठभूमि है इसके साथ । सापेक्ष के संपादक डाँ. महावीर अग्रवाल लिखते हैं- शिष्ट जीवन की सारी सौजन्यता, रस सिद्धता और कलात्मकता नाचा के चुम्बकीय आकर्षण के सामने फीकी लगती है । जीवन के सत्य की छोटी-छोटी घटनाएं और दृश्य लोक नाट्य नाचा में खुशबू की तरह समाए रहते हैं । चर्चित कथाकार डॉ. परदेशी राम वर्मा कहते हैं- छत्तीसगढ चुप्पे लोगों का अंचल है और वह अपनी चुप्पी जिन माध्यमों से तोड़ता रहा है, उनमें सबसे सशक्त माध्यम नाचा है । अंचल की कल्पना शीलता का अद्भूत लोक मंचीय विस्तार है नाचा ।
यह तो हुई नाचा के दृष्टा और साक्षी मनीषियों की राय । लेकिन स्वयं नाचा के कलाकारों से पूछें तो वे नहीं बता सकते हैं कि नाचा आखिर क्या है ? वे बताने में नहीं दिखाने में माहिर है । साहित्य का इतिहास साक्षी है कि राम को भगवान मानकर स्तुतिगान करने वाले महर्षियों से ज्यादा भगवान का वास्तविक हाल उनका वह अभिन्न दास समझता है, जो अपना कलेजा चीरकर बता देता है - भगवान उसके लिए क्या है ? ठीक वैसे ही नाचा के विनम्र कलाकार मंच पर अपना हृदय चीरकर बता देते हैं कि देखो नाचा ये है ।
नेमीचंद जैन कहते हैं - रंगमच कलात्मक अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है, जिसमें मनोरंजन का अंश अन्य कलाआें की तुलना में सबसे अधिक है । रंगकला हमारे आदिम आवेगों और प्रवृत्तियों को जागृत कर उन्हें एक सामूहिक सूत्र में बांधती है । नि:संदेह कश्मीर से केरल और कच्छ से कामरुप अंचलतक फैली हमारी रंगारंग नाट्य परंपरा विशाल, समृद्ध और जीवन्त है । उनमे विविधता के बावजूद मौजूद एक अंर्तसूत्र उनको एक अटूट रिश्ते से जोड़ता है । डॉ. मधुर लिखते हैं कि ईसापूर्व तीसरी शताब्दी का भरत नाट्य शास्त्र कोई आकस्मिक उपज नहीं, वरन् पूर्व पंरम्परा को लेकर की गई एक निश्चित योजना है । समुन्नत नाट्यकला की आधारशीला लोक जीवन में व्याप्त गीत और अभिनय की लोक शैलियां ही है । देश के विभिन्न प्रादेशिक लोकनाट्यों के अतिरिक्त कुछ ऐसी रंग शैलियां भी हैं जो अपने सीमित अंचलों में जन रंजन का माध्यम है । जैसे बंगाल में कीर्तनिया, उड़िसा में गंभीरा, महाराष्ट्र में गोंधल वैसे ही छत्तीसगढ में नाचा है ।
स्पष्ट है कि नाचा किसी काव्य की तरह केवल शाबदिक अभिव्यक्ति नहीं है, न वह किसी चित्र या मूर्तिकला की तरह काल की बाहुओं में कैद कोई स्थिर रुप है । वह तो गतिशील झरने की तरह लोक जीवन की अनुभूतियों को, आवेग, आकांक्षाओं और सपनों को सहज सादगी से अभिव्यक्ति देने वाला जीवंत मंच है ।
अशिक्षित या अल्पशिक्षित मगर पारखी नजर वाले नाचा के कलाकार आम तौर पर खेतिहार मजदूर होते हैं । अपने जीवन और समाज की विसंगतियों को उजागर करने के लिए स्वयं अपनी समझबूझ के अनुसार छोटे-छोटे प्रहसन रचते है, सामूहिक रुप से रिहर्सल करते हैं । निर्देशक नाम का कोई निर्दिष्ट व्यक्ति नाचा में नहीं होता । न ही उनकी कोई लिखित स्क्रीप्ट होती है । सब कुछ परस्पर सामंजस्य और साझेदारी में मौखिक रुप से चलता है । कई चुटीले और सटीक संवाद तात्कालिक रुप से मंच पर भी बनते चले जाते हैं । ठेठ मुहावरों और पैनी लोकोक्तियों के सहारे हास्य व्यंग्य से ओतप्रोत संवादों को सुनकर दर्शक समूह हंस-हंस कर लोट-पोट हो ही जाता है, मगर हास्य के बीच कोई ऐसी विद्रूपमय स्थितियां सामने आ जाती हैं कि दर्शक तय नहीं कर पाता कि वह हँसे या रोये ।
नाचा अपने आप में एक टोटल थियेटर यानि परिपूर्ण नाट्य शैली है । उसमें उन्मुक्तता, चित्रण, रंगरचना तथा दृश्यविधान में यथार्थता के साथ-साथ दर्शकों की कल्पनाशीलता को साथ लिए चलने पर बल अधिक समाहित रहता है । अभिनेता और दर्शक वर्ग के बीच घनिष्ट संबंध इसकी दूसरी मौलिक विशेषता है । नाचा में जीवन की मौलिक मान्यताओं और मानवीय मूल्यों को जोडे रहने की गुंजाइश बराबर बनी रहती है । अपने गम्मतों की माध्यम से कलाकार दैनंदिनी जीवन की विद्रुपताओं और समस्याओं पर कटाक्ष एवं व्यंग्यपूर्ण टिप्पणियां करते चलते हैं । सूक्ष्म हास्य बोध की अपनी इसी प्रतिभा के बल पर स्वयं पर भी हँसने में सक्षम ये जीवट ग्रामीण कलाकार तमाम विपरीतताओं के बीच आज अपनी अस्मिता के साथ तनकर खड़े हैं । मंच पर इनका इम्प्रोवाइजेशन - प्रत्युत्पन्नमति की अद्भूत क्षमता देखकर थियेट्रिकल जगत हैरान है ।
नाचा का यह एक और उल्लेखलीय पहलू है कि बिना किसी संस्थागत प्रशिक्षण के लगभग सारे कलाकार गायन, वादन, नृत्य, अभिनय एवं रुप सज्जा से लेकर नाचा से संबंधित हर काम कर लेने में सिद्ध हस्त होते हैं । नाचा जैसा आडम्बरहीन मंच ढूंढना मुश्किल है । ग्रामीण परिवेश में उपलब्ध कोई भी भूखंड इनका मंच होता है । यहां पाल परदे पखवाइयां जैसे तामझाम की कोई दरकार नहीं होती । साजिन्दों के बैठने के लिए साधारण सा तख्त मिल जाय तो बहुत है । अंगराग के लिए सफेद, पीली, छुई, खड़िया, हल्दी, कुंकुम, काजल, मिट्टी, कालिख, नीला थोथा, मुरदार शंख जैसी सामान्य सुलभ वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं । सारे कलाकार पात्रानुकुल अपना मेकअप स्वयं करते हैं । मंच में तख्त पर संगतकार बैठते हैं और मंच के तीनों ओर दर्शक वर्ग, जो देर रात से शुरु होने वाले नाचा को सुबह की लाली तक पुरी उत्कंठा और सहज मुग्धता से देखता है और छक कर आनंद लेता है ।
नाचा की समूची प्रस्तुति एक थिरकन और लयबद्धता के आरोह-अवरोह से बंधी होती है । कलाकारों की मुद्राओं में हलचल और भावाभिव्यक्तियों में, अभिनय नृत्य और अदाकारी में एक सहज लयबद्धता केवल देखने और महसूस करने की चीज है । नृत्य गीत कब खत्म होकर गम्मत में परिवर्तित हो जाता है, गम्मत की कब नृत्य गीत में स्वयमेव ढल जाता है तथा कभी-कभी नृत्य गीत और अभिनय चक्रवात की तरह कैसे एक रस और परस्पर आलिंगित होकर धूम मचा देते हैं - यह नाचा देखकर ही जाना जा सकता है ।
नाचा में महिला पात्रों का निर्वाह पुरुष ही करते हैं । पुरुष ही परी बनते हैं । नचकहरीन और लोटा लिए नजरिया की भूमिका पुरुष ही निभाते हैं । इनकी अदाएं, हावभाव, चालढाल और भावभंगिमाएं इतनी अधिक स्त्रीसुलभ कोमलता और मोहकता के करीब होती है कि शिनाख्त करना मुश्किल होता है । नाचा में परी और जोक्कड़ दो ऐसे अदभूत चरित्र हैं- जिनकी परिकल्पना का निहितार्थ भौंचक कर देता है । परी और जोक्कड़ के वेश विन्यास और रुप सज्जा में कलाकार अपनी पूरी कल्पना शक्ति उड़ेल देते हैं । परी इनके लिये सर्वश्रेष्ठ रुप सौंदर्य और मानवीय सम्मोलन की जीती जागती मिसाल है । उसमें आसमान में उड़ने वाली परी की तरह अलौकिकता का भी हल्का सा स्पर्श रहता है । दर्शक रस विभोर होकर परी की तरह अलौकिकता पर, उसकी लचक और नजाकत पर शुरु से आखिर तक फिदा होकर मुजरे लुटाता है । नाचा का जोक्कड़ निरंजन महावर के शब्दों में सर्कस के जोकर, संस्कृत नाटक के विदूषक या अंग्रेजी नाटक के क्लाउन की तरह नही है । नाचा का वह सर्वाधिक मुखर और जीवन्त चरित्र होता है । वह हंसाता है, मनोरंजन करता है, हास्य विनोद की सृष्टि बड़ी सहजता से करता है । पर वह इतना ही नहीं होता । जोक्कड़ छत्तीसगढी नाचा की सम्पूर्ण अस्मिता और अवधारणा के निचोड़ का जीता जागता प्रतीक है । परी और जोक्कड़ ही ऐसे चुम्बकीय चरित्र हैं जो रात-रात भर दर्शकों को बांधे रखने के रहस्य को साथ लिए रहते हैं ।
ब.व. कारन्त कहते थे कि लोक नाट्य का सीधा सादा अर्थ है वह लोगों के साथ रहा है और सदा रहेगा । नाचा के अपने मूल स्वभाव में देहाती जनता के दैनिक जीवन, सुखदुख, आशा आकांक्षा हास्य उल्लास और आँसू तथा निराशा का एकांतिक एवं परिवेश के प्रति सहज जागरुकता और उसकी बेलाग अभिव्यक्ति देखी जा सकती है । बाल विवाह को रोकने, विधवा विवाह को प्रचलित करने, छुआछूत की भावना का उन्मूलन करने , उँचनीच पर आधारित शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने में नाचा ने कभी भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई । असहयोग आंदोलन के दिनों में अछूतोंद्धार पर आधारित प्रहसन जमादारिन और स्वतंत्रता के आसपास के दिनों में विधवा विवाह पर मुंशी-मुंशइन नाम से खेले जाने वाले नाटक नाचा की चर्चित प्रस्तुतियां है । आज भी निरक्षरता और कुष्ठ उन्मूलन जैसे अन्य कई ज्वलन्त विषयों को लेकर अनेक नाचा मंडलियों ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचय बखूबी दिया है और दे रहे हैं ।
नाचा का लोक मंचीय रुप आज जिस मुकाम पर है, वहां से हम पीछे मुड़कर देखते हैं- तो जहां तक हमारी द्यिष्ट जाती है, इसका स्वरुप ऐसा ही नहीं था जैसा कि वह आज है । अपने युग और परिवेश की बदलती तस्वीर की छाया स्वभावत: उस पर पड़ती है । एक युग था जब बिजली की व्यापक सुलभता नहीं थीं । मशाल की रोशनी ही मंच का सहारा थी । माइक की व्यवस्था का भी सवाल ही नहीं था । गिने चुने वाद्यों में केवल चिकारा, मंजीरा और तबला जिसे कमर में बांधकर कलाकार खड़े-खड़े ही बजाया करते थे । खड़े साज के नाम से परिचित इस नाचा की शुरुआत ब्रम्हानंद के भजनों से होती थी । मंडई मेलों में, पर्वो, त्यौहारों में इस खड़े साज की अपनी लोकप्रियता थी ।
फिर धीरे-धीरे मशाल की जगह गैस बत्ती ने ली ली । कुछ अतिरिक्त वाद्यों को शामिल किया गया । ढोलक और हारमोनियम के शामिल हो जाने से नाचा के आकर्षण में वृद्धि हुई । हारमोनियम मास्टर नाचा पार्टी के मनीजर कहलाने लगे । कई प्रसिद्ध नाचा पार्टियां इसी दौर में सामने आई । गुरुदत्त की नाचा पार्टी, मदरा जी दाउ की रिंगनी खेली साज जिसमें ठाकुर राम, भुलवा, लालू, मदन जैसे अनमोल रत्न शामिल थे, धरम लाल कश्यप की नाचा पार्टी आदि । उन दिनों इन नाचा पार्टियों की खूब धूम थी । इसी दौर में फिल्मी चाल चलन, ढंग, और द्विअर्थी संवादों का चलन भी खूब बढा । यह नाचा में परस्पर प्रतिस्पर्धा, उत्तेजना और सनसनी पैदा करने का दौर था ।
इसी बीच लगभग सत्तर के दशक में छत्तीसगढ की सांस्कृतिक धरती पर नाचा के समान्तर कुछ अनूठे लोक मंचीय प्रयोग हुए । दाउ रामचन्द्र देशमुख जी एवं दाउ महासिंह चंद्राकर जी जैसे समर्पित, संपन्न और जुनूनी कला साधकों ने क्रमश: चन्दैनी गोंदा और सोनहा बिहान जैसी युगांतरकारी छत्तीसगढी - मंचीय प्रस्तुतियां दीं, जिनकी उपलब्धियां अब अंचल के सांस्कृतिक इतिहास की धरोहर बन चुकी है । इन प्रस्तुतियों की आतंककारी भव्यता और चकाचौंध के समान्तर श्री हबीब तनवीर का एक अलग ही किस्म का लोक मंचीय प्रयोग चलता रहा । हिन्दुस्तानी थियेटर फिर नया थियेटर के बैनर पर छत्तीसगढी नाचा के कलाकारों, वाद्यों, गीतों एवं बोली को कच्चे माल की तरह अपने ढंग से अपनी प्रस्तुतियों में उन्होंने इस्तेमाल किया और अपनी विलक्षण प्रतिभा तथा सुनियोजित व्यूहरचना के तहत राष्ट्रीयता-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पायी । प्रसिद्ध सोवियत नाटककार आर्बुजोफ ने कहा है- रंग मंच का मूल तर्क है प्रतीकात्मकता और सादगी । उसे चकाचौंध और भव्यता का प्रर्याय बना देना - रंग मंच अंतर्निहित तर्क को ही परास्त कर देना है । मेरी अपनी समझ में आर्बुजोफ की यह अवधारणा ही तनवीर जी की तमाम लोकमंचीय प्रस्तुतियों में अंतनिर्हित व्याकरण का आधार है - जिसे दर्शकों से ज्यादा पराक्रमी नाट्य समीक्षकों ने उनकी प्रस्तुतियों को सराहा और आसमानी उँचाइयाँ दी, जहाँ नाचा नाम का ध्वज भी फहराता हुआ दिखाई दे जाता है । अस्तु --
जो भी हो, कुल मिलाकर आशय यही है कि आज नाचा लोक नाट्य अपने विविध रुपों में पूरी उर्जा शक्ति और प्रभाव को लिए युग के साथ कदम मिलाता प्रवहमान है । छत्तीसगढी लोक संस्कृति की यह पयस्विनी किस सागर में समायेगी - कौन कह सकता है । हम केवल कामना कर सकते हैं कि नाया की यह आत्मीय तरंगिनी तब तक प्रवाहित रहे, जब तक इस अंचल के लोक जीवन में स्पन्दन है ।
रामहृदय तिवारी, आदर्श नगर, दुर्ग
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
लेबल
संजीव तिवारी की कलम घसीटी
समसामयिक लेख
अतिथि कलम
जीवन परिचय
छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में
पुस्तकें-पत्रिकायें
छत्तीसगढ़ी शब्द
Chhattisgarhi Phrase
Chhattisgarhi Word
विनोद साव
कहानी
पंकज अवधिया
सुनील कुमार
आस्था परम्परा विश्वास अंध विश्वास
गीत-गजल-कविता
Bastar
Naxal
समसामयिक
अश्विनी केशरवानी
नाचा
परदेशीराम वर्मा
विवेकराज सिंह
अरूण कुमार निगम
व्यंग
कोदूराम दलित
रामहृदय तिवारी
अंर्तकथा
कुबेर
पंडवानी
Chandaini Gonda
पीसीलाल यादव
भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष
Ramchandra Deshmukh
गजानन माधव मुक्तिबोध
ग्रीन हण्ट
छत्तीसगढ़ी
छत्तीसगढ़ी फिल्म
पीपली लाईव
बस्तर
ब्लाग तकनीक
Android
Chhattisgarhi Gazal
ओंकार दास
नत्था
प्रेम साईमन
ब्लॉगर मिलन
रामेश्वर वैष्णव
रायपुर साहित्य महोत्सव
सरला शर्मा
हबीब तनवीर
Binayak Sen
Dandi Yatra
IPTA
Love Latter
Raypur Sahitya Mahotsav
facebook
venkatesh shukla
अकलतरा
अनुवाद
अशोक तिवारी
आभासी दुनिया
आभासी यात्रा वृत्तांत
कतरन
कनक तिवारी
कैलाश वानखेड़े
खुमान लाल साव
गुरतुर गोठ
गूगल रीडर
गोपाल मिश्र
घनश्याम सिंह गुप्त
चिंतलनार
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग
छत्तीसगढ़ वंशी
छत्तीसगढ़ का इतिहास
छत्तीसगढ़ी उपन्यास
जयप्रकाश
जस गीत
दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति
धरोहर
पं. सुन्दर लाल शर्मा
प्रतिक्रिया
प्रमोद ब्रम्हभट्ट
फाग
बिनायक सेन
ब्लॉग मीट
मानवाधिकार
रंगशिल्पी
रमाकान्त श्रीवास्तव
राजेश सिंह
राममनोहर लोहिया
विजय वर्तमान
विश्वरंजन
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
वेंकटेश शुक्ल
श्रीलाल शुक्ल
संतोष झांझी
सुशील भोले
हिन्दी ब्लाग से कमाई
Adsense
Anup Ranjan Pandey
Banjare
Barle
Bastar Band
Bastar Painting
CP & Berar
Chhattisgarh Food
Chhattisgarh Rajbhasha Aayog
Chhattisgarhi
Chhattisgarhi Film
Daud Khan
Deo Aanand
Dev Baloda
Dr. Narayan Bhaskar Khare
Dr.Sudhir Pathak
Dwarika Prasad Mishra
Fida Bai
Geet
Ghar Dwar
Google app
Govind Ram Nirmalkar
Hindi Input
Jaiprakash
Jhaduram Devangan
Justice Yatindra Singh
Khem Vaishnav
Kondagaon
Lal Kitab
Latika Vaishnav
Mayank verma
Nai Kahani
Narendra Dev Verma
Pandwani
Panthi
Punaram Nishad
R.V. Russell
Rajesh Khanna
Rajyageet
Ravindra Ginnore
Ravishankar Shukla
Sabal Singh Chouhan
Sarguja
Sargujiha Boli
Sirpur
Teejan Bai
Telangana
Tijan Bai
Vedmati
Vidya Bhushan Mishra
chhattisgarhi upanyas
fb
feedburner
kapalik
romancing with life
sanskrit
ssie
अगरिया
अजय तिवारी
अधबीच
अनिल पुसदकर
अनुज शर्मा
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
अमिताभ
अलबेला खत्री
अली सैयद
अशोक वाजपेयी
अशोक सिंघई
असम
आईसीएस
आशा शुक्ला
ई—स्टाम्प
उडि़या साहित्य
उपन्यास
एडसेंस
एड्स
एयरसेल
कंगला मांझी
कचना धुरवा
कपिलनाथ कश्यप
कबीर
कार्टून
किस्मत बाई देवार
कृतिदेव
कैलाश बनवासी
कोयल
गणेश शंकर विद्यार्थी
गम्मत
गांधीवाद
गिरिजेश राव
गिरीश पंकज
गिरौदपुरी
गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’
गोविन्द राम निर्मलकर
घर द्वार
चंदैनी गोंदा
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय
छत्तीसगढ़ पर्यटन
छत्तीसगढ़ राज्य अलंकरण
छत्तीसगढ़ी व्यंजन
जतिन दास
जन संस्कृति मंच
जय गंगान
जयंत साहू
जया जादवानी
जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड
जुन्नाडीह
जे.के.लक्ष्मी सीमेंट
जैत खांब
टेंगनाही माता
टेम्पलेट डिजाइनर
ठेठरी-खुरमी
ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं
डॉ. अतुल कुमार
डॉ. इन्द्रजीत सिंह
डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव
डॉ. गोरेलाल चंदेल
डॉ. निर्मल साहू
डॉ. राजेन्द्र मिश्र
डॉ. विनय कुमार पाठक
डॉ. श्रद्धा चंद्राकर
डॉ. संजय दानी
डॉ. हंसा शुक्ला
डॉ.ऋतु दुबे
डॉ.पी.आर. कोसरिया
डॉ.राजेन्द्र प्रसाद
डॉ.संजय अलंग
तमंचा रायपुरी
दंतेवाडा
दलित चेतना
दाउद खॉंन
दारा सिंह
दिनकर
दीपक शर्मा
देसी दारू
धनश्याम सिंह गुप्त
नथमल झँवर
नया थियेटर
नवीन जिंदल
नाम
निदा फ़ाज़ली
नोकिया 5233
पं. माखनलाल चतुर्वेदी
पत्रकार
परिकल्पना सम्मान
पवन दीवान
पाबला वर्सेस अनूप
पूनम
प्रशांत भूषण
प्रादेशिक सम्मलेन
प्रेम दिवस
बलौदा
बसदेवा
बस्तर बैंड
बहादुर कलारिन
बहुमत सम्मान
बिलासा
ब्लागरों की चिंतन बैठक
भरथरी
भिलाई स्टील प्लांट
भुनेश्वर कश्यप
भूमि अर्जन
भेंट-मुलाकात
मकबूल फिदा हुसैन
मधुबाला
महाभारत
महावीर अग्रवाल
महुदा
माटी तिहार
माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह
मीरा बाई
मेधा पाटकर
मोहम्मद हिदायतउल्ला
योगेंद्र ठाकुर
रघुवीर अग्रवाल 'पथिक'
रवि श्रीवास्तव
रश्मि सुन्दरानी
राजकुमार सोनी
राजमाता फुलवादेवी
राजीव रंजन
राजेश खन्ना
राम पटवा
रामधारी सिंह 'दिनकर’
राय बहादुर डॉ. हीरालाल
रेखादेवी जलक्षत्री
रेमिंगटन
लक्ष्मण प्रसाद दुबे
लाईनेक्स
लाला जगदलपुरी
लेह
लोक साहित्य
वामपंथ
विद्याभूषण मिश्र
विनोद डोंगरे
वीरेन्द्र कुर्रे
वीरेन्द्र कुमार सोनी
वैरियर एल्विन
शबरी
शरद कोकाश
शरद पुर्णिमा
शहरोज़
शिरीष डामरे
शिव मंदिर
शुभदा मिश्र
श्यामलाल चतुर्वेदी
श्रद्धा थवाईत
संजीत त्रिपाठी
संजीव ठाकुर
संतोष जैन
संदीप पांडे
संस्कृत
संस्कृति
संस्कृति विभाग
सतनाम
सतीश कुमार चौहान
सत्येन्द्र
समाजरत्न पतिराम साव सम्मान
सरला दास
साक्षात्कार
सामूहिक ब्लॉग
साहित्तिक हलचल
सुभाष चंद्र बोस
सुमित्रा नंदन पंत
सूचक
सूचना
सृजन गाथा
स्टाम्प शुल्क
स्वच्छ भारत मिशन
हंस
हनुमंत नायडू
हरिठाकुर
हरिभूमि
हास-परिहास
हिन्दी टूल
हिमांशु कुमार
हिमांशु द्विवेदी
हेमंत वैष्णव
है बातों में दम
छत्तीसगढ़ की कला, साहित्य एवं संस्कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख
लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा
विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...
-
दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के ...
-
यह आलेख प्रमोद ब्रम्हभट्ट जी नें इस ब्लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्पणी के रूप मे...
-
8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया ...
sanjeeva bhai,
जवाब देंहटाएंnacha par achchhi posting ke liye dhanyawad.
prof. ashwini kesharwani
बहुत सारा बात महू ला नही पता रीहीस। मजा आ गे।
जवाब देंहटाएंये केशरवानी जी ला यहाँ देख के मन प्रसन्न होगे। उम्मीद हवे वोखर ब्लाग जल्दी ही धूम मचाही।
पुनः एक नई जानकारी भरी इस पोस्ट के लिये आभार. आपके ब्लॉग से छत्तीसगढ़ में हो रही हर गतिविधियों की जानकारी मिलती रहती है, जो कि अन्यथा संभव नहीं.
जवाब देंहटाएंसाधुवाद.
आपने इस रेशमी नगर कि छटा ही बिखेर दी...अच्छा लिखा है
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया!!
जवाब देंहटाएंबहुत सी नई जानकारियां मिली!!
तिवारी जी का लेखन पसंद आया!!
नाचा एक बार ही देखने का मौका मिला है, रात कैसे बीती सुबह की लालिमा कब आ गई पता ही नही चला था!
उत्कृष्ट. ब्लॉग लेखन का सही प्रयोग है इस प्रकार की जानकारी युक्त पोस्ट.
जवाब देंहटाएंनाचा के कुछ दृष्य मिल पायेंगे क्या?
सराहनीय प्रस्तुति अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंBAHUT HI LABHPRAD..LEKH AAPNE BHEJA ..MAI AAPKO KIS PRAKAR DHANYAWAD DU..? DIL SE MAI AABHARI HU..TIWARI JI..
जवाब देंहटाएंBahut achchhi jankari ke liye dhanyad.
जवाब देंहटाएं