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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

कवि गोष्ठियों को ‘’भजन मंडलियॉं’’ मत बनाइये

तुलसीदास : ’’कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहँ हित होई (वही कीर्ति, रचना तथा सम्‍पत्ति अच्‍छी है, जिससे गंगा नदी के समान सबका हित हो)’’
सम सामयिक चेतना की छंद धर्मी, स्व . रामेश्वर गुरू तथा स्व. विश्वंभर दयाल अग्रवाल पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त मासिक पत्रिका ‘’संकल्प रथ’’ के जुलाई 2008 के संपादकीय में आदरणीय राम अधीर जी वर्तमान परिवेश में देश के गली कूचों पर धडा धड आयोजित होते कवि सम्मेलनों के संबंध में देश के ख्यात कवियों व साहित्य कारों के विचार कि आज के कवि सम्मेलन तो ‘’लाफ्टर शो’’ हो गए हैं, पर कहते हैं - ’’मुझे उनकी बातों से सहमत होना पडता है, किन्तु ऐसी खरी-खोटी टिप्पणी करने वाले ये गीतकार दो कौडी के हास्य कवियों के साथ मंचों पर क्यों बैठते हैं ? इसके पीछे उनकी धन-लोलुपता है । जबकि चुटकुलेबाजी में माहिर और विदेशों तक में जाने वाले कवियों नें हिन्दी कविता को द्रौपदी बनाकर रख दिया है । ऐसी दशा में नामवर गीतकारों को ऐसे मंचों का बहिष्कार करना चाहिये । जिन पर बहुत ही घटिया दर्जे के हास्य कवियों का जमवाडा हो । परन्तु , नहीं उन्हें तो पैसा चाहिये । मैं जहां तक समझता हूं हास्य-व्यंग के कवियों को हम नहीं सुधार सकते परन्तु नितांत ही चौथे दर्जे के श्रोताओं को सुधारना जरूरी है जो सबसे आगे बैठते हैं और कविता को मूंगफली खाते-खाते सुनते हैं । सवाल है कि कूसूरवार कौन है- आप या वे घटिया दर्जे के हास्य कवि ?’’
आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल : ‘’कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमश: उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्‍यत्‍व की उच्‍च भूमि पर ले आती है ।’’


श्री राम अधीर जी के सवाल का जवाब देना हमारे लिये लाजमी भले ही न हो पर, उनके इस सवाल पर चिंतन आवश्यक है । आज कविता के स्तर कवि सम्मेलनों में परोसे जाने वाली फूहडता व नाटकीय भव्यता एवं इनकी बारंबारता को देखते हुए ही संपादक नें इसे ‘’भजन मंडली’’ मत बनाओ कहा है, और इन आयोजनों के कर्णधारों पर बरसते हुए वे कहते हैं - ’’मतलब यह कि जिन्हें कुछ लिखने-पढने से मतलब नहीं उनको आप कवि बनाने की ठेकेदारी कर रहे हैं, तो फिर यही उचित रहेगा कि गीत, गजल को मरने दीजिये । किसी की रचना को आपने कमजोर कह दिया तो वह नाराज हो जायेगा, यही डर आपको खाये जा रहा है तो गीत-गजल को बर्बाद करने वालों का आपकी ओर से अभिनन्दन होना चाहिये ।‘’

अजीत कुमार सिन्‍हा : ‘’वह उस तरह का साहित्‍य भी रचने लगता है, जो बहुत बार, शायद निकलता तो उसी के भीतर से है, पर खुद उसके भी अंतर में पहुँच नहीं पाता । औरों की बात उठाना यहॉं इसलिये मौजूं नहीं जान पडता, क्‍योंकि ऐसा कवि ‘उपजहि अनत, अनत छबि लहहीं (रचना उत्‍पन्‍न हो कवि के मन में, पर शोभा पाए अन्‍य लोगों के मन में) को बेमानी समझकर, रचना को एक ऐसा इंद्रजाल मानने लगा है, जो न कहीं उत्‍पन्‍न हो, न कहीं फैले, लेकिन ‘वाह’वाह’ चारो तरफ से सुनाई दे ।‘

आजकल इन भजन मंडलियों में शिरकत करने के लिये लालायित अनेकों कवि भी कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो गए हैं, दो शब्दों की तुकबंदी की या आडे तिरछे भावों को एक साथ मिलाकर काकटेल तैयार किया कागज में उकेरा और हो गए कवि, अब झेलो इन्हें । वर्तमान कविता पर हाल ही में प्रकाशित कृति ‘’इधर की हिन्दीं कविता’’ के लेखक अजीत कुमार सिन्हा जी जो अग्रज पीढी की महिला गीत-कवयित्री स्व.सुमित्रा कुमारी सिन्हा के प्रतिभासंपन्न सुपुत्र हैं, नें अपने लेख ‘गांव के लोगों तक कैसे पहुँची कविता’ पर समीक्षकों के दायित्व पक्ष पर जो विचार व्यक्त, करते हैं उसकी आज अहम आवश्यकता है - ’’बहरहाल, कवि क्या लिखे और कैसे लिखे  – तुलसीदास और शेखर की तरह अथवा केशवदास और पुंडरीक की तरह । इसके बारे में, न मैं कुछ कह सकने की स्थिति में हूँ, न यह अधिकार लेना चाहता हूं । लेकिन सोंचता जरूर हूं कि कविता के समीक्षक पर इसकी जिम्मेदारी है कि आज की कविता की विशेषता का विवेचन ऐसी भाषा में और इस ढंग से करें कि कविता का सौंदर्य अधिक से अधिक लोगों के लिए उजागर हो सके ।‘’

इस विषय पर चर्चा करते हुए हमारे एक ब्लाग पाठक मित्र कहते हैं कि यह बात तो तुम्हारे हिन्दी ब्‍लाग जगत में भी हो सकता है । तब वहां भी ऐसे समीक्षकों के टिपियाने की आवश्य‍कता पडेगी नहीं तो वहां भी कविता के नाम पर आरती संग्रह प्रकाशित होने लगेंगें । हमने कहा अभी हिन्‍दी ब्लाग में ऐसी स्थिति नहीं आई है और जब आयेगी तब तक समीक्षक लोग भी ब्‍लाग जगत में आ जायेंगें । क्‍या सोंचते हैं आप ????.

टिप्पणियाँ

  1. वैसे ये ही देखने को मिल रहा है अब हर जगह वो ही फूहड़पन जो हम चैनलों में देखते हैं। सही लिखा है। ब्लाग में अभी ये स्थति नहीं आई है और चाहेंगे कि ना ही आए।
    http://nitishraj30.blogspot.com
    http://poemofsoul.blogspot.com

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  2. तब वहां भी ऐसे समीक्षकों के टिपियाने की आवश्य‍कता पडेगी नहीं तो वहां भी कविता के नाम पर आरती संग्रह प्रकाशित होने लगेंगें । हमने कहा अभी हिन्‍दी ब्लाग में ऐसी स्थिति नहीं आई है और जब आयेगी तब तक समीक्षक लोग भी ब्‍लाग जगत में आ जायेंगें ।
    "Absolutely right, good description about the subject,and i do agree with you and wish, that it should not happen at least in blog world"
    Regards

    जवाब देंहटाएं
  3. चिंताये स्वाभाविक है ....पर शायद बाजार की मांग के आगे सब हार मान जाते है......ब्लॉग में इसे आने में ज्यादा वक़्त नही लगेगा...

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. आपकी बात से पुरी तरह सहमत हूँ की कवि सम्मेलनों को भजन मंडली नही बनाना चाहिए आपके ब्लॉग पर आकर पता चला की हिन्दी भाषा और साहित्य की समृधि के लिए आप लोग कितने स्तरीय है . धन्यवाद

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