आज के छत्तीसगढ के साहित्य रंग कर्म और पत्रकारिता के बहुत से प्रतिष्ठितों के गुरू होने का सुयोग मुझे मिला है । उन्हें अपने-अपने क्षेत्र की ध्वजा उठाये देखकर प्रसन्नता होती है । ज्यादा खुशी इस बात की है कि ये उन ध्वजावाहकों में नहीं है, जो सुविधा के अनुसार झंडे चढाते-उतारते रहते हैं । सभी अपने जनपद के महत्वपूर्ण कवि, कथाकार रंगकर्मी और पत्रकार है ।
साहित्य में यश अर्जित करने वालों में सुधीर सक्सेना, परदेशीराम वर्मा, लक्ष्मण मस्तूरिहा, चितरंजनकर, रविशंकर व्यास, सालिकराम शलम, गिरीश पंकज, नीलू मेघ, सुखनवर हुसैन, चेतन भारती और वंदना किंगरानी मुख्य हैं, रंगकर्मियों में उल्लेखनीय है- मिर्जा मसूद, सुभाष मिश्र, योगेश नैयर, डी.पी. देशमुख और सुप्रियो सेन. पत्रकारिता के पठ्ठों की सूची तो बहुत लंबी है । यह श्रीमती विराज सहगल, उमेश द्विवेदी, दिनेश आकुला, लवकुश सिंगरौल, जितेन्द्र शर्मा, शताब्दी पाण्डेय, जीवेश चौबे, संजय नैयर, भरत बुद्धदेव और समरेन्द्र शर्मा से होती हुई छंदा बेनर्जी, सतीश सिंह ठाकुर और अनूप साहू तक पहूंचती है. इन नामवरों में नेतावर्ग के कुछ नाम भी शामिल हैं. ऐसे स्वनामधन्यों में गंगाराम शर्मा, संजय श्रीवास्तव, ललित मिश्रा और श्रीकुमार मेमन मुख्य हैं. यह देखकर प्रसन्नता होती है कि ये नेतावर्गीय आत्माएं जमीन से जुडी है और इन्होंने अपना घोंसला आसमान में नहीं बनाया है.
इस संस्मरण में मुझे एक साहित्यिक आत्मा की बात करनी है. यह आत्मा छत्तीसगढ की कथा रेजीमेंट के तीन-चार फील्डमार्शलों में से एक है. नाम है-परदेशीराम वर्मा ये प्रदेश में कथा साहित्य के हवाई जहाजों की कमी नही है. पर ज्यादातर ऐसे हैं जो रनवे पर दौडते तो बहुत हैं पर उडान नहीं भर पाते परदेशी ने भी बहुत दौड लगाई है. थका भी बहुत है पर हारा नहीं. और एक दिन उसने ऐसी उडान पकडी कि मजा लेने वालों का मूड मिर्गिया गया. बंगला के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरदचंद्र चटर्जी ने सही कहा है – लेखक बनना बडी साधना का काम है. दो पैर होने पर चला जा सकता है । पर दो हाथ् होने पर लेखक नहीं बना जा सकता. परदेशी ने भी बहुत मेहनत मशक्कत से अपने लेखक का निर्माण किया है. बचपन से जवान होते तक उसने शोषण और गरीबों के हजार रंग देखे हैं. और शायद सामाजिक न्याय की लडाई की इच्छा ने ही उसे लिखने के लिए उकसाया है.
1975 में परदेशी से पहली मुलाकात हुई. हिंदी में एम.ए. करने का इरादा उसे मेरे पास खींच लाया था. तब तक टेलीफोन आपरेटर की नौकरी कर रहा था. उसमें मुझे आगे बढने की महत्वकांक्षा और अध्ययन के प्रति भरपुर उत्साह दिखाई दिया. जिज्ञासु और रचनात्मक आवेग से भरे छात्र उन दिनों भी बडे मुश्किल से मिलते थे. क्लास के किसी कोने से कोई प्रश्न सामने नहीं आता था. अधिकांश छात्र यों बैठे रहते थे. जैसे छात्र न होकर सीताफल के झाड हों. टीचर और टैक्स बुक का काम बहुत कम हो गया था. टीकाएं प्रधान थीं. और परीक्षाएं उनहीं पर टीकीं थीं. दूसरे विषयों में जगह न मिलने पर छात्र हिन्दी में एम.ए. करने आते थे. और यही छात्र प्रेमचंद के गोदान को गोदाम लिखकर परीक्षा भी पास कर लेते थे. परदेशी में साहित्यिक अभिरूचि थी. प्रश्नामुलता थी. उसकी बातों से लगा कि उसने गरीबी से जमकर जंग की है. उपरी शालीनता के बावजूद उसके अंदर की बेचैनी को साफ पढा जा सकता था. नौकरी के कारण वह कक्षा में कम आ सका. लेकिन घर आकर सतर्कतापूर्वक मार्गदर्शन बराबर लेता रहा. एम.ए. की परीक्षा भी उसने अच्छे अंकों से पास कर ली.
एम.ए. अंतिम में उन दिनों एक परचा मौखिकी का भी होता था. बाहर से आमंत्रित विद्वान मुखाग्र प्रश्न पूछकर छात्र के ज्ञान का परीक्षण करता था. परदेशी का सामना प्रसिद्ध समालोचक आचार्य रमेश कुंतल मेघ से हुआ. मुझे डर था कि अनियमित उपस्थिति के कारण वह ठीक से उत्तर नहीं दे पाएगा. लेकिन उसका प्रदर्शन नियमित छात्र-छात्राओं से भी अच्छा रहा. आचार्य रमेश कुतल मेघ ने बाद में मुझसे कहा भी कि आजकल अधिकांश परीक्षार्थियों के उत्तर पारे की तरह होते हैं. उन पर उंगली रखने पर कुछ नहीं मिलता. इस लडके में कुछ ठोस मिला. उस समय तो नहीं पर बाद में मुझे पता चला कि विध्नों के बहुतेरे विंध्याचल पार कर परदेशी ने उच्चशिक्षा पूरी की है.
दाई शीर्षक संस्मरण से मुझे परदेशी की संघर्षगाथा ज्ञात हुई. यह संस्मरण उसने अपनी जूझारू मां पर लिखा है. पढने से मालूम हुआ कि गरीबी, जहालत और अपमान बचपन से ही संयुक्तमोर्चा बनाकर उसके पीछे पड गए थे. आठ भाई-बहनों को ठीक खुराक और दवा के अभाव में अल्पवय में ही दम तोड देना पडा था. बचपन में वह खुद भी टायफाइड के भयावह हमले से बाल-बाल बचा था. अठारह की कच्ची वय में उसे नौकरी करनी पडी थी. इसलिए कि आत्मनिर्भरता के साथ वह कुछ बनना चाहता था. नौकरी भी सीधी-साधी नहीं ठेठ फौजी । वह असम रायफल में भर्ती हो गया. तैनाती मिली उसे सुदूर मिजोहिन्स पर. गांव घर लिमतरा से 40-45 किलोमीटर दूर रायपुर के अस्पताल में पैदा होने से मां-बाप ने उसका नाम परदेशी रख दिया था. लेकिन अब वह सचमुच परदेशी हो गया था. मिजो पहाडी पर खून जमा देने वाली सर्द रातों में संतरी की ड्यूटी निभाता हुआ. वे बहुत कठिन और हिम्मतपस्ती के दिन थे. तन और मन दोनों को ठंडा करने वाले. लेकिन परदेशी ठंडा नहीं हुआ. इसलिए कि वह एक फौलादी मनोबल वाली मां का बेटा था. परदेशी को भगवान ने सुख के नाम पर कुछ दिया था तो केवल एक असाधारण मां. परिस्थितियों ने उसे घोर निर्जन में डाल दिया था. लेकिन दाई के संघर्ष तिलकित भाल को याद कर वह मौत बरसाते मौसम में भी चेतना सहित ड्यूटी पर जमा रहा. परदेशी की मां साधारण किसानिन थी. पर मुसीबतों से भी मुहब्बत से पेश आती थी. बडी से बडी चुनौती को वह चूहे से अधिक महत्व नहीं देती थी. हर कठिन घडी में मां की संघर्षशीलता परदेशी के लिए प्रकाश स्तंभ बनी रही.
ढाई साल में फौजी नौकरी से प्राण छुडाकर घर लौट आया. वह पढना और आगे बढना चाहता था. पहले उसने टेलीफोन विभाग में चपरासीगिरी की फिर वहीं टेलीफोन आपरेटर बना. पढते हुए डी.एम.सी. कुम्हारी में भी उसने काम किया. स्वाबलंबन से उच्च शिक्षा प्राप्त कर अंतत: उसने भिलाई इस्पात संयंत्र के सामुदायिक विकास विभाग में सम्मानजनक पद प्राप्त कर ही दम लिया. संघर्षो के बीच वह साहित्य की साधना भी करता रहा.
दरअसल उसकी दाई ने उसे केवल प्रतिकूलताओं से लडना हीं नहीं सिखाया था, अनजाने में उसके बाल मन में साहित्य के बीच भी बो दिये थे. बचपन में दाई से सुनी कहानियां ही वह बीच थे, जिन्होंने बाद में उसे कथाकार बनाया, परदेशी को जो झेलता उसे ही कथा के सांचे में ढाल देता. इसलिए परेदेशी के लेखन में कल्पनाशीलता के लिए जगह बहुत कम हैं. वहां जो कुछ भी है ठेठ और ठोस यथार्थ है शिल्प की बाजीगरी में उसकी उस्तादी नहीं है. उसने इसे स्वीकार भी किया है- मैंने लिखा ही क्या है . जीवन को जिस तरह जीना पडा, उसकी कुछ छबियां कागज पर उतारीं तो कुछ लोगों को उसमें नयापन नजर आया. इसलिए लिखने का सिलसिला चल पडा. (अपने लोग भाग दो) लेकिन खुदरेपन का भी अपना सौन्दर्य होता है. परदेशी का मेकअप रहित यथार्थ भी पठनीयता में कमतर नहीं है.
तरह-तरह की अनुभवों के बाद लिखना-पढना परदेशी को शायद जीवन का सबसे पवित्र क्षेत्र प्रतीत हुआ. जीवन में स्थायित्व आते ही वह फास्ट-फारवर्ड फिल्म की तरह लिखने लगा. नमक और शक्कर की तरह लिखना उसके रोजमर्रे की चीज बन गया. मुझे लगता है, सुबह नित्यकर्म से निवृत होते ही उसे लेखन की प्रसव-पीडा होने लगती होगी. रचना का भ्रुण तैयार होते होते दफतर का वक्त हो जाता होगा. उसे खोजकर पेन का ढक्कन बंद करना पडता होगा. दफतर में भी अधुरी रचना उसका पीछा करती होगी, संभवत: इसीलिए उसने सेवाकाल पूरा होने के पांच साल पहले ही स्वैच्छिक निवृति ले ली और पूरी तरह लेखन को समर्पित हो गया.
कथ्य और शिल्प दोनों के जादूगर कमलेश्वर परदेशी के आदर्श रहे है. वे जिस पत्रिका में संपादक रहे, उसमें उसे सम्मान से प्रकाशित किया. परदेशी और कमलेश्वर संघर्ष में कुछ समानताएं भी थीं. इलाहाबाद में बी.एस.सी. करते हुए उन्होंने ब्रुक-बांड चाय कंपनी में चौकीदारी की थी. जीविका के लिये नाली पर बैठ कर साईन बोर्ड पेंट किये थे । कठोर संघर्षो का सामना करते हुए साहित्य में उँची जगह बनाई थी. भोपाल में तीन कार्यक्रमों में मेरी उनसे मुलाकातें हुई. तीनों बार उन्होंने अंतरगंता से परदेशी का हालचाल पूछा.
परदेशी मुलत: कथाविद्या का नागरिक है. लेकिन इसी विधा को उसने स्थायी उपनिवेश नहीं बनाया. उसने उपन्यास, जीवनी, नाटक, संस्मरण और नवसाक्षरों के लिए भी पर्याप्त मात्रा में लिखा. लगन उसकी सबसे बडी पूंजी है । उसकी लगनशीलता मुझे ओडिसी नृत्यांगना किरण सहगल (सुपुत्री रंगकर्मी जोहरा सहगल) की याद दिलाती है. किरण के पास संघर्ष् के दिनों में एक शीशा तक नहीं था. वह घर की दीवार पर पडने वाली परछाई से नृत्य की मुद्रा ठीक करती थी. परदेशी ने भी लगन और अनुभव का बडा रचनात्मक इस्तेमाल किया. पीडित और प्रताडित आम आदमी की व्यथा को उसने कथाओं के केन्द्र में रखा. चूंकि उसके मूलत: ग्रामीण जीवन से जुडे हैं इसलिए उनकी कहानियों में ग्रामीण-गंध भरपूर मात्रा में उपस्थित है. उसकी कहानियां हमारी विकलांग संवेदना वाले समाज से बहुत से प्रश्न करने वाली कहानियां है. आसपास की घटनाऍं, व्यक्ति और स्थितियों से वे खूब प्रभावित हैं. उसके छत्तीसगढी उपन्यास आवा में तो उसका गांव लिमतरा लीम तुलसी के नाम पर पूरी तरह साकार हो उठा है. अपने कथा-लेखन के लिए परदेशी ने झंझावतों का सामना भी किया है. उसकी नौकरी पर भी आ बनी है और जान से हाथ धोने का खतरा भी उपस्थित हुआ है. सच्चा लेखन अपना मूल्य मांगता है, और वह परदेशी ने चुकाया है.
जीवनी और संस्मरण परदेशी की प्रिय विधाएं है. कहानियॉं लिखते –लिखते वह इनकी ओर ज्यादा ही मुड गया है. उसके संस्मरणें के दस खंड प्रकाशित हो चुके हैं. संस्मरण और जीवनी के मामले में वह जल के भार से झुके मेघों की प्रशासक आदि सभी शामिल हैं. सब पर उसकी आत्मीयता धारासार बरसी है. साहित्य, समाजसेवा, कलाकारों और चंद लोकमान्य जनसेवकों से संबंधित संस्मरणें का निश्चित ही साहित्यिक मूल्य हैं. इससे इतर किसी आला अफसर और उसके परिवार के एक-एक सदस्य का बखान संस्करणकार की वैयक्तिक संपत्ति है. ऐसे कुछ संस्मरणें को पढते हुए क्षोभ ज्यादा होता है, खुशी कम संस्मरणें में वह अपने आत्मियों की कमजोरियों पर भी हाथ रखता है. लेकिन साफ नियत और सदस्यता के साथ. दाई पर लिखा उसका संस्मरण बहुत मार्मिक है और संस्मरण साहित्य की अमूल्य रचना है.
परदेशी ने डॉ. खूबचंद बघेल, झाडूराम देवांगन, देवदास बंजारे और दलार सिंह साव (दाउ मंदिराजी) आदि की जीवनियां भी लिखी हैं. जीवनियों में नायकों का व्यक्तित्व और कृतित्व प्रामाणिकता के साथ सामने आया है. ये तमाम नायक संघर्षो क आंच में भीषण रूप से तपकर कुंदन बने है. जीवनियों में अंतरराष्ट्ीयता ख्याति प्राप्त पंथी नर्तक देवदास बंजारे की जीवनी आरूग फूल को सभी दिशाओं से काफी सराहना मिली है.
परदेशी द्वारा संपादित अगासदिया पत्रिका के विशेषांक भी चर्चित रहे हैं. पिछले एक वर्ष में ही मिनीमाता डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा, कंगला माझी और जे.एम. नेल्सन पर केन्द्रित विशेषांक सामने आ गए. अगासदिया के माध्यम से परदेशी ने अनेक लोकविस्मृत कलाकारों को भी खोज निकाला और उन पर आलेख लिखे. जैसे कंडरका ग्राम के रामायणी शेरअली, लोककलाकार दल्लूराम बंछोर और घनाराम ढिण्ढे वगैरह. यह सारा काम उसने उस स्थिति में किया, जब वह भीषण सडक दुर्घटना का शिकार होकर बिस्तर पर स्वास्थ्य लाथ कर रहा था. आजादी की लडाई में अनेक नेताओं ने जेलयात्रा का जैसा सृजनशील उपयोग किया, वैसे ही परदेशी ने दुर्घटना में विश्राम की स्थिति का. उसने कराहते हुए बिस्तर पर करवटें नहीं बदलीं, दर्द को दबाकर सृजन में डूब गया. भिलाई के परदेशीराम वर्मा और रवि श्रीवास्तव दो ऐसे साहित्यकार हैं, जो मर्मान्तक दुर्घटनाओं से गुजरे पर जिन्होंने व्यक्तिगत व्यथा को अपने विचार के उपर हावी नहीं होने दिया. उसे सार्थक स;जन में ढाल लिया.
परदेशी का व्यक्तित्व कलम प्रधान भी है और कार्यक्रम प्रधान भी. लनवारी लेखक संघ, दुर्ग और अगासदिया के अध्यक्ष के रूप में उसने इतने कार्यक्रम आयोजित किए हैं कि गिनना मुश्किल है. अगासदिया लोककला और लोककलाकारों की स्मृति और सम्मान के संदर्भ में प्रदेश की अग्रणी संस्था है. अच्छे मंच संचालक की विशेषताएं भी उसमें हैं.
हमारी साहित्यिक संस्थाओं की प्रकृति भी राजनीतिक दलों जैसी है. बनते और टुटते उन्हें देर नहीं लगती. गुटबाजी और उठा पटकबाजी में भी वे राजनीतिक दलों से पीछे नहीं है. ये जोडने से ज्यादा तोडने का कार्य करती है. अगासदिया एक उपवाद है. इस मंच ने अनेक लोक-प्रसिद्ध और लोकविश्रुत जनसेवकों और जनकलाकारों को सम्मानित किया है. दिवंगतों की स्मृति का दिया जलाए रखने में भी यह सबसे आगे है.
परदेशी ने हिन्दी और छत्तीसगढी दोनों में प्रचुर मात्रा में लिखा है. उसके पायजामे का एक पायचा हिन्दी में तो दूसरा छत्तीसगढी में होता है. छत्तीसगढी भाषा के अर्थ और सामर्थ्य को उसने पूरी शक्ति से उजागर किया है. छत्तीसगढी के मुहावरों और कहावतों की संपन्नता का ज्ञान परदेशी की चार-पांच कहानियॉं या संस्मरण पढते ही हो जाता है. उसकी मिठास की महक भी उसकी रचनाओं में भरपूर है. छत्तीसगढी के अनेक दुर्लभ शब्दों से भी उसकी कृतियां भरी पडी है.
परदेशी में आत्मीयता का भाव बहुत है. उसी के समानांतर तुनुकमिजाजी भी. कब किस बात से वह नाराज हो जाएगा, कहना मुश्किल है. तारीफ करने और सुनने, दोनों मामलों में वह काफी उदार है. रचना पसंद आई तो किसी खास रचना की ओर ध्यान आकर्षित कर प्रशंसा वसूलने में भी उस्ताद है. प्रसन्न होकर वह जितनी आसानी से हथेली पर रखकर आत्मीयता पेश कर सकता है, नाराज होकर उतनी ही सहजता से वापस भी ले सकता है.
खूब लिखकर और छपकर परदेशी ने मित्रों की ईर्ष्या भी खूब कमाई है. बंगला के प्रसिद्ध उपन्यासकार विमल मित्र ने कहीं लिखा है कि प्रशंसा और पुरस्कार खरीदे जा सकते है परंतु ईर्ष्या को अर्जित करना पडता है. मेरे जीवन की सबसे बडी उपलब्धि यह है कि मैंने अपने समकालीन लेखकों को अपना शत्रु बनाया. परदेशी से भी ईर्ष्या रखने वाले मित्रों की कमी नहीं है. मानद् डी.लिट् मिलने पर तो ईर्ष्यालु मित्रों की संख्या और बढ गई है. परदेशी किसके मन में क्या है. खूब समझता है. मन ही मन वह मित्रों की ईर्ष्या का आनंद भी लेता है.
परदेशी की रचनाओं में यहॉं के पिछडे वर्ग की सामाजिक न्याय की लडाई का स्वर बहुत मुखर है. अनेक लोगों को उसके छत्तीसगढ प्रेम में उग्रता दिखाई देती है. यह सही नही है. परदेशी की मंशा में केवल सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता का भाव नीहित है. उसमें तालिबानीपत का दर्शन करना सोच का अतिरेक ही कहा जा सकता है. एक भावूक साहित्यकार के नाते वह क्षेत्र की पृथक पहचान चाहता है. क्षेत्रीयता, जातीयता और संाप्रदायिकता के दुष्परिणमों से वह अच्छी तरह वाकिफ है. व्यक्तिगत स्वार्थ और समझौतापरस्ती के कारण् नेता, नौकरशाह और व्यापारी की नागरिक चेतना संदिग्ध हो सकती है पर साहित्यकार की नहीं. वह मूलत: जनता का प्रवक्ता होता है और मानवीय मूल्यों का संरक्षक मूल्यों की रक्षा के संघर्ष में कोई शक्ति उसे विचलित नहीं कर सकती.
43/69 प्रोफेसर कालोनी,
वाकई एक बहुत बढ़िया परिचयात्मक लेख!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया!
उनकी आवा मैने हिन्दी वाले छात्र से माँग कर पढनी शुरू की थी ,परन्तु आधी ही पढ पाया ,तभी से उनके बारे मे जानने कि ईच्छा थी ,आज पुर्ण हो गयी !! अब विनोद जी के बारे मे यही विचर है उनका "दियना के अँजोर पढना पढेगा !!
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