परम्‍परा और नवीनता का संगम : नाचा 1

छत्‍तीसगढ के नाचा के संबंध में अपने शोध ग्रंथ ‘छत्‍तीसगढी लोकनाट्य : नाचा’ को प्रस्‍तुत करते हुए डॉ.महावीर अग्रवाल नें नाचा के हर पहलू को छुआ है । प्रथम पेज से लेकर अंतिम पेज तक यह ग्रंथ छत्‍तीसगढ के नाचा का विस्‍तृत व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत करता है । इसी शोध-ग्रंथ के कुछ अंशों को हम यहां डॉ.महावीर अग्रवाल जी से साभार सहित प्रस्‍तुत कर रहे हैं जिसमें छत्‍तीसगढ में पारंपरिक नाचा पर आधुनिक प्रयोग हुए हैं जो छत्‍तीसगढ की कालजयी प्रस्‍तुतियां हैं, जिसका नाम आज भी छत्‍तीसगढ के जन-मन में रचा-बसा है ।

‘..... आज परिस्थितियां बदल गई हैं । आधुनिक छत्‍तीसगढी लोकनाट्य का अभिप्राय विसंगतियों या कुरीतियों को उजागर करना तो है ही परन्‍तु इसके साथ ही साथ उनका समाधान प्रस्‍तुत करने का प्रयास भी किया जाता है । समस्‍याऍं अब बहुत व्‍यापक हो गईं । गरीबी अत्‍याचार या धार्मिक आडम्‍बरों से आगे बढकर कलाकार और निर्देशक अब अशिक्षा नारी उत्‍थान वृक्षारोपण, सामाजिक समरसता तथा कृषि एवं औद्योगिक प्रगति से जुडने की आवश्‍यकता महसुस करने लगा है । वह समाज को संगठन और सहकारिता का महत्‍व समझाना चाहता है । लोक कथाओं को आधार बनाकर समकालीन राजनैतिक और सामाजिक विदुपताओं को सबके सामने रखना चाहता है । इस प्रकार छत्‍तीसगढ का नाट्य कर्मी उस व्‍यापक कैनवास को ध्‍यान में रखने लगा है जिस पर समाज के सारे चित्र अपनी शंकाओं और समाधानों के साथ्‍ उभर सामने आते हैं । विजयदेव नारायण साही ने इस संबंध में सही लिख है ‘आप चाहे परम्‍परा में डूबकर लिखें या नये ढंग से लिखें या दोनों तरह के नाटक लिखें, लेकिन चुनाव इस बात का करना है कि हम उसे तोडकर आगे निकल सकें ।‘

चंदैनी गोंदा : छत्‍तीसगढ के आधुनिक लोक नाट्य में चंदैनी गोंदा का नाम सबसे पहले आता है । इसे प्रस्‍तोता तथा अभिनेता रामचन्‍द्र देशमुख ने प्रस्‍तुत किया । छत्‍तीसगढ के जनप्रिय लोकगीतों को केंद्र में रख कथा लेखक ने अनेक सामयिक प्रश्‍न उठाये और किसी सीमा तक उनका हल प्रस्‍तुत करने का भी प्रयास किया । छत्‍तीसगढ जैसे पिछडे क्षेत्र में शोषण, गरीबी और अंधविश्‍वास की बातें तो रूढियों से चली जा रही है, परन्‍तु आजादी का सुप्रभात देश के लिये आशा की किरण को लेकर हमारे सम्‍मुख आया है । उसका हश्र क्‍या हुआ । दिल्‍ली या भोपाल में बैठे लोगों ने पंचवर्षीय योजनायें बनाई । कागजों में हरितक्रांति लाई । शोषण मुक्‍त समाज की घोषणा की गई लेकिन आम आदमी को इसका क्‍या लाभ मिला । श्री देशमुख ने अपने सहयोगी कलाकारों के प्रभावशाली अभिनय के द्वारा चंदैनी गोंदा का प्रस्‍‍तुतिकरण वास्‍तविकता के धरातल पर सफलतापूर्वक संपादित किया है । इस प्रकार शासन की मंशा के बावजूद ग्रामीण जीवन में आजादी के 25 वर्षो बाद भी कोई बहुत सकारात्‍मक परिवर्तन नहीं दिखाई देता । शोषण, गरीबी, अत्‍याचार लगभग उसी रूप में बरकरार है । लेकिन जागृति की किरणें अवश्‍य दिखाई देती है । दुखित और मरही जैसे लोग हाथ पर हाथ रखकर बैठने के बदले कुछ मुखर हो चले हैं । उन्‍हें मालूम हो गया है कि भारतीय गणतंत्र में उनकी भी एक निर्णायक भूमिका है इसलिये दुखों को अपनी नियति समझकर चुप रह जाना कायरता है । इतना ही नहीं सरकारी नीतियों और घोषणाओं का विरोध करते हैं । काल्‍पनिक पंचवर्षीय योजनाओं की जगह धरती से जुडे हुए क्षे‍त्रीय प्रसाधनों का उपयोग कर हरित क्रांति को सफल बनाने के लिये सही दिशा निर्देश देते हैं ।कहना न होगा, लघु सिंचाई योजनाओं का विस्‍तार सर्वथा उचित एवं क्षेत्रीय आवश्‍यकताओं के अनुरूप है । इसके साथ ही साथ इस पिछडे अंचल में भूतपूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादूर शास्‍त्री के जय जवान जय किसान के नारे के अनुरूप दुखित का हर लडका वीर सैनिक के रूप में सरहद पर अपनी कुर्बानी देता है । दूसरा एक कर्मठ किसान के रूप में स्‍वावलम्‍बन के सपनों को साकार कर रहा है इसके बावजूद लोकगीतों पर आधारित चंदैनी गोंदा का मूल ढांचा परम्‍परागत है । इस तरह चंदैनी गोंदा में प्रारंभ से अंत तक परम्‍परा और नवीनता का संगम दिखाई पडता है ।

सोनहा बिहान : इस क्रम में दूसरी महत्‍वपूर्ण प्रस्‍तुति महासिंह चंद्राकर की सोनहा बिहान है । इसमें छत्‍तीसगढ की पारम्‍परिक पृष्‍ठभूमि से जुडे कृषक परिवार का सामान्‍य चित्रण है । आधुनिक मंच व्‍यवस्‍था के विशाल पर्दे पर सोनहा बिहान कंधे पर हल रखे कृषक तथा सर पर टोकरी रखे छत्‍तीसगढी युवती के छायाचित्र से प्रारंभ होता है । प्रोजेक्‍टर का उपयोग लोक नाट्य में पहली बार ही किया गया है । यह अभिनय प्रयोग प्रभावशाली लगता है । यद्यपि इसमें भी एक कृषक परिवार के दैनिक जीवन की झांकी प्रस्‍तुत की गई, परन्‍तु अभाव, शोषण और अन्‍य कठिनाईयों से गुजरते हुए नायक की न केवल एक स्‍वर्णिम कल्‍पना है वरन् उसका अंत भी सोनहा बिहान नाम के अनुकूल है । मनोहारी लोकगीतों और ग्रामीण जीवन में रचे हुये त्‍यौंहारों के साथ ही साथ सामाजिक जीवन के सभी मुखर पक्षों से प्रस्‍तुत करने का अच्‍छा प्रयास है । इस प्रकार पुरानी लोकशैली एवं सांस्‍कृतिक पृष्‍ठभूमि होते हुए भी यह छत्‍तीसगढ के प्रसिद्ध साहित्‍यकार स्‍व. नरेन्‍द्र देव वर्मा के उपन्‍यास 'सुबह की तलाश' के कथानक पर आधारित है । इस रूप में भी छत्‍तीसगढी लोक नाटय परम्‍परा में किसी लेखक की एक कृति को पहली बार आधार बनाया गया है ।

क्रमश: .... आगामी अंक में रामहृदय तिवारी के निर्देशन में प्रस्‍तुत कारी एवं हरेली

परम्‍परा और नवीनता का संगम : नाचा 2
परम्‍परा और नवीनता का संगम : नाचा 3

7 टिप्‍पणियां:

  1. परिचय मिल रहा है छत्तीसगढ़ से और वह भी भरपूर। नाचा का पहले पता नहीं था।
    बहुत अच्छा प्रस्तुत कर रहे हैं आप।

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  2. क्या बात है!!
    बहुत बढ़िया!!

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  3. संजीव जी छतीसगढ की विविधतापूर्ण लोक कला की जानकारी के लिये आभार........

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  4. रोचक जानकारी से सराबोर पोस्ट।

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  5. संजीवजी
    सचमुच छत्तीसगढ़ी लोकपरंपराएं-नृत्य के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी है। बहुत उत्साह बढ़ाने वाली ये परंपराएं हैं। ज्यादा से ज्यादा लोगों को ब्लॉग पर इस तरह की क्षेत्रीय परंपराओं के बारे में बताना चाहिए।

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  6. बहुत ही अच्छी रोचक जानकारी .लोक परम्पराओं के बारे में बहुत ही रोचक ढंग से बतया है आपने अच्छा लगा पढ़ के !!

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  7. संजीव जी सचमुच आपने बहूत ही रोचक ढंग से नाचा का वर्णन किया है.इसको पढ़कर बहूत ही अच्च्छा लगा!

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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