मेरे पास उपलव्ध 1967 की एक कविता संग्रह से मैं दिनकर जी की यह कविता उपलव्ध करा रहा हूं, इसके पन्ने फटे हुए थे इसलिए कविता जो अंश अस्पष्ट थे उसे मैं यहां प्रस्तुत नहीं कर पाया । यह कविता तत्कालीन परिस्थिति में लिखा गया था, दिल्ली वालों से क्षमा सहित प्रस्तुत है :-
भारत का यह रेशमी नगर – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
XXX XXX XXX
दिल्ली फूलों में बसी, ओस कणों से भींगी,
दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है ।
प्रेमिका कंठ में पडी मालती की माला,
दिल्ली सपनो की सेज मधुर रस-भीनी है ।
भारत का यह रेशमी नगर – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
XXX XXX XXX
दिल्ली फूलों में बसी, ओस कणों से भींगी,
दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है ।
प्रेमिका कंठ में पडी मालती की माला,
दिल्ली सपनो की सेज मधुर रस-भीनी है ।
XXX XXX XXX
रेशम के कोमल तार, क्रांतियों के धागे,
हैं बंधे उन्हीं से अंग यहां आजादी के ।
दिल्ली वाले गा रहे बैठ निश्चेत मगन,
रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के ।
XXX XXX XXX
रेशम के कोमल तार, क्रांतियों के धागे,
हैं बंधे उन्हीं से अंग यहां आजादी के ।
दिल्ली वाले गा रहे बैठ निश्चेत मगन,
रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के ।
XXX XXX XXX
भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला,
भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में ।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल पहल
पर, भटक रहा है सारा देश अंधेरे में ।
रेशमी कलम से भाग्य – लेख लिखने वालों,
तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो ?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में,
तुम भी क्या घर भर पेट बांध कर सोये हो ?
असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में,
क्या अनायास जल में बह जाते देखा है ?
क्या खायेंगें यह सोंच निराशा से पागल,
बेचारों को चीख रह जाते देखा है ?
देखा है ग्रामों की अनेक रेभाओं को,
जिनकी आभा पर धूल अभी तक छायी है ?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक,
रेशम क्या साडी सही नहीं चढ पायी है ।
क्या अनायास जल में बह जाते देखा है ?
क्या खायेंगें यह सोंच निराशा से पागल,
बेचारों को चीख रह जाते देखा है ?
देखा है ग्रामों की अनेक रेभाओं को,
जिनकी आभा पर धूल अभी तक छायी है ?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक,
रेशम क्या साडी सही नहीं चढ पायी है ।
पर, तुम नगरों के लाल, अमीरी के पुतले,
क्यों व्यथा भगय-हीन की मन में लाओगे ?
जलता हो सारा देश, किन्तु होकर अधीर,
तुम दौड दौड कर क्यों आग बुझाओगे ।
चिंता हो भी क्यों तुम्हें गांव के जलने से ?
दिल्ली में तो रोटिंयां नहीं कम होती है ।
धुलता न अश्रु-बूंदों से आंखें का काजल,
गालों पर की धूलियां नहीं नम होती है ।
जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें,
आराम नई दिल्ली अपना कब छोडेगी ?
XXX XXX XXX
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर,
दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में ।
है विकल देश सारा अभाव के तापों से,
दिल्ली सुख से सोई है नरम रजाई में ।
XXX XXX XXX
चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर,
दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में ।
है विकल देश सारा अभाव के तापों से,
दिल्ली सुख से सोई है नरम रजाई में ।
XXX XXX XXX
अदम गोंडवी का एक शेर याद आ गया कि ...
जवाब देंहटाएंहर लुटेरा जिस तरफ को भागता है।
वो सड़क दिल्ली शहर को जा रही है।।
दिनकर जी की कविता उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद।
बहुत बढ़िया !!
जवाब देंहटाएंआभार जो आपने इसे उपलब्ध करवाया
dinkar kee sundartam kavitaon me ek! yah aise shuru hotee hai-
जवाब देंहटाएंho gaya ek neta main bhee to bandhu suno
main bharat ke reshamee nagar men rahtaa hoon
jantaa jo chattanon kaa bojh sahaa kartee
mai chandaniyon kaa bojh kisi bidh sahtaa hoon
dinkar-premiyon se agrah hai ki poori kavitaa khoj nikaalen!yah kavita rashtr-kavi ne sansad-sadsya banaaye jaane ke awasar par likhee thee.
क्या लाजवाब और धारदार काव्यशिल्प है. कवि कितना चैतन्य रहता है और ज़माने को बाख़बर करता है इसकी बानगी है दिनकरजी की ये कविता.साधुवाद अनन्त.
जवाब देंहटाएंबचपन से जो मेरे प्रिय कवि रहे हैं उनमें से एक दिनकर जी का की कविता पढ़ाने का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिनकर जी की यह कविता प्रस्तुत करने के लिये.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया इसे यहाँ पेश करने के लिए !
जवाब देंहटाएंपूरी कविता यहां देखें
जवाब देंहटाएंमैत्री अतुल
धन्यवाद ,भाई जी ,
जवाब देंहटाएंपोस्ट के बहाने दिनकर जी की इतनी अच्छी पंक्तियाँ पढ़ने को मिलीं । आपको साधुवाद ।
आशुतोष मिश्र
bahut achchha laga
जवाब देंहटाएं