एक लडाई नंगे पांव : जिंदगीनामा

हरियाणा एवं छत्‍तीसगढ से एक साथ प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र हरिभूमि में प्रत्‍येक दिन समाचारों के साथ कुछ न कुछ फीचर पेज होता ही है, श्री द्विवेदी जी के हाथों में इस पत्र का कमान है । इसमें प्रत्‍येक दिन उत्‍कृष्‍ठ पठनीय सामाग्री का संकलन होता है प्रत्‍येक दिन अलग अलग विषयों में नियत एक पूरे पेज में सोमवार को क्षितिज में हमारे छत्‍तीसगढ के वरिष्‍ठ चिट्ठाकार जयप्रकाश मानस जी का एक कालम वेब भूमि भी आता है जिसमें इंटरनेट व अन्‍य तकनीकि जानकारी होती है, इसके गुरूवार को प्रकाशित चौपाल में हमारे एक और ब्‍लागर प्रो. अश्विनी केशरवानी का पूरे एक पेज का आलेख भी आया था । मैं समय समय पर इन पेजों को पढते रहता हूं इसी के बुधवार को जिंदगीनामा में ये मेरी लाईफ है कालम के अंतरगत सतीश सिंह ठाकुर के द्वारा लिखा एक जीवन वृत्‍त देखा, पढा और लगा कि इसे आप लोगों के लिए भी प्रस्‍तुत किया जाय । वैसे आपकी जानकारी के लिए मैं यह बता दूं कि नंगे पांव के इस सत्‍याग्रही से मैं चार वर्ष पूर्व रायपुर में बाल श्रमिकों पर आयोजित गैर सरकारी संगठनों के राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन में मिला था उसके बाद बाल श्रमिक समस्‍या संबंधी विष्‍यों पर इनसे लगातार पत्र एवं अन्‍य माघ्‍यमों से संपर्क होते रहा है, आज इन्‍हें हरिभूमि भे देखकर खुशी हुई । पढे एक लडाई नंगे पांव :-

नंगे पांवों को हम देश के आम आदमी की पहचान माने या फिर उसकी दुरावस्‍था का प्रतीक । याद करें, वर्षों पहले भारत के राष्‍ट्रीय फुटबाल टीम को केवल इसलिए खेलने का मौका नहीं मिला था, क्‍योंकि उसके खिलाडियों नें जूते नहीं पहने थे । एक और घटना याद आती है, पेइचिंग एशियाड में राजपूताना रायफल्‍स के सैनिक दीनाराम नें बाधा दौड में नंगे पांव दौडकर रजत पदक जीता था, क्‍योंकि तब दीनाराम के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे उस दौड में प्रयुक्‍त होने वाले खास तरह के जूते खरीद पाते । इल दोनों घटनाओं की रोशनी में एक बात जो साफ दिखती है, वह है ऐश्‍वर्यशाली सत्‍ता का दोगलापन । उसे जनता के नंगे पांव रहने पर शर्म भी नहीं आती । व्‍यवस्‍था के इसी छली चरित्र को आईना दिखाने बीते सात सालों से एक शख्‍श नंगे पांव घूम रहा है । नंगे पांव सत्‍याग्रही के रूप में राजेश सिंह सिसोदिया इस भेदभव वाले परिवेश में बिलकुल नए ढंग से अपनी लडाई लड रहे हैं ।

सरगुजा के पहाडी इलाके ढौलपुर के बबोली गांव में राजेश सिंह सिसोदिया का जन्‍म हुआ । बचपन में ही मां बाप से अलग होकर ननिहाल में रहने वाले राजेश ने अपने शुरूआती दौर में ही अनुभव कर लिया था कि दोयम दर्जे के नागरिकों को किस तरह के सुख नसीब होते हैं । भेदभाव वाले व्‍यवहार से उनका पहला सबक घर में ही पड गया तो उनके अंदर प्रतिरोध की ताकत भी धीरे धीरे संचित होने लगी । पांचवी कक्षा के बाद वे सैनिक स्‍कूल रीवा में पडने गये । तो वहां के माहौल ने उनके प्रतिरोध के जस्‍बे को और भी फोर्स आकार दिया । दसवीं के बाद मेडिकल आधार पर सैनिक शिक्षा के लिये आयोग्‍य माना गया, दरअसल उनके एक हथेली में छह उंगलियां थी । रीवा का सैनिक स्‍कूल छूटा तो आगे की पढायी उन्‍होंने भोपाल से की । ऐसे वक्‍त में जब आम युवक कैरियर संवारने की चिंता करते हैं उनहोंने अपने लिये अलग तरह की भूमिका तय कर ली थी । बंधुवा मुक्ति मोर्चा के स्‍वामी अग्निवेश भोपाल से चुनाव लड रहे थे तब वे मोर्चा से जुडे उसके करीब एक डेढ साल बीतते बीतते बचपन बचाव आंदोलन से उनके शब्‍दों में कहें तो वे सम्‍पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में जुड गये यह सिलसिला 1999 तक चलता रहा ।

एक बडे संगठन से जुडकर और ठीकठाक वेतन पाकर भी राजेश सिंह एक द्वंद्व में जीते रहे । वे बताते हैं एक बार रेल यात्रा के दौरान उन्‍होंने एक नंगे बच्‍चे को यात्रियों से भीख मांगते देखा वह बच्‍चा मांगी हुई चीजों को लाकर अपनी उस मां को दे रहा था, जिस पर एक और दुधमुहे बच्‍चे को पालने की जिम्‍मेदारी थी । इस त्रासदपूर्ण द्रश्‍य ने उनके मस्तिष्‍क को कई तरह से मथना शुरू किया आखिर में वे इस नतीजे तक पहूंचे कि किसी बडे संगठन में काम करने के बजाय अब उन्‍हें अपने तई कोशिश करने की जरूरत है । नतीजतन 12 मार्च 1999 को उन्‍होंने नंगे पाव सत्‍याग्रह की घोषणा कर दी, शुरूआत में उन्‍हें सब ओर से हताशा ही मिली, यद्यपि तब बचपन बचाओ आंदोलन के प्रमुख कैलाश सत्‍यार्थी ने उनको अपना समर्थन दिया था । प्रारंभिक दौर में उन्‍होंने देश भर के बच्‍चों के लिए समान शिक्षा के एजेंडे को लेकर अपना कार्यक्रम शुरू किया । जब उन्‍हें विभिन्‍न क्षेत्रों से नैतिक समर्थन मिलने लगा । तो यह बात बचपन बचाओ आंदोलन के साथियों को राश नहीं आयी, उस समय तक यह संगठन ही रोजी रोटी का प्रबंध करता था । अंतत: उन्‍होंने अपना एक मात्र आश्रय को छोड दिया । वे बताते हैं कि इसके बाद के डेढ वर्ष उसके लिये मुश्किलों भरे रहे । यहां तक की आर्थिक दिक्‍कतों ने उन्‍हें बडे कर्जे में डुबो दिया । घर से उन्‍हें अलग होकर भी रहना पडा । पर नंगे पाव सत्‍याग्रह तब भी जारी रहा । इस दरम्यिान कनाडा के एक सवैच्छिक संगठन से सेव-दि- चिल्ड्रन उनकी मदद के लिए सामने आया ।

नंगे पांव सत्‍याग्रह एक अति कठिन रास्‍ता है । जिस पर चलने का साहस बिरले लोग ही करते हैं । इसके बाद भी आज देश भर से करीब बीस लोग उनके साथ आये हैं जो सीमित अवधियों में नंगे पांव रहकर उनके लडाई को आगे बढा रहे हैं । अभी उनके सत्‍याग्रह का कार्यक्षेत्र सरगुजा जिला है जहां वे जनमुद्रदों के लिए सीधा संघर्ष कर रहे हैं । मोटे तौर पर राष्‍ट्रीय स्‍तर के उनके एजेंडों में समान शिक्षा तो है ही, इसके अलावा वे रेलों में सामान्‍य श्रेणी के डिब्‍बों में बढोतरी, राष्‍ट्रीय पुलिस आयोग के गठन और छत्‍तीसगढ में भूमि आयोग गठित की मांग कर रहे हैं । वहीं वे बंद पडे उद्योगों की जमीनें वापस लेने की मांग भी राज्‍य सरकारों से कर रहे हैं ।

नंगे पांव रहते क्‍या-क्‍या तकलीफे पेश आई इस सवाल पर राजेश सिंह बताते हैं कि उनका सत्‍याग्रह मार्च के महिने में शुरू हुआ था उस साल की गर्मी उसके संकलप की परीक्षा लेने वाली थी । तपती जमीन पर चलने से उनके पांव में छाले पड जाते थे । पर उनके मन में यह ख्‍याल कभी नहीं आया कि वे यह संकलप छोड दे । शुरूआती दो साल के परेशानियों के बाद अब दिक्‍कत महसूस नहीं होती । अलबत्‍ता अंजान लोग जरूर उन्‍हें नंगे पांव देखकर अचरज होता है । कई तो यह भी पूछ बैठते हैं कि वे चप्‍पल कहीं भूल आये क्‍या । 40 साल की उम्र में करीब साढे सात साल को उन्‍होंने नंगे पांव ही गुजार दिए और उसकी यात्रा अब भी जारी है । इस दौर में छोटी-छोटी सफलताऐं भी उन्‍हें मिली पर अब भी वे निर्णायक युद्ध जितने की कोशिश में जुटे हुए हैं ।
(हरिभूमि का आभार)

6 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे नहीं लगता कि अकेले नंगे पांव चलना ही किसी का जिंदगीनामा लिखने का मानदंड हो सकता है। राजेश बाबू जो करोड़ों किसान और आदिवासी आज भी नंगे पांव ही रहते हैं, उनके दम पर खड़े हो तो कोई बात है। वरना कनाडा के किसी एनजीओ से खुराकी लेना बहुत सुहाता नहीं है।

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  3. अनिल जी का कथन सत्य प्रतीत होता है कि अकेले नंगे पांव चलना ही किसी का ज़िंदगीनामा लिखने का मानदंड नही हो सकता लेकिन इसके बावज़ूद मैं राजेश बाबू की इसलिए तारीफ़ करना चाहूंगा कि एक अच्छे उद्देश्य के लिए उपलब्ध होते हुए भी किसी चीज का त्याग करना ही एक बड़ी बात है!

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  4. बात केवल बचपन को बचाने तक ही सीमित नहीं है. सच तो यह है कि शिक्षा व्यवस्था का दोहरापन बच्चों के अनपढ़ रहने से कहीं ज्यादा खतरनाक है. आखिर इसे मिटाने के लिए क्या हो रहा है?

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  5. The struggle of nange Paon shows the face of poor and destitutes in the country. Mr. Rajesh singh Sisodia is a person with inteigrity and commitment.

    We wish him succes and achievemnet in his struggle and strengthening civil society in the country.

    GAURAV JOSSHI
    CECOEDECON
    Indore (M.P.)

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  6. Dear friends,
    Thanks to Sanjeev Tiwariji for giving me this opportunity.I am not alone staying bare-foot.In my barefoot voyage of nine years 8 persons stayed barefoot.Of those 5 are still barefoot.Our struggle is against double standards in education,and against all those policies,practices,trditions and customs which hinder equality of status and opportunity.I solicit your cooperation very badly.
    Rajesh Singh Sisodia
    Organizer,Nange Paon Satyagraha
    09826921897

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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