छत्तीसगढ की करूणामयी मां मिनी माता
लगभग 20 वर्ष छत्तीसगढ के लब्धप्रतिष्ठित समाचार पत्र देशबंधु के फीचर, साहित्य पेज व बच्चों के पेज के मुख्य पद पर काम करते हुए परदेशीराम वर्मा नें छत्तीसगढ के साहित्य को निखारा है एवं उन्होंने छत्तीसगढ के साहित्यकारों को स्थापित करने एवं प्लेटफार्म प्रदान करने में जो अमूल्य योगदान दिया है उसे छत्तीसगढ नही भुला सकता क्योंकि दशकों तक देशबंधु समाचार पत्र छत्तीसगढ का मुख्य समाचार पत्र रहा है । प्रस्तुत है जिला साक्षरता समिति दुर्ग एवं नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया के तत्वाधन में आयोजित संयुक्त कार्यशिविर में तैयार की गयी नवसाक्षर साहित्यमाला क्रम की पुस्तक मिनी माता के मुख्य अंश –
मिनी माता – परदेशीराम वर्मा
छत्तीसगढ में अकाल पडा था, सौ बरस पहले । लोग घर से बेघर हो गए । गांव के गांव खाली हो गए । पशु मर गये । नदी सूख गई । तालाब में पानी नहीं रहा । कुएं का जल भी सूख गया । सब गांवों की तरह सगोना गांव पर भी संकट आया । अकाल का संकट ।
सगोना गांव रायपुर जिले का बडा गांव था । भरा-पूरा गांव । इस गांव के लोग भी अन्न-पानी को तरसते । हाहाकार मच गया । मजदूर गांव छोड कर भाग गए । फिर छोटे किसान निकल पडे । अंत में गांव के बडे किसान भी मजबूर हो गए । गांव वीरान होने लगा । जिसे जहां आसरा मिला, चल पडा ।
सगोना गांव में एक धनी किसान था । उसकी अच्छी खेती बाडी थी । परिवार में पांच लोग थे । पति पत्नी और तीन छोटी बेटियां । किसान नें भी गांव छोडने का मन बना लिया । किसान नें अपनी पत्नी से पूछा । पत्नी नें कहा ‘जाना ही ठीक है । गांव का मोह तो है मगर छोडना होगा ।‘ जैसे दाना पानी के लिए चिडिया घेसला छोड देती है, ठीक वैसे ही सगोना गांव का किसान भी निकल पडा । अपने बच्चों के साथ । तीन बेटी और पति-पत्नी । पांचों चल पडे भूखे प्यासे । बिलासपुर स्टेशन की ओर । वहां बडी भीड थी । सगकी जाने की तैयारी थी । दूर जाने के लिए रेल ही सवारी थी । गाडी आई । सब बैठकर चल पडे ।
सगोना गांव का किसान सिर झुकाए बैठा था । उसे याद आ रहा था गांव का घर, घर के आगे का मैदान, मैदान में खडा पावन जय स्तंभ, उसे कुछ बल मिला गुरू बाबा के बोल याद हो आए । ‘सत्य में धरती सत्य में आकास । होगा बेडा पार ।‘ अचानक किसान की छोटी बेटी की सांस थम गयी । चलती गाडी में मां रोने लगी । बाप के आंसू थम गए । उसने बच्ची को देखा । बांहों में लिया । माटी की काया रह गयी थी । सांस का पंछी उड चुका था ।
बाप नें कुछ देर बेटी को और सम्हाला । मां नें आकखरी बार उसे देखा । नदी पास आ रही थी । बाप नें बेटी को एक बार चूमा । रोते हुए उसने लाश को नदी में छोड दिया । मां पछाड खाकर डिब्बे में गिर गयी । ‘हाय मोर बेटी’ कहती और रोती । रेलगाडी चलती रही । चलती गाडी में भी किसान को सब कुछ ठहरा सा लगता था ।
सबेरा हो गया । गाडी हावडा स्टेशन पहुंची । लोगों नें बताया कि पास ही बडा शहर है । यहां से गाडी बदली गई । साथ में ठेकेदार था । वही एक सहारा था । अनजाना देश । पराए लोग न कोई जान पहचान । सिर्फ ठेकेदार ही राही था । ठेकेदार नें सबको दूसरी गाडी में बिठा दिया । कुछ मुरमुरा और पेटभर पानी भी उसने दिया । यह भी न देता तो क्या कर लेते । दूसरी गाडी भी चल पडी ।
ठेकेदार नें कहा ‘चुप बैठे रहो । मंजिल तक ले जाउंगा । वहां काम होगा । दाना होगा । अपनी झोपडी होगी । नया संसार होगा ।‘ गाडी बढती गयी एक के बाद एक छोटी बडी नदियां, हरा भरा बंगाल । हरी भरी धरती । भीतर मन सूखा था ।
अचानक दूसरी बिटिया हिचकी लेने लगी । मां नें चिल्लाकर कहा ‘ ये भी जा रही है । बचा लो मालिक । निर्बल को बल दो । संभल लो ।‘ लेकिन काल को कौन बदले । यह बेटी भी चल बसी । डिब्बे के लोग सन्न रह गए । किसी को कुछ नही सूझा । फिर एक बूढे बाबा नें कहा ‘लाश तो लाश है, सांस नहीं तो आश नहीं, डिब्बे में लाश को मत रखो जैसे पहले किया था, सौंप दो नदी को, तर जाए चोला, जाना है सबको, माया है सब ।‘
मां नें सुना कुछ नही । रोती रही । कहते हैं ममता अंधी होती है । बाप नें फिर लाश को हांथ में लिया । हिम्मत कर वह दरवाजे के पास आया । मन ही मन उसने अपने गांव की नदी को याद किया । आंखे आंसू से तर थी । ‘जा दाई . . . ‘ कहते हुए उसने बेटी को सौंप दिया ।
एक बेटी गोद में बची थी । उसका नाम था देवमती, अपनी बहनों को याद कर खूब रोती । रोते धोते आगे बढते गए । आसाम पहुंच गए । गाडी से धरती पर उतरे । अपनी धरती अपने लोग छूट गये । नया संसार सामने खडा था ।
देवमती के मां बाप की झोपडी में पहली बार चूल्हा जला । धुंआ उठा जिंदगी की हलचल बढी । गांव के कई लोग थे । काम की बेला आ गई । आसाम के चाय बागानों में काम करना था । ठेकेदार नें काम समझा दिया था ।
दिनभर देवमती अपने हमजोलियों के साथ खेलती, मां बाप काम करते । जिंदगी की नैया चल पडी । लेकिन आसाम का पानी पचा नहीं । देवमती के बापू पहले बीमार हुए फिर मां नें खाट पकड ली । कुछ दिन की बीमारी में दोनों चल बसे । देवमती फिर अकेले रह गयी । गांव तो पहले ही छूट गया था अब मां बाप भी छूट गए । वहां हैजा फैला हुआ था छोटी सी देवमती भी बीमार हो गयी उसका कोई सहारा नही ।
पास दोल गांव में मिशन अस्पताल था ठेकेदार नें उसे वहां भरती करा दिया वह वहां ठीक हो गयी । लेकिन जाये कहां नर्सों को पकड कर रोने लगी । ‘ मैं कहां जाव दाई . . . ‘ उसके आर्तनाद से एक नर्स नें उसे सहारा दिया । बेटी की तरह पाला जवान होने पर एक भले लडके से उसकी शादी भी करवा दी । नया जीवन शुरू हो गया होली के दिन वह मां बन गयी देवमती नें बच्ची का नाम रखा मीनाक्षी मछली जैसे आंखों वाली ।
दोलगांव से देवमती जमुनामुख आ गयी वहां काम अच्छा मिला पढने लिखने में तेज मीनाक्षी नें यहीं शिक्षा पाई । अभी मीनाक्षी तेरह साल की ही थी कि आसाम में भी अंग्रेजों के विरूद्ध हवा चल पडी । मीनाक्षी भी बच्चों के साथ विदेशी कपडों की होली जलाने लगी । मां उसे मना करती मगर मीनाक्षी के गुरू देशभक्त थे वे उसे समझाते मीनाक्षी नें छुटपन से गुलामी का मतलब जान लिया वह आजादी की कीमत जानने लगी । बच्चों के दल के साथ छिटपुट काम करने लगी आजादी की लडाई लडने लगी ।
एक दिन उसके घर में मेहमान आये हुए थे मां नें बताया मेहमान थे महान गुरूजी नाम था गुरू गोसाई अगमदास जी, सत्य के साधक वे अलख जगाते हुए आसाम पुहुचे थे । लोगों में ज्ञान की रौशनी बाटते हुए छत्तीसगढ से गुरूजी आसाम आए थे । गांव भर के लोग आये सबने मिल कर पंथी गीत गाया ।
’मोर फुटे करम आज जागे हो गुरू, मोरे अंगना में आके बिराजे ना ।‘
गुरू अगमदास जी को यह परिवार भा गया उन्होंने कहा जहां से आये वहीं चलो लौटो अपनी जडों की ओर छत्तीसगढ में । गुरूजी की बात सबको जंच गयी । तेरह वर्ष की मीनाक्षी अपनी मां के साथ वापस लौट पडी । जन्म जन्म से जिससे नाता था लोग नये थे रिश्ता पुराना था ।
जगतगुरू अनामदास महान थे देश की आजादी के नेता थे । सत्य के साधक थे गुरूजी का घर पवित्र स्थल था जहां आजादी के सिपाही ठहरते थे । घर में छत्तीसगढ के बडे बडे नेता आते थे एक से बढकर एक सपूत धरती के लाल । मीनाक्षी नें बडे बडे नेताओं को जाना उन्हे पहचाना । छत्तीसगढ में बेटियां आगे नहीं आ पाई थी महिलाएं पीछे थी, आजादी के जंग में उनका जुडना जरूरी था ।
मीनाक्षी के पास छत्तीसगढ के महिलाओं को एकजुट करने का काम था उन्हे मान दिलाने का काम था । घर से निकालकर आगे लाने का काम था । हिम्मत बंधाने का काम था । नेताओं नें उसे यह काम सौंपा वह लडती गयी आगे बढती गयी । उसकी पहचान एक ममतामयी मां की बन गयी । वह घर बाहर सबका सेवा करती सबका मान रखती गुरूजी के प्रति आदर भाव बढता गया ।
गुरूजी नें मीनाक्षी को खूब मान दिया अवसर दिया मीनाक्षी नें गुरू आगमदास जी से विवाह किया । सामने सत्य का पथ था सेवा का बल था प्रेम और ममता से भरा पूरा संसार था । यहीं से उसकी महिमा और बढ गयी । गुरूजी उंच नीच की खाई पाटते थे समता का संदेश देते थे । मीनाक्षी नें गुरूघर का मान और बढा दिया वह छत्तीसगढ में दौरा करने लगी । छोटे बडे का भेद, छुआछूत, अपने पराये का भेद मिटाने का काम आगे बढा । आजादी की लडाई बढ चली समाज सेवा का काम आगे बढा । सबको मिलाने का काम होने लगा भेद मिटने लगा । छत्तीसगढ नें उन्हे मीनाक्षी से मिनीमाता बना लिया । ममतामयी मां मिनीमाता समता की राह पर चलाने वाली मां । मिनीमांता नें सबको दुलार दिया ।
आजादी के बाद लोगों के मनाने पर वह चुनाव में भी खडी हुई बडे शान से वे देश की संसद में 1952 में चुनकर पहुंची, देश नें एक गुणी और सेवाभावी सांसद को पाया । यहां से वहां तक यश गाथा पहुचने लगी । कद से छोटी मगर सोंच से बडी थी मिनीमाता । छत्तीसगढ की नारियों का मान बढा ।
उनका दिल्ली का बंगला आश्रम बन गया विद्यार्थी वहां रह कर पढते, लेखक आश्रय पाते, पत्रकारों का बसेरा बना वह घर । मिनीमाता नें सबको अपना समझा, उन्होंने किसी बच्चे को जन्म नही दिया लेकिन हर बच्चा उन्हे अपना बच्चा लगा । बाबासाहब अम्बेडकर नें उन्हे बल दिया, पंडित नेहरू नें जो काम उन्हें सौंपा मिनीमाता नें किया सपनों को धरती पर उतारा । मिनीमाता नें धन नही कमाया जन का मान पाया । छत्तीसगढ की मिनीमाता को सबने पहचाना ।
11 अगस्त 1972 को मिनीमाता यात्रा के लिए हवाई जहाज से निकलीं और जहाज भयानक आवाज के साथ नष्ट हो गया । मिनीमाता चल बसी । एक मशाल अचानक बुझ गयी । मिनीमाता की देह मिट गई नाम अमर हो गया ।
सबको जो साथ लेकर चलता है वही अमर होता है मिनीमाता नें समझाया था कि मानव मानव सब बराबर हैं बेटी बेटों में भेद नहीं हैं काम रह जाता है नाम रह जाता हैं । मिनीमाता के जीवन से यही संदेश मिलता है ।
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