छत्तीसगढियों को भी मिले महत्व
नजरिया : परदेशीराम वर्मा
छत्तीसगढ में आए दिन कुछ रोचक समाचार छपते रहते हैं अभी पिछले दिनों रेल विभाग के एक सेवानिवृत महाप्रबंधक से संबंधित समाचार छपा । कृपालु महाप्रबंधक ने जाते जाते 20 लोंगों को रेलवे में नियुक्त कर दिया इसमें किसी छत्तीसगढी का नाम नहीं था । नौकरी वैसे भी नहीं के बराबर हैं । जो हैं उनमें छत्तीसगढी व्यकित के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है । ऐसे में ज्ञानी जब जब छत्तीसगढ को राष्ट़ीय एकता, उदारता का पाठ पढाते हैं तो बेशाख्ता भगवती सेन याद आते है..........
दिन ला तुम रात कहो
आमा ला अमली,
डोरी ला सांप कहो,
रापा ला टंगली ।
छत्तीसगढ बेचारा और बपुरा है । जो भी चाहता है उसे मेल मुहब्बत और सबके साथ मिल जुलकर रहने का पाठ पढा जाता है । और चपत भी लगा जाता है ।
आजकल गवेषणाएं छप रही है कि कौन छत्तीसगढ में कब आया । मैं हमेशा निवेदन करता रहा हूं कि यह बिलकुल बेमानी है कि कौन कब आया । असल बात यह है कि जिन छत्तीसगढ विरोधियों की जडे बाहर हैं ऐसे विष वृक्षों की जडों में छत्तीसगढी पानी डालना बंद करिए वरना विषबेल फैलेगी और छत्तीसगढी सूख जायेगा ।
हरे भरे पृक्ष में अमरबेल का एक छोटा सा टुकडा अगर आ गिरता है तो धीरे धीरे. वह पूरे पेड का रस सोख लेता है । वृक्ष धराशायी हो जाता है । उसी तरह छत्तीसगढ के हरेपन को चट करने के लिए कुछ घातक अमरबेलों की कइ नश्लें हैं अमरबेलों के पक्ष में लगातार वातावरण तैयार किया जा रहा है और छत्तीसगढी व्यकित भैचक्क सा खडा है । छत्तीसगढ ने शंकर गुहा नियोगी को सर पर बिठाया । हर वर्ष उनकी याद में वह रोता है कि उसके हितों का रक्ष्क उन्हें छोड गया । उसे छत्तीसगढियों ने नहीं मारा ।
देश के भिन्न भिन्न प्रांतों से आने वाले छत्तीसगढ सेवकों को छत्तीसगढ ने सर माथे पर बिठाया, इसिलए माधवराव सप्रे, दादा सुधीर मुखर्जी, रामरतन द्विवेदी और योगनंदम पूजे जाते हैं । इन्हें कभी सफाइ नहीं देनी पडी कि ये छत्तीसगढी है या नहीं । आजकल जो बवाल मचाया जा रहा है । वह राज करने की हवस के कारण ही है । यह ठेंगमारी की संस्कृती ही है जो छत्तीसगढ के अनुकूल नहीं है । मान न मान मै तेरा मेहमान यह कहावत ऐसे ही तत्वों के लिए मौजूद है । जो छत्तीसगढ का हित चाहता है, उसके हित में अपना हित देखता है, जिसे छत्तीसगढ के मान सम्मान, सुख दुख की चिंता है उसे छत्तीसगढ पहचानता है । व्यापारी के अंतराष्टीयतावाद और संत के अंतरार्ष्टीयतावाद में अंतर होता है । ठीक उसी तरह जिस तरह हत्यारे के चाकू और चिकित्सक के चाकू में अंतर होता है । छत्तीसगढ तो सबको अपना बना लेने में आतुर रहा है । लेकिन उसका दुभार्ग्य है कि उसकी सरलता को उसकी कमजोरी मान लिया जाता है । जब व्यथित होकर वह सर उठाता है तो उसे सदाचार और सहिष्णुता का पाठ वे पढाते हैं, जो उसे लात लगाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहते ।
छत्तीसगढ शासन को चाहिये कि चुनिंदा संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, समाजसेवी और इतिहासविदों की टीम बनाई जाए । यह टीम देश के उन हिस्सों में जाए जहां छत्तीसगढी व्यकित सैकडों बरसों से रहता है । असम, पंजाब, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश में छत्तीसगढीयों की बस्तियां है । वहां जाकर दल के विशेषज्ञ उनकी दशा दिशा का आंकलन करें । इससे यह तथ्य सामने आएगा कि छत्तीसगढ में देशभर से पधारे पहुना लोगों को क्या मिला और छत्तीसगढ ने घर से बेघर होकर क्या पाया । इससे संतुलन की प्रकृया को बल मिलेगा ।
धनी धमदास, गुरू बाबा घासीदास, पंडित सुन्दरलाल शर्मा, डा. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढी भाषा, संस्कृति और पहचान को ही पुख्ता किया । छत्तीसगढ में छत्तीसगढी की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने काम किया । किसी को बुलाने या भगाने के लिए आंदोलन यहां नहीं चला । केवल छत्तीसगढ के हितों को चोट पहुंचाने का खेल बंद हो, यह प्रयास किया जाता है, आज भी छत्तीसगढ को दबाने और धमकाने का जो प्रयास हो रहा है उसी का विरोध किया जा रहा है । छत्तीसगढ में छत्तीसगढी बनकर रहने में जिनकी शान घटती है वे ही छत्तीसगढ पर क्षेत्रीयताद और अनुदारता का इल्जाम लगाते हैं । यह सामंती दृष्टिकोण है । छत्तीसगढ में कभी सामंतशाही और संकीर्णता की वैसी जगह नहीं रही जिसके लिए देश के दूसरे राज्य जाने जाते हैं । तभी तो छत्तीसगढ से जाकर यू.पी. में सरस्वती का सम्पादन करने वाले पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने साहसपूवर्क यह लिखा कि प्रेमचंद की कहानियों में जो जातीय विद्वेष है, छत्तीसगढ में उसके लिए स्थान नहीं है । तात्पर्य यह है कि ठाकुर का कुनबा और सदगति में जो जातिभेद का भयानक चित्र है उसे प्रेमचंद ने अपने प्रदेश में देखा और उसका वैसा इलाज किया । छत्तीसगढ में जातीय विद्वेष का वैसा गाढा रंग न कभी था न कभी रहेगा । क्षेत्रीयता का नंगा नाच जो दूसरे प्रांतों में होता है वह भी यहां कभी नहीं हुआ । प्रेमचंद ने देखा कि जातीय विद्वेष के कारण समाज टूट रहा है तो उन्होंने वैसा चित्र खींचा । छत्तीसगढ के संतों और साहित्यकारों ने कहा मनुष्य मनुष्य एक है, सगे भाइ के समान है, इसिलए पंडित सुन्दरलाल शर्मा ने सतनामियों को मंदिर प्रवेश कराया और उन्हें जनेउ दिया । गांधी जी भी उनकी इस क्रांतिकारी पहल की प्रशंसा करते नहीं थकते थे । यह उदार सोंच की धरती है । यहां साहित्यकारों ने जोडने का काम किया, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो हिंसा नहीं जनता उसे सुख से रहने का अधकार नहीं । जो लोग संगठित है और छत्तीसगढ में आकर अपनी प्रांतीय पहचान के लिए सतत प्रयास करते रहते हैं वे कम से कम छत्तीसगढ को उदारता का पाठ पढाना बंद करें । पहले छत्तीसगढ से प्यार कीजिए इसे आश्वस्त कीजिए तब मसीहा बनिए । खाल ओढकर जब भी कोइ जीव अपनी पहचान छुपाते हुए गपागप करने लगता है तो उसे मार पडती है उसे देर सबेर पहचान लिया जाता है । ऐसी नसीहतों से चिढने की जरूरत नहीं । बल्कि ओढे हुए खाल को उतार फेंकना ज्यादा जरूरी है । छत्तीसगढ में छत्तीसगढी की बात चलेगी । इससे घबराइये नहीं । इसमें शरीक होकर अपना द्वंद्व दूर कीजिए ।
( डा. परदेशीराम वर्मा जी का रचना संसार विशद है हमारे अनुरोध पर उन्होंने अपनी समस्त प्रकाशित रचनाओं को अंतरजाल में डालने के लिए स्वीकृति प्रदान की है । हम क्रमिक रूप से उनके सभी मुख्य एवं चर्चित रचनाओं के साथ ही उनकी साहित्तिक पत्रिका अकासदिया के नवीन अंकों का अंतरजाल संस्करण इसी चिट्ठे में डालने का प्रयास करेंगें – संजीव तिवारी )
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परदेशीराम जी के नज़रिए से काफ़ी हद तक सहमत हूं!!
जवाब देंहटाएंयह खुशी की बात है कि उन्होंने अपनी रचनाओं को यहां डालने के लिए सहमति प्रदान की है! इस से छत्तीसगढ़ का साहित्य सबकी नज़र में आएगा!
और हां आपके चिट्ठे पर किए गए परिवर्तन अच्छे लगे!!