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मार्च, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सुशील भोले का आलेख : छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति और वर्तमान स्वरूप

मूल संस्कृति की चर्चा करते कुछ बातें यहां के इतिहास लेखन की भी हो जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि यहां की मूल संस्कृति के नाम पर अभी तक हम सृष्टिकाल या कहें कि सतयुग की संस्कृति की चर्चा करते आए हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि छत्तीसगढ़ के इतिहास को केवल रामायण और महाभारत कालीन ही क्यों कहा जाता है? इसे सतयुग या सृष्टिकाल तक विस्तारित क्यों नहीं कहा जाता? किसी भी अंचल की पहचान वहां की मौलिक संस्कृति के नाम पर होती है , लेकिन यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य है कि पृथक राज्य निर्माण के एक दशक बीत जाने के पश्चात् भी आज तक उसकी अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान नहीं बन पाई है। आज भी यहां की संस्कृति की जब बात होती है तो यहां की मूल संस्कृति को दरकिनार कर उत्तर भारत की संस्कृति को यहां की संस्कृति के रूप में बताने का प्रयास किया जाता है , और इसके लिए हिन्दुत्व के नाम पर प्रचारित उन ग्रंथों को मानक माने जाने की दलील दी जाती है , जिन्हें वास्तव में उत्तर भारत की संस्कृति के मापदंड पर लिखा गया है, इसीलिए उन ग्रंथों के नाम पर प्रचारित संस्कृति और छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में कहीं पर भी सामंजस्य स्थापित होता दिखाई

विश्व रंगमंच दिवस पर आरम्भ के सुधि पाठकों के लिए... चंदैनी-गोंदा का सफर

आज विश्व रंगमंच दिवस है. लोक  गायिका कविता विवेक वासनिक के पुत्र के विवाह का निमंत्रण-पत्र आया है. जेहन में चंदैनी-गोंदा की स्मृतियाँ ताजी हो गई और  कुछ लिखने की इच्छा  जाग गई. सत्तर के दशक की शुरुवात में ग्राम- बघेरा , दुर्ग के दाऊ राम चन्द्र देशमुख ने ३६ गढ़ के ६३ कलाकारों को लेकर "चंदैनी-गोंदा" की स्थापना की. "चंदैनी-गोंदा"  किसान के सम्पूर्ण जीवन की गीतमय गाथा है. किसान के जन्म लेने से लेकर मृत्यु होने तक के सारे दृश्यों को रंगमंच पर छत्तीसगढ़ी गीतों के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत किया गया कि यह मंच एक इतिहास बन गया. चंदैनी गोंदा की आरंभिक प्रस्तुति ग्राम पैरी (बालोद , जिला दुर्ग के पास) छत्तीसगढ़ के जन कवि स्व.कोदूराम "दलित" को समर्पित करते हुए दाऊ जी ने मंच पर उनकी धर्म-पत्नी को सम्मानित किया था. इस आयोजन की भव्यता का अनुमान इस बात से  लगाया जा सकता है कि चंदैना गोंदा देखने सुनने के लिए लगभग अस्सी हजार दर्शक ग्राम पैरी में उमड़ पड़े थे. इस प्रदर्शन के बाद जहाँ भी चंदैनी-गोंदा का आयोजन होता , आस -पास के सारे गाँव खाली हो जाया करतेथे. सारी भीड़ चं

ब्‍लॉगर का नया गैजट : फालो बाई ई मेल

ब्‍लॉगर डाट काम नें अब ब्‍लॉग पोस्‍टों को पाठकों तक सीधे पहुंचाने के उद्देश्‍य से एक नया गैजैट पिछले दिनों प्रस्‍तुत किया है। Follow by Email नाम का यह गैजैट फीडबर्नर के द्वारा प्राप्‍त पोस्‍ट के फीड को हमारे पाठकों के मेल बाक्‍स पर पब्लिश करते ही पहुंचाने में सहायक होगा।  यह गैजैट लगभग उसी प्रकार है जिस प्रकार हम फीडबर्नर के ई मेल सब्‍सक्रिप्‍शन गैजैट कोड को जनरेट कर अपने ब्‍लाग में लगाते हैं। फीडबर्नर के इस कोड को प्राप्‍त करना एवं इसे अपने ब्‍लॉग में लगाने की प्रक्रिया कई ब्‍लॉगर बंधुओं के लिए किंचित कठिन काम होता है। जबकि इस नये Follow by Email गैजैट को सिर्फ एड करने मात्र से यह गैजैट हमारे ब्‍लॉग में जुड़ जाता है।  Follow by Email गैजैट में दिए रिक्‍त स्‍थान में यदि हमारा कोई पाठक अपना ई मेल आईडी डाल कर उसे सम्बिट करता हैं तो, उसके बाद से हमारा प्रत्‍येक पोस्‍ट नियमित रूप से उस पाठक को उसके ई मेल बाक्‍स में मिलना आरंभ हो जाता है। इस सुविधा से पाठकों को बार-बार हमारे ब्‍लॉग पर आने की आवश्‍यकता नहीं पड़ती और वे अपने ई मेल बाक्‍स में ही हमारे पोस्‍टों को पढ़ लेंते हैं।  ..... यद्धपि

दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़ : वागार्थ में प्रकाशित कैलाश बनवासी की कहानी

वर्तमान कथा साहित्‍य में कैलाश बनवासी जाने पहचाने कथाकर हैं जो विविधआयामी परिदृश्‍यों को रचते हुए आम जन की कथा लिखते हैं। कैलाश भाई मेरे नगर के हैं और मेरा सौभाग्‍य है कि मैं कुछ वर्षों तक उनके पड़ोस में ही रहा हूं और कथाकार मनोज रूपड़ा जी के दुकान तक की दौड़ लगाते रहा हूं. कैलाश बनवासी जी की 'लक्ष्य तथा अन्य कहानियां' व 'बाज़ार में रामधन' कहानी-संग्रहों के अलावा समसामयिक विषयों पर कई लेख व समीक्षाएं प्रकाशित हैं तथा वे कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं। कहानी संग्रह ' बाजार में रामधन ' यहां मेरी गूगल बुक्‍स लाईब्रेरी में उपलब्‍ध है। इसी शीर्षक से संग्रह की पहली कहानी रचनाकार में यहां प्रकाशित है। 'दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़' कहानी वागार्थ के मार्च 2011 अंक में प्रकाशित है, यह कहानी कैलाश जी के उपन्‍यास का कथा रूप है। हम अपने पाठकों के लिए  'दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़' यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं -  'दिल्‍ली में छत्‍तीसगढ़' अजीब-सा स्वाद लगा था पानी का । कहावत है- कोस-कोस में बदले पानी, सात कोस में बानी, फिर मैं तो भूल ही चुका था, हम घर से कितना आ

अहसास ही तो प्रयासों को जन्म देते है : विश्व गौरैया दिवस पर श्रद्धा थवाईत का आलेख

हिन्‍दी में पक्षी के पर्यायवाची अनेक शब्द हैं, लेकिन  सबसे सामान्य बोलचाल का शब्द है – चिड़िया. बस इस लाइन पर रुक कर आँख बंद करें   और मन में शब्द दोहराएँ  'चिड़िया'. अब बताएं  आपने अपनी कल्पना में कौन सा पक्षी देखा? आपकी कल्पना में गौरैया ही रही होगी. गौरैया हमारे मन में जीवन में रची-बसी ही इस तरह है कि वही  चिड़िया का पर्याय हो गई है. सबने बचपन में एक छोटी सी कविता सुनी और सुनाई होगी- "चिड़िया आ जा, दाना खा जा पानी पी जा फुर्रर्रर से उड़ जा." इस कविता को सुनते हुए मेरी कल्पना में जो चिड़िया आती,दाना खाती,पानी पीती दिखती वह गौरैया ही होती थी. पहले आंगन की ओर खुलते बरामदे में बीनने-चुनने के कार्यक्रम का अक्सर दोपहर भोजन के बाद आयोजन होता था. गप-शप चलती  जाती  और  अभ्यस्त   उंगलियाँ अनाज  के दानों से कंकड़, घास के बीज  चुन  फेंकती  जाती, उन्ही के साथ  अनाज के कुछ दाने भी  बरामदे में बिखर जाते.  इन्ही के लिए  आई गौरैया हमारी समय बिताने की साथी होती  क्योंकि  हमें पता था कि यदि बड़ों की बातों  में देंगे दखल तो हम यहाँ से कर दिए जायेंगे बेदखल. हमें गौरैया की ची-ची, उसका  

सामंती व्यवस्था पर चोट का नाम है फाग

राजा बिकरमादित महराज , केंवरा नइये तोर बागन में... छत्‍तीसगढ़ के फाग में इस तरह चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्‍य के बाग में केवड़े का फूल नहीं होने का उल्‍लेख आता है। फाग के आगे की पंक्तियों में केकती केंवरा किसी गरीब किसान के बारी से लाने की बात कही जाती है। तब इस गीत के पीछे व्‍यंग्‍य उजागर होता है। फाग में गाए जाने वाले इसी तरह के अन्‍य गीतों को सुनने पर यह प्रतीत होता है कि , लोक जीवन जब सीधे तौर पर अपनी बात कह नहीं पाता तो वह गीतों का सहारा लेता है और अपनी भावनाओं (भड़ास) को उसमें उतारता है। वह ऐसे अवसर को तलाशता है जिसमें वह अपनो के बीच सामंती व्‍यवस्‍था पर प्रहार करके अपने आप को संतुष्‍ट कर ले। होली के त्‍यौहार में बुरा ना मानो होली है कहकर सबकुछ कह दिया जाता है तो लोक भी इस अवसर को भुनाता है और कह देता है कि , राजा विक्रमादित्‍य महाराज तुम चक्रवर्ती सम्राट हो , किन्‍तु तुम्‍हारी बगिया में केवड़े का फूल नहीं है ,   जबकि यह सामान्‍य सा फूल तो यहां हमारे घर-घर में है। केवड़े के फूल के माध्‍यम से राजा को अभावग्रस्‍त व दीन सिद्ध कर लोक आनंद लेता है। ‘ अरे हॉं ... रे कैकई राम पठोये