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अक्तूबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

दुकान और पकवान के बीच सामन्‍जस्‍य तो आपको ही बनाना है

ललित शर्मा जी नें अपने ब्‍लाग एक लोहार की के ताजे पोस्‍ट में टिप्‍पणियों की समस्‍या के संबंध में पूछा है कि पाठकों की माडरेट की गई टिप्‍पणियां पब्लिश करने के बाद भी उनके पोस्‍टों में प्रकाशित नहीं होती। टिप्‍पणियां कुछ इस तरह से गायब होती हैं जैसे कहीं कोई बरमूडा ट्रैंगल हो या ब्‍लैक होल हो। उनकी चिंता लाजमी है इस समस्‍या पर तकनीकि के जानकार लोगों नें अपना सुझाव दिया है जिन पर ललित जी को अमल करना चाहिए। उनके पोस्‍ट पर  पी.सी.गोदियाल  जी नें टिप्‍पणी की है एक बात और, कुछ लोगो की साईट पर हम लोग चाह कर भी टिपण्णी नहीं कर पाते जैसे उद्दहरण के लिए दर्पण साह दर्पण जी का ब्लॉग, लाख कोशिश करो लेकिन ब्लॉग ठीक से खुलता ही नहीं कारण ब्लॉग पर अत्यधिक भार जैसे विज्ञापन, फोटो इत्यादि अतः उन लोगो से भी यही अनुरोध रहेगा कि वे अपने ब्लॉग को लोगो की पहुँच के लिए सुगम बनाए ! इस पर ब्‍लागजगत में चर्चा आवश्‍यक है, उन्‍होंनें कुछ ऐसी समस्‍याओं के संबंध में लिखा है जिससे हिन्‍दी ब्‍लागों के पाठक रोज दो-चार होते हैं। इसमें से एक मैं भी हूं, मैं अपने लैपटाप में सोनी के 550 मोबाईल से एयरटेल नेट कनेक्‍

ब्‍लाग ब्‍लागिंग और पोस्‍ट खिचडी

पिछले कुछ दिनों से हिन्‍दी ब्‍लाग में सक्रिय नहीं रह पाने का मलाल अन्‍य सुधी ब्‍लागरों की तरह मुझे भी है। पिछले कुछ दिनों की असक्रियता के समय में ना जाने कितना पानी गंगा में और शिवनाथ में बह गया, ब्‍लागवाणी विवाद से लेकर इलाहाबाद चिट्ठाकार सम्‍मेलन तक ना जाने कितने पोस्‍ट ब्‍लागवाणी और चिट्ठाजगत से होकर गुजर गए और हम बिना नहाए बिना पढे रह गए। इस बीच गूगल रीडर से पढे गए इलाहाबाद ब्‍लागर्स सम्‍मेलन के भारी टिप्‍पणीपाउ पोस्‍टों को देखकर ब्‍लागर मन पुन: मचलने लगा कि हमें भी पोस्‍ट परोसना चाहिए। छत्‍तीसगढ में ठंडी की हल्‍की पुरवाई चलने लगी है और सुबह और शाम का माहौल खुशनुमा हो चला है, ब्‍लागजगत की खिचडी भी इसी समय उबलती है और ब्‍लाग हांडियों में अलग अलग स्‍वाद के पोस्‍ट नजर आते हैं। ठंड की सुबह में हम अपने घर के खाली पडे एक हिस्‍से में ईटों से चूल्‍हा बना कर नहाने के लिए पानी गरम करते हैं अब आग की तपिश का आनंद भी लेना है और ब्‍लाग उर्जा को आत्‍मसाध करना है तो ऐसे दृश्‍य तो निर्मित होंगे ही - बहरहाल इलाहाबाद सम्‍मेलन में हमें भी नहीं बुलाया गया था सो सभी पोस्‍टों को पढकर और फोटूओं को नि

नाचा : विश्व-धरोहर की डगर पर !

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद राज्य निर्माण के लिए चले मैदानी संघर्ष का वास्तविक इतिहास नहीं लिखा गया। भाषा, संस्कृति, लोकमंच, राजनीति और साहित्य से जुड़े छत्तीसगढ़ के सपूतों ने भिन्न-भिन्न कालखंडों में राज्य निर्माण के लिए चले अभियानों में अपना योगदान दिया है। अस्मिता और अंचल की पीड़ा पर प्रभावी रचनाओं ने भी पृथक राज्य के स्वप्न को जमीनी आधार देने की दिशा में ठोस कार्य किया। यह छत्तीसगढ़ के लिए गर्व योग्य उपलब्धि है कि "नाचा" को मंचीय विश्व-धरोहर के रूप में रेखांकित किया जा रहा है। मानव संग्रहालय, भोपाल ने यह प्रशंसनीय पहल की है। पिछले साल पद्मश्री सम्मान नाचा के प्रसिद्ध कलाकार गोविंदराम निर्मलकर को मिला। उनका नाम भी छत्तीसगढ़ से नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश से गया था। नाचा छत्तीसगढ़ की मंचीय विधा है। विश्व-धरोहर सूची में कुछ वर्षों से यूनेस्को द्वारा मंचीय विधाओं को स्थान दिया जाता है। यह सम्मान अब तक भारत की तीन मंचीय विधाओं को प्राप्त हो चुका है। जिनमें रामलीला, वैदिक गायन एवं कुड़ियट्टम हैं। इस वर्ष देश भर के मंचीय विधा विशेषज्ञों एवं चिंतकों की सम्मति के आधार पर ५० विधाओं

छत्‍तीसगढ की दीपावली मडई, गोवर्धन पूजा और रावत नाच

छत्‍तीसगढ के ग्रामीण मजदूर कमाने खाने लद्दाख के बरफबारी से बंद हुए सडकों को साफ करने से लेकर आसाम के चाय बागानों तक एवं दिल्‍ली के कालोनी निर्माण से लेकर मुम्‍बई के माल निर्माण तक संपूर्ण देश में कार्य करने जाते हैं, किन्‍तु दीपावली में वे अपने-अपने गांव लौट आते हैं। वहां की हिन्‍दी एवं सस्‍ती आधुनिक संचार यंत्रों के साथ छत्‍तीसगढी मिश्रित बटलर हिन्‍दी बोलते इन लोगों को इसी दिन का इंतजार रहता हैं। उत्‍सवधर्मी इन भोले भाले लोगों के साथ दीपावली मनाने हम भी हर साल गांव चले आते हैं। वहां गांव की सांस्‍कृतिक परंपराओं का आनंद लेते हैं। कई गांवों में रावत नाच के साथ 'मडई' भी चलता है। मडई लम्‍बे खडे बांस में साडी-धोती और बंदनवार को बांधकर बनाया जाता है। इस मडई को गांव के मडईहा परिवार के लोग मन्‍नत मांगने के लिए बनाते हैं एवं गांव में दीपावली से लेकर 'मडई' मनाए जाने तक बनाए रखते हैं। जब भी रावत नाच पार्टी के साथ इन मडईहा परिवार को रावत नाच उत्‍सव या मातर आदि का निमत्रण दिया जाता है ये मडई रावत नाच के पीछे पीछे अपनी लम्‍बी पताका लिए मौजूद रहता है। छत्‍तीसगढ में दीपावली की रात

'प्रथम व्यक्ति' गंभीर कथानक का कसावट भरा मंचन

गि रते नैतिक मूल्यों की गंभीरता से पड़ताल करने वाला नाट्य अरूण काठोटे रायपुर। संस्कृति विभाग की पाक्षिक पहल सफर मुक्ताकाश के 12वें पड़ाव पर दर्शकों के सम्मुख बेहद गंभीर कथानक पर केंद्रीत नाटक प्रथम व्यक्ति खेला गया। 'प्रथम व्‍यक्ति' समाज में गिरते नैतिक मूल्यों और मानव मन के भीतर छुपी भावनाओं की गंभीरता से पड़ताल करता है। नाटक कुल चार पात्रों के बीच एक परिवार के चरित्रों के अंतर्द्वंद्व को प्रगट करता है। समाज की संवेदनहीनता पर कटाक्ष करते हुए यह समयानुरूप बदलते फैसलों पर भी सवाल खड़े करता है। प्रासंगिक घटनाओं के संदर्भ में मानवतावादी फैसलों का पक्षधर है प्रथम व्यक्ति। मूलत: बांग्लादेश के लेखक शहजाद फिरदौस के बांग्ला भाषा में लिखे कथानक को बालकृष्ण अय्यर व श्यामल मुखर्जी ने हिंदी में अनुदित किया है। छत्तीसगढ़ आट्र्स एंड थिएट्रिकल सोसायटी, दुर्ग की इस प्रस्तुति को बालकृष्ण अय्यर ने निर्देशित किया है। नाटक में प्रथम व्यक्ति (पिता) का किरदार शकील खान ने निभाया है। परिवार के अन्य सदस्यों में राजश्री देवघरे (मां), प्रकाश ताम्रकार (बेटा), दीपिका नंदी (बेटी) तथा योगेश पांडेय (इ

बासी खाने वालों की सहृदयता : माटीपुत्र

परदेशीराम वर्मा जी की कहानियों में माटी की गंध सर्वत्र व्‍याप्‍त रहती है, इसी माटी की खुशबू से सराबोर कहानी संग्रह ‘माटी पुत्र’ में 19 कहानियां संग्रहित है,  इन कहानियों के शव्‍द-शव्‍द में गांव जीवंत  है। कथा संग्रह ‘माटी पुत्र’ के बरछाबारी से भिनसार तक की सभी कहानिंयां औद्यौगीकरण के साथ गांवों में आए बदलाव का चित्र खींचती हैं। जिनमें एक नये ग्रामीण परिवेश का परिचय सामने आता है। इन कहानियों में समाज का खोखलापन उजागर होता है। छत्‍तीसगढ में व्‍याप्‍त दाउ, मालगुजार, गौंटिया के द्वारा किए गए सामंती अत्‍याचार, शोषण व भेदभाव सहित सभी सामाजिक विद्रूपों के विरूद्ध बहुसंख्‍यक शोषित वर्ग के आवाज को संग्रहित कहानियों में बुलंद किया गया है। वर्मा जी अपने इन्‍हीं चितपरिचित शैली में कथा रचते हैं और मोह लेते हैं। वे हमारे बीच के कथा पात्रों और परिवेश को एकाकार कर संदेश देते हैं, उनके संदेश हृदय में गहरे से अंकित होते चले जाते हैं। बासी खाने वालों की सहृदयता के साथ ही इनकी पीतल बंधी लाठियों के शौर्य को रेखांकित करती इन कहानियों में अनुभूति की प्रामाणिकता और अभिव्‍यक्ति की सहजता मुखरित होती है। सभी व