इंसानों से परे आज बात कुछ ईमानदारों की...


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। प्रस्‍तुत है तीसरी कड़ी ...


भ्रष्टाचार और जनलोकपाल बिल की चर्चा तो इस मार्च में पूरे एक पखवाड़े होते रही उससे परे की कुछ छोटी-छोटी बातों को देखें, जिनको देखना मेरे वहां जाने का एक मकसद था तो अमरीका एक बड़ी दिलचस्प जगह भी है। लॉस एंजल्स के एक इलाके में जब हम एक संगीत स्कूल के बगल से गुजर रहे थे तो वहां फुटपाथ पर खड़े हुए संगीत के छात्र प्रैक्टिस कर रहे थे। जो काम आमतौर पर संगीत शाला के भीतर होना चाहिए वह काम वे सोच-समझकर अहाते के बाहर, सडक़ से लगकर क्‍यों कर रहे थे यह पूछने का मतलब उनके रियाज में खलल डालना होता। एक दूसरे कॉलेज के बगल से जब हम गुजरे तो उसका अहाता इतना बड़ा था कि वहां कैम्पस की इफाजत के लिए बहुत सारी गाडिय़ां पुलिस पेट्रोल गाड़ी की तरह खड़ी थीं। और निजी सुरक्षा का यह हाल अमरीका में सभी जगह जहां साधारण संपन्न लोगों के घरों के बाहर भी ऐसी तख्तियां लगी हैं कि वहां निगरानी का काम कौन सी सुरक्षा एजेंसी देखती है। इन तख्तियों के अलावा घरों में हिफाजत के लिए कोई लंबे-चौड़े इंतजाम नहीं दिखते हैं। एक बहुत बड़े जैन मंदिर से गुजरते हुए जब हम वहां रूके तो पता लगा कि सभी जैन सम्प्रदायों का वह एक मिला-जुला मंदिर है और उसमें हजारों लोग आते हैं। वहां पर अलग-अलग जैन सम्प्रदाय के लिए अलग-अलग मंदिर बनाना मुमकिन नहीं होता इसलिए सबने मिलकर यह मंदिर बनाया है। इसी तरह एक इस्लामिक इंस्टीट्यूट में जब हम पहुंचे तो वहां नमाज का वक्त नहीं था इसलिए लोग नहीं थे लेकिन वहां की एक महिला कर्मचारी ने वहां के हॉल तक ले जाकर इस भ्रष्टाचार-विरोधी पदयात्रा को शुभकामनाएं दीं। उसने यह भी कहा कि हम चाहते हैं तो दांडी मार्च-2 के बारे में अपने पर्चे वहां नोटिस बोर्ड पर लगा दें और नमाज के वक्त वहां आकर हम लोगों को इस बारे में बता भी सकते हैं।

अमरीका के अपने पिछले प्रवास में मैं यह देखकर हक्का-बक्का था ही कि वहां की गाडिय़ां इतनी बड़ी होती हैं और खाने-पीने के सामान कितने बड़े आकार में दिए जाते हैं। वह इस बार भी खटकते रहा और यह भी खटकते रहा कि किस तरह पैकिंग के सामान की बर्बादी अमरीकी जिंदगी में रात-दिन होती है। लेकिन विकराल आकार की इन तमाम बातों के बीच एक अटपटी बात अमरीकी-पसंद के बारे में यह रही कि वहां के लोग आमतौर पर कुत्‍ते बहुत ही छोटे आकार के पालते हैं। जिन इलाकों से हम गुजरे, कम से कम वहां के बारे में तो यह बात आम थी। कुछ गिने-चुने कुत्‍ते बड़े भी दिखते थे लेकिन बाकी तमाम कुत्‍ते छोटे-छोटे, ठंड से बचाने के लिए जैकेट पहने हुए, कुछ की आंखों पर धूप का चश्मा भी लगा हुआ। जगह-जगह फुटपाथों और बगीचों में ऐसे नोटिस लगे थे कि वहां पर कुत्‍तों की चेन या रस्सी कितनी लंबी रखी जा सकती है। कुत्‍तों को घुमा रहे लोग इस बात के लिए भी सावधान रहते थे कि बगल से गुजरते लोगों पर उनके पालतू जानवर झपट न पड़ें। इसलिए जब हम पास से निकलते थे तो वे रस्सी को एकदम करीब से थामकर रखते थे ताकि हमें कोई दिक्कत न हो। लेकिन जानवरों को लेकर इतने किस्म के खर्च वहां पर हैं कि उनके अस्पताल तो बहुत शानदार दिखते ही हैं, उनके खाने-पीने के लिए अलग से रेस्‍त्रां भी बने हुए हैं। हर शहर में ऐसे कई रेस्‍त्रां दिखाई पड़ते हैं। लेकिन जिन कुत्‍तों को भारत में ही नहीं अमरीका में भी गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है उनके नाम को सामाजिक मंजूरी कुछ अलग किस्म की वहां दिखती है। इंसानों के लिए बने रेस्‍त्रां के नाम भी ‘पपाया डॉग’ (पपीता कुत्‍ता ) या ‘नर्वस डॉग कॉफी’ जैसे होते थे और यह सोचना मुश्किल है कि हिन्‍दुस्‍तान में कोई कुत्‍ते के नाम पर रखे गए रेस्‍त्रां में जाना या खाना पसंद करेगा। 


एक दिन बारिश के बीच जब मैं अपने कैमरे को निकाल नहीं पाया और मुझे मोबाइल फोन के कैमरे से एक तस्वीर खींचनी पड़ी, उसमें किताबों की एक दूकान के बाहर बिल्ली और कुत्‍ते की तस्वीर के साथ एक बोर्ड लगा था कि वहां पालतू पशुओं का स्वागत है। लोग बाजारों में, दुकानों में, कई रेस्‍त्रां में अपने पालतू पशुओं के साथ जा सकते हैं। इन सब बातों की चर्चा करने पर मेरे साथ चल रहे एक दोस्ता ने मजाक किया कि हिन्‍दुस्‍तान के भ्रष्ट लोगों के बीच वहां इंसान की जिंदगी कुत्‍तों सरीखी है, लेकिन अमरीकी कुत्‍तों सरीखी नहीं। मैंने उन्‍हें याद दिलाया कि हिन्‍दुस्‍तान एक देश की तरह जब बर्ताव करता है तो दूसरे लोगों को काट खाने नहीं दौड़ता। सडक़ किनारे के एक खंभे पर एक पोस्टर लगा हुआ था जिसमें एक गुमे हुए कुत्‍ते के लिए दो हजार डॉलर (करीब 90 हजार रुपए) का ईनाम रखा गया था। 


कुत्‍तों की ही कुछ और चर्चा करें तो सडक़ किनारे के कैफे में बैठकर खाते हुए लोगों के साथ आए हुए उनके कुत्‍तों के लिए भी वहां खाने के बर्तन थे और वे साथ-साथ खाते चल रहे थे। सडक़ किनारे खड़ी एक गाड़ी के पीछे तीन स्टिकर लगे थे, ‘मुझे अपने न्‍यूफाउंडलैंड से प्‍यार है’, ‘मेरा न्‍यूफाउंडलैंड तुम्हारे ग्रेजुएट स्टूडेंट से अधिक स्मार्ट है’। ‘मेरा कुत्‍ता मेरा कोपायलट है’। लेकिन सभी जगह एक बात आम थी कि कुत्‍तों को लेकर चलने वाला उनकी गंदगी खुद और तुरंत साफ करनी होती थी ऐसा न करने पर 200 डॉलर तक के जुर्माने के नोटिस लगे हुए थे। इसके लिए बहुत से लोग अपने घरों से गंदगी उठाने के सामान लेकर निकलते हैं। लेकिन छोटे कुत्‍तों की इस तमाम चर्चा के बीच एक शाम उस दिन की पदयात्रा खत्‍म करते हुए एक अमरीकी सज्‍जन भालू की तरह के दानवाकार अपने कुत्‍ते को घुमाते दिखे और उसके बारे में पूछने पर उन्‍होंनें बताया कि वह कनाडा में बर्फ पर रहने वाली एक नस्ल का कुत्‍ता है और मिजाज से वह बिल्कुल बच्‍चों जैसा है। 

अगली सुबह उसी जगह से हम आगे फिर चलना शुरू किया तो फिर उस इलाके में मौजूद थे। जब उनसे हमारी बातचीत कुछ लंबी खींचने लगी तो यह कुत्‍ता बेचैन होने लगा और उन्‍हें खींचने लगा कि यह उसके घूम ने का वक्त है। मुझे यह भी याद आया कि इसी अमरीका में पिछले दो-तीन बरस की मंदी के दौरान हालत यह थी कि पालतू पशुओं के अनाथश्रमों में जगह नहीं बची थी क्‍योंकि जब इंसानों को खाने की गुंजाइश नहीं बची थी तो पालतू पशुओं को लोग कहां से खिलाते। ऐसे में लोगों ने अपने बरसों पुराने पालतू पशुओं को सडक़ों पर छोड़ दिया था। एक शहर के बाजार से निकलते हुए जब एक दूकान में शो-केस में एक बिल्ली घूम ती हुई दिखी तो रूककर मैंने दूकान की मालकिन से बात की। शायद पालतू पशुओं के लिए महंगे सामानों वाली इस दूकान में शो-केस में जिंदा बिल्ली के घूमते रहने से ग्राहक आकर्षित होकर आते होंगे और इसलिए कुछ दुकानों में ऐसा किया जाता है। लेकिन यह बात हैरान करने वाली थी कि कांच के बंद शो-केस में किसी जानवर को इस तरह कैद करके रखने के खिलाफ वहां का कानून कोई कार्रवाई क्‍यों नहीं करता? अपने सफर के आखिर में जब मैं कुछ दिन न्‍यूयार्क में रहा और वहां गांधी प्रतिमा वाले यूनियन स्य्वेयर पर पहुंचा तो ढाई बरस पहले की तरह इस बार भी वहां कुत्‍तों के लिए बनाए गए एक कटघरे में लोग अपने पालतू पशुओं के साथ दिखे, वे वहां बातें कर रहे थे और उनके कुत्‍तों के बीच भी मेल-जोल चल रहा था। इस पूरे अहाते में रेत बिछी थी ताकि गंदगी उठाने में कोई दिक्कत न हो। मेरे वहां के दोस्त आनंद पांडे ने बताया कि यह जगह नर और मादा कुत्‍तों के लिए मिलने-जुलने के काम भी आती है क्‍योंकि ऐसे व्यस्त शहर में अलग से ब्रीडिंग आसान नहीं होती। शहरों में जगह-जगह महंगे सेलून और व्‍यूटी पॉर्लर दिखाई पड़ रहे थे जो सिर्फ पालतू पशुओं के लिए बने थे। लेकिन अमरीका में बहुत से दूसरे जानवर भी लोग पालते हैं जो हमें इस रास्ते पर नहीं दिखे लेकिन जिन्‍हें टीवी के कुछ चैनलों पर कई बार देखा जा सकता है। 

लोग अजगर से लेकर शेर तक पाल लेते हैं और जब हम सान फ्रांसिस्को की गांधी प्रतिमा पर पहुंचे तो स्केट बोर्ड पर वहां से निकल रहे एक नौजवान के कंघे पर कई फीट लंबा काकातुआ जैसा रंग-बिरंगा पंछी बैठा हुआ था। बहुत से लोग ऐसे भी दिखे जो पहियों वाली कुर्सियों पर चल रहे थे या नेत्रहीन थे और किसी छड़ी के सहारे चल रहे थे। इनमें से कुछ लोगों के पास ऐसे प्रशिक्षित कुत्‍ते थे जिन पर मार्गदर्शक कुत्‍ता होने के बिल्‍ले लगे थे और वे इनको राह दिखाने या मदद करने का काम कर रहे थे। 
क्रमश: .....


सुनील कुमार 

विभाजन को लेकर गांधी को किस्म-किस्म की गालियों वाले बैनर-नारे,... गोडसे जिंदाबाद!


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। छत्‍तीसगढ़ से आभार सहित प्रस्‍तुत है दूसरी कड़ी ...



गांधी का विरोध करने वाले लोगों में लगभग तमाम लोग सिख समाज के थे और कुछ लोग अंबेडकरवादी बौद्ध थे। गांधी को कोसने के इन दोनों तबकों के अलग-अलग तर्क थे। इन सिखों का यह मानना था कि गांधी भारत-पाक विभाजन के जिम्मेदार थे जिसकी वजह से लाखों सिखों की जान गई थी। वे गांधी को बहुत बड़ा नस्लवादी, बहुत भ्रष्ट करार देने के लिए बड़े-बड़े बैनर लेकर भी आए थे और बौद्ध लोगों का यह मानना था कि गांधी बहुत बड़े दलित विरोधी थे। गांधी को दलित विरोधी बताने वाले तर्क लंबे समय से हवा में हैं और इन तर्कों के मुताबिक गांधी एक सवर्ण मनुवादी इंसान थे जिन्‍होंने दलितों को हरिजन नाम देकर उस हरि के साथ जोडऩे की कोशिश की थी जिस हरि के किसी मंदिर में इन दलितों की कोई जगह नहीं थी। 

एक दिन पहले तक जो दांडी मार्च-2 मुझे रूखा-सूखा सा होते दिख रहा था उसमें पहली सुबह ही एक दिलचस्प पहलू जुड़ गया था। लेकिन विरोध करने वालों से बात करते हुए जब दांडी मार्च के आयोजक अपना ठंडा मिजाज पूरी तरह कायम रखते हुए उन्हेंर यह ‹यौता भी दे बैठे कि वे लोग अपने गांधी -विरोधी बैनरों के साथ भी इस मार्च में शामिल हो जाएं क्योंिकि यह तो भारत के भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल बिल के समर्थन में निकाला जा रहा है। पहले तो उनमें से कुछ लोग तैयार हुए लेकिन फिर उन्हेंच इसमें कोई चाल लगी और वे बिदक गए। चूंकि इस मार्च का सारा रास्ता और समय, जगह-जगह ठहरने की जगह सब कुछ पहले से इंटरनेट पर थी इसलिए विरोध करने वाले इस पदयात्रा के पहले ही गाडिय़ों से अगली जगह पहुंचकर डेरा डाल रहे थे और गांधी -विरोधी पर्चे बांट रहे थे। 
लेकिन यह सिलसिला पहले दिन चला और फिर आखिरी दिन। बीच के 13 दिन गांधी-विरोधी लोग अपने-अपने काम में लगे रहे। सबसे हैरानी के नारे 26 मार्च को सान फ्रांसिस्को में गांधी की प्रतिमा के सामने हो रहे समापन समारोह में सुनने मिले जहां विरोध करने वालों की भीड़ पूरा घेरा डालकर नाथूराम गोडसे की जिंदाबाद के नारे भी पूरे वक्त लगाते रहे। हिन्‍दुस्तान लौटते ही जब गांधी पर आई एक किताब का विवाद पढऩे मिला तो लगा कि गांधी जैसा बड़ा व्यक्तित्‍व बिना विरोध भला कैसे रह सकता है।

अमरीका के इस कैलिफोर्निया राज्‍य में खेती-बाड़ी बहुत होती है और यहां पर फल-सब्जियों का बहुत बड़ा उत्‍पादन है। संतरे के किस्म के एक फल का हाल यह था कि फुटपाथ पर चलते हुए हाथ बढ़ाकर किसी भी अहाते से बाहर लटकते हुए फलों को तोड़ा जा सकता था और ऐसी ताजा हालत में उनका स्वाद ही कुछ अलग था। यहां पर अंगूरों की खेती भी बहुत होती है और अंगूर से बनने वाली वाईन का भी एक बड़ा कारोबार है। लेकिन इस पदयात्रा में चलने वाले लगभग तमाम लोगों ने यह तय कर रखा था कि मांसाहार, शराब से दूर तो रहना ही है, बनती कोशिश कि सी एक घर में दो बार रूकना भी नहीं है। 

ऐसी खेती की जगह पर भारत के पंजाब से सौ बरस से भी पहले किसान पहुंच गए थे और उन्‍होंने वहां बड़े-बड़े खेत लेकर काम शुरू कर दिया था। उस वक्त के मजदूर या ठेकेदार आज उन खेतों के मालिक हैं और उनकी संपन्नता देखते ही बनती है। एक दूसरी सामाजिक बात इन लोगों के बारे में यह पता लगी कि उस वक्त अमरीकी कानून या रिवाज के मुताबिक प्रवासी लोग वहां की गोरी महिला से शादी नहीं कर पाते थे और चूंकि कैलिफोर्निया राज्‍य मैक्सिको का हिस्सा था जिससे कि बाद में अमरीका ने उसे खरीदा था, इसलिए वहां बसे हुए मैक्सिकन मजदूरों की लड़कियों से ही भारत से गए लोगों ने उस वक्त बड़ी संख्या में शादियां की। यूं तो पूरा का पूरा अमरीका इसी किस्म के मिले-जुले खून का नमूना है, लेकिन मुझे बताने वाले जानकारों का कहना था कि इस राज्‍य में पंजाब से आए लोगों और मैक्सिकन मजदूरों की शादियां कुछ अधिक ही हुई थीं। 
सैन डिएगो के जिस मार्टिन लूथर किंग जूनियर मेमोरियल पार्क से दांडी मार्च रवाना हुआ वहां से लेकर शाम को 18-19 मील पूरे होने तक पूरा का पूरा शहर ऐसा खूबसूरत और साफ-सुथरा था कि मुझे वहां बसे अपने छत्‍तीसगढ़ी मित्र वेंक्‍टेश शुक्‍ला की कही यह बात सही लगी कि दांडी मार्च-2 अमरीका के सबसे सुंदर इलाके से गुजरने वाला है। हमारे लोग न सिर्फ अपने कचरे को कूड़ादान आने तक सहेजकर रखते थे बल्कि हर चौराहे पर लाल बत्‍ती पर रूकने का ख्याल भी रखते थे। जब थका न बहुत बढ़ जाती थी तो मुझे लालबत्‍ती पर रूकना भारी लगता था लेकिन वहां बिना हरी बत्‍ती पैदल सड़क पार करने पर भी कई सौ डॉलर का जुर्माना लिखा हुआ था। 
हमारे रास्ते में पडऩे वाले लोग, अगर वे भारतीय मूल के थे तो वे रूककर या तो बात कर लेते थे, या सुन लेते थे। लेकिन बाकी लोगों के न तो भारत के भ्रष्टाचार में अधिक दिलचस्पी थी और न ही जनलोकपाल बिल में। 
यह हाल लॉस एंजल्स और हॉलीवुड के आसपास के इलाके का था, लेकि न इसी राज्‍य के दूसरे हिस्से में बर्कले और सान फ्रांसिस्को में राजनीतिक चेतना बहुत अधिक थी और वहां पर गैरभारतीय लोग भी इस पदयात्रा में दिलचस्पी ले रहे थे। 
चारों तरफ खूब हरियाली थी, पेड़-पौधे थे, कई जगहों पर दूर-दूर तक कोई आबादी नहीं थी, लेकिन फारिग होने के लिए कहीं न कहीं पेशाबघर ढूंढना होता था। कभी बाग-बगीचे में तो कभी कि सी रेस्‍त्रां या सुपर मार्केट में ऐसी जगह मिलती थी और थके हुए पैरों को इन जगहों तक जाने के लिए लंबी-चौड़ी दूरी तय करनी पड़ती थी। ऐसे में भारत में चारों तरफ बिखरी हुई सुविधा याद आती थी, जहां पर हर पेड़, हर दीवार या हर पत्‍थर का इस्तेमाल इंसान और जानवर बराबरी से कर लेते हैं। 
हमारे साथ चल रहे लोगों में बहुतायत आंध्र के कम्‍प्‍यूटर पेशेवर लोगों की थी और बातचीत में वे अक्‍यर अंग्रेजी से तेलुगू पर उतर आते थे। जब मैं अंग्रेजी कहने की जिद करता था तो उनमें से एक ने बताया कि कैलिफोर्निया में उनकी कंपनी के ऑफिस में हाल यह है कि कंपनी के हैदराबाद ऑफिस से अधिक तेलुगू यहां बोली जाती है। इस पूरी पदयात्रा में जो कमी मुझे सबसे अधिक खलती रही वह थी अलग-अलग जातियों, भारतीय प्रदेशों, पेशों और राजनीतिक विचारधाराओं के लोगों की विविधता कम थी और यह भी एक वजह थी कि जनलोकपाल बिल से परे के तर्क हवा में कुछ कम तैरते थे। लेकिन दूसरी तरफ यह बात भी थी कि ये तमाम लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ लडऩे के लिए कमर कसकर तैयार थे और उन्‍हें आंध्र के लोकसत्‍ता पार्टी के संस्थापक, भूतपूर्व आईएएस अफसर जयप्रकाश नारायण में बहुत बड़ी उम्मीद दिखती थी। 
मुझे चर्चा के लिए एक और मुद्दा पूरे रास्ते मिल गया था, तेलंगाना का। हमारे साथ के तमाम लोग आंध्र के बाकी हिस्से के थे और हर कोई तेलंगाना का विरोधी था। तेलंगाना इलाके का नहीं, उसे राज्‍य का दर्जा दिए जाने का विरोधी। उनके अपने-अपने तर्क थे। कुछ का यह मानना था कि आंध्र की राजधानी बने रहकर हैदराबाद इतना विकसित हुआ है और उसकी अर्थव्यवस्था इतनी बढ़ी है कि अब तेलंगाना के लोगों को लंबे समय बाद एक राज्‍य की मांग फिर याद आ गई है। अगर तेलंगाना राज्‍य बनेगा तो हैदराबाद उसके भीतर ही रहेगा। ऐसे में बाकी आंध्र विभाजित प्रदेश का सबसे बड़ा और कमाऊ शहर खो बैठेगा। लेकि न इसके अलावा कुछ लोगों के तर्क काफी तंगदिली के थे। उनका मानना था कि जिस तरह से तेलंगाना के आंदोलनकारियों ने हैदराबाद शहर में महान संतों और कवियों की मूर्तियां तोड़ी हैं, जिस तरह आगजनी की है, उससे जाहिर है कि वे लोग यह राज्‍य किस तरह चलाएंगे। 
मुझे वहां प्रतिपक्ष बनकर तर्क को आगे बढ़ाना होता था कि किसी भी इलाके को अगर उसका जायज हक सही वक्त पर न मिले तो उसका यह नतीजा हो सकता है कि वहां की लीडरशिप कुछ मौके के लिए कुछ कम जिम्मेदार लोगों के हाथ चली जाए, लेकिन राज्‍य बनने पर ऐसी नौबत हमेशा कायम नहीं रहती। मैंने लगभग हर किसी को यह भी याद दिलाया कि ऐसी तोडफ़ोड़ सिर्फ तेलंगाना समर्थक कर रहे हैं ऐसा भी नहीं है, ऐसा तो हिन्‍दुस्तान के लगभग हर इलाके में किसी भी बड़े आंदोलन के दौरान होते आया है। लेकिन इस पूरे पखवाड़े मुझे एक भी तेलंगाना समर्थक नहीं मिला और शायद एक वजह यह भी थी कि ये तमाम लोग तेलंगाना के बाहर के आंध्र के बाकी हिस्से से आए हुए लोग थे। 
दांडी मार्च-2 को आजादी की दूसरी लड़ाई के साथ जोड़कर बने नारे वाले टी-शर्ट लोकसत्‍ता पार्टी के समर्थकों के दिए हुए थे और पीछे उसका नाम या निशान छपे होने से लगभग तमाम बाहरी लोगों को यह आभास होता था कि यह लोकसत्‍ता का आयोजन है। ऐसे में एक प्रमुख आयोजक, और अब मेरे एक अच्‍छे दोस्त बन चुके जवाहर से लगभग रोज कुछ घंटे मेरी इस बात पर चर्चा और बहस होते रहती थी कि किसी भी जनआंदोलन के लिए जनाधार कितनी मायने रखती है और सिर्फ नीयत की ईमानदारी से काम नहीं चलता। उनसे लगातार भारत की व्यापक राजनीति पर भी बात होती थी और इस पर भी कि क्‍या भारत में एक व्यापक जनआंदोलन की संभावना है। यह बहस एक पखवाड़े पहले वहां से मेरे रवाना हो जाने के बाद भी अभी ईमेल के मार्फत जारी है और इस बहस को आगे बढ़ाने का काम जनलोकपाल बिल को लेकर दिल्‍ली में अनशन करने वाले अन्ना हजारे ने भी आगे बढ़ाया है। 
किसी बहस के दौरान अगर मतभेद है तो अपनी खुद की तर्कशक्ति किस तरह धारदार होते चलती है और तर्क बढ़ते चलते हैं यह देखना बहस पर फिदा कर देता है। अलग-अलग विचारधाराओं के बीच की बहस कहानियों में बताए गए समुद्र मंथन जैसी होती है जिनसे कई किस्म का अमृत निकल सकता है। कहानियों से परे घरों में दही को मथकर मक्‍खन निकालने को देखें तो समझ आता है कि जब तक दो पक्षों के बीच हलचल या टकराव न हो तब तक कुछ नहीं निकलता। 
गांधीवादी सोच के भीतर भी, भ्रष्टाचार से लड़ाई के बहुत साफ मकसद के साथ भी आंदोलनकारियों के बीच कितने किस्म के मतभेद हो सकते हैं यह देखना मेरे लिए बड़ा दिलचस्प था। और एक पूरे पखवाड़े से अधिक का वक्त जब अपना रोज का कोई काम किए बिना जब पैर और जुबान, कैमरे को थामे हुए हाथ और उंगलियां, साथ-साथ चलते रहते थे तो वह सीखने का एक बड़ा मौका था। 
मेरे लिए यह एक बिल्कुल ही अनोखा मौका इसलिए भी था कि फिलीस्तीन के सफर में जिस माहौल में हफ्तों रहना हुआ था, यह उससे बिल्कुल ही अलग था लेकि न शायद उसी तरह के पक्के इरादे वाला था। इन दो अलग-अलग संस्कृतियों को देखते और जीते हुए मेरा मन लगातार तुलना भी करते चल रहा था, और कुछ महीनों के भीतर का यह मौका एक बिल्कुल ही अलग अनुभव था।
अमरीका में किसी भी सार्वजनिक प्रदर्शन या रैली-जुलूस के बगल से निकलते हुए अगर कोई गाड़ी हॉर्न बजाती है तो उसका मतलब उस आंदोलन को या मुद्दे को समर्थन देना माना जाता है। ऐसे हॉर्न के जवाब में पदयात्रा कर रहे लोग हाथ हिलाकर शुक्रिया करते थे। ऐसा साथ देने वाले लोगों में मोटरसाइकि लों पर बगल से निकलने वाले लोग अधिक थे जो कि किसी भी महंगी कार से भी महंगी हार्ले डेविडसन कंपनी की मोटरसाइकिल पर सवार घूमते थे। अमरीका में ऐसे लोगों की एक बिल्कुल ही अलग बिरादरी है। इसमें अधेड़ उम्र से लेकर बुढ़ापे तक के ऐसे शौकीन लोग हैं जो चमड़े के कपड़े पहने, बदन पर ढेरों गुदना गुदाए रहते हैं और ऐसे लोगों की टोलियां सड़कों पर साथ गुजरते दिखती हैं या किसी-किसी जगह वे एक साथ इकत्र होकर अपनी गाडिय़ों की नुमाइश सी करते मजा लेते रहते हैं। 
मेरा दिल बहुत करते रहा कि ऐसे खूबसूरत शहरों में मैं ऐसी किसी मोटरसाइकि ल पर धूमने का मजा ले सकूं, लेकिन सुबह से शाम तक हमारे पैदल चलने के रास्ते और मंजिल, दूरी और वक्त के साथ तय रहते थे और उससे अलग हटने की कोई गुंजाइश उस वक्त नहीं थी जब ऐसी कोई मोटरसाइकि ल आसपास दिखती थी। जो आधा दर्जन लोग पूरे 240 मील के पैदल सफर पर निकले थे, उनमें से कोई भी एक कदम की चोरी या कटौती भी करना नहीं चाहता था इसलिए इन मोटरसाइकिलों को बस दूर से देखना हो पाया। 
(बाकी कल)

अमरीका में दांडी मार्च - II पहली किस्त : सुनील कुमार


पिछले दिनों राजघाट से गाजा तक के कारवां में साथ रहे  दैनिक छत्‍तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक श्री सुनील कुमार जी का संस्‍मरण हमने अपने पाठकों के लिए छत्‍तीसगढ़ से साभार क्रमश: प्रकाशित किया था. महत्‍वपूर्ण एवं विश्‍व भर में चर्चित कारवां के बाद सुनील कुमार जी, अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की पदयात्रा में भी शामिल हुए। इस पदयात्रा का संस्‍मरणात्‍मक विवरण दैनिक छत्‍तीसगढ़ के अप्रैल अंकों में प्रकाशित हुआ है. टैक्‍स्‍ट आधारित सर्च इंजनों में चाणक्‍य पीडीएफ समाचार पत्रों के आलेखों की अनुपलब्‍धता के कारण हम इस आलेख को ब्‍लॉगर दस्‍तावेजीकरण करते हुए, यहॉं क्रमश: पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। छत्‍तीसगढ़ से साभार सहित प्रस्‍तुत है पहली कड़ी ...


ठीक एक महीना पहले आज के दिन मैं अमरीका के हॉलीवुड वाले शहर लॉस एंल्जस में दांडी मार्च-2 के शुरू होने का इंतजार करते हुए वहां के मशहूर यूनिवर्सल स्टूडियो में पूरा दिन गुजार रहा था। लेकिन उसके बारे में इस दांडी-यात्रा की बात पूरी हो जाने के बाद फिर कभी। 
दर असल अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में भारतीय मूल के लोगों द्वारा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक दांडी-यात्रा की याद में निकाली गई 240 मील की इस पदयात्रा में शामिल होने का मेरा इरादा कुल दो दिनों में बना और अमरीका का वीजा दस बरस का मेरे पास पड़ा था इसलिए आनन-फानन मैं वहां पहुंच गया। जाने के पहले फोन पर दांडी मार्च-2 के आयोजकों से जब बात हुई तो वे कुछ हैरान हुए। उन्हें लग रहा था कि मैं इतनी दूर से वहां आना क्यों चाह रहा हूं और वह भी अपने खर्च से। फिर मैंने उन्हें ईमेल पर अपने दिसंबर-जनवरी के गाजा कारवां के बारे में जानकारी भेजी थी तो उन्हें यह भी लग रहा था कि उतनी बड़ी राजनीतिक सरगर्मी वाली यात्रा के बाद यह सीधी -सादी दांडी-यात्रा मुझे इतनी दूर से पहुंचकर निराश भी कर सकती है। उनके मन में और भी बहुत से शक थे जिसकी वजह से वे बहुत चौकन्ने थे और शक के साथ ही उन्होंने मेरे वहां आने पर हामी भरी। 
इसमें जाने के मेरी अपनी वजहें थीं। हिन्दुस्तान के भ्रष्टाचार को लगातार रात-दिन देख-देखकर और उस बारे में लगातार लिख-लिखकर मन और जुबान जरूरत से कुछ अधिक ही कड़वे हो चुके थे और इससे उबरने के लिए कुछ बाहर रहना एक किस्म से जरूरी लग रहा था। दूसरी बात यह कि गांधी किस तरह 240 मील पैदल चले होंगे उसका अहसास करने का यह मौका दिख रहा था। तीसरी बात यह कि अमरीका में बसे हुए भारत के लोगों से पूरे एक पखवाड़े से अधिक समय तक रात-दिन मिलकर हिन्दुस्तान के मुद्दों पर बात करने का भी यह एक मौका होने जा रहा था। एक खूबसूरत इलाके, कैलिफोर्निया में लंबा पैदल चलने और उसे देखने का लालच भी था और उस इतिहास को भी पास से देखने का यह एक मौका होने जा रहा था जिसमें हिन्दुस्तान की गदर पार्टी को यहीं के बर्कले-सान फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया था, अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई के लिए। यहीं के बर्कले में 1905 में स्वामी विवेकानंद ने अपनी संस्था स्थापित की थी। 
एक तरफ यह पदयात्रा हॉलीवुड के इलाके से शुरू होनी थी और दूसरी तरफ सान फ्रांसिस्को और बर्कले में खत्म होनी थी जहां कि दुनिया का शायद पहला परमाणु -विरोधी आंदोलन शुरू हुआ था और जहां से दुनिया का विख्यात या कुख्यात हिप्पी आंदोलन भी शुरू हुआ था। ऐसी बहुत सी दिलचस्प बातों वाले इस कैलिफोर्निया राज्य के तमाम अजनबी दोस्तों के साथ एक पखवाड़े से अधिक का वक्त गुजारने के लिए मैं वहां पहुंचा था और रोजाना 18-19 मील पैदल चलने का अंदाज भी मुझे ठीक से नहीं था क्योंकि अपनी रोज की जिंदगी में एक मील भी रोज चलने की आदत नहीं थी। लेकिन बाद में वहां टीवी और रेडियो, अखबारों, और भारतीय समुदाय के लोगों ने जब जगह-जगह पूछा कि मैं इस पदयात्रा के लिए क्यों आया हूं तो तब तक बात मेरे खुद के भीतर कुछ अधिक साफ हो गई थी कि मैं इससे गांधी का नाम, उनकी याद और उनके सिद्धांत जुड़े होने की वजह से पहुंचा हूं और बाकी तमाम पहलू लगभग महत्‍वहीन थे या कम से कम इतनी अहमियत के नहीं थे कि उनकी वजह से मैं इतनी दूर पहुंचा होता। 
एक तरफ इस पूरे पखवाड़े सुबह से देर शाम तक जख्मी पैर चलते रहे, दूसरी तरफ साथ के लोगों से बात करते हुए जुबान चलती रही और तीसरी तरफ गांधी की सोच के साथ-साथ अपने आसपास की जिंदगी का विश्लेषण मन के भीतर चलते रहा। भारत के भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल बिल को लागू करवाने की दो प्रमुख बातों के साथ भारतीय मूल के लोगों ने यह दांडी मार्च-2 आयोजित किया था और वहां से कुछ लिखने के पहले मुझे यह डर पूरे वक्त था कि पहले दिन से ही जख्मी हो चुके पैर पता नहीं 240वीं मील तक पहुंच पाएंगे या नहीं और इसीलिए मैं वहां के मीडिया को तो इंटरव्यू तो देते रहा, अपनी खींची तस्वीरें औरों को देते रहा लेकिन खुद कोई रिपोर्ट नहीं लिखी। 
मेरे लिए यह पूरा पखवाड़ा, और शायद उसके पहले और बाद अमरीका में गुजारे कुछ दिन कुछ महीनों पहले के ही गाजा कारवां से बिल्कुल अलग थे जिसका मकसद फिलीस्तीनियों पर हो रहे इजराइली हमलों और उन हमलों को अमरीकी समर्थन के खिलाफ विरोध दर्ज करना था। अमरीका-विरोधी पांच-छह हफ्तों का वह कारवां मध्या -पूर्व के उन देशों में था जिनका माहौल अमरीका से बिल्कुल अलग था। वहां पर साथ में चल रहे लोग बुरी तरह से कट्टर लोग थे जो इजराइल-अमरीका के खिलाफ थे। वहां से निकलकर कुछ महीनों के भीतर ही दो हफ्ते से अधिक का यह वक्त ऐसे लोगों के बीच गुजर रहा था जो कि अमरीका में बरसों से काम करते हुए उस देश की उदार व्यवस्था का फायदा पाते हुए एक कामयाब जिंदगी गुजार रहे थे और अपने जन्म के देश भारत में इन दिनों चले रहे भ्रष्टाचार के भांडाफोड़ से बहुत विचलित थे। ऐसे व्यस्त लोगों ने इस दांडी-यात्रा का आयोजन किया था और इस बात पर मुझे भारत और अमरीका सभी जगह बहुत से सवालों का सामना करना पड़ा कि भारत के इस घरेलू मुद्दे पर अमरीका में यह आंदोलन क्यों चलाया जा रहा है? 
हिन्दुस्तान से रवाना होते हुए यहां की एक घरेलू उड़ान में एक बहुत बड़े अफसर दोस्त साथ में थे और इस सारे अभियान में मेरे जाने को लेकर उनकी सलाह थी कि इससे भारत की तस्वीर इतनी अधिक गंदी न हो जाए कि विदेशों में बसे हुए भारतीय मूल के लोगों के बच्‍चे इस देश लौटना ही न चाहें, यहां पर कोई काम न करना चाहें। उनकी एक फिक्र यह भी थी कि इससे दुनिया में भारत की बदनामी बहुत अधिक होगी और दुनिया को यह अहसास नहीं हो पाएगा कि पिछले बरसों में भारत की तरक्की के अनुपात में ही भ्रष्टाचार के मामले कुछ अधिक हुए हैं और भारतीय लोकतंत्र उनसे निपट रहा है। यहां से रवाना होने से पहले तकरीबन सभी लोगों का यही कहना था और इसका मेरे पास कोई सीधा-सीधा जवाब था भी नहीं। 
लेकिन पदयात्रा के बीच जब एक टीवी चैनल ने मुझसे यही सवाल किया तो एक मजाक सूझा और मैंने कहा-अमरीका में इसलिए कि हिन्दुस्तान के आज के प्रधानमंत्री भारत के लोगों से अधिक अमरीका की बात सुनते हैं और अगर यहां से उन्हें खबर जाएगी कि वे भ्रष्टाचार कम करें तो वे जरूर कुछ न कुछ करेंगे। लेकिन वहां पर भारतीय मूल के जितने लोग कुछ मील से लेकर पूरे 240 मील के सफर में साथ रहे उनसे बात करके यह लगा कि इस मुद्दे को लेकर वहां बसे रहकर भी लोग अगर भारत में अपने लोगों के बीच, भारत के प्रमुख लोगों के बीच अपनी बात भेज सकेंगे तो शायद इस बात का कुछ वजन होगा। इस दांडी-यात्रा से जुड़े हुए लोगों में आन्‍ध्र के एक भूतपूर्व आईएएस अफसर जयप्रकाश नारायण से जुड़े हुए लोग भी बड़ी संख्या में थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण ने सरकारी नौकरी छोड़ी थी और एक जनसंगठन बनाया था। बाद में वे लोकसभा नाम की एक राजनीतिक पार्टी बनाकर चुनाव में उतर आए थे और अपने तमाम उम्मीदवारों की हार के बीच वे अकेले विधायक बने। इस पार्टी के समर्थक और आंध्र से गए हुए लोग इस दांडी-यात्रा के खास लोगों में से थे। लेकिन यह आयोजन उनकी बहुतायत के बाद भी उस संगठन का कार्यक्रम नहीं था और इसमें बहुत से दूसरे लोग भी जुड़े हुए थे जिनमें बाबा रामदेव के साथी भी थे और उग्र हिन्दू विचारधारा के ऐसे लोग भी थे जिन्हें  कुछ दशक पहले के गुजरात के एक दंगे में पूरी मुस्लिम बस्ती जलाकर बहुत से लोगों को मार डालने पर फख्र भी था। ऐसे लोगों के बीच चलते हुए मन में यह दुविधा भी हो रही थी कि क्या इनके साथ एक फुटपाथ पर चलना ठीक है? लेकिन ऐसे खूनी इतिहास वाले लोगों से मैं कुछ दूर रहने से परे कुछ कर नहीं सकता था लेकिन आयोजकों को मैंने उनके दावों के बारे में बता दिया था और शायद वहीं वजह थी कि वे इस दांडी-यात्रा पर हावी नहीं हो सके।
आज हिन्दुस्तान में जिस जनलोकपाल बिल को लेकर इतनी चर्चा है उसी के नारे इस दांडी-यात्रा में लगते रहे और जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मशाल उठाकर अन्ना हजारे चल रहे हैं उन्हीं का साथ देने की बात इस पूरे पखवाड़े में तमाम लोगों से होती रही। ऐसे प्रवासी भारतीय कम्यूटर कामगारों में से बहुत से ऐसे भी हैं जो आने वाले दिनों में काम छोडक़र हिन्दुस्तान लौटना चाहते हैं और यहां सामाजिक आंदोलन में पूरा समय लगाना चाहते हैं। उनके मन में इस बात को लेकर नफरत भरी हुई है कि भारत में मौजूदा सरकार किस कदर भ्रष्टाचार में डूबी हुई है और इतने बड़े भ्रष्टाचार के बिना यह देश कहां पहुंच सकता था। हर किसी की जुबान पर 2जी घोटाला था और उसकी रकम को लेकर हर एक के अपने-अपने हिसाब थे कि इतने रूपयों में कितने गरीबों का क्या-क्या भला हो सकता था? यह भड़ास नेता और अफसर से होते हुए देश के उस चर्चित मीडिया तक भी पहुंचते रहती थी और दिल्ली के बड़े टीवी और बड़े अखबार के उन नामी-गिरामी अखबार नवीसों की बात होते रहती थी जो कि 2जी घोटाले जैसे मामलों में दलालों की तरह काम कर रहे थे। मेरे अखबार नवीस होने को लेकर उनके पास यह सवाल भी रहते थे कि भारत के मीडिया के भ्रष्टाचार के बारे में मेरा क्या कहना है? 
अमरीका में सुख की जिंदगी जीने वालों ने जब तकलीफ का यह सफर करना तय किया तो उन्हें शायद इसके लिए पैरों की हालत का अंदाज था। उनमें से कोई पुराना चलने का शौकीन था तो कोई खिलाड़ी था। किसी ने पिछले कुछ महीनों में एक-एक दिन में 10-12 मील तक चलने की आदत डाल ली थी। मैं अकेला बिना किसी तैयारी के वहां था और जब बाकी लोग पैरों से चल रहे थे तो मैं दिल से चल रहा था क्योंकि पैर तो पहली शाम ही जख्मी हो चुके थे। पहले दिन के 18-19 मील पूरे होने के बाद शाम को जब एक मंदिर पर पदयात्रा थमी तो बाहर चबूतरे पर बैठे हुए मैं इतनी ताकत भी नहीं जुटा पाया कि भीतर प्रतिमा के सामने जाकर बैठ जाऊं। फर्श पर नीचे न बैठ पाने लायक हो चुके इन पैरों को लेकर मैं बाहर बैठे रहा और भीतर बाकी साथी यह समझते रहे कि नास्तिक होने की वजह से मैं भीतर नहीं गया। हालांकि बाद में बाहर आए प्रसाद से पेट भरते हुए मुझे यह सवाल भी झेलना पड़ा कि फिलीस्तीन के रास्ते तो मैं मस्जिदों में जाते रहा, अब मंदिर में क्यों नहीं आया? गाजा का कारवां बसों में चल रहा था और वहां पैरों में ऐसे फफोले नहीं पड़े हुए थे। लेकिन जब लोग लोगों के बीच रहते हैं तो उन्हें सभी तरह की बातों का जवाब भी देना होता है। 
12 मार्च की सुबह जब हम लॉस एंजल्स से कुछ घंटों दूर सैन डिएगो नाम के शहर में दांडी मार्च-2 शुरू करने पहुंचे तो यह देखकर हैरान रह गए कि हमारी बराबरी में ही वहां विरोध में बैनर लिए हुए लोग मोर्चे पर डटे हुए थे। ये वे लोग थे जो इस मार्च के सीधे-सीधे खिलाफ नहीं थे लेकिन वे गांधी के खिलाफ थे और वे गांधी को दुनिया का सबसे भ्रष्ट, बहुत बड़ा हत्यांरा मानने वाले थे। उनका यह वायदा था कि वे इस पूरे मार्च में विरोध करते चलेंगे। हमारे साथ गांधी बनकर चलने वाले एक ऐसे गुजराती बुजुर्ग थे जो कि लंबे समय से अमरीका में बसे हैं और जो 20वीं या 25वीं बार गांधी बन रहे थे। ऐसे किसी भी भारतीय राष्ट्रीय मौके पर वे गांधी जैसी पोशाक में पहुंचकर खुशी हासिल कर लेते हैं। और गांधी -विरोधी लोगों के नारे बाद में उन्हें ‘नकली गांधी ’ की तरह झेलने पड़े। इस बारे में बाकी बातें दूसरी किस्त में .....


सुनील कुमार

मोबाईल गूगल रीडर में उभरते पोस्‍टों की कहानी

पिछले लगभग साल भर से मोबाईल में गूगल रीडर से मित्रों के ब्‍लॉग पढ़ रहा हूँ.  इसके पहले ब्‍लॉग का फीड सब्‍सक्राईब कर मेल से पोस्‍ट पढ़ते रहा हूँ जिनमें ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय जी, अरविन्‍द मिश्रा जी, प्रवीण पाण्‍डेय जी, सतीश पंचम जी, सतीश सक्‍सेना जी जैसे कई ब्‍लॉगरों के पोस्‍ट मेरे मेल बाक्‍स में आते हैं। मुझे लगता है कि हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत में कई बार टिप्‍पणियों के कारण विवाद उठते हैं एवं आभासी गुटबाजियॉं पैदा होती है। इसी कारण मैं पिछले दो सालों से बहुत कम टिप्‍पणियॉं कर रहा हूँ। पोस्‍टों में आये टिप्‍पणियों को बिना पढ़े पोस्‍ट पठन का आनंद लेने के लिए, गूगल रीडर का प्रयोग कर रहा हूँ।  गूगल रीडर से पोस्‍ट पढ़ने का एक फायदा और है कि यह कम बाईट्स के नेट कनेक्‍शनों के माध्‍यम से भी खुल जाता है। गूगल बाबा नें ब्‍लॉग फालोवर को रीडर से जोड़ कर बहुत अच्‍छा काम किया है इससे हम उन ब्‍लॉग के पोस्‍ट भी देख सकते हैं जिन्‍हें हम फालो करते हैं। गूगल रीडर के तकनीकि पहलुओं पर कभी विस्‍तृत रूप से लिखूंगा, अभी मेरे द्वारा कल रीडर पर पढ़े गए कुछ पोस्‍ट स्‍मृति में छाप छोड़ गए जिनके संबंध में कुछ घुटर-घूं -
डिजिटल इन्‍सपिरेशन में अमित अग्रवाल जी दिन में तीन-चार तकनीकि पोस्‍ट ठेलते हैं जो बड़े काम की होती है कल का एक पोस्‍ट हमारे साथियों के काम की है इस लिए उसका उल्‍लेख मैं यहॉं करना चाहता हूँ। हममे से अधिकतम ब्‍लॉगर्स फेसबुक उपयोग करते हैं जहां हमारे मित्रों की संख्‍या सैकड़ों से अधिक है, ऐसे में यदि कोई फेसबुक मित्र यदि हमारे मित्र सूची से अपने आप को अलग कर ले या फिर वह अपना फेसबुक अकाउंट डिलीट कर दे तो हमें ज्ञात नहीं हो पाता कि कौन मित्र हमारे फेसबुक से अलग हुआ सिर्फ अंकों में दर्शित मित्र संख्‍या से हम यह जान पाते हैं। इसे जानने के लिए अमित नें ट्वैटी फीट नामक एक वेब एप्‍लीकेशन का उपयोग बतलाया है पूरा पोस्‍ट आप अमित जी के ब्‍लॉग में पढ़ें और अपने अनफ्रैंड एक्‍सफ्रैंड के नाम जानें।
सोंच वाले संजय कृष्‍ण जी नें गाजीपुर में गुरूदेव शीर्षक से बहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्‍ट लिखी है। साहित्‍य के नोबेल प्राप्‍त गुरूदेव रविन्‍द्र नाथ टैगोर जी की 150 वीं जयंती के अवसर पर उन्‍हें याद करते हुए संजय जी नें गुरूदेव के गाजीपुर में रहकर लिखी गई कविताओं का उल्‍लेख किया है। गुरूदेव नें अपने गाजीपुर प्रवास-निवास के संबंध में स्‍वयं लिखा है उसे भी यहां प्रस्‍तुत किया गया है । आगे की जानकारियों में गुरूदेव के गाजीपुर प्रवास व उनके रिश्‍तेदार गगनचंद्र राय के गंगा तीरे निवास पर रहते हुए 'नौका डूबी' उपन्‍यास के कथानक के तृतीयांश के लेखन का प्रामाणिक विवरण प्रस्‍तुत किया है। विभिन्‍न संदर्भों का उल्‍लेख करते हुए संजय जी नें कलकत्‍ता-गाजीपुर-शोलापुर-इग्‍लैण्‍ड के रास्‍ते जहाज म्‍योसेलिया व टेम्‍स में गुरूदेव द्वारा मानसी की कविताओं को सृजन करना बतलाया है।
मेरे रीडर में कल की पोस्‍टों में 'सबद' में जार्ज लुई की कथा : 6 रोमांचित करती है, रेत की किताब अंतहीन पृष्‍ट को पढ़ते हुए तत्‍कालीन परिस्थितियों में कथा शिल्‍प का साक्षात्‍कार अच्‍छा लग रहा है, अनुवादक का श्रम सार्थक है।  मनोरमा ब्‍लॉग में श्‍यामल सुमन जी नें अपनी कविता संवेदना ये कैसी में आस्‍था पर वर्तमान परिवेश में प्रश्‍न उठाते हुए सार्थक चिंतन प्रस्‍तुत किया है। गिरीश पंकज जी की गजलें भी व्‍हाया रीडर मुझे मिलती ही रहती है कल बेहतरीन गजल उन्‍होंनें प्रस्‍तुत किया है 'आकर हम बेहद पछताए बस्‍ती में, कितने हो गए जोग पराए बस्‍ती में। कोई तो इक चेहरा हो मुस्‍कान भरा, कब तक पंकज ही मुस्‍काए बस्‍ती में।' वाकई पंकज भईया की मुस्‍कान कमाल की है, सुकून देने वाली है। किन्‍तु गिरीश भईया के मुस्‍कान के साथ ही भाई नवीन प्रकाश नें छत्‍तीसगढ़ ब्‍लॉग में एक प्रमेय प्रस्‍तुत कर दिया है जिसका हल उन्‍होंनें मांगा है, ब्‍लॉग पावर ऐसे ही मुद्दों पर प्रभावी होते रहे हैं।
सिंहावलोकन में बड़े भाई राहुल सिंह जी नें 'पंडकी' पर लिखा है जिसकी आवाज बचपन से हमारे कानों में गूंजती रही है। ऐसे विषयों को पढ़ते हुए एक अजब आत्मिक आनंद प्राप्‍त होती है क्‍योंकि वह आपके जीवन से जुड़ी होती है। गांव में रहते हुए 'मंझनी-मंझना' पंडकी के 'खोंधरा'  को डोंगरी के किसी पेड़ पर पाना और उसमें पड़े ताजे अंडो को खुशी से निहारना, चिल्‍लाना, साथ में विचर रहे गोबरहेरिन या लकड़हारे की इत्‍तला कि अंडा मत छूना 'पया जाही' ........। राहुल भईया का सौभाग्‍य है कि सीमेंट के इस बीहड़ में भी पंडकी नें उनके घर के गमले में अंडे दिये और उनका पोस्‍ट उसी से निकला। पंडकी मैंना वाला लोक गीत, डेनियल ......... (जीभ नई लहुटत हे गा) के संग मुहावरों में पंडकी  को खोजना अच्‍छा लगा। रेणु के परती परिकथा से पंड़ुक विमर्शीय भूमिका के साथ भाई एकांत की कविता पंड़ुक को पढ़ना अच्‍छा लगा। राहुल भईया के पास ऐसे ही सेते पोस्‍ट बहुत सारे हैं, धीरे-धीरे बाहर आयेंगें उनका इंतजार रहेगा।
लाईव राईटर से गूगल रीडर के बहाने एक पोस्‍ट ठेलने का मन बहुत दिनों से था आज मौका मिला, इसे चिट्ठा चर्चा ना समझें इसलिए हमने ब्‍लॉग-पोस्‍टों के लिंक नहीं दिये हैं, पोस्‍ट मालिक यदि इसे पढ़ रहें हों तो समझ लेवें कि हमने उनके पोस्‍ट में (जिनका उल्‍लेख हमने यहां किया है) टिप्‍पणी की है :) :)
शेष शुभ ....
संजीव  

अवध का रहने वाला हूँ, अवधी मेरी मातृ भाषा है : अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी

लोक भाषाओं को देश भाषा मानने वाले अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी जी से हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत परिचित है। अमरेन्‍द्र भाई की मातृभाषा वही है जो रामचरित मानस की भाषा है। साहित्यिक इतिहास के कालखण्‍डो में अवधी और बृज भाषा नें हिन्‍दी साहित्‍य को समृद्ध किया है किन्‍तु आज ये लोक भाषाये किंचित उपेक्षित सी हो गई हैं। अमरेन्‍द्र जी देश भाषा अवधी में अवधी डाट इंफो (अवधी कै अरघान) संचालित करते हैं। उनका मानना है कि लोक भाषा को पहचान देने के उद्देश्‍य में ब्‍लॉग का एक अहम स्‍थान है। लोक भाषा छत्‍तीसगढ़ी में मेरे द्वारा भी एक ब्‍लॉगमैगजीन गुरतुर गोठ संचालित की जाती है, जो अमरेन्‍द्र जी जैसे भाषा के शुभचिंतकों के उत्‍साहवर्धन से कायम है। नेट में अवधी भाषा सहित सभी लोक भाषाओं के उत्‍तरोत्‍तर विकास की संभावनाओं पर आशान्वित अमरेन्‍द्र जी का एक अनौपचारिक साक्षात्‍कार बरगद डाट ओरआरजी के द्वारा लिया गया है, आइये देखें/सुने और लोक भाषाओं पर कार्य करने वाले सभी ब्‍लॉगर मित्रों को आशीर्वाद देवें  ताकि उनका उनका उत्‍साह कायम रहे -




परिकल्‍पना समूह का सारस्‍वत सम्‍मान और दिलवालों की दिल्‍ली में दो दिन : भाग एक

परिकल्‍पना से रविन्‍द्र प्रभात जी के मेल आने के बाद से ही मन उत्‍साहित था कि 30 अप्रैल को उन सभी ब्‍लॉगर मित्रों से जिनसे सालों से आभासी संबंध हैं उनसे प्रत्‍यक्ष मुलाकात हो सकेगी। सम्‍मान तो एक बहाना था मित्रों से मिलने-मिलाने का। 29 अप्रैल को ललित भाई के पोस्‍ट के पब्लिश होते ही हम निकल पड़े दिल्‍ली की ओर ... 
यात्रा के दौरान नागपुर में सूर्यकांत गुप्‍ता जी नास्‍ते के पैकेटों और शीतल पेय के साथ स्‍वागत में खड़े मिले। मोबाईल कवरेज के संग पाबला जी हमारी यात्रा का अपने थ्री जी मोबाईल से वेबकास्‍ट करते रहे और हम लाईव दर्शकों की संख्‍या देखकर आनंदित होते रहे कि हमारी यात्रा का सीधा प्रसारण मित्र लोग देख भी रहे हैं। बीना के आसपास सुनीता शानू जी का फोन आया, उन्‍होंनें अधिकार स्‍वरूप आदेशित किया कि छत्‍तीसगढि़या ब्‍लॉगरों की सवारी उनके घर ही उतरेगी। हमारे यात्रा के प्रधान मूछों वाले शर्मा जी नें किंचित सकुचाते हुए हामी भरी, और कुछ अतिरिक्‍त शव्‍द जोड़े कि हम रामकृष्‍ण मेट्रो स्‍टेशन के सामने किसी होटल में रूकेंगें, प्रेश होने के बाद सुनीता जी के घर जायेंगें। पाबला जी के पोस्‍ट के साथ ही साथ गोंडवाना एक्‍सप्रेस छत्‍तीसगढ़ के पांच ब्‍लॉगरों मैं, बी.एस.पाबला जी, ललित शर्मा जी, जी.के.अवधिया जी एवं अल्‍पना देशपांडे जी को दिल्‍ली के निजामुद्दीन में लिफ्ट करा गई।
दिल वालों की दिल्‍ली में उतरते ही सभी के मोबाईल फोन लगातार घनघनाते रहे और हम तुरत-फुरत तैयार होकर बैठे ही थे कि सुनीता जी का फोन आ गया कि वे होटल के रिशेप्‍शन में आ गई हैं, दोपहर के भोजन के लिए हमें अपने घर ले जाने के लिए। तब तक ललित भाई से हुई चर्चा के अनुसार सतीश सक्‍सेना जी, दिनेशराय द्विवेदी जी, खुशदीप सहगल जी और शाहनवाज़ जी भी होटल पहुच गए। सुनीता जी के आदरपूर्वक आग्रह से वे सभी उनके घर आ गए। सुनीता जी के घर में भारी नास्‍ते के साथ मिले स्‍नेह को ललित भाई चित्रों और शव्‍दों में पिरोते गए और एक ठो पोस्‍ट ठेल गए। हम आश्‍चर्य से मेट्रो की व्‍यस्‍त दिनचर्या में दिल्‍ली वाले व्‍यवसायी दम्‍पत्ति को अपने कार्यालयीन समय को छोड़कर हमारी निस्‍वार्थ भाव से सेवा करते पाकर अभिभूत हो रहे थे, उनके संस्‍कारी बच्‍चों व माता-पिता का हमारे प्रति आदर व स्‍नेह इस कहावत को चरितार्थ कर रही थी कि दिल्‍ली दिलवालों की है। सचमुच सुनीता-पवन जी का हृदय विशाल है।
कुछ घंटे के ब्‍लॉगर मिलन के बाद सतीश सक्‍सेना जी, दिनेशराय द्विवेदी जी, खुशदीप सहगल जी और शाहनवाज़ जी हिन्‍दी भवन के लिए निकल गए और हम भी सुनीता शानू जी को सारथी बनाकर हिन्‍दी भवन की ओर निकल पड़े। कार्यक्रम स्‍थल पहुचने में मोबाईल कवरेज नहीं मिलने के कारण जीपीआरएस ने कुछ भटकाया और इसी बहाने हमने दिल्‍ली के हृदय से रक्‍त संचारित होती सी चौड़ी सड़कों सी धमनियों से परिचित होते रहे। पाबला जी के अगली सीट पर बैठे होने के कारण यान के एसी ने हम लोगों के साथ कट्टी कर ली थी किन्‍तु ललित जी के मूछों के बालों को उड़ते देखकर हम सब संतुष्‍ट थे कि एसी की हवा हम तक पहुच ही रही है। ... और उड़ते मूंछों को संवारते ललित भाई नें हिन्‍दी भवन को देख गाड़ी रूकवाई, हिन्‍दी भवन के बाहर दो-तीन नौजवान भरी गरमी में चहल-कदमी कर रहे थे, देखने से लग रहा था कि वे नवोदित ब्‍लॉगर हैं।
द्वितीय तल में पहुचने पर बाहर पुस्‍तकों का स्‍टाल लगा चुका था और अनजान चेहरे वहॉं मौजूद थे, जाहिर था कि वे हिन्‍दी साहित्‍य समिति बिजनौर के कार्यकर्ता थे। अंदर हाल में गहमा-गहमी का आरंभ हो चुका था और स्‍टेज में डॉ.गिरिराज अग्रवाल की पुत्री गीतिका गोयल कार्यक्रम संचालित कर रही थी। हमने परिचित-अपरिचित ब्‍लॉगर मित्रों की ओर मुस्‍कान बिखेरते हुए हाल के बीच रिक्‍त सीट में ललित जी और पाबला जी के अतिरिक्‍त हम सब जम गए, ललित जी और पाबला जी मित्रों से गले मिलते-हाथ मिलाते सामने की कुर्सियों की ओर बढ़ गए जहां स्‍नेहिल आंखें उनका इंतजार कर रही थी। हमारी आंखें परिचितों को ढ़ूंढ़ती रही, मंच के पास कुर्सियों की बायीं पंक्तियों में अविनाश वाचस्‍पति जी किसी से कानाफूसी करते नजर आये फिर रविन्‍द्र प्रभात जी कत्‍थई शेरवानी में मंच में चहलकदमी करते नजर आये। हमने लम्‍बी सांसें भरी कि चलो दो तो परिचित दिखे। फिर सामने कुर्सियों पर श्रीश शर्मा जी (ई पंडित) भी नजर आ गए, हमें अकचकाये इधर-उधर झांकते देखकर हमारी कुर्सी की अगली पंक्तियों में बैठे अजय झा ने हाथ मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो स्‍मार्ट चुलबुल पाण्‍डे को सामने पाकर अच्‍छा लगा।
कार्यक्रम आरंभ हुआ और श्रीश शर्मा जी (ई पंडित) एवं दिनेशराय द्विवेदी जी को मंच पर देखना-सुनना हमारी शुरूवाती ब्‍लॉगिंग के दिनों को याद दिलाती रही। मंच के नीचे सक्रिय रश्मि प्रभा जी पहचान में आ गई और दिल को सुकुन मिला कि उन्‍हें याद है कि हमने ही हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में उनका परिचय पोस्‍ट लिखा था, उनके स्‍नेह को मेरा प्रणाम। अविनाश वाचस्‍पति व जाकिर अली रज़नीश जी नें आगे बढ़कर हमसे हाथ मिलाया और अपनी-अपनी कुर्सियों की ओर बढ़ गए। डॉ.टी.एस.दराल जी और राजीव तनेजा जी रतन सिंह शेखावत जी के साथ ललित भाई नें फोटो खिंचवाया, परिचय करवाया। रतन जी से उबंटू के संबंध में बातें करनी थी किन्‍तु समय नहीं मिल पाया। जाने-अनजाने ब्‍लॉगर्स मित्र कुर्सी पंक्तियों के रिक्‍त स्‍थानों पर मिलते-मिलाते और मुस्‍कुराते रहे। हम चाहकर भी अपनी सीट में धंसे रहे क्‍योंकि आज पता चल रहा था ब्‍लॉग पोस्‍टों से अधिक अहमियत टिप्‍पणियों का टीपिया संबंधों का। जिनके पोस्‍टों को हम गूगल फीड रीडर से बरसों पढ़ते रहे वो हमसे अनजान रहे, टिपिया वालों को खुली बांहें इंतजार करती रही। आह ... खैर ... हमें सम्‍मानित किया गया।
कार्यक्रम के दूसरे सत्र के मध्‍यांतर में श्रीश बेंजवाल शर्मा जी (ई पंडित), अमरेन्‍द्र त्रिपाठी जी ने हमें पहचाना और साथ में क्लिक भी चमकवाए। सुनीता जी ने सुदर्शन नौजवान महफूज़ को हमसे मिलाया तो हम एकबारगी पहचान नहीं पाये और महफूज़ भाई नें प्रेम से झिड़का कि क्‍या भईया आपसे पच्‍चीसों बार फोन पर चर्चा हुई है फिर भी नहीं पहचान पाये। गांव में पेंड़ के सबसे उंचे और पतले डंगाल पर पांव को साधते हुए चढ़कर आम तोड़ने जैसी जद्दोजहद कर के नास्‍ते के दो प्‍लेट सम्‍हाले बाहर आया तो सुनीता जी नें पवन चंदन जी से मिलवाया, व्‍यंग्‍यकार महोदय हास्‍य रस में बतियाते हुए हमसे मिले फिर भीड़ में खो गए। मेरे सहित अनेक सम्‍मानित ब्‍लॉगर प्राप्‍त सम्‍मान पत्र, मोमेंटो, पुस्‍तकों को हाथें में सम्‍हालते-समेटेते विचरते रहे, हमने झोले का जुगाड़ चाहा पर नहीं मिल पाया, जाकिर अली रजनीश जी दो व्‍यक्तियों के सम्‍मान को रस्सियों में बांधकर हाथ में पकड़ने लायक जुगाड़ बनाकर अपने विज्ञान विषयक ब्‍लाग का याद दिला दिया था। वापस पुस्‍तकों के काउंटर पर प्रतिभा जी से किसी नें परिचय कराया, संजू तनेजा जी को हाथ जोड़कर नमस्‍कार करने पर उन्‍होंनें हमें पहचाना, राजीव तनेजा जी से पहले ही मुलाकात हो चुकी थी और वे हमारी तस्‍वीर हंसते रहो के लिए अपने कैमरे में सहेज चुके थे। भीड़ का एक हिस्‍सा बने हम द्वितीय सत्र के लिए अंदर हाल में आ गए। पवन जी हिन्‍दी भवन के द्वार पर सुनीता जी का इंतजार कर रहे थे, सुनीता जी को आवश्‍यक कार्यों से अपने घर निकलना था सो वे अपने घर के लिए निकल पड़ी।
हाल में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने कालजयी साहित्यकार रविन्द्र नाथ टैगोर की बंगला नाटिका 'लावणी' का हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत किया, कसावट एवं अपनी सभी नाट्य खूबियों से परिपूर्ण इस प्रस्‍तुति नें सभागार में उपस्थित दर्शकों को मन्त्र मुग्ध कर दिया। नाट्य प्रस्‍तुतियों को थियेटर के अंतिम छोर पर बैठकर देखना मुझे सदैव भाता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने इस प्रस्‍तुति में अपनी प्रतिभा को सिद्व किया, मैं उनके उत्‍तरोत्‍तर सफलता की कामना करता हूँ. नाट्य प्रस्‍तुति के बाद मैं लगभग अलग-थलग बाहर निकला, ललित शर्मा जी एवं अल्‍पना देशपांडे जी के साथ आत्‍मीयता से चर्चारत संगीता पुरी जी को मैंनें इंटरप्‍ट करते हुए हाथ जोड़कर (ललित भाई से उनके पोस्‍टों के संबंध में अक्‍सर चर्चा होती रहती है इसलिये सम्‍मान स्‍वरूपअपना परिचय दिया पर संगीता पुरी जी नें उड़ती नजर हमपे डाली, कोई प्रतिउत्‍तर नहीं मिला तो हमने समझा कि विघ्‍न डालने के बजाए चलता किया जाय। उसके बाद से हम जिन्‍हें पहचान रहे थे उन्‍हें भी नमस्‍कार करने की हिम्‍मत ना जुटा पाये .... :) :)  संगीता जी अल्‍पना देशपांडे से चर्चा कर रही थीं, बीच-बीच में कई ब्‍लॉगर्स उनको नमस्‍कार भी कर रहे थे, जगह कुछ कम थी जहां सभी ब्‍लॉगर्स इकत्रित थे सो भीड़ भी था। हो सकता है कि संगीता पुरी जी इन्‍हीं कारणों से हमें ध्‍यान नहीं दे पाई, किन्‍तु हमने अपनी आस्‍था पूरी श्रद्धा से प्रस्‍तुत की। हमारे अधिकार का आर्शिवाद उनके पास जमा रहेगा फिर कभी मुलाकात होगी तो साधिकार लेंगें। 

नीचे रात्रि का भोजन लग चुका था और वक्‍़त थी कि भागे जा रही थी... तो हमने अमरेन्‍द्र त्रिपाठी जी को ढ़ूढा और हम भोजन लेने क्‍यू से जुड़ गए, भोजन करते हुए और शेष समय पर हम दोनों छत्‍तीसगढ़ी और अवधि पर ही बातें करते रहे, यह मेरी पूर्वनियोजित और आवश्‍यक चर्चा थी। जेएनयू में पीएचडी कर रहे अमरेन्‍द्र भाई की भाषा एवं ज्ञान का मैं कायल हूँ, अपने अध्‍ययन की अतिव्‍यस्‍तता के बावजूद स्‍थानीय भाषा के प्रति उनका जुनून मुझे गुरतुर गोठ में रमने को प्रेरित करता है। भोजन के समय ही यह तय हो चुका था कि गिरीश बिल्‍लोरे जी भी हम लोगों के साथ होटल चलेंगें सो हम उनका बाहर इंतजार करते रहे, हमें छोड़ने पद्मसिंह जी अपनी गाड़ी से पहले गांधी शांति प्रतिष्‍ठान फिर हमारे होटल की ओर आगे बढ़े। छत्‍तीसगढ़ की टीम नें शायद 'भूलन खूँद' लिया था इस कारण पद्मसिंह जी को घुमावदार रास्‍तों से हमें होटल पहुचना पड़ा।   क्रमश: ....



संजीव तिवारी 

फिल्मों को भेड़ चाल से बचाएं : रामेश्वर वैष्‍णव

धारदार व्‍यंग्‍य कविताओं और सरस गीतों से कवि सम्‍मेलन के मंचों पर छत्‍तीसगढ़ी भाषा में अपनी दमदार उपस्थिति सतत रूप से दर्ज कराने वाले एवं चंदैनी गोंदा, सोनहा विहान, दौनापान, अरण्य गाथा, गोड़ के धुर्रा, छत्तीसगढ़ी मेघदूत, मयारू भौजी, लेड़गा नं. 1, झन भूलौ मां बाप ला जैसे लोकप्रिय छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍मों में गीतों के जरिये अपनी अलग पहचान बनाने वाले गीतकार, कवि रामेश्वर वैष्णव का मानना है कि छालीवुड में सुलझे निर्देशकों की कमी है। भेड़ चाल से बन रही फिल्मों में ज्यादातर फिल्मों में न तो गीत में स्थायी भाव होते हैं न धुन का ठिकाना। चुटकुलेबाजी और जोड़तोड़ से की जा रही रचनाओं का असर श्रोताओं पर स्थायी रूप से नहीं पड़ता। एक छत्तीसगढ़ी फिल्म 'मया' क्या हिट हो गई। कई निर्माता निर्देशक फिल्म बनाने बिना किसी तैयारी के फिल्म निर्माण में जुटे हैं। जिनमें मसालेदार फिल्मों को छत्तीसगढ़ के दर्शकों में परोसने की तैयारी है। ऐसे लोग फिल्म निर्माता के रूप में उभरे हैं जिनका साहित्य, कला व संस्कृति से दूर-दूर तक का संबंध नहीं है। उन्हें व्यवसाय करना है संगीत भले ही न जाने पर रिटर्न चाहते हैं। श्री वैष्णव ने 'देशबन्धु' के कला प्रतिनिधि से खास मुलाकात में ये बातें कहीं थी। हम अपने सुधी पाठकों के लिए उस कतरन की टाईप्‍ड कापी यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं - 

नये गीतकारों के बारे में आपकी राय दें?
सच कहूं तो गीतकार बनने और तुकबंदी करने की ख्वाइश रखने वाले कई मिल जायेंगे। पर गीत लिखना कठिन विधा है। इसमें धुन भी चाहिए, शिल्प, भाव का समावेश रचना में होना चाहिए। नये लोग मेहनत करने से कतराते हैं। एक अच्छा गीतकार वहीं होता है जो अपने संस्कृति की समझ रखता हो। मौलिक रचना को लोग पसंद करते हैं। गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिहा से मैं प्रभावित रहा। उनकी सोच से औरों को प्रेरणा लेना चाहिए। पहले जब लोग कविता लिख लेते थे तब मंच खोजते थे। आज का कवि मंच पहले खोजता है बाद में कविता खोजने की बारी आती है। सफलता का सूत्र है गंभीर रचनात्मक लेखन। इसके लिए खूब पढ़ें और लिखने का अभ्यास भी किया जाये।

छालीवुड में आपके हिसाब से सुलझे निर्देशक कौन है?
मैं सतीश जैन को ही सुलझे निर्देशक के रूप में पाता हूं। पर उनके साथ दिक्कत ये है कि वे सारा ध्यान सफलता पर देते हैं। छत्तीसगढ़ की भाषा, संस्कृति के प्रति वे सावधान नहीं है। जबकि मेरे विचार से ऐसा होना चाहिए।

आपने मंच पर कविताएं पढ़ी, व्यंग्य लेखन, फिल्मों के लिए गीत लिखे क्या फिल्म बनाने की इच्छा रखते हैं?
सवाल अच्छा है पर अभी तक किसी ने आफर नहीं दिया। बुध्दि है पर पैसा नहीं। मौका मिले तो जरूर छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाऊंगा।

आपने वर्तमान में कौन सी किताबें लिखी है? क्या छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं?
छत्तीसगढ़ी फिल्म भांवर के लिए मैंने चार गीत लिखे हैं। क्षमानिधि मिश्रा की ये फिल्म जल्द ही प्रदर्शित होगी। इसके अलावा मयारू भौजी, नयना, झन भूलौ मां बाप ला, लेड़गा नं. 1, गजब दिन भइगे, सीता फिल्म के लिए मैंने गीत तैयार किये हैं। 13 स्क्रिप्ट तैयार है। दस पुस्तकें पाठकों के बीच पहुंचने वाली है। इनमें नमन छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी में अमरनाथ मरगे हास्य व्यंग्य संग्रह, गजल संकलन 'भुइंया या अकारू' शामिल है। तथा सूर्य नगर की चांदनी, उत्ता धुर्रा, उबुक चुबुक, उजले गीतों की यात्रा, भीड़ की तन्हाई, सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया जल्द प्रकाशित होगी।
 मेरे फाईल से समाचार पत्र का पुराना कतरन ... देशबंधु से साभार सहित 

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...