एक पाती आधुनिकाओं के नाम : प्रो. अश्‍वनी केशरवानी

छत्‍तीसगढ के प्रो. अश्‍वनी केशरवानी के कृतित्‍व से आप पूर्व से परिचित हैं । उनकी तीन शोधपरक आलेख रवि रतलामी जी के चिट्ठे रचनाकार में क्रमश:
रायगढ़ और राजा चक्रधरसिंह,
शिवरीनारायण की रथयात्रा,
गीतकार पंडित विद्याभूषण मिश्र
अभी हाल ही में प्रकाशित हो चुकी हैं । हम उनका एक आलेख आज यहां प्रस्‍तुत कर रहें हैं जो आधुनिकता की अंधी दौड में भागती नारी के मन को अवश्‍य आंदोलित करेगा ।

आलेख : प्रो. अश्‍वनी केशरवानी

देवियो जब मैं इस तरह आपको संबोधित करता हूं, तो आपको कोई बात नहीं खटकती ? आप इस सम्मान को अपना अधिकार समझती हैं। लेकिन किसी महिला को पुरूषों के प्रति 'देवता' कहते सुना है ? उसे आप देवता कहें तो वह समझेगा, आप उसे बना रही हैं। आपके पास दान देने के लिए दया है, श्रद्धा है, त्याग है, पुरूषों के पास देने के लिए क्या है ? वह अपने अधिकार के लिए संग्राम करता है, कलह करता है, हिंसा करता है,। इसलिए जब मैं देखता हूं कि उन्नत विचारों वाली देवियां उस दया, श्रद्धा और त्याग के जीवन से असंतुष्‍ट होकर कलह और हिंसा की दौड़ में शामिल हो रही हैं और समझ रही हैं कि यही मार्ग स्वर्ग का सुख है, तो मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकता। स्त्री को पुरूष के रूप में पुरूष के कर्म में रत देखकर मुझे उसी तरह वेदना होती है जैसे पुरूष को स्त्री के रूप में स्त्री के कर्म करते देखकर होती है। मुझे विश्‍वास है ऐसे पुरूषों को आप अपने विश्‍वास और प्रेम का पात्र नहीं समझतीं और मैं आपको विश्‍वास दिलाता हूं कि ऐसी स्त्री भी पुरूष के प्रेम और श्रद्धा का पात्र कभी नहीं बन सकती।

मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरूषों से श्रेष्‍ठ मानता हूं उसी तरह जैसे प्रेम, त्याग और श्रद्धा को हिंसा, संग्राम और कलह से श्रेष्‍ठ समझता हूं। अगर हमारी देवियां सृष्टि और पालन के देव मंदिर से हिंसा और कलह के दानव क्षेत्र में आना चाहती हैं तो उससे समाज का किसी प्रकार कल्याण नहीं होगा। मैं इस विषय में दृढ़ हूं । पुरूष नें अपने अभिमान में अपनी कीर्ति को अधिक महत्व दिया। वह अपने भाई का स्वत्व छीनकर, उसका रक्त बहाकर समझने लगा कि उसने बहुत बड़ी सफलता पा ली। जिन शिशुओं को देवियों ने अपने रक्त से सींचकर पाला, वह उन्हें बंदूक, मशीनगन, बम आदि का शिकार बनाकर अपने को विजेता समझता है और जब हमारी ही ये माताएं उसके माथे पर केसर का तिलक लगाकर, अपने आशीष का कवच पहनाकर हिंसा के क्षेत्र में भेजती हैं, तो आश्‍चर्य होता है कि पुरूषों ने विनाश को ही संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी हिंसा प्रवृत्ति दिन रात बढ़ती ही गयी और आज हम देख रहे हैं कि उनकी यह दानवता प्रचण्ड होकर समस्त संसार को रौंदती, प्राणियों को कुचलती, हरे भरे खेतों को जलाती और गुलजार बस्तियों को वीरान करती चली जा रही है। देवियों ! मैं आपसे पूंछता हूं कि क्या आप इस दानव लीला में सहयोग देकर इस संग्राम क्षेत्र में उतरकर संसार का कल्याण करेंगी ? मैं आपको मशविरा देता हूं कि नाश करने वालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपने धर्म का पालन करती रहें।

देवियों ! मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो कहते हैं कि स्त्री और पुरूष में समान शक्तियां हैं, समान प्रवृत्तियां हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं है। इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह वह असत्य है जो युग युगान्तरों से संचित अनुभव को ढक लेता है। मैं आपको सचेत किये देता हूं कि आप इस जाल में न फंसे। स्त्री, पुरूष से उतनी ही श्रेष्‍ठ है जितना प्रकाश अंधेरे से। मनुष्‍य के लिए क्षमा, त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इन आदर्शों को प्राप्त कर चुकी है। पुरूष, धर्म, आध्यात्म और ऋषियों का आश्रय लेकर उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है, पर सफल नहीं हो सका है। उसका सारा आध्यात्म और योग एक तरफ तो नीतियों का परित्याग दूसरी तरफ।

पुरूष कहता है- जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्‍कारक हुए हैं, वे सब पुरूष थे। जितने बड़े बड़े महात्मा हुए, वे भी पुरूष थे। सभी योद्धा, राजनीतिक आचार्य, नाविक आदि सब (कुछ अपवादों को छोड़कर) पुरूष ही थे। लेकिन इन्होंने क्या किया ? महात्माओं और धर्म के प्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियां बहाने और वैमनस्यता की आग भड़काने के सिवाय किया ही क्या है ? योद्धाओं ने भाइयों के गर्दन काटने के सिवाय क्या यादगार छोड़ी है ? आविश्कारकों ने मनुष्‍य को मशीन का गुलाम बनाकर रख दिया है। पुरूषों की रची हुई इस संस्कृति में शांति कहां है ? सहयोग कहां है ? मैं आपसे पूंछता हूं कि क्या बाज को चिड़ियों का शिकार करते देखकर हंस को यह शोभा देगा कि मानसरोवर की आनंदमयी शांति को छोड़कर चिड़ियों का शिकार करे ? और अगर वह शिकारी बन भी जाये, तो आप उसे बधाई देंगी ? हंस के पास उतनी तेज चोंच नहीं है, उतनी तेज आंखें नहीं है, उतनी तेज पंख नहीं है और उतनी तेज रक्त की प्यास नहीं है जो चिड़ियों का शिकार करने के लिए आवश्‍यक होती है।

मैं नहीं कहता कि आपको विद्या की जरूरत नहीं है, है और पुरूषों से अधिक है। लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं जिससे पुरूष ने संसार को हिंसा का क्षेत्र बना डाला है। अगर वही विद्या और शक्ति आप भी ले लेंगी तो संसार मरूस्थल हो जायेगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं, सृष्टि और पालन में है। क्या आप समझती हैं कि वोटों से मानव जाति का उद्धार हो जायेगा या दफ्तरों में जबान और कलम चलाने से ? इस नकली, अप्राकृतिक, विनाशकारी अधिकारों के लिए आप यह अधिकार छोड़ देना चाहती हैं जो आपको प्रकृति ने दिया है ?

अधिकार और बराबरी नये युग का मायाजाल है, मरीचिका है, कलंक है, धोखा है, उसके चक्कर में पड़कर आप न इधर की होंगी, न उधर की। कौन कहता है कि आपका क्षेत्र संकुचित है और उसमें आपको अभिव्यक्ति का अवसर नहीं मिलता ? हम सभी पहले मनुष्‍य हैं, बाद में स्त्री और पुरूष। हमारा घर ही हमारा जीवन है। वही हमारी सृष्टि है। वहीं हमारा पालन होता है। वहीं जीवन के सारे व्यापार होते हैं। अगर वह क्षेत्र परिमित है तो अपरिमित क्षेत्र कौन सा है ? क्या वह संघर्ष जहां संगठित अपहरण है, जिस कारखाने में मनुश्य और उसका भाग्य बनता है ? आप उस कारखाने में जाना चाहती हैं जहां मनुष्‍य पीसा जाता है ? जहां वह असंयमित हो जाता है ? अगर कहा जाये कि पुरूषों के जुल्म ने ही आपको बगावत के लिए बाध्य किया है, तो मैं कहूंगा कि ''बेशक पुरूशों ने अन्याय किया है लेकिन उसका यह जवाब नहीं है। अन्याय को मिटाइये लेकिन अपनो को मिटाकर नहीं ।'' कामकाजी महिलाएं अगर कहें कि उन्हें इसलिए बराबरी का अधिकार चाहिए कि उसका सदुपयोग करें और पुरूषों को दुरूप्योग करने से रोकें, तो मैं कहूंगा कि संसार में बड़े बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिला हुआ है। इन अधिकारों के सामने वह कोई मायने नहीं रखता। मुझे खेद है कि भारतीय महिलाएं भी अब पश्चिम को आदर्श मानने लगी हैं, जहां नारी ने अपना पद और गरिमा खो दिया है और गृह स्वामिनी से विलास की वस्तु बनकर रह गयी है। पश्चिम की महिलाएं स्वच्छंद रहना चाहती हैं, इसलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सके। भारतीय महिलाओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा है। उन्होंने केवल सेवा और अधिकार से घर गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीजें अच्छी है उसे अवश्‍य ग्रहण कीजिए। संस्कृति में सदैव आदान प्रदान होता आया है। लेकिन अंधी नकल तो मानसिक दुर्बलता का लक्षण है। पश्चिम की महिलाएं आज गृह स्वामिनी नहीं बनना चाहती, भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्श्रृंखल बना दिया है। कदाचित् इसीलिए वह अपनी लज्जा और गरिमा को जो उसकी सबसे बड़ी पूंजी थी उसे चंचलता और आमोद प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहां की शिक्षित बालिकाओं को अपने रूप का या नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूं तो मुझे उनके उपर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपनी लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकती। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती है... ?

पाश्‍चात्य सभ्यता के रंग में रंगी युवतियां कह सकती हैं कि अगर पुरूष अपने बारे में स्वतंत्र हैं तो स्त्रियां भी अपने बारे में स्वतंत्र हैं। युवतियां अब विवाह को पहचान नहीं बनाना चाहती, वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी मगर मेरा व्यक्तिगत विचार है कि जिसे वह प्रेम कहती है वह एक धोखा है। सच्चा आनंद सच्ची शांति है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा भाव ही वह सीमेंट है जो दम्पति को जीवन पर्यन्त स्नेह और सहचर्य में जोड़े रख सकता है। जिस पर बड़े बड़े आधातों का कोई असर नहीं होता और जहां सेवाभाव का अभाव है, वहां विवाह विच्छेद है, परित्याग है और अविश्‍वास है। इसलिए मेरा कहा मानिये और अपनी गरिमा को बनाये रखिये, उसे गिरने मत दीजिये।

रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,

प्रो. आश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चाम्पा-४९५६७१ (छत्तीसगढ़)
मो. नं. ०९४२५२२३२१२
ई मेल : ashwinikesharwani@gmail.com

छत्तीसगढ सवेरा साप्‍ताहिक अखबार अब ब्‍लाग पर





छत्तीसगढ सवेरा भिलाई से प्रकाशित होने वाला साप्‍ताहिक फुल साईज का अखबार है यह वर्तमान में प्रत्येक शनीवार को प्रकाशित होता है । अखबार के स्‍वामी, प्रकाशक व मुद्रक क्षेत्र के तेजतर्रार पत्रकार अब्‍दुल मजीद जी हैं जो पूर्व में देश के मशहूर साप्‍ताहिक ब्लिड्ज के पत्रकार रहे हैं एवं क्षेत्र के लगभग सभी समाचार पत्रों को अपनी सेवायें दे चुकें हैं


हम हमारी रूचि के कारण छत्तीसगढ सवेरा में बतौर मुक्‍त पत्रकार के रूप में उनका सहयोग कर रहे हैं । अब्‍दुल मजीद जी के अनुरोध पर उनके इस समाचार पत्र के कुछ अंश एक हिन्‍दी ब्‍लाग के रूप में यहां प्रकाशित कर रहे हैं भविष्‍य में हम इसे नियमित रखने का प्रयास करेंगें ताकि छत्‍तीसगढ से संबंधित समाचार अंतरजाल पाठकों को प्राप्‍त हो सके ।


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पाठकों के पत्र व्‍यंगकारों के नाम : विनोद शंकर शुक्‍ल - 3


पहला पत्र : हरिशंकर परसाई के नाम
दूसरा पत्र शरद जोशी के नाम

तीसरा पत्र रविन्‍द्रनाथ त्‍यागी के नाम




हे व्‍यंग के ऋतुराज,

आदाब !

गुस्‍ताख किस्‍म के खत के लिए माफी चाहता हूं । यों शायद मैं गुस्‍ताखी का हौसला न करता, अगरचे मरहूम शायर अब्‍दुल रहीम खानखाना मेरी हौसलाअफजाई न करते । खानखाना साहब फर्मा गये हैं --- ‘ क्षमा बडन को चाहिए छोटन को अपराध ।‘ इस शेर की रोशनी में छोटा होने के कारण मुझे गुस्‍ताख होने का हक मिल जाता है और बडे होने के कारण आपको माफ करने की सनद ।


जनाब, मैने आपकी कई किताबें पढी हैं । अहा, क्‍या प्‍यारी प्‍यारी फागुनी चीजें दी है आपने ? आपका हर्फ-हर्फ जायकेदार है, लाईन-लाईन सीने से लगा लेने के काबिल हैं ।


आप हिन्‍दी व्‍यंग की आबरू हैं, व्‍यंग के ऋतुराज हैं । अगरचे हिन्‍दी में और भी व्‍यंगकार हैं, पर आपके सामने सब फीके हैं । परसाई ग्रीष्‍म हैं, शरद वर्षा और श्रीलाल शीत । वसंत तो केवल आप हैं । मैं अक्‍सर अपने दोस्‍तों से कहता हूं, अगर तुमने त्‍यागी साहब को नहीं पढा, तो कुछ नहीं पढा, ऐसा ग्रेट राईटर सदियों में पैदा होता हैं ----

‘हजारों साल हिन्‍दी अपनी बेनूरी पे रोती है, बडी मुश्किल से होता है अदब में, त्‍यागी तब पैदा ।‘

हम तो आपके ही मुरीद हैं । जैसे रसखान के लिए कृष्‍ण वैसे हमारे लिए आप । अगले जन्‍म के लिए यही एकसूत्रीय आरजू है ---

पाहन हौं तो वही फ्लैट को, जो जाय लगे त्‍यागी साहब के द्वारन ।

गरीबनवाज आपसे एक छोटी सी गुजारिस है । इधर मुहल्‍ले में अपना एक लफडा चल रहा है । एक चौदहवी के चांद पर दिल जा अटका है, जैसे कटी पतंग बिजली के खंबे पर अटक जाती है । मुश्किल यह है कि इधर एक शायरनुमा नौजवान से लडकी के ताल्‍लुकात दिन दूने रात चौगुने बढ रहे हें । कमबख्‍त शेरों शायरी भरे खत लिखता है कि लडकी दिलोजान से उसे चाहने लगी है । आप हसीनाओं के फितरत को जानते ही हैं ( आपने भी तो आधा दर्जन से अधिक इश्‍क किये हैं और ‘मेरे पहले प्रेम प्रसंग’ वाली रचना में स्‍वीकार भी किया है ) जो जितना नमक मिर्च लगाकर उनके हुश्‍न की तारीफ करता है, उसे वो उतना ही बडा आशिक मान बैठती है ।


बदनसीबी से मै भी इस कला में कोरा हूं । हाय रे हिन्‍दुस्‍तान, यहां प्रेम करना भी आसान नहीं है । नौजवानों के लिए नर्क है यह देश । नौकरी भी मुश्किल, छोकरी भी मुश्किल । नौकरी के लिए अप्‍लीकेशन लिखना आना जरूरी है और छोकरी के लिए प्रेमपत्र ।


त्‍यागी साहब, अब आप भी हमारे अल्‍लाह हैं । अपने इस बंदे को डूबने से बचाईये । चार पांच अच्‍छे से दिल फरेब खत लौटती डाक से लिख भेजिए, ताकि मैं उस शायर की औलाद का पत्‍ता साफ कर सकूं । आपसे पढकर इस फन का माहिर इंडिया में इस वक्‍त कोई दूसरा नहीं है ।


हालांकि मैं नवाब वाजिद अली शाह की औलाद नहीं हूं, परंतु दिल मैने नवाब का पाया है । आपको हर खत पर मैं 100 रूपया बतौर शुक्राना अदा करूंगा । उम्‍मीद है आप मेरी फरमाईश पूरी करेंगें ।


आपका शुक्रगुजार

आशिक अली, एम. ए.

पाठकों के पत्र व्‍यंगकारों के नाम : विनोद शंकर शुक्‍ल 2

पहला पत्र : हरिशंकर परसाई के नाम

दूसरा पत्र शरद जोशी के नाम

दुष्‍ट-प्रवर,

समझ में नहीं आता, मैनें तुम्‍हारा क्‍या बिगाडा है ? क्‍यों तुम हाथ धोकर मेरे पीछे पडे हो ? सीआईए जैसे किसी भी देश में गृह कलह करा देता है, वैसे ही तुमने मेरी छोटी-सी गृहस्‍थी में बवंडर उठा दिया है । तुम्‍हारे ही कारण कल मेरी पत्‍नी रूठकर मायके चली गई और मैं तब से अपने को बिलकुल अनाथ और असहाय महसूस कर रहा हूं ।

महाशय, मैं तुमसे व्‍यक्तिगत तौर पर बिलकुल परिचित नहीं, मैने तुम्‍हें कभी देखा नहीं, फिर तुम मेरे संबंध में सारी बातें कैसे जानते हो ? यदि जानते भी हो तो उसे अपनी रचनाओं के माध्‍यम से सार्वजनिक क्‍यों बना देते हो ? तुम्‍हें किसी के निजी जीवन में झांकने का क्‍या हक है ?

शादी से पहले लिखी, मेरी प्रेमिका ( अब पत्‍नी ) की चिट्ठी जाने तुमने कहां से उडा ली और उसे जैसे का तैसा अपनी ‘पराये पत्रों की सुगंध’ रचना में प्रयुक्‍त कर लिया । क्‍या तुम्‍हारे पास अपनी अकल नहीं है ? बिलकुल यही तो शव्‍द थे मेरी प्रेमिका के ------ ‘डियर, मैं 26 को मेल से पहुंच रही हूं । उम्‍मीद है प्‍लेटफार्म पर वक्‍त से मिल जाओगे । अभी मैरिज अनांउंस मत करना क्‍योंकि कुछ दिन हमें अलग रहना शो करना पडेगा । मेरे ठहरने का अरेंजमेंट कही अलग करना फिलहाल । तुम्‍हारा जुकाम कैसा है ? उसमें कबूतर बडा मुफीद होता है । बहुत बहुत प्‍यार तुम्‍हारी – नूरजहां ‘

खैर, बमुश्किल हमारी शादी हुई । हमने घर बसाया । तुमने फिर भी हमारा पीछा नहीं छोडा । अब तुम हमारे पारिवारिक जीवन में झांकने लगे । ‘मेरे क्षेत्र के पति’ रचना में तुमने मुझे ‘कुत्‍ते’ के रूप में पेश किया, लिखा ---- ‘उनके गले में जंजीर बंधी रहती है जो उन‍की औरत के हाथ में रहती है जो अंदर काम करती है । वे समय पर छोड भी दिये जाते हैं, और वे तब सडक पर भटकते हैं और दफ्तर जाते हैं ।‘

अच्‍छा, मैं कुत्‍ता सही, पर मैने तो तुम्‍हे कभी नहीं काटा । फिर क्‍यों तुम व्‍यंग के पत्‍थर मुझ पर उछालते रहते हो ।

तुम लेखक हो या ‘ऐंटीना’ । मिया-बीबी के होने वाले गुप्‍त संवादों को भी कैच कर लेते हो ? अब तो बेडरूम में पत्‍नी के साथ सोते हुए भी यही लगता है कि तुम हमें देख रहे हो, सुन रहे हो ।

कल तो गजब हो गया ‘भूतपूर्व प्रेमिकाओं को पत्र’ वाली तुम्‍हारी रचना पढ बीबी यों उखड गयी जैसे आंधी में कोई पेड उखड जाता है । तुमने मेरी भूतपूर्व प्रेमिका कुंतला का जिक्र इस रचना में किया है । पत्‍नी को उसके और मेरे प्रेम के संबंध में पता चल गया था । दरअसल बीए के तीन सालों में मैने तीन अदद कन्‍याओं से प्रेम किया । पहले साल जूली, दूसरे साल कुन्‍तला और तीसरे साल यही नामुराद नूरजहां, जो अब मेरी बीबी है । तुम देखोगे, प्रेम में भी मैनें साम्‍प्रदायिक एकता का निर्वाह किया । इसाई, हिन्‍दू और मुस्लिम तीनो धर्म की कन्‍याये मेरी प्रेमिकायें रही । खैर कुन्‍तला इस समय एक ठेकेदार की बीबी है और यदा कदा मिलकर हम अपने भूतपूर्व प्रेम की दीवाली मना लेते हैं । तुम्‍हारी रचना नें पत्‍नी के पुराने जख्‍म कुरेद दिये । वह बार बार पूछने लगी क्‍या तुम उससे अब भी मिलते हो ? तुम्‍हारी वो घरफोडू पंक्तियां इस प्रकार हैं ---

‘ अब तो तुम्‍हारे उन सुर्ख गालों पर वक्‍त नें कितना पाउडर चढा दिया है । जिन होटो के अंचुंम्बित रहने का रिकार्ड बन्‍दे नें पहली बार तोडा था, उस पर तुम्‍हारे पातिव्रत्‍य नें आज ऐसी लिपिस्टिक लगा रखी है, जैसे मेरी कविता की कापी पर घूल की तहें । आज जब अपने बच्‍चों को स्‍कूल और ठेकेदार पति को पुल का निर्माण देखने रवाना कर तुम सोफे पर लेटी यह चिट्ठा पढ रही हो, मैं तुमसे पूछूं कि क्‍या तुम्‍हे याद है वो ठेकेदारिनी कि, कभी एक पुल बनाने का, दो किनारे जोडने का ठेका तुमने भी लिया था ।‘

मैने नूरजहां को लाख समझाया कि मेरे और कुन्‍तला के बीच अब कोई संबंध नही है, परन्‍तु वह मानने को तैयार नही थी । तुम्‍हारी इन चंद लकीरों नें कहर ढा दिया । घर की कंकरीट की दीवार भी थरथरा गयी । गीता कुरान उठा कर मैने कुन्‍तला को भूल जाने की कसमें खायी, पर नूरजहां न रूकी ।
जालिम, तुम्‍हारे बारे में मेरे मन में तरह तरह के खयाल आते हैं, क्‍या तुम मेरी बीबी के पुराने आशिक हो जो उससे इस तरह बदला ले रहे हो ? कहीं तुम्‍हारा इरादा मुझे ब्‍लेकमेल करने का तो नही है ? बोलो, कितना पैसा लेकर तुम हमें चैन से जीने दोगे ?

इस पत्र का जवाब चार दिन के अंदर न दिया तो मेरी राईफल से शहीद होने के लिए तैयार रहो ।

तुम्‍हारा

भूचाल सिंह ईंट ठेके दार


(शेष अंतिम पत्र अगले पोस्‍ट पर)

पाठकों के पत्र व्‍यंगकारों के नाम : विनोद शंकर शुक्‍ल

(अस्‍सी के दसक से आज तक व्‍यंग की दुनिया में तहलका मचाने वाले रायपुर निवासी आदरणीय विनोद शंकर शुक्‍ल जी को कौन नही जानता है उन्‍होंने अपने समकालीन व्‍यंगकारों पर भी अपनी कलम चलाई है । हम 1985 में रचित व प्रकाशित उनकी एक व्‍यंग रचना को यहां आपके लिए प्रस्‍तुत कर रहे हैं )


हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रविन्‍द्र नाथ त्‍यागी की व्‍यंग तिकडी हिन्‍दी पाठकों के बीच अपार लोकप्रिय है । इनका अपना विशाल पाठक समूह हैं । एक समीक्षक किस्‍म के पाठक नें मुझे बताया कि परसाई को तामसिक, जोशी को सात्विक और त्‍यागी को राजसिक प्रवृत्ति के पाठक बहुत पसंद करते हैं । एक पाठक जो व्‍यंगकारों को साग-सब्‍जी समझता था, मुझसे बोला, ‘क्‍या बात है साब अपने व्‍यंगकारों की । सबके स्‍वाद अलग अलग हैं । परसाई करेला है, जोशी ककडी है और त्‍यागी खरबूजा है ।‘ उसकी बात से लगा, तीनो में से कोई भी उसे मिला तो वह कच्‍चा चबा जायेगा ।

हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास के मर्मज्ञ एक पाठक बोले ‘राजनीति उस समय फलती फूलती है, जब किसी चौकडी का जन्‍म होता है और साहित्‍य तब समृद्ध होता है, जब कोई तिकडी उस पर छा जाती है । प्रसाद, पंत और निराला की ‘त्रयी’ जब प्रगट हुई, तभी छायावाद फला फूला । हिन्‍दी की नयी कहानी भी कमलेश्‍वर, मोहन राकेश और राजेन्‍द्र यादव के पदार्पण से ही सम्‍पन्‍न हुई । यही हाल हिन्‍दी व्‍यंग का है । परसाई, शरद जोशी और रविन्‍द्रनाथ त्‍यागी हिन्‍दी व्‍यंग के ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश हैं ।‘

रोज बडी संख्‍या में व्‍यंगकारों को पाठकों के अजीबोगरीब पत्र प्राप्‍त होते हें । इनकी फाईलों में सेंध लगाकर बडी मुश्किल से प्राप्‍त किये गये तीन पत्र आपकी खिदमत में पेश है :-

पहला पत्र : हरिशंकर परसाई के नाम



अधर्म शिरोमणि,

ईश्‍वर तुम्‍हे सदबुद्धि दे ।

तुम जैसे नास्तिकों को हरि और शंकर जैसे भगवानों के नाम शोभा नहीं देते । अच्‍छा हो यदि तुम एच.एस.परसाई लिखा करो । म्‍लेच्‍छ-भाषा ही तुम्‍हारे लिए ठीक है ।

मेरा नाम स्‍वामी त्रिनेत्रानंद है और मैं भूत, वर्तमान और भविष्‍य सभी देखने की सामर्थ्‍य रखता हूं । ‘पूर्वजन्‍मशास्‍त्र’ का तो मैं विशेषज्ञ ही हूं । मैने बडे बडे नेताओं, महात्‍माओं और ज्ञानियों के पूर्वजन्‍म का पता लगाया है ।
पंडित जवाहर लाल नेहरू को मैने ही बताया था कि वे पूर्व जन्‍म में सम्राट अशोक थे । मेरे कथन की सत्‍यता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सम्राट अशोक भी शांतिप्रिय थे और पंडित नेहरू भी । अशोक नें विश्‍व शांति के लिए धर्मचक्र प्रवर्तित किया था और पंडितजी नें पंचशील । दोनों की जन्‍म कुण्‍डलियां इस सीमा तक मिलती थी कि यदि जन्‍मतिथि का उल्‍लेख न होता तो यह बताना कठिन था कि कौन-सी अशोक की है और कौन-सी पंडित जी की ?

इसी प्रकार बाबू राजनारायण को भी मैने ही बताया था कि वे पूर्वजन्‍म में दुर्वासा ऋषि थे । दुर्वासा के भीतरी और बाहरी दोनों ही लक्षण उनमें दिखाई देते थे । दाढी बाहरी लक्षण हैं और क्रोधी मन भीतरी । उनके शाप के कारण ही जनता-पार्टी का राजपाठ चौपट हो गया था ।

दुर्बुधे, तुम्‍हारे भी पूर्वजन्‍म का पता मैने लगाया है । कुछ दिन पूर्व एक धर्मप्राण सज्‍जन मेरे पास आये थे । तुम्‍हारी कुण्‍डली देकर बोले, ‘यह लेखक धर्म-कर्म के विरूद्ध अनाप-शनाप लिखता है इसकी अक्‍ल ठिकाने लगाने की कोशिस कर हम हार गये हैं । अब आप ही ऐसा कोई अनुष्‍ठान कीजिये, जिससे इसकी बुद्धि निर्मल हो जाये । इसे व्‍यंगकार से प्रवचनकार बना दीजिये ।‘

तुम्‍हारी कुण्‍डली देखने पर ज्ञात हुआ कि तुम द्वापर के अश्‍वत्‍थामा हो । धर्म, नीति और न्‍यायभ्रष्‍ट, अभिशप्‍त । पाण्‍डवों द्वारा पिता के अधमपूर्वक मारे जाने से विक्षिप्‍त, पशू युगों-युगों से दिशाहीन भटकते हुए । यह सत्‍य है, अश्‍वस्‍थामा कभी मरा नहीं, वह सदियों से नये नये रूपों में प्रकट होता रहता है । कभी कार्ल मार्क बनकर आता है तो कभी हरिशंकर परसाई ।

यज्ञ द्वारा तुम्‍हारी मुक्ति और विवेक निर्मल करने में समय लगेगा । मैं शार्टकट चाहता हूं । जिससे अनुष्‍ठान का चक्‍कर भी न चलाना पडे और तुम्‍हारा परिष्‍कार भी हो जाये । तुम केवल इतना करो कि नास्तिक लेखन छोड दो ‘रानी नागफनी की कहानी’ के स्‍थान पर ‘नर्मदा मैया की कहानी’ जैसी रचनायें लिखने लगो । इससे तुम्‍हारी शुद्धि चाहने वाले इतने मात्र से संतुष्‍ट हो जायेंगें । अनुष्‍ठान का पैसा हम और तुम आधा-आधा बांट सकते हैं ।

एक काम और मैं करूंगा अपनी पूर्वजन्‍म की विद्या से सिद्ध कर दूंगा कि तुम त्रेता के परशुराम हो । परसाई परशुराम का ही तो अपभ्रंश रूप है । परशुराम भी ब्राह्मण और अविवाहित थे, तुम भी हो । फर्क इतना ही है कि फरसे की जगह इस बार हाथ में कलम है ।

तुम्‍हें अश्‍वस्‍थामा बनना पसंद है या परशुराम, यह तुम सोंचो । आशा है, अपने निर्णय की शीध्र सूचना दोगो ताकि मैं भी अपना कर्तव्‍य निश्चित कर सकूं ।

सदबुद्धि के शुभाशीष सहित,

- स्‍वामी त्रिनेत्रानंद

(आवारा बंजारा वाले संजीत त्रिपाठी के प्रिय प्रोफेसर श्री शुक्‍ल जी के शेष दो पत्र अगले पोस्‍टों पर हम प्रस्‍तुत करेंगे)

दीवारों पर लिखा है

रायपुर, छत्‍तीसगढ से एक लोकप्रिय सांध्‍य दैनिक 'छत्‍तीसगढ' प्रकाशित होता है जिसके संपादक हैं वरिष्‍ठ पत्रकार सुनील कुमार जी । उनके इस समाचार पत्र के संपादकीय पन्‍ने पर प्रत्‍येक दिन दीवारों पर लिखा है नाम से कोटेशन प्रकाशित होता है । जो प्रत्‍येक दिन पाठक को बरबस अपनी ओर खींचता है एवं पढने व चिंतन करने को विवश करता है । सुन्‍दर सरल हस्‍तलिपि में लिखे गये इन शव्‍दों की कुछ कतरने आज हमारे एक दोस्‍त की डायरी के खीसे में अचानक हमें मिल गयी, हमने उसे पढा एवं हमें लगा कि इसे अपने चिट्ठे में सुरक्षित रख लिया जाए













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क्‍या आपने कराया है अपने विवाह का पंजीयन

उच्‍चतम न्‍यायालय नें सीमा नामक महिला के स्‍थानांत‍रण याचिका पर विचार करते हुए विगत वर्ष विवाह पंजीकरण को आवश्‍यक करने हेतु नियम बनाने का बहुचर्चित आदेश दिया था जिस पर उस समय देश भर में काफी बहस हुआ था । कुछेक राज्‍यों नें इसे गहराई से न लेते हुए अपने तरफ से कोई सराहनीय प्रयास नहीं किया था ।


अब विगत सोमवार को उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायमूर्ति अरिजीत परसायत और न्‍यायमूर्ति लोकेश्‍वर सिंह पंटा की बेंच नें इसी मामले में सुनवाई करते हुए सभी राज्‍यों को इस उदासीनता पर नोटिस जारी कर उनसे जवाब मांगा है कि राज्‍य सरकारों नें विवाह पंजीयन को अनिवार्य करने हेतु कोई सार्थक कदम क्‍यों नहीं उठाया । न्‍यायमूर्ति द्वय नें राज्‍यों को इस हेतु से आठ सप्‍ताह में जवाब देने को कहा है साथ ही न्‍यायालय नें यह स्‍पष्‍ट किया है कि विवाह पंजीयन सभी समुदायों पर समान रूप से लागू होने वाला होना चाहिए ताकि पूरे देश में इस अधिनियम में समरूपता आयेगी ।



छत्‍तीसगढ सरकार इस संबंध में बधाई का पात्र है । छत्‍तीसगढ सरकार के द्वारा सभी धर्म, जाति व मतावलंबियों के लिए विवाह का पंजीयन अनिवार्य करने के लिए कानून बनाने के साथ ही केबिनेट में प्रस्‍ताव पारित कर इसे पूरे प्रदेश के लिए विगत अक्‍टूबर 2006 को ही अनिवार्य कर दिया है । अब हमें भी भले ही हमारी बरबादी के ग्‍यारह साल हो चुके हों पर अब अपना विधिवत विवाह पंजीयन कराना होगा ।


क्‍या आपने कराया है अपने विवाह का पंजीयन ।

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