शकुन्तला शर्मा बैंकाक में सम्मानित

14 प्रतिष्ठित पुस्तकों की चर्चित लेखिका शकुन्तला शर्मा जी के संबंध में मुझे जानकारी 'कोसला' के विमोचन के समाचारों से हुई थी. तब से मैं उनसे और उनकी कृतियों से साक्षात्कार चाहता था. गुरतुर गोठआरंभ के इस मुहिम के लिए मुझे छत्तीसगढ़ के प्रत्येक उजले पक्षों पर नजर रखनी थी और उन्हें ​किसी भी रूप में इंटरनेट में लाने का प्रयास निरंतर रखना था. इसी कड़ी में उनसे एक कार्यक्रम में मुलाकात हुई. उनके स्नेहमयी व्यक्तित्व और रचनाधर्मिता से रूबरू हुआ. प्रसिद्ध भाषाविद और साहित्यकार डॉ.विनय कुमार पाठक नें उनके संबंध में लिखा है '.. शकुन्तला शर्मा संस्कृत, हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषा तथा साहित्य में समानाधिकार रखने वाली विदुषी कवयित्री हैं ..' यह बात उनकी कृतियों को पढ़ते हुए स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है.

साहित्य के नवचार के प्रति सजग एवं इंटरनेट प्रयोक्ता शकुन्तला शर्मा जी नें मेरे आग्रह पर अपना ब्लॉग (शाकुन्तलम्) बनाया. साहित्यकारों के सोच के अनुसार इंटरनेट तकनीकि के असामान्य आभासी गढ़ों को ध्वस्त करते हुए वे हिन्दी ब्लॉगिंग पर अब भी सक्रिय हैं. उनकी कृतियों एवं ब्लॉग पर आगे फिर कभी चर्चा करेंगें. अभी अवसर है उन्हें शुभकामनायें देने का, ग्यारहवें अन्तर्राष्ट्रीय कवयित्री सम्मेलन बैंकाक में भारत के राजदूत श्री अनिल वाधवा के मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न हुआ. विभिन्न‍ देशों से आमंत्रित अन्तर्राष्ट्रीय कवयित्रियों के उक्त‍ सम्मेलन ‍में भिलाई की शकुन्तला शर्मा को "THE BLESSED JUNO" सम्मान से अलंकृत किया गया. निरंतर साहित्य सृजन में रत शकुन दीदी को बहुत बहुत बधाई.
शकुन्तला शर्मा जी का ब्लॉग है — शाकुन्तलम् http://shaakuntalam.blogspot.in

मन पखेरू उड़ चला फिर : सफर का आगाज़

कविता की शास्‍त्रीय परिभाषा क्‍या है यह मैं नहीं जानता किन्‍तु मेरा यह मानना है कि भावनाओं की अभिव्‍यक्ति जब शब्‍दों में व्‍यक्‍त होती है तो निश्चित तौर पर वह कविता होती है. मानव मन में भावनाओं का विशाल समुद्र लहराता है, उसकी उत्‍तुंग लहरें किसी ना किसी माध्‍यम से बाहर अभिव्‍यक्‍त होती है. सुनीता शानू की भावनायें भी इसी प्रकार बाहर निकल कर शब्‍दों का रूप धरने को छटपटाती नजर आती हैं. उनकी नव प्रकाशित कविता संग्रह ‘मन पखेरू उड़ चला फिर’ इन्‍हीं कविताओं की सुगंधित माला है जिसमें सुनीता शानू की अविरल भावनायें कविता के रूप में व्‍यक्‍त हुई है.

इस कविता संग्रह के संबंध में आलोचक व कवि आनंद कृष्‍ण नें अपनी भूमिका में शास्‍त्रीय विवेचना की है. आनंद कृष्‍ण के शब्‍दों में सुनीता शानू की कवितायें विस्‍तृत हुई हैं, कविता में स्‍पष्‍ट दृष्टिगोचर भाव के अतिरिक्‍त विशिष्‍ठ भाव उद्घाटित हुए हैं. आनंद कृष्‍ण नें सुनीता शानू की कविताओं को रिसते पीड़ा, गूंजते चीत्‍कारों और जीजिविषा के मधुरतम गान का संयुक्‍त समुच्‍चय कहा है. आनंद कृष्‍ण नें संग्रह की लगभग प्रत्‍येक कविता का आलोचनात्‍मक विश्‍लेषण किया है और ख्‍यात विदेशी रचनाकारों के समकक्ष सुनीता शानू को खड़ा किया है. विदित हुआ है कि संग्रह के भव्‍य एवं गरिमाय विमोचन समारोह में भी आनंद कृष्‍ण नें अपने सारगर्भित वक्‍तव्‍य में संग्रह पर अपनी दृष्टि प्रस्‍तुत की है, हालांकि पारिवारिक परेशानियों की वजह से मैं इस समारोह का हिस्‍सा नहीं बन पाया. समारोह में ओम निश्‍चल जैसे कविता के निठुर आलोचक की उपस्थिति संग्रह को कविता की कसौटी में खरे होने का स्‍वमेव प्रमाण पत्र प्रदान करती है.

सुनीता शानू की कविताओं के संबंध में दो शब्‍द भी लिखना हमारे जैसे साहित्‍य के अल्‍पज्ञों के बस की बात नहीं है. ऐसे संग्रह के संबध में जिसका मंगलाचरण आनंद कृष्‍ण जी कर रहे हों और स्‍वति वाचन ओम निश्‍चल, देवी नागरानी, सिद्धेश्‍वर और ललित शर्मा जैसे लोग कर रहे हों. उस पर लिख पाना आसान नहीं है. फिर भी इस प्रयास के पीछे कुछेक कारण है पहला यह कि जो पीड़ा, जीजिविषा उनकी कविताओं में उभर कर सामने आती हैं, लगता है उन सबको हम भी अभिव्‍यक्‍त करना चाहते रहे हैं. दूसरा यह कि लगता है कविताओं में शब्‍द तो सुनीता शानू के हैं किन्‍तु भाव हमारे हैं. मूल यह कि उनकी कवितायें अपनी सी लगती हैं. किन्‍तु मानस में यह प्रश्‍न उभरता है कि अपनी सी लगने वाली सुनीता शानू की कविताओं को कोई दूसरा क्‍यूं नहीं लिख पाया. इसका कारण संभवत: सुनीता शानू के पास हमारे जैसी भावनाओं के साथ ही उनकी स्‍वयं की अद्भुत मानवीय संवेदना है. उनकी कविताओं में रची बसी यही मानवीय संवेदना उनकी कविताओं को दूसरों से अलग करती हैं और एक अलग विशिष्‍ठ स्‍थान प्रदान करती है.

जिन्‍दगी में कामनाओं को बॉंध पाना असंभव है, संयम की दीवार बार बार टूटती है. जब वह टूटती है तो ऑंसुओं की धार के रूप में प्रकट होती है. यह धार तन को तो शीतल करती है किन्‍तु यह शीतलता तन के तापों की नई भाषा भी गढ़ती है और सुनीता शानू की कविता के रूप में कुछ इस तरह बहती है - ’’कामना का बॉंध टूटा / ग्रंथियॉं भी खुल गई. / मलिनता सारी हृदय की / ऑंसुओं से धुल गई. / एक नई भाषा बना ली / तन के शीतल ताप नें.

सुनीता शानू की संवेदनायें जब नई भाषा के रूप में प्रकट होती है तो चमकृत कर देने वाले बिम्‍ब भी उभरते हैं. कहीं वह विश्‍वास को आटे में गूंथा हुआ कहती है तो कहीं मन के ऑंगन की माटी को अरमानों की बीज सौंपती है. बेहिसाब यादों का हिसाब रखती है तो यादों की स्‍याही से खत लिखती है. वह सभी को मुस्‍कुराहटों का खजाना बांटना चाहती है. बच्‍चों सी सहज सरल रूप में कच्‍ची इमली की कसम निच्‍छल भाव से देती है. मुखर प्रेम और प्रेम से उपजे अशांत पीड़ाओं को हृदय गव्‍हर में पालती है. समय के तुकड़ों को समेटे हुए मौन में भी गीत गाती है. उसका मन बंद पिंजड़े में पंछी सा फड़फड़ाता है और जब शब्‍द के सहयोग से द्वार खुलते हैं तब मन पखेरू उड़ चलता है फिर.

दर्द, संघर्ष और आस हर पंक्तियों में छटपटाते हैं. सिमटती चेतनायें, धैर्य को सहेज नहीं पाती और इन्‍हीं छटपटाहटों में गीत फूट पड़ते हैं. ‘कामवाली’ व अन्‍य कविताओं में खामोशियॉं रोती है और लहरे भी मौन हो जाते हैं. संवेदनायें मानवता की आंच में मोम बनकर पिघलनें लगते हैं और शब्‍द सीधे हृदय में वार करते हैं. सूफियाना अंदाज में ईश्‍वर को कहीं प्रेमी तो कहीं कृष्‍ण सखा के रूप में कविताओं का संबोधन पाठक को आध्‍यात्मिक प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं. ईश्‍वर से दुख, सुख बांटती कविताओं में प्रेम, अभिसार, अपेक्षा, शिकायत के साथ ही विश्‍वास का भाव सुनीता शानू के हौसले का चित्र खींचती है - कर ही लूंगी पार / पूरा आकाश / पा ही लूंगी / मेरा सपना.

जनवादियों की तरह सुनीता शानू सड़ चुके उसूलों और दायरों को बंधन मानती है. वह सोंचती है कि यही वह बेडि़यॉं है जो मन के उड़ान को भी रोक‍ती हैं. वह उन्‍मुक्‍त गगन में उड़ना चाहती है. उसकी कवितायें स्‍वप्‍नों की बगिया से शाश्‍वत की पथरीली धरातल तक का अंतहीन सफर करती है. इस सफर में उसका गजब का आत्‍मविश्‍वास ही उसका संबल है, यह उसके आत्‍म कथ्‍य में ही झलकता है यथा ‘ये जिन्‍दगी एक खूबसूरत कविता है और मैं इसे जी भर के जीना चाहती हूं.’

इस संग्रह के प्रकाशन के लिए सुनीता शानू को हार्दिक शुभकामनायें. हम आशा करते हैं कि कविता के क्षेत्र में वे निरंतर उन्‍नति का शिखर प्राप्‍त करेंगी और इससे भी उत्‍कृष्‍ठ एवं परिपक्‍व रचनायें हिन्‍दी साहित्‍य को प्राप्‍त होगीं.   

संजीव तिवारी
कृति का नाम : मन पखेरू उड़ चला फिर
विधा : कविता
रचनाकार : सुनीता शानू
प्रकाशक : हिन्द युग्म, नई दिल्ली
पृष्ठ : 127;
मूल्य : 195 रु.

छत्‍तीसगढ़ी महागाथा : तुँहर जाए ले गिंयॉं

छत्‍तीसगढ़ी गद्य लेखन में तेजी के साथ ही छत्‍तीसगढ़ी में अब लगातार उपन्‍यास लिखे जा रहे हैं। ज्ञात छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यासों की संख्‍या अब तीस को छू चुकी है। राज्‍य भाषा का दर्जा मिलने के बाद से छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य की खोज परख में भी तेजी आई है। इसी क्रम में कोरबा के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार कामश्‍वर पाण्‍डेय जी के द्वारा रचित छत्‍तीसगढ़ी महागाथा ‘तुँहर जाए ले गींयॉं’ को पढ़ने का अवसर मुझे प्राप्‍त हुआ। वर्तमान छत्‍तीसगढ़ के गॉंवों में व्‍याप्‍त समस्‍याओं, वहॉं के रहवासियों की परेशानियों एवं गॉंवों से प्रतिवर्ष हो रहे पयालन की पीड़ा का चित्रण इस उपन्‍यास में किया गया है। आधुनिक समय में भी जमीदारों के द्वारा गॉंवों में कमजोरों के उपर किए जा रहे अत्‍याचार को भी इस उपन्‍यास में दर्शाया गया है। इस अत्‍याचार और शोषण के विरूद्ध उठ खड़े होनें वाले पात्रों नें उपन्‍यास को गति दी है। विकास के नाम पर अंधाधुध खनिज दोहन से बढ़ते पर्यावरणीय खतरे के प्रति आगाह करता यह उपन्‍यास नव छत्‍तीसगढ़ के उत्‍स का संदेश लेकर आया है।



उपन्‍यास की भूमिका के पहले पैरे पर डॉ.विनय कुमार पाठक नें उपन्‍यास के संबंध में जो कुछ कहा है उसके बाद कुछ और बातें कहने को शेष नहीं रह जाती, फिर भी एक पाठक के रूप में इस उपन्‍यास को पढ़ने पर हुई अनुभूति को बांटनें का लोभ हम संवरण नहीं कर पा रहे हैं। हो सकता है कि उपन्‍यास पर लिखते हुए आगे के पैराग्राफों में स्‍वयंभू आलोचक होने की गलतफहमी भी मानस के किसी कोने में दुबका हो। किन्‍तु उपन्‍यास को पढ़ते हुए जलेबी खाने सा उल्‍लास मन में रहा है, सो उसे आप सब को बांट रहा हूँ।

नये नवेले इस प्रदेश में जिस तेजी से औद्यौगीकरण हुआ है और इस रत्‍नगर्भा धरती के दोहन के लिए नैतिक अनैतिक प्रयास हुए हैं वह किसी से छुपा नहीं है। इसका प्रत्‍यक्ष प्रभाव छत्‍तीसगढ़ के गॉंवों पर पढ़ा है, किसानों की भूमि जबरिया भूमि अधिग्रहण के द्वारा छीनी जा रही है। बची खुची धरती अंधाधुंध औद्यौगीकरण और खनिजों के दोहन से निकले धूल और जहरीली गाद से पट चुकी है या प्रदूषित हो रही है। पर्यावरण का भयावह खतरा चारो तरफ नजर आ रहा है किन्‍तु उसकी परवाह किए बिना षडयंत्र के तहत गॉंव पे गॉंव खाली कराए जा रहे हैं, कृषि जमीनों में उद्योग लगाए जा रहे हैं। उपन्‍यासकार नें इस उपन्‍यास में अन्‍य सामयिक समस्‍याओं के साथ ही पर्यावरण के इसी बढ़ते खतरे पर पाठकों का ध्‍यान आकर्षित कराया है।




उपन्‍यास की भाषा मेरी जानी पहचानी है, खाल्‍हे राज में बोली जाने वाली यह छत्‍तीसगढ़ी मैदानी छत्‍तीसगढ़ी से ज्‍यादा मधुर है एवं हमें बेहद प्रिय है। जॉंजगीर, अकलतरा, बलौदा, शिवरीनारायण अंचल में छुट्टियॉं बिताते, रिश्‍तेदारी में आते जाते इस मधुर छत्‍तीसगढ़ी का रसास्‍वादन हम करते रहे हैं। यह निर्विवाद सत्‍य है कि असल मायने में छत्‍तीसगढ़ी भाषा का ‘गुरतुर’ रूप इन्‍हीं अंचलों में बोली जाती है। उपन्‍यास इसी अंचल की बोली में होने के कारण हमें इसकी भाषा बहुत प्रिय लगी। उपन्‍यास में भाषा के प्रयोग में अंग्रेजी व अन्‍य दूसरी भाषाओं के शब्‍दों के प्रयोग से छत्‍तीसगढ़ी और जीवंत, सरल एवं बोधगम्‍य हो गई है। उपन्‍यास में देसज ठेठ शब्‍दों के प्रयोग नें नागरी छत्‍तीसगढ़ी के शब्‍द सामर्थ्‍य को बढ़ाया है। कामेश्‍वर भाई नें कई ऐसे ठेठ शब्‍दों का प्रयोग किया है जिनके अर्थ के लिए आम छत्‍तीसगढ़ी भाषा भाषी को भी बगलें झांकना पड़ जाए। कुछ शब्‍द देखें – रम्‍पई पेड, धीकुडिया, कगरियाना, पधराए, अकरखन, बेरा ओहरत, बकठी बहुरिया, नेंगुर, दहिंगला, पपरेल गाछ, पतघबड़ा, कर-नर, गमेरय, बिझुक्‍के – बिझुक्‍का, बुधियार, अतमैती आदि। उपन्‍यास में मुहावरों, लोकोक्तियों एवं कहावतों का भी प्रयोग रूचिकर लगा जिनमें – ‘बिटौना के बादर छा गईस’, ‘आन के खॉंड़ा आन के फरी खेदू नाचय बोईर तरी’, दॉंदर कस डउकी के मॉंदर कस पेट लइका होवाइस त हँसिया कस बेंठ’ आदि।

उपन्‍यास में प्रतीकों और घटनाक्रमों को विश्‍लेषित करने का ढंग निराला है। उपन्‍यासकार नें प्रतीकों, बिम्‍बों और भाषा पर सिद्धस्‍थ चित्रकार की तरह शब्‍द चित्र खींचा है। कुछ उदाहरण देखिये – ‘...... गंगाराम मन के कुकरी घर ले अपन चिंयॉं मन ला ले के कोरकिर – कोरकिर निकलिस अउ ओमन ल गली ल छुवा के फेर घुसर गइस। ओखर ऑंट म बइठे सेरू केकती मन ला देख के गुर्राए बर मूँ बनाइस, लेकिन फेर अपन बिचार ल तियाग के अपन हँफराई उपर चेत करिस। ओहू ल तो गरमी ल पार पाए बर परथे।‘, यह मात्र कल्‍पना नहीं है यह अनुभव का चित्रण है। इसी प्रकार ‘ .... औखरहा आभा-बोली मन ओकर कान मं मछेव कस भन्‍नावत रथे।‘ यह वही लिख सकेगा जिसनें मधुमखियों को भनभनाते सुना होगा। कोसा कीड़ा और केकती के जीवन पर पृष्‍ट 344 में भी उपन्‍यासकार नें बहुत मार्मिक व भावनात्‍मक स्थिति का उल्‍लेख किया है, आदि।



उपन्‍यासकार नें उपन्‍यास में चुटीले व्‍यंग्‍य का भी प्रयोग किया है जो कहीं गुदगुदाता है तो कहीं अंतस तक भेदता है, देखें – ‘मस्‍टर रोल मं भूत-परेत तक मन के नाव चढ़थे। सरकार के बाप नइ पुरोए सकै।‘ व ‘... लेकिन सरकार ल बाबा गुरू घसीदास के जैत-खाम ल कुतुब मीनार ले उँच बनवाए बर परते तो हे। भले एमा बोट के खोट हे, लेकिन हावै तो न।‘, ‘.... बंजर मं भटके-गँवाए सुरेन कभू सोचे नइ रहिस, एक दिन ए जंगले हर गँवा जाही।‘

उपन्‍यास में खण्‍ड- खण्‍ड कहानियॉं आगे बढ़ती हैं और संवेदना का एक सम्मिलित रूप उभर कर सामने आता है। लगभग दो दर्जन पात्रों के साथ आगे बढ़ती कहानी में उपन्‍यासकार नें सभी पात्रों का चरित्र चित्रण बहुत सहज व सरल रूप से प्रस्‍तुत किया है। संवादों के सहारे पात्रों के व्‍यक्तित्‍व को स्‍पष्‍ट भी किया है। उपन्‍यास में बड़े कका, सिवप्रसाद, चुनिया, होरी, लहाराम, पैसहा आदि के चरित्रों का व्‍यक्तित्‍व स्‍वयं बोलता है। कहानी में नाटकीयता, रोचकता, पात्रों की भावनाओं की अभिव्‍यक्ति, चुटीले व प्रभावकारी संवाद उपन्‍यास को रोचक बनाते हैं।

गॉंव में आयोजित भोज के समय पर दो विरोधाभाषी तथ्‍य सामने आते हैं जो संभवत: उपन्‍यासकार के लेखन को पुराना बताता है तो वहीं उसके संपादन को नया सिद्ध करता है। भोज के लिए रसोई बनाने में सहयोग करती महिला गुडाखू पचास पैसे में मंगाती है और आगे इसी अध्‍याय में नारियल दस रूपये में खरीदने का उल्‍लेख होता है। यह दर्शाता है कि उपन्‍यासकार नें अपने लेखन को बार-बार पढ़ा है और समयनुसार आवश्‍यक संशोधन भी किया है।




कामेश्‍वर पाण्‍डेय लिखित उपन्‍यास ‘तुँहर जाए ले गिंयॉं’ छत्‍तीसगढ़ के एक गॉंव की कहानी है। इसमें बड़े कका के नायकत्‍व में विभिन्‍न कहांनियॉं उनके इर्द गिर्द घूमती हैं। गॉंव में पैसहा ठाकुर (विसाल) उसके बेटे राजा, घनश्‍याम, बल्‍लू और छुट्टन का अत्‍याचार है। उपन्‍यास का आरंभ पलायन कर गए मजदूर भगेला के गॉंव आने के वाकये से होता है। भगेला और गॉंव के मजदूर मुरादाबाद के इंट भट्टे में कमाने खाने जाते हैं और इंट भट्टा का मालिक व उनके गुर्गे उन्‍हें बंधुवा बना लेते हैं। वहॉं से भगेला भाग कर गॉंव आता है, बड़े कका और सिवकुमार भगेला को सहयोग करते हैं और जॉंजगीर के किसोर की संस्‍था के स्‍वयंसेवक होरी के प्रयास से सभी मजदूर छूट कर गांव के लिए रेल से निकल पड़ते हैं। उनके आने की खुशी में गॉंव में रामायण का कार्यक्रम रखा जाता है जिसमें गॉंव के सभी लोग भेद भाव जात पात भूलकर एक साथ भोजन करते हैं।

इन घटनाओं के बीच में पैसहा ठाकुर की बेटी की प्रेम गाथा भी आकार लेती है। केकती गॉंव के ही गरीब मजदूर कौशल से प्‍यार करती है, उसके प्‍यार के रास्‍ते में उसके भाई रोड़े अटकाते हैं और कौशल को प्रताडि़त करते हैं। पैसहा परिवार के जुल्‍म से कौशल को गॉंव छोड़कर भागना पड़ता है और वह कमाने खाने काश्‍मीर चला जाता है। वहॉं उसके प्रेम के डोर को पत्रों के माध्‍यम से केकती की सहेली सुकवारो कायम रखती है। सुकवारा गॉंव की स्‍वयंसिद्धा महिला है, वह दुर्गा महिला मण्‍डल की अध्‍यक्षा है और गॉंव के कोसा पालन केन्‍द्र में मण्‍डल की महिलाओं के साथ काम करती है। सुकवारा के पति भी कौशल के साथ काश्‍मीर में काम करता है उसी के सहारे कौशल की पाती केकती तक पहुचती है।



उपन्‍यास में कथा उपकथा रोचकता को बढ़ाती है और कथानक आगे बढ़ता है। बड़े कका के घर रह रही चुनिया बड़े कका के नौकर लहाराम की पुत्री है। चुनिया विधवा है, लहाराम उसके दुख को देखकर उसे उसके ससुराल से अपने घर ले आता है किन्‍तु लहाराम की दूसरी पत्‍नी चुनिया को दुख देती है। गॉंव में फैले पैसहा के बेटों का आतंक और चुनिया के दुख को देखते हुए लहाराम बड़े कका से अनुरोध करता है और बड़ी काकी चुनिया को अपने घर ले आती है। चुनिया अपने सारे दुखों को भूलकर वृद्ध कका काकी की सेवा करती है। बड़े कका का परिवार चुनिया को सामाजिक सुरक्षा ही नहीं वरन उसे अपने घर की बेटी बनाकर रखते हैं। उपन्‍यास का बंधुआ मजदूरों का मुक्तिदूत होरी भी विधुर है, चुनिया की ऑंखें उससे दो चार होती है और उन दोनों की स्‍वीकृति से कथा के बीच में ही वे वैवाहिक जीवन में बंध जाते हैं।

कथा में बड़े कका का पुत्र सुरेन, जो शहर में नौकरी करता है अपने मित्र संदीप भट्टाचार्य के साथ गॉंव आता हैं। महानगर में पले बढ़े संदीप भट्टाचार्य को गॉंव का यह माहौल अटपटा लगता है, वे दोनों गॉंव के बदलते हालातों से दो चार होते हैं। सदियों से चली आ रही परम्‍परा के अनुसार गॉंव में बद्रीनाथ केदारनाथ से बड़े कका के घर पातीराम पण्‍डा व उसका भतीजा मन्‍नू भी आता है और कुछ दिन रूक कर गॉंव में घूमकर दान प्राप्‍त करता है। पातीराम के साथ आए मन्‍नू की कुदृष्टि का चुनिया बेखौफ जवाब देती है तो एक और परित्‍यक्‍ता लड़की फंस जाती है। बात आगे बढ़ती उसके पहले ही लड़की को भूत चढ़ने का वाकया होता है और मन्‍नू के मन में घर कर गए भय से लड़की बच जाती है।




मूल कथा क्रम में पैसहा गॉंव में सदियों से निस्‍तार हेतु प्रयुक्‍त रास्‍ते को कांटे से घिरवा देता है क्‍योंकि वह रास्‍ता राजस्‍व अभिलेख में उसके नाम पर होता है। यहीं से गॉंव वालों का विरोध आकार लेता है। रास्‍ते को घिरवाना पैसहा व उसके चम्‍मचों का चाल होता है। पैसहा चाहता है कि गॉंव में डायमण्‍ड कोल वासरी खुले जिसके लिए गॉंव वाले बावा डिपरा की जमीन कोल वासरी को स्‍वेच्‍छा से दे दें। पैसहा कोल वासरी में ठेके और अपने ट्रकों को काम मिलने से अपने लाभ की सोंच रहा है उसे गॉंव के किसानों या पर्यावरण से कोई लेना देना नहीं है। वह चाहता है कि गॉंव वाले अपनी जमीन कोल वासरी को दे दें तो वह गॉंव के निस्‍तारी रास्‍ते को खोल देगा। पैसहा के इस काम में सहयोग गॉंव का सरपंच बजरंग, पाण्‍डे और कोलवासरी का मैनेजर डी.के.चौहान आदि करते हैं। रास्‍ता खोलने हेतु गॉंव में पंचायत बुलाई जाती है। पैसहा अपनी र्शत रखता है, मुकुंदा और दूसरे गॉंव वाले इसका विरोध करते हैं खासकर वे जिनका जमीन बावा डिपरा में है। पैसहा के बेटे प्रतिरोध को दबाना चाहते हैं इसी क्रम में लालदास की पैसहा के बेटों से पंचायत के बीच में ही लड़ाई हो जाती है। राजा कट्टा निकाल लेता है और चलाने ही वाला होता है कि बरसों से दबे कुचले दलित व अपंग पंचराम के शरीर में अचानक बल का संचार होता है और वह राजा के कलाई में डंडे से भरपूर वार करता है। अनहोनी टल जाती है और जैसे तैसे लड़ाई को शांत किया जाता है। पंचायत बिना फैसले के उठ जाती है।

लड़ाई की आग गॉंव में धीरे धीरे सुलगने लगती है। पैसहा की जिजीविषा और उसके बेटों के आतंक में कोई कमी नहीं आती। राजा के द्वारा गॉंव की बहु बेटियों के बलत्‍कार के कई किस्‍से हरफों में उभरते हैं और शोषितों की आवाज दमन के डंडों में दब जाती है। गॉंव के बहु बेटियों की जुबान में टीस बाहर निकलने के लिए छटपटाती है किन्‍तु लोकलाज व राक्षसों के दबंगई के कारण दबी रह जाती है।

राजा ना केवल गॉंव की इज्‍जत से खेलता है बल्कि अपने दुश्‍मनों को रास्‍ते से हटाने में भी गुरेज नहीं करता। वह पंचराम की हत्‍या करता है और परिस्थितिजन्‍य साक्ष्‍य के बावजूद उस पर कोई आंच नहीं आती। ऐसी ही घटना का शिकार पूर्व में गोरे पंडित भी होता है, दोनों की हत्‍या को आत्‍महत्‍या सिद्ध कर दिया जाता है।



ऐसे ही दिनों में जब राजा के हवस का शिकार हुई बेदिन के पति को दमन की पीड़ा सहन नहीं होती तो वह हिम्‍मत बॉंध कर पैसहा को ललकार उठता है। बढ़ते उम्र के कारण पैसहा क्रोध में उसे मारने दौड़ता है किन्‍तु पांव में पत्‍थर लगने से गिर जाता है। ललकारने वालों के सर पर बेवजह संकट आ जाती है किन्‍तु किसी भी तरह पैसहा को उसके घर पहुचाया जाता है वहां से अस्‍पताल। लाखों खर्च करने पर भी पैसहा ठीक नहीं होता और असक्‍त होकर बिस्‍तर में पड़ जाता है। बेटे मनमानी करने लगते हैं और गॉंव को नियंत्रित नहीं कर पाने का दुख पैसहा सालता है, अंतिम समय में वह प्रायश्चित करने का जुगत करता है।

पैसहा के बेटे डायमण्‍ड कोल वासरी को अपने आतंक से विस्‍तार देते हैं। राजा की अय्यासी बढ़ते जाती है, एक दिन तालाब में अकेले नहाते बेदिन पर फिर उसकी नीयत डोल जाती है। वह बेदिन का पीछा करते उसके घर तक आ जाता है और उसे घर में अकेली पाकर उसका बलात्‍कार करने पर उतारू होता है उसी समय ताक में बैठे बेदिन का पति उसे मार डालता है। राजा को मारने के बाद वह उत्‍साह के साथ गॉंव में इसका एलान करता है व जूलूस के साथ थाने जाकर सरेंडर करता है।




बड़े कका और सिवप्रसाद के संयुक्‍त प्रयास से गॉंव धीरे धीरे जागने लगता है। कोलवासरी के विस्‍तार एवं पैसहा के बेटों के दमन का विरोध करना गॉंव वाले सीखने लगते हैं। किन्‍तु पैसहा जैसे लोगों के पूर्व स्‍वार्थपरक कूटनीतिक चालों के कारण कोलवासरी और ओपन कोल माइंस का दंश गांव वालों को झेलना पड़ता है। जनसुनवाई में जनता विरोध में सर उठाती है किन्‍तु प्रशासन कोलवासरी को विकास मानते हुए जमीनों को लीलना चाहती है।

बड़े कका और सिवप्रसाद उपन्‍यास में कुरीतियों को सहजता से दूर करने की शिक्षा देते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। कुष्‍ट, टोनही, भूत आदि के संबंध में व्‍याप्‍त अंधविश्‍वास की वे वैज्ञानिक व्‍याख्‍या करते हुए जनता के मन से उसका भय दूर करते हैं। अपने प्रेमी की बाट जोहती केकती सपने में देखती है कि उसका प्रेमी कौशल अनंतनाग में राजमिस्‍त्री का काम करते हुए उपर से गिर जाता है और मर जाता है। उसका स्‍वप्‍न वास्‍तव में सत्‍य होता है। अनंतनाग में कौशल आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो जाता है। प्रेमी की मौत की खबर से केकती पागल हो जाती है। कथा के अंत में कौशल खाइन पान में महागाथा की वेदना फूटती है। केकती पान ठेले में अपने प्रेमी के पसंद का पान मागती है, पान खाकर वह हसती है, उसकी हंसी गांव में गूंजती है। बड़े कका के घर में बच्‍चों का व्रत व पर्यावरण रक्षा का व्रत खम्‍हरछट के पूजा का आयोजन हो रहा है, कथा कही जा रही है। पर्यावरण बचाने गांव वाले अब उठ खड़े होंगें इसी आशा में गाथा समाप्‍त होती हैं।



उपन्‍यास में बंधुआ मजदूरी के समय एक बच्‍ची के बलत्‍कार की कहानी और उस अबोध बच्‍ची के गर्भवती होने की कहानी, होरी के बंधुआ मजदूरी से भागने का वाकया, भोजन भट्टों की कहानी, कुष्‍ट होने पर समाज को बोकरा भात देने की परम्‍परा का विरोध, भूत चढ़ने उतारने का चित्रण, सांप काटने पर परिवहन की समस्‍या के कारण लोगों की मौत का वाकया, ग्‍वाले के बेटों के द्वारा दूध में बंबूल के बीज को पीसकर मिलाने की घटना को देखकर साधू हो जाना आदि का संवेदनात्‍मक चित्रण उपन्‍यासकार नें किया है।

अब तक पढ़े गए छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यासों में यह उपन्‍यास हमें सर्वश्रेष्‍ठ लगी। यह उपन्‍यास सचमुच में अपनी संपूर्णता के साथ प्रस्‍तुत हुई है। लेखक का इसे महागाथा कहना, पढ़ने से पहले अटपटा लग रहा था। किन्‍तु इसे पढ़ते हुए कथाओं की लयात्‍मकता और घटनाओं के प्रवाह से एक रागिनी फुटती हुई महसूस होती है। यही रागिनी इसे स्‍वमेव महागाथा सिद्ध करती है। छत्‍तीसगढ़ी भाषा में इतनी उत्‍कृष्‍ट रचना प्रस्‍तुत करने के लिए भाई कामेश्‍वर पाण्‍डेय जी को बहुत बहुत धन्‍यवाद।
संजीव तिवारी

तुँहर जाए ले गींयॉं
(छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास)
लेखक : कामेश्‍वर पाण्‍डेय
पृष्‍ट संख्‍या : 420

मूल्‍य : सजिल्‍द 400/- 
प्रकाशक : सर्वप्रिय प्रकाशन
1569, प्रथम मंजिल, चर्च रोड
काश्‍मीरी गेट, दिल्‍ली 110006
वितरक : वैभव प्रकाशन
सागर प्रिटर्स के पास, अमीनपारा चौंक
पुरानी बस्‍ती, रायपुर (छत्‍तीसगढ़)
फोन : 0771 4038958, 09425358748






भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष - 5 :

मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्में कहॉं हैं?
विनोद साव.

भारतीय सिनेमा ने अपने गौरवशाली सौ वर्ष पूरे कर लिए हैं और इस अवसर पर फिल्मों की रचनात्मकता और समाज पर उनके सार्थक प्रभाव को लेकर बहस जारी है। इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए हिन्दी के साहित्यकार और समीक्षक विनोद साव ’’आरंभ’’ के लिए लगातार लिख रहे हैं। यह विनोद जी ने तेलुगु फिल्मों पर बहस के लिए ये विचार हमारे सामने रखे हैं जिन्हें हम पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं इस उम्मीद के साथ कि इसे पढ़ने के बाद हमारे पाठक ज्यादा से ज्यादा इस आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर तेलुगु फिल्मों तथा सभी फिल्मों की चर्चा को आगे बढ़ाएंगे!
संपादक


भारतीय सिनेमा के सौ साल पर फिल्मों की चर्चा चल रही है। इनमें हिन्दी फिल्मों के समानांतर अहिन्दी फिल्मों की चर्चा भी हो रही है। इनमें हिन्दी मराठी, बांग्ला और दक्षिण की कई फिल्मों के निर्देशक कलाकार इन सभी भाषाओं में काम करते हैं और कहीं कहीं एक साथ काम करते हुए दिखते हैं। इन फिल्मों पर होने वाली बहस में हिन्दी सहित अनेक अहिन्दी फिल्मों और उनके कलाकार शामिल हैं पर यह दुखद और आश्‍चर्य जनक है कि इनमें तेलुगु फिल्मों और उनके कलाकारों का जिक्र नहीं हो पा रहा है, जबकि यह माना जाता है कि फिल्मों की संख्या में तेलुगु फिल्में सबसे आगे हैं।

तेलुगु फिल्में संख्या, निर्माण, गुणवत्ता व फिल्मांकन की दृष्टि से हिन्दी फिल्मों के समकक्ष उतरती हैं और पौराणिक फिल्मों के निर्माण में यह हिन्दी तथा अन्य भाषायी फिल्मों से काफी आगे हैं। ऐसा लगता है कि पौराणिक फिल्मों की जिस उत्कृष्टता से तेलुगु फिल्में महिमा मंडित होती रही हैं वही मेनस्ट्रीम सिनेमा (सिनेमा की मुख्यधारा) के मूल्यांकन के दौर में उसकी कमजोरी बन गई है। भारतीय सिनेमा के सौ साल की रचनात्मकता पर जो चर्चा जारी है उनमें उनके सामाजिक सरोकारों पर मुख्य रुप से ध्यान केन्द्रित है और तेलुगु फिल्मों पर दृष्टिपात करने से उनके इस रचनात्मक सामाजिक फिल्मों का पता नहीं लग पा रहा है और उनके अभिनेताओं अभिनेत्रिओं की भूमिका में उस रचनात्मकता को खोजे जाने की फिलहाल प्रतीक्षा ही है जिनसे किसी फिल्म का एक सुधारवादी रुप सामने आता है और उसके दर्शकों पर गहन सामाजिक प्रभाव पड़ता है। यह जरुर है कि तेलुगु फिल्मों के निर्माण को पूरे सौ साल नहीं हुए हैं। यहॉ पहली मूक फिल्म ’भीष्म प्रतिज्ञा’ 1921 में बनी और पहली बोलती फिल्म ’भक्त प्रहलाद’ 1933 में बनी थी। पर भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों को समग्र रुप में देखा जा रहा है और तेलुगु फिल्मों की उम्र केवल आठ साल ही कम है और यह अवस्था कम नहीं है।

हिन्दी तथा तमिल फिल्मों में अलग अलग काल में अलग नायक हुए और उनका अलग अलग प्रभाव पड़ता रहा है। हिन्दी फिल्मों में ऐसे नायकों (हीरो) की यह फेहरिश्‍त लम्बी है। पर तेलुगु फिल्मों में उसके लम्बे कालखण्ड में दो महानायकों एन.टी.रामाराव और नागेश्‍वर राव का कोई सानी आज तक पैदा नहीं हो सका है। ये महानायक तेलुगु फिल्मों के ऐसे वटवृक्ष रहे हैं जिनकी छाया में कोई दूसरा कलाकार पनप नहीं पाया।

एन.टी.रामाराव जिनका लोकप्रिय नाम ’एन. टी.आर.’ रहा है उन्होंने जन मानस पर इतनी पैठ जमा ली थी कि अपने बुढ़ापे काल के बावजूद भी राजनीति में उतरकर आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी को ध्वस्त कर तेलुगु देशम नाम की एक क्षेत्रीय पार्टी बना ली और उसे सत्तानशीन कर दिया। इस अभिनेता ने पहले ऐसे नेता होने का श्रेय लिया जिन्होंने तेलुगु जनता को ’तेलुगु’ रुप में पहचान दी जबकि इससे पहले तेलुगु जनमानस को आम बोलचाल में समस्त दक्षिण भारतीयों की तरह ’मद्रासी’ कह दिया जाता था। राम, कृष्ण तथा महाभारत के अनेक पात्रों और कई कई पौराणिक गाथाओं के मिथक चरित्रों के अपने अभिनय से जीवन्त कर देने वाले एन.टी.आर. अपने जीते-जी स्वयं एक मिथक बन गए थे और वे आन्ध्र की जनता के बीच किसी भगवान की तरह पूजे जाने लगे थे, पर आज मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्मों के इस भगवान की कोई चर्चा नहीं है।

एनटीआर की तुलना में उनके समकालीन दूसरे महानायक नागेश्‍वर राव ने सामाजिक फिल्मों में अधिक हिस्सेदारी की थी। उन्हें दादा साहब फाल्के का सर्वोच्च सम्मान भी प्राप्त हुआ था। यह सम्मान निर्देशक बी.नागिरेड्डी को भी प्राप्त हुआ था। एनटीआर भी यह सम्मान प्राप्त कर सकते थे। जल्दी दिवंगत हो जाने और संभवतः घोर राजनीति में सक्रिय हो जाने के कारण वे इस सम्मान को नहीं पा सके थे।

यहॉ पर मुद्दा यह है कि फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कई किस्म के गिनीज रिकार्ड बना लेने वाली ’टॉलीवुड’ की तेलुगु फिल्मों ने अपने गौरवशाली इतिहास में मात्र दो नायकों को ही पहचान दी। बाद की आधुनिक फिल्मों में चिरंजीव और नागार्जुन जैसे कुछ नायक कामयाब रहे पर वे भी कला और सार्थक फिल्मों के अभिनेता नहीं माने गए। दक्षिण की दूसरी भाषाओं की फिल्मों में आज भी शिवाजी गणेशन को तमिल फिल्मों के महान अभिनेता के रुप में उनके योगदान को सिनेमा की मुख्यधारा में शामिल किया जाता है। बाद में रजनीकांत और कमलहासन हुए जिन्होंने फिल्मों और उसकी तकनीकों में कई अनूठे प्रयोग किए। रजनीकांत ने ’रोबोट’ बनाकर फिल्मों की धारा को एक नयी दिशा दे दी। कमलहासन ने तो कई कलात्मक सार्थक फिल्मों का निर्माण किया और सिनेमा की मुख्य धारा को हमेशा प्रभावित किया है। कन्नड़ भाषा बोलने वालों में नाटकों की ओर अधिक और फिल्मों की ओर कम रुझान रहा, इसलिए वहॉ व्यावसायिक फिल्मों के एक अभिनेता राजकुमार की ही हैसियत बन पाई लेकिन कन्नड़ और हिन्दी की कला फिल्मों को गिरीश कर्नाड ने खूब उंचाई दी है।
बांग्ला भाषा के कलाकार व्यावसायिक फिल्मों में दखल नहीं दे सके, अपनी व्यावसायिक भूख को मिटाने के लिए उन्होंने हिन्दी फिल्मों को अपनाया और सफलता प्राप्त की। फिर भी बांग्ला की व्यावसायिक फिल्म में उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की लोकप्रियता का बुखार बंगाली दर्शकों को चढ़ा था। सामाजिक सरोकारों वाली उनकी समानांतर व कला फिल्मों ने अंतर्राष्ट्रीय उंचाई प्राप्त की और सत्यजीत राय व मृणाल सेन जैसे निर्देशकों ने बड़ी प्रतिष्ठा अर्जित की। मराठी भाषा क्षेत्र ने फिल्म निर्माण का न केवल इतिहास रचा बल्कि इस इतिहास का आरंभ किया जहॉ दादा साहब फाल्के और व्ही.शांताराम जैसे ऐतिहासिक फिल्म निर्माता हुए। इन सबकी चर्चा आज भारतीय सिनेमा के सौ साल के अवसर पर हो रही है। पर यह विडंबना है कि दुनिया का सबसे बड़ा स्टुडियो हैदराबाद में रखने, फिल्मों का सबसे बड़ा परदा टॉगने, सबसे ज्यादा सिनेमा हॉल और दर्शक होने के बावजूद भी तेलुगु फिल्मों के किसी भी निर्माता निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री की चर्चा सिनेमा की मुख्यधारा में नहीं हो पा रही है, जबकि तेलुगु फिल्मों की कितनी ही नायिकाओं ने व्यावसायिक हिन्दी फिल्मों को उंचाइयॉ दीं। आखिर इन सबों का कारण क्या है? इस पर तेलुगु फिल्मों के विशेषज्ञ समीक्षक क्या कहते हैं? टॉलीवुड इन सबके लिए कितना जिम्मेदार है? आन्ध्र प्रदेश की मीडिया की क्या भूमिका रही है? क्या तेलुगु फिल्मों की सारी रचनात्मक विषेषताऍं पौराणिकता के प्रति घोर श्रद्धा के गाल में समा गईं! नायक-नायिका की उन्नत अदाओं में सराबोर हो गईं! किसी महाशक्ति के चमत्कार, मारधाड़ या स्टंट की चकाचौंध में डूब गईं। क्या तकनीक दिखाने के चक्कर में हम कथानक के प्रभाव को भूल गए। इन सबों पर आज चर्चा की जरुरत है, तेलुगु कला विशेषज्ञों को गंभीर होकर सोचने की जरुरत है। फिल्म निर्माण की सारी क्षमताओं और तकनीकी उत्कृष्ठता के प्रदर्शन के बावजूद आज मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्में कहॉ खड़ी हैं? भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष की चर्चा से तेलुगु फिल्में क्यों नदारद हैं? आखिर क्यों?

विनोद साव.

20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

अच्छाई और बुराई के बीच ’प्राण’ एक शख्सियत

भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष
विनोद साव

भारतीय सिनेमा के सौ सालों में सिनेमा का सिनेरियो प्राण की चर्चा के बगैर कुछ अधूरा सा लगेगा। पिछले दिनों उन्हें श्रेष्ठतम अभिनय के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार के सर्वोच्च पुरस्कार से नवाजा गया। प्राण साहब को यह सम्मान बहुत पहले ही मिल जाना था। अगर वे 93 वर्ष की आयु का लम्बा जीवन नहीं जीये होते तो यह पुरस्कार भी उन्हें नहीं मिल पाता। पुरस्कारों के साथ यह भी एक घालमेल है।

प्राण दिखने में बेहद हसीन इन्सान रहे हैं। अपनी नोकदार नाक व ठुड्डी, रसीली ऑखों और सिर के घुमावदार बालों से कई किस्म की भंगिमाएं वे दे लेते थे। उनके पास अभिनय और संवाद अदायगी की अकूत क्षमता थी। जिन चरित्रों में वे खड़े होते थे उनमें प्राण इस कदर प्राण डाल देते थे कि दर्शक उन्हें बडे विस्मय और भय से देखते हुए रोमांचित हो उठते थे। उनके जानदार अभिनय को देखकर दर्शक वैसे ही तालियॉ पीटकर वाह वाह कर उठते थे जैसे वे किसी भारतीय रुपहले परदे के बहुचर्चित ’खलनायक’ को नहीं बल्कि किसी रुमानी ’नायक’ को देख रहे हों। ’विलेन’ की अदाकारी में कई बार वे सिनेमा के असली हीरो से बाजी मार ले जाते थे और खुद हीरो बन जाते थे। प्राण कहते भी हैं कि ’आजकल के विलेन लाउड हो जाते हैं। दरअसल विलेन को भी अपनी फिल्म का हीरो हो जाना चाहिए।’ जबकि नायकत्व से भरे अपने व्यक्तित्व के बाद भी प्राण ने कभी भी फिल्मों में नायक बनना पसंद नहीं किया ज्यादातर खलनायक ही बने रहे, लेकिन अपनी भिन्न क्षमताओं के कारण उन्होंने अपने अभिनय की दूसरी पारी में कई चरित्र अभिनेताओं के किरदार को भी बखूबी निभाया और जीवंत किया। 



लाहौर की उसी पट्टी से प्राण भी आए थे जिस पट्टी ने फिल्म जगत को तमाम बड़े अदाकार और कलाकार दिए। फिल्मों में आने से पहले वे शिमला में रहे जहॉ कम उम्र में ही सिगरेट पीने की लत उन्हें लग चुकी थी। बाद में फिल्मों में उनके सिगरेट पीने, धुऑ छोड़ने और छल्ला निकालने के कई लटके झटकों को कैमरामैनों ने बखूबी फिल्माया और देखने वालों ने खूब मजा लिया। कभी कभी सुनहरे बालों वाले प्राण को, ऑखों पर सुनहरी लेंस धारण किए, सुनहरा सूट पहने हुए सुनहरे डिब्बे में स्प्रिट पीते हुए भी दिखलाया जाता था। यह सुनहरा दृश्‍य दर्शकों की ऑखों में बस जाता था और प्राण लोगों के दिलों में और भी बस जाते थे। खलनायक होते हुए भी प्राण नायकों की तरह स्टायलिश हुआ करते थे। बाद के प्राण खलनायक की भूमिकाओं से हटकर परोपकारी और मजाकिया इन्सान के रुप में आने लगे थे और यहॉ भी उन्होंने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी थी। अपने वास्तविक जीवन में वे कभी भी खल पात्र नहीं बल्कि एक नेक दिल इन्सान रहे हैं।

अभिनय के हिसाब से देखें तो प्राण में वैसी ही अभिनय क्षमता भरी थी जैसी दिलीपकुमार और अमिताभ बच्चन में रही। उनकी फिल्मों की संख्या भी बड़े स्टारों की तरह बहुत ज्यादा रही। दिलीपकुमार की तरह वे भी पचास बरसों से अधिक समय तक अभिनय में सक्रिय रहे। उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में भी दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के साथ की। कला समीक्षक ये मानते हैं कि फिल्मों के दृश्‍यों के दौरान दिलीप कुमार के व्यक्तित्व और अभिनय को जो अतिरिक्त गरिमा मिलती थी वह उनकी प्राण से टकराहट के कारण मिलती थी। यही प्रभाव अमिताभ के साथ भी देखा जा सकता है विशेषकर ’जंजीर’ के शेरखान के साथ। इस फिल्म के निर्देशक प्रकाश मेहरा को प्राण ने कह भी दिया था कि अमिताभ के रुप में हमारी फिल्मी दुनियॉ को एक बड़ा स्टार मिल गया है। दिलीप और अमिताभ की तरह प्राण भी सबसे ज्यादा अपनी संवाद अदायगी के लिए जाने जाते थे। उनके डायलाग बड़े दिलकश होते थे। संवादों को बोलते समय उनकी गड़गड़ाती हुई टीस भरी आवाज ऐसी बुलन्द होती थी कि मामूली सा संवाद भी धॉसू डायलाग साबित हो जाता था। फिल्म ’मजबूर’ में जब इंसपेक्टर अमिताभ उनसे पूछते हैं कि ’सुना है कि चोरों के भी उसूल होते हैं!’ तब प्राण अपने अन्दाज में कह उठते हैं कि ’चोरों के ही तो उसूल होते हैं राजा।’ उनकी संवाद अदायगी का प्रभाव उनके समकालीन खलनायकों जीवन और अजीत में भी देखा जा सकता है।

अभिनय की उंचाई और दिलकश आवाज के जरिये प्राण में भी दिलीप और अमिताभ की ही तरह फिल्मों के बेबुनियाद दृश्‍यों और चरित्रों को उंचा उठा देने की ताकत थी। भारतीय सिनेमा की छवि ज्यादातर व्यावसायिक सिनेमा की ही बन पाई और इनके बाजार को बढ़ाने के लिए जो स्टार और स्टारडम चाहिए वह प्राण जैसी शख्सियतों के पास भरपूर रही है। खलनायकों और चरित्र अभिनेताओं में शायद ही किसी ने इतनी लम्बी पारी खेली हो।

विनोद साव

संपर्कः मो. 9407984014


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

जे.के.लक्ष्मी सीमेंट : स्थानीय बनाम बाहरी

दुर्ग जिले के अहिवारा ब्लॉक का एक छोटा सा गांव मलपुरी इन दिनों खबरों के शीर्ष पर है, गांव वालों पर आरोप है कि उन्होंनें निर्माणाधीन जे.के.लक्ष्मी सीमेंट प्लांट को आग लगा दिया. शांत स्वभाव वाले इन किसान और मजदूरों पर आरोप है कि उन्होंनें उग्र होकर भीषण आगजनी की जिसमें कम्पनी की 600 करोड़ की सम्पत्ति का नुकसान हुआ. कम्पनी के आने के पहले मलपुरी में किसान खेती करते थे और भूमिहीन उन खेतों में मजदूरी करते थे. कहते हैं कि मलपुरी के धरती के गर्भ में आसपास के अन्य गांवों से ज्यादा पानी है इसी कारण अधिकांश किसानों के पास बोर थे और फसल बारो मास लहलहाती थी. इस खुशहाल गांव में जब हरियाणा के लोगों के नाम से जमीनें धीरे धीरे खरीदी जाने लगी तभी से राहू की वक्र दृष्टि पड़ने लगी. जमीन दलाल सक्रिय हुए और किसानों को जमीन बेचने के लिए बहुविध लालच देने लगे. धीरे धीरे आधा से ज्यादा जमीन हरियाणवी ताउओं के नाम पर बहुत ही सस्ते दरों पर चढ़ गई. जब तक लोगों को पता लगा कि मलपुरी में सीमेंट प्लॉंट लगने वाला है तब तक जमीनें किसानों से छिन चुकी थी.

जे.के.लक्ष्‍मी सीमेंट के मालिकों को अहिवारा क्षेत्र के भूमि में दबे सीमेंट उत्पादन में सहयोगी पत्थरों की भनक बरसों पहले लग चुकी थी और उसके उत्खनन की अनुमति भी उन्होंनें ले ली थी, किन्तु उनकी औद्यौगिक साम्राज्य की जीजीविषा पर कुछ न्यायालयीन अड़चने पाला मार रही थी. न्यायालय से हरी झंडी मिलते ही जे.के.लक्ष्‍मी सीमेंट नें खानों के पत्थरों को उदरस्थ करने और पास बह रही शिवनाथ को लीलने की अपनी इच्छा शासन से की. इस समय तक राहुओं नें मलपुरी गांव सहित आस पास के गांवों की जमीनों को पूरी तरह से ग्रस लिया था. मलपुरी गांव में परिवहन सहित अन्य संसाधनों की सुगम सुविधाओं को देखते हुए प्लॉंट की स्थापना यहीं तय हुई. जे.के.लक्ष्‍मी सीमेंट ने आवश्यकता की अतिरिक्त भूमि के लिए राज्य शासन से गुहार लगाई और शासन ने त्वरित कार्यवाही करते हुए भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया आरंभ कर दी. प्रक्रिया के चलते ही जे.के.लक्ष्‍मी सीमेंट नें गांव के निस्तारी भूमियों को कब्जा करना आरंभ कर दिया, धीरे धीरे उनके सभी पारंपरिक रास्ते बंद कर दिए गए. ठगे से ग्रामीणों नें तभी पहली बार विरोध में स्वर उठाया. जे.के.लक्ष्‍मी सीमेंट को सीधे विक्रय किए गए भूमि के भू स्वामियों नें नौकरी की मांग की और मांगों पर ध्यान नहीं दिए जाने के फलस्वरूप प्लांट के द्वार पर प्रभावितों की तंबू तन गई.

छत्तीसगढ़ के मजदूर किसान आन्दोलन का इतिहास जानने वाले लोग जानते हैं कि छत्तीसगढ़िया शांतिपूर्वक धरना देनें में विश्वास रखते हैं. वे लम्बे समयावधि तक धरने देते हैं, भूखे रहते हैं, स्वयं कष्ट सहते हैं और अपनी मांगों पर अडिग रहते हुए अपनी मांग मनवाते हैं. जे.के.लक्ष्‍मी सीमेंट प्रबंधन को छत्तीसगढ़ियों के इस स्वभाव का अंदाजा ही नहीं था वे अपने हरियाणा व राजस्थान के प्लांटों के अनुभवों को यहां आजमा रहे थे. निर्माण के लिए भारी संख्या में बाहरी लोगों को बुलाकर धड़ा धड़ निर्माण कराया जा रहा था, बलपूर्वक सरकारी और निस्तार की जमीनों को हथियाया जा रहा था और धरने में बैठे लोगों की वाजिब मांगों को मानने के बजाए उन्हें डराया धमकाया जा रहा था, लोगों की माने मो बाहर से बाउंसर बुलाकर बच्चो और महिलाओं तक को पिटवाया गया था ताकि गांव वालों पर कम्पनी की दहशत कायम हो.

उसके बाद के धटनाक्रम से पाठक वाकिफ हैं, अचानक क्या हुआ कि जे.के.लक्ष्‍मी सीमेंट को 600 करोड़ का नुकसान व इसके ठीकरे पर शांतिप्रिय छत्तीसगढ़ियों पर आरोपों और कष्टों का पहाड़ टूट पड़ा. रायपुर के एक युवा पत्रकार नें अपने ब्लॉग में लिखा 'कल जब जेके लक्ष्मी सीमेंट कंपनी के एक अधिकारी का ऑफिशियल वर्जन मेल पर आया तो मैं देखकर दंग रह गया। वे बोल रहे थे कि जैसे गांव का विकास जेके लक्ष्मी ने किया, कर रहा है और करेगा। मगर गांव वाले सबके सब नाकाबिल उनके प्लांट में आग लगाने वाले अपराधी हैं।' इसे पढ़कर लगा कि सौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली शब्दांश ऐसे ही किसी वाकये को देखकर हमारे पुरखों नें शुरू किया होगा.

अपराध की बुनियाद पर इमारत खड़ी करने वाली कम्पनी जनता से कहती है कि तू अपराधी है, वाह जी! किस मुह से ये कह रहे हो. उचित मुआवजा व पुर्नवास के अनिवार्य दायित्व से बचने के लिए हरियाणवी ताउ से जमीन खरीदवाया वो भी कृषि के उद्देश्य के लिए फिर तान दी उद्योग. पर्यावरण अनुमति कहीं और के लिए लिया और मनमानी करते हुए फैक्ट्री कहीं और डाल ली, सरपंचों को धोखे में डालकर एनओसी लिया. गुण्डों से गांव वालों की पिटाई कराई, दहशत फैलाया. श्रमिक सुरक्षा के बेहतर इंतजाम नहीं किया इसलिए तीन मजदूर मिट्टी में दबकर मर गए. गांव वालों की जमीन को अधिग्रहण की प्रक्रिया पूरा हुए बिना भी कब्जे में लिया. सम्मिलित चरागान की जमीन जिस पर सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट दिशा निर्देश है कि उसका निजी या उद्योग हेतु उपयोग नहीं किया जायेगा, उसे भी कब्जा कर लिया. व्‍यक्तिगत गलतियों को छिपाने के लिए जनता पर दोष मढ़ना कुछ सामर्थवानों की फितरत रही है. इसी क्रम में कम्‍पनी नें मीडिया में मेल भेजकर अपने आप को पाक साफ प्रचारित किया.

आगजनी, प्रशासन की कार्यवाही फिर कम्‍पनी का यह मेल छत्‍तीसगढ़ को बदनाम करने की कडिया ही हैं. शुरूआती मांगों, असंतोष व विवादों के संबंध में स्थानीय प्रशासन संवेदनशील नहीं रही. आग अंदर ही अंदर सुलगता रहा. संपूर्ण घटनाक्रम का बीज झूठ बोलकर जमीन खरीदने के समय से ही बो दी गई, फिर उसे परिवर्तित कराने व बाद में सरकारी डंडे से भूमि अधिग्रहण कराने की प्रक्रिया के द्वारा पानी खाद देकर इसे सींचा गया, मजबूत बनाया गया. स्थानीय भूमि अधिग्रहण अधिकारी नें अपने अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए, पुर्नवास एवं मुआवजा के मसले पर संवेदनाओं को ताक में रखकर कम्पनी के हित में अधिग्रहण को उचित ठहराया. यदि प्रकरण पर विचार करते समय कम्पनी के मुलाजिम मेहता को जिस प्रकार उचित आसन दिया जाता था उसी प्रकार एक मनुष्य होने के नाते अपने जमीन का हक खोने वाले मनुष्यों के अधिकारों को उचित स्थान दिया गया होता तो इस प्रकार के उग्र आन्दोलन की बात ही ना होती. नौकरी के लिए चल रहे घरने का औचित्‍य समाप्‍त हो जाता. भूमि अधिग्रहण के संबंध में निर्णय आने के पहले ही कम्पनी के द्वारा जमीनों पर धड़ाधड़ कब्जा किया गया, इससे ग्रामीणों की स्वतंत्रता लगभग समाप्त होती गई और प्रशासन चारागान व गांव के निस्तार की जमीनों पर कम्पनी के द्वारा किए जा रहे अतिक्रम व निर्माण को देख सुनकर भी मौन रही बल्कि एक कदम आगे बढ़ाते हुए उन्हीं जमीनों का अधिग्रहण कम्पनी के लिए करने में सहयोग करती रही.

हमने कम्पनी के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे अधिग्रहण के विरूद्व जब आपत्ति की थी तो कहा था कि प्रस्तावित अधिग्रहण से प्रदेश के भू स्वामियों के संवैधानिक मौलिक अधिकार अतिक्रमित होंगें एवं आस पास के ग्रामों में पुनर्स्‍थापना एवं पुनर्वास की गंभीर समस्या उपस्थित होगी। प्रस्तावित अधिग्रहण भूमिधारितों को सम्पत्ति से वंचित करने एवं वर्तमान व भविष्यगत क्षति कारित करने वाला है क्‍योंकि प्रभावित भू स्‍वामियों का मूल पेशा कृषि है एवं इनके भूमि से इनका अधिकार छीन लेने से ये कृषि कार्य नहीं कर पायेंगें एवं उन्‍हें अपूरणीय क्षति होगी। यह कि भूमि स्वामियों की मूल्यवान सम्पत्ति का अर्जन किया जा रहा है जिससे भूमि स्वामियों का वर्तमान एवं भविष्य अवलंबित है। इस अर्जन से कृषि कार्य में लगे मजदूर भी प्रभावित होंगें एवं उनके समक्ष रोजगार की बड़ी समस्या उपस्थित होगी.

हमने यह भी कहा था कि प्रस्तावित अधिग्रहण का प्रयोजन ‘औद्यौगिक प्रयोजन हेतु’ दर्शाया गया है. जिसके अनुसार यह परिलक्षित होता है कि भू अर्जन उक्‍त क्षेत्र में विभिन्‍न औद्यौगिक इकाइयों के स्‍थापना के उद्देश्‍य से किया जा रहा है किन्‍तु सामूहिक रूप से उद्योगों के व्यवस्थित एवं योजनाबद्ध विकास को सुनिश्चित ना करते हुए एक निजी उद्योग कम्पनी के लिए यह अर्जन किया जा रहा है। किसी निजी उद्देश्‍य के भू अर्जन, लोक प्रयोजन की श्रेणी में कतई नहीं आता। यह अधिग्रहण निजी कम्पनी के लिए अधिग्रहण है इसके लिए भू अर्जन अधिनियम में विधिवत प्रावधान दिए गए है। कम्पनी हेतु अर्जन संबंधी धाराओं में अधिग्रहण किये जाने के वैकल्पिक प्रावधान होने के बावजूद सार्वजनिक प्रयोजन का मिथ्‍या अर्थान्‍वयन किया जाना अवैधानिक है। अधिग्रहण की यह प्रक्रिया एक उद्योग के लिए की जा रही है यहां अलग अलग औद्यौगिक इकाईयां या सामूहिक औद्यौगिक विकास का कार्य प्रस्तावित नहीं है. किसी एक ऐसे कम्पनी या उद्योग के लिए सरकार के द्वारा भूमि का अधिग्रहण किया जाना जन विरोधी है जिसका मूल उद्देश्य निजी लाभ अर्जित करना है ना कि सार्वजनिक लाभ. इसलिए यह कार्य या प्रयोजन सार्वजनिक प्रयोजन की श्रेणी में कतई नहीं आता. अर्जन की यह कार्यवाही जे.के.लक्ष्मी सीमेंट लिमिटेड के लिए भूमि की व्यवस्था हेतु, शासन के द्वारा अर्जित की जा रही है जबकि कम्पनी के पास इसके पूर्व ही काफी एवं समुचित मात्रा में किसानों की कृषि भूमि आपसी समझौते के तहत क्रय कर ली गई है। अब इसी कम्पनी के लिए अतिरिक्त एवं इतने भारी मात्रा में कृषि भूमि का अधिग्रहण किया जाना ना ही न्याय संगत है एवं ना ही तर्कसंगत है। बढ़ते औद्यौगीकरण व प्रदूषण के कारण पूरे देश में एवं प्रदेश में धीरे धीरे कृषि भूमि का रकबा कम होते जा रहा है एवं देश में खाध्यान्य संकट की स्थिति पैदा हो रही है इस कारण इतने बड़े मात्रा में कृषि भूमि का अधिग्रहण प्रस्ताव निरस्त करने योग्य है। इस अर्जन कार्यवाही के द्वारा एक कम्पनी को लाभ पहुचाने के उद्देश्य से शासन ने शक्ति का छद्म प्रयोग किया है, यह प्रथम दृष्टया स्पष्ट है कि इस अधिग्रहण से किसी व्यक्ति विशेष या कम्पनी/संस्था विशेष को लाभ पहुच रहा है समुदाय या समाज को इससे कोई लाभ नहीं होगा। कि अधिग्रहित किए जाने वाले क्षेत्र के गावों में भू स्वामियों की भूमि को कम्पनी के द्वारा समझौते के तहत क्रय किए जाने की प्रक्रिया भी निरंतर जारी है कम्पनी के दलालों के द्वारा किसानों की जमीन को कृषि हेतु क्रय करने का झांसा देते हुए हड़पने का कार्य बदस्तूर जारी है ऐसे में जिन भू स्वामियों के द्वारा जागरूकता दिखलाते हुए भूमि कम्पनी को नहीं दी गई उनकी भूमि छीनने के उद्देश्य से सरकारी सहयोग एवं शक्ति का प्रयोग इस अधिग्रहण से किया गया था.

केन्‍द्रीय संसद में नया भूमि अधिग्रहण अधिनियम पारित होने की स्थिति में है ऐसी अवधि में शासन द्वारा पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के प्रावधानों के तहत् भूमि अधिग्रहण करना औचित्‍यहीन है। वैसे भी कानुनविदों एवं न्‍यायालयों नें विद्यमान भूमि अधिग्रहण कानून को असंगत एवं बदलाव की आवश्‍यकता वाला बतलाया है। यह सर्वविदित है कि माननीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय एवं केन्‍द्र शासन नें वर्तमान भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 को पूर्णरूपेण खारिज कर दिया है तथा केन्‍द्र शासन के द्वारा नया भूमि अधिग्रहण अधिनियम संसद में प्रस्‍तुत भी कर दिया गया है जो कि पारित होने के अंतिम स्‍तर पर है ऐसे में भू-स्‍वामी को अनावश्‍यक भू-अर्जन के द्वारा उसके नैसर्गिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यह कि ऐसे समय में जब देश में नया भू अधिग्रहण अधिनियम संसद में पारित होकर अधिनियमित होने वाला है जिसमें भू धारितों को अपने भूमि के बाजार मूल्य का छ: गुना मुआवजा देने का प्रावधान है, को अनदेखा कर यह अधिसूचना जारी की गई है ताकि अधिग्रहण चाहने वाली कम्पनी को भूमि के बाजार मूल्य का छ: गुना मुआवजा ना देना पड़े.

इन गंभीर आपत्तियों के बावजूद भी भूमि अधिग्रहण अधिकारी नें ना तो इन आपत्तियों के लिए अधिग्रहण चाहने वाली एजेंसी से इसका जवाब मांगा ना ही इसकी जांच करने की जहमत उठाई, आपत्तियों का निराकरण करने के बजाए सीधे आपत्तियों को खारिज किया कि दम है तो जावो उच्‍च न्‍यायालय और चुनौती दो हमारे फैसले को. अब हर कोई तो उच्‍च न्‍यायालय जाने से रहा और इस प्रकार कम्‍पनी की रोटी पक गई. सरकारी सहायता से अधिग्रहण के के माध्‍यम से भूमि प्राप्‍त करने वाले उद्योगों में आरंभिक विवाद चाहे कुछ भी हो मूल रूप से जमीन से जुड़ा होता है. जमीन से जुड़ा मसला जनता से जुड़ा मसला होता है चाहे वह भूमि छिनने वाले परिवार को नौकरी देने, उचित मुआवजा देने या अन्‍य संसाधनों के विकास की मांग हो सभी जमीन से जुड़े मुद्दे होते हैं. प्रशासन को इसे संवेदनशीलता से हल करना चाहिए क्‍योंकि यही उग्र रूप धरते हैं और आपके हाथ से नियंत्रण छूट जाता है, फिर आप बौखला जाते हैं और इससे स्‍थानीय जनता पिसती है.

जे.के.लक्ष्‍मी सीमेंट में आगजनी की घटना के बाद पुलिस के मीडियायी बयानों को देखें तो इस घटनाक्रम के लिए वीरेन्द्र कुर्रे को महिमामण्‍डन करने का कुचक्र चल रहा है. समय का तकाजा एवं वर्तमान में बौद्धिकता की परम्‍परा हो गई है कि पश्चिमी देशों और वामपंथ के झंडाबरदारों, मानवाधिकार वादियों के मन में जनसुरक्षा कानून में फंसें लोगों के प्रति स्‍वाभाविक सहानुभूति आ जाती है. पुलिस इस बात से नाखबर है कि वह बड़ी आसानी से वीरेन्‍द्र को हीरो बनाने में सहयोग कर रही है. पुलिस कह रही है कि वीरेन्द्र के घर से नक्सली साहित्य बरामद हुआ है. नक्सल साहित्य का सटीक अर्थान्वयन अभी अदालतों में होना बाकी है, तब भी पुलिस व प्रशासन नक्सल साहित्य के आड़ में अपना हित साधती रही है. पुलिस तात्कालिक रूप से हालात को काबू में करना चाहती है, इसके लिए वो इसे हथियार के तौर पर प्रयोग करती है एवं लोगों में अपराध के प्रति डर को कायम करने का विफल प्रयास करती है. पाश, धूमिल, ब्रेख्त से लेकर नागार्जुन और मुक्तिबोध की कविताओं में सामंती दमन के खिलाफ उठते विरोध की पंक्तियों में बार बार नक्सल साहित्य उलझता है. काल र्माक्स, मेधा पाटकर, बी.डी.शर्मा, अरूंधती राय जैसों कई नामों व कई अनाम लेखकों के गद्यों में नक्सल विचारधारा को पुलिसिया बाईनाकुलर तलासती है. बार बार न्यायालयों में मुहकी खाती है और बार बार नक्सली साहित्य के सहारे लोगों को निरूद्ध करने का प्रयास करती है. इसे देखते हुए किसी के घर से तथाकथित 'नक्सली साहित्य' का बरामद होना जनसुरक्षा अधिनियम के तहत उस घर मालिक को अपराधी सिद्ध नहीं करती. अदालत में सिद्ध करने का भार पुलिस पर है और अभी लम्बी अदालती लड़ाई बाकी है. इस बीच बहुत सारे लोग हाथ सेकेंगें, बयानबाजी होगी, रूदालियां होगीं और स्थानीय किसान मजदूर बाहरी लोगों के नारों से पेट भरेंगें.

संजीव तिवारी

निर्माणाधीन जे.के.लक्ष्‍मी सीमेंट में आग : त्‍वरित टिप्‍पणी

दैनिक भास्‍कर, मुख्‍य पृष्‍ट
मलपुरी, दुर्ग के जे.के.लक्ष्मी सीमेंट में जो हुआ वो अच्छा नहीं हुआ. छत्तीसगढ़ के विकास के परिपेक्ष्य में इसे कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता. किन्तु जे.के.लक्ष्मी सीमेंट के विरूद्ध बढ़ते जन आक्रोश का आंकलन करें, यह भीषण आगजनी जे.के.लक्ष्मी सीमेंट के सामंती अपराध, दबाव व षड़यंत्र के विरूद्ध दमित समाज द्वारा निकला खीझ है. इस बड़े हादसे के नेपथ्य में जो बातें सामने है उनमें तात्कालिक रूप से जो कारण समझ में आते है उनमें से कुछ इस प्रकार हैं -

विगत दिनों प्रशाशन नें भूमि अधिग्रहण के विरूद्ध प्रस्तुत आवेदनों, गंभीर शिकायतों को कागजी जमा खर्च करते हुए निरस्त कर दिया था. इसके लिए कुटिल चाल चलते हुए दुर्ग में प्रशासनिक अधिकारियों के घरों व कार्यालयों में चमचागिरी करते कम्पनी के एक अधिकारी को बार बार देखा गया. जिसनें विरोध करने वालों की कीमतें आंकी, और अपनी ‘महत्ता’ प्रतिपादित करते हुए षड़यंत्रपूर्वक सारे फैसले कम्पनी के हित में करवा लिये.

मलपुरी आन्दोलन नेतृत्व विहीन रहा, सभी अपनी अपनी रोटी सेंककर किसानों व स्थानीय लोगों को मूर्ख बनाते रहे. प्रबंधन नें जानबूझकर स्थानीय किसानों की हर संभव उपेक्षा की और बाहर से श्रमिक एवं गुडे (बाउंसर) बुलाकर आवाज को दबाया. स्था‍नीय लोगों से डर के आडंबर को प्रचारित करते हुए कार्यरत अधिकारियों की पत्नियों नें मोर्चा खोला और अपने पतियों को सुरक्षा दिलाने का ‘मीडिया गोहार’ करते हुए फोटो सोटो खिंचाया, समाज सेवा के नये प्रतिमानों के प्रति अपनी आस्था जताई किन्तु विगत दिनों हादसे में वहां कार्यरत श्रमिकों की जब मौत हुई तो चुप्पी साध ली.

कुछ और भी ज्व्लंत कारण रहे हैं जो इस निंदनीय घटना के पीछे हैं, अभी इतना ही. पूरे मसले में जे.के.लक्ष्मी सीमेंट और स्थानीय प्रशासन दोषी है. यदि समय पर स्थानीय निवासियों एवं किसानों की मांगें इमानदारी पूर्वक मान ली जाती तो यह बड़ा हादसा नहीं होता.

एक टीप जो कम्पनी के पक्षधरों और मानवता के झंडाबरदारों के लिए है.. ‘’इस आक्रोश या छत्‍तीसगढ़ में हो रहे इस प्रकार के मजदूर किसान आन्दोलन को किसी वामपंथ या पारंपरिक मजदूर किसान आन्दोलनों के 'फ्रेम' से जोड़कर देखना वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार नासमझी होगी.’’

संजीव तिवारी

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