कविता की शास्त्रीय परिभाषा क्या है यह मैं नहीं जानता किन्तु मेरा यह मानना है कि भावनाओं की अभिव्यक्ति जब शब्दों में व्यक्त होती है तो निश्चित तौर पर वह कविता होती है. मानव मन में भावनाओं का विशाल समुद्र लहराता है, उसकी उत्तुंग लहरें किसी ना किसी माध्यम से बाहर अभिव्यक्त होती है. सुनीता शानू की भावनायें भी इसी प्रकार बाहर निकल कर शब्दों का रूप धरने को छटपटाती नजर आती हैं. उनकी नव प्रकाशित कविता संग्रह ‘मन पखेरू उड़ चला फिर’ इन्हीं कविताओं की सुगंधित माला है जिसमें सुनीता शानू की अविरल भावनायें कविता के रूप में व्यक्त हुई है.
इस कविता संग्रह के संबंध में आलोचक व कवि आनंद कृष्ण नें अपनी भूमिका में शास्त्रीय विवेचना की है. आनंद कृष्ण के शब्दों में सुनीता शानू की कवितायें विस्तृत हुई हैं, कविता में स्पष्ट दृष्टिगोचर भाव के अतिरिक्त विशिष्ठ भाव उद्घाटित हुए हैं. आनंद कृष्ण नें सुनीता शानू की कविताओं को रिसते पीड़ा, गूंजते चीत्कारों और जीजिविषा के मधुरतम गान का संयुक्त समुच्चय कहा है. आनंद कृष्ण नें संग्रह की लगभग प्रत्येक कविता का आलोचनात्मक विश्लेषण किया है और ख्यात विदेशी रचनाकारों के समकक्ष सुनीता शानू को खड़ा किया है. विदित हुआ है कि संग्रह के भव्य एवं गरिमाय विमोचन समारोह में भी आनंद कृष्ण नें अपने सारगर्भित वक्तव्य में संग्रह पर अपनी दृष्टि प्रस्तुत की है, हालांकि पारिवारिक परेशानियों की वजह से मैं इस समारोह का हिस्सा नहीं बन पाया. समारोह में ओम निश्चल जैसे कविता के निठुर आलोचक की उपस्थिति संग्रह को कविता की कसौटी में खरे होने का स्वमेव प्रमाण पत्र प्रदान करती है.
सुनीता शानू की कविताओं के संबंध में दो शब्द भी लिखना हमारे जैसे साहित्य के अल्पज्ञों के बस की बात नहीं है. ऐसे संग्रह के संबध में जिसका मंगलाचरण आनंद कृष्ण जी कर रहे हों और स्वति वाचन ओम निश्चल, देवी नागरानी, सिद्धेश्वर और ललित शर्मा जैसे लोग कर रहे हों. उस पर लिख पाना आसान नहीं है. फिर भी इस प्रयास के पीछे कुछेक कारण है पहला यह कि जो पीड़ा, जीजिविषा उनकी कविताओं में उभर कर सामने आती हैं, लगता है उन सबको हम भी अभिव्यक्त करना चाहते रहे हैं. दूसरा यह कि लगता है कविताओं में शब्द तो सुनीता शानू के हैं किन्तु भाव हमारे हैं. मूल यह कि उनकी कवितायें अपनी सी लगती हैं. किन्तु मानस में यह प्रश्न उभरता है कि अपनी सी लगने वाली सुनीता शानू की कविताओं को कोई दूसरा क्यूं नहीं लिख पाया. इसका कारण संभवत: सुनीता शानू के पास हमारे जैसी भावनाओं के साथ ही उनकी स्वयं की अद्भुत मानवीय संवेदना है. उनकी कविताओं में रची बसी यही मानवीय संवेदना उनकी कविताओं को दूसरों से अलग करती हैं और एक अलग विशिष्ठ स्थान प्रदान करती है.
जिन्दगी में कामनाओं को बॉंध पाना असंभव है, संयम की दीवार बार बार टूटती है. जब वह टूटती है तो ऑंसुओं की धार के रूप में प्रकट होती है. यह धार तन को तो शीतल करती है किन्तु यह शीतलता तन के तापों की नई भाषा भी गढ़ती है और सुनीता शानू की कविता के रूप में कुछ इस तरह बहती है - ’’कामना का बॉंध टूटा / ग्रंथियॉं भी खुल गई. / मलिनता सारी हृदय की / ऑंसुओं से धुल गई. / एक नई भाषा बना ली / तन के शीतल ताप नें.
सुनीता शानू की संवेदनायें जब नई भाषा के रूप में प्रकट होती है तो चमकृत कर देने वाले बिम्ब भी उभरते हैं. कहीं वह विश्वास को आटे में गूंथा हुआ कहती है तो कहीं मन के ऑंगन की माटी को अरमानों की बीज सौंपती है. बेहिसाब यादों का हिसाब रखती है तो यादों की स्याही से खत लिखती है. वह सभी को मुस्कुराहटों का खजाना बांटना चाहती है. बच्चों सी सहज सरल रूप में कच्ची इमली की कसम निच्छल भाव से देती है. मुखर प्रेम और प्रेम से उपजे अशांत पीड़ाओं को हृदय गव्हर में पालती है. समय के तुकड़ों को समेटे हुए मौन में भी गीत गाती है. उसका मन बंद पिंजड़े में पंछी सा फड़फड़ाता है और जब शब्द के सहयोग से द्वार खुलते हैं तब मन पखेरू उड़ चलता है फिर.
दर्द, संघर्ष और आस हर पंक्तियों में छटपटाते हैं. सिमटती चेतनायें, धैर्य को सहेज नहीं पाती और इन्हीं छटपटाहटों में गीत फूट पड़ते हैं. ‘कामवाली’ व अन्य कविताओं में खामोशियॉं रोती है और लहरे भी मौन हो जाते हैं. संवेदनायें मानवता की आंच में मोम बनकर पिघलनें लगते हैं और शब्द सीधे हृदय में वार करते हैं. सूफियाना अंदाज में ईश्वर को कहीं प्रेमी तो कहीं कृष्ण सखा के रूप में कविताओं का संबोधन पाठक को आध्यात्मिक प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं. ईश्वर से दुख, सुख बांटती कविताओं में प्रेम, अभिसार, अपेक्षा, शिकायत के साथ ही विश्वास का भाव सुनीता शानू के हौसले का चित्र खींचती है - कर ही लूंगी पार / पूरा आकाश / पा ही लूंगी / मेरा सपना.
जनवादियों की तरह सुनीता शानू सड़ चुके उसूलों और दायरों को बंधन मानती है. वह सोंचती है कि यही वह बेडि़यॉं है जो मन के उड़ान को भी रोकती हैं. वह उन्मुक्त गगन में उड़ना चाहती है. उसकी कवितायें स्वप्नों की बगिया से शाश्वत की पथरीली धरातल तक का अंतहीन सफर करती है. इस सफर में उसका गजब का आत्मविश्वास ही उसका संबल है, यह उसके आत्म कथ्य में ही झलकता है यथा ‘ये जिन्दगी एक खूबसूरत कविता है और मैं इसे जी भर के जीना चाहती हूं.’
इस संग्रह के प्रकाशन के लिए सुनीता शानू को हार्दिक शुभकामनायें. हम आशा करते हैं कि कविता के क्षेत्र में वे निरंतर उन्नति का शिखर प्राप्त करेंगी और इससे भी उत्कृष्ठ एवं परिपक्व रचनायें हिन्दी साहित्य को प्राप्त होगीं.
संजीव तिवारी
कृति का नाम : मन पखेरू उड़ चला फिरविधा : कविता
रचनाकार : सुनीता शानू
प्रकाशक : हिन्द युग्म, नई दिल्ली
पृष्ठ : 127;
मूल्य : 195 रु.
संजीव भाई,
जवाब देंहटाएंये कवितायें पढ़ी नहीं सो उन पर कुछ कहना उचित नहीं होगा परन्तु आपकी समीक्षा अच्छी लगी ! खास कर तब जबकि श्री 'आनंद' कृष्ण ने रिसते पीड़ा, गूंजते चीत्कारों और जिजीविषा वाली कविताओं में 'मधुरतम गान' के संयुक्त समुच्चय की अनुभूति की हो !
बहरहाल आप भी कुछ कम नहीं हैं यथा (पैरा ३) "शब्द सुनीता शानू के और भाव हमारे " // (पैरा ५) "बेहिसाब यादों का हिसाब" // "अशांत पीड़ाओं को ह्रदय गव्हर में पालती हैं" // "मौन में भी गीत गाती हैं" // (पैरा ६) "खामोशियाँ रोती हैं और लहरें भी मौन हो जाते हैं" // (पैरा ७) "सड़ चुके उसूलों" वगैरह वगैरह !
कुल मिलाकर आपकी समीक्षा बोले तो पूरा पैसा वसूल // शानदार :)
कविता क्या है ? " स्वर बिन संवाद है , अनहद नाद है , कबीर की क्रान्ति है ,बुध्द की शान्ति
जवाब देंहटाएंहै ।" सुनिता शानू को बधाई । " मन पखेरु उड चला फिर " की समीक्षा संजीव तिवारी जी ने बहुत
ही बढिया लिखी है । समीक्षा को पढ कर इस कविता-संग्रह को पढने का मन हो रहा है । किताब का
नाम जब इतना आकर्षक है तो कवितायें कितनी सरस होंगी ?
बढ़िया समीक्षा लिखी है आपने सुनीता शानू जी को बधाई सहित शुभकामनायें ...
जवाब देंहटाएंसुनीता शानू कवि ही नहीं कवि हृदया भी हैं -उनकी मन की सुन्दरता उनकी कविताओं के जरिये प्रगट होती है! बढियां समीक्षा
जवाब देंहटाएंसमीक्षा उत्सुकता और बढ़ा गयी..
जवाब देंहटाएंउन्मुक्त हर कोई होना चाहता है पर शायद शानू जी जैसे उसे शब्दों में बांध पाना उसके बस की बात नहीं।
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी समीक्षा।
बढिया समीक्षा! :)
जवाब देंहटाएंओह्ह ये अध्याय मुझसे कैसे छूट गया। क्या किताब विमोचन में इतना मशगूल हो गई कि मित्र के द्वारा की गई समीक्षा तक न देख पाई। क्षमा मित्र.... कृष्णम वंदे जगतगुरू
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