छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन में तेजी के साथ ही छत्तीसगढ़ी में अब लगातार उपन्यास लिखे जा रहे हैं। ज्ञात छत्तीसगढ़ी उपन्यासों की संख्या अब तीस को छू चुकी है। राज्य भाषा का दर्जा मिलने के बाद से छत्तीसगढ़ी साहित्य की खोज परख में भी तेजी आई है। इसी क्रम में कोरबा के वरिष्ठ साहित्यकार कामश्वर पाण्डेय जी के द्वारा रचित छत्तीसगढ़ी महागाथा ‘तुँहर जाए ले गींयॉं’ को पढ़ने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। वर्तमान छत्तीसगढ़ के गॉंवों में व्याप्त समस्याओं, वहॉं के रहवासियों की परेशानियों एवं गॉंवों से प्रतिवर्ष हो रहे पयालन की पीड़ा का चित्रण इस उपन्यास में किया गया है। आधुनिक समय में भी जमीदारों के द्वारा गॉंवों में कमजोरों के उपर किए जा रहे अत्याचार को भी इस उपन्यास में दर्शाया गया है। इस अत्याचार और शोषण के विरूद्ध उठ खड़े होनें वाले पात्रों नें उपन्यास को गति दी है। विकास के नाम पर अंधाधुध खनिज दोहन से बढ़ते पर्यावरणीय खतरे के प्रति आगाह करता यह उपन्यास नव छत्तीसगढ़ के उत्स का संदेश लेकर आया है।
उपन्यास की भूमिका के पहले पैरे पर डॉ.विनय कुमार पाठक नें उपन्यास के संबंध में जो कुछ कहा है उसके बाद कुछ और बातें कहने को शेष नहीं रह जाती, फिर भी एक पाठक के रूप में इस उपन्यास को पढ़ने पर हुई अनुभूति को बांटनें का लोभ हम संवरण नहीं कर पा रहे हैं। हो सकता है कि उपन्यास पर लिखते हुए आगे के पैराग्राफों में स्वयंभू आलोचक होने की गलतफहमी भी मानस के किसी कोने में दुबका हो। किन्तु उपन्यास को पढ़ते हुए जलेबी खाने सा उल्लास मन में रहा है, सो उसे आप सब को बांट रहा हूँ।
नये नवेले इस प्रदेश में जिस तेजी से औद्यौगीकरण हुआ है और इस रत्नगर्भा धरती के दोहन के लिए नैतिक अनैतिक प्रयास हुए हैं वह किसी से छुपा नहीं है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव छत्तीसगढ़ के गॉंवों पर पढ़ा है, किसानों की भूमि जबरिया भूमि अधिग्रहण के द्वारा छीनी जा रही है। बची खुची धरती अंधाधुंध औद्यौगीकरण और खनिजों के दोहन से निकले धूल और जहरीली गाद से पट चुकी है या प्रदूषित हो रही है। पर्यावरण का भयावह खतरा चारो तरफ नजर आ रहा है किन्तु उसकी परवाह किए बिना षडयंत्र के तहत गॉंव पे गॉंव खाली कराए जा रहे हैं, कृषि जमीनों में उद्योग लगाए जा रहे हैं। उपन्यासकार नें इस उपन्यास में अन्य सामयिक समस्याओं के साथ ही पर्यावरण के इसी बढ़ते खतरे पर पाठकों का ध्यान आकर्षित कराया है।
उपन्यास की भाषा मेरी जानी पहचानी है, खाल्हे राज में बोली जाने वाली यह छत्तीसगढ़ी मैदानी छत्तीसगढ़ी से ज्यादा मधुर है एवं हमें बेहद प्रिय है। जॉंजगीर, अकलतरा, बलौदा, शिवरीनारायण अंचल में छुट्टियॉं बिताते, रिश्तेदारी में आते जाते इस मधुर छत्तीसगढ़ी का रसास्वादन हम करते रहे हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि असल मायने में छत्तीसगढ़ी भाषा का ‘गुरतुर’ रूप इन्हीं अंचलों में बोली जाती है। उपन्यास इसी अंचल की बोली में होने के कारण हमें इसकी भाषा बहुत प्रिय लगी। उपन्यास में भाषा के प्रयोग में अंग्रेजी व अन्य दूसरी भाषाओं के शब्दों के प्रयोग से छत्तीसगढ़ी और जीवंत, सरल एवं बोधगम्य हो गई है। उपन्यास में देसज ठेठ शब्दों के प्रयोग नें नागरी छत्तीसगढ़ी के शब्द सामर्थ्य को बढ़ाया है। कामेश्वर भाई नें कई ऐसे ठेठ शब्दों का प्रयोग किया है जिनके अर्थ के लिए आम छत्तीसगढ़ी भाषा भाषी को भी बगलें झांकना पड़ जाए। कुछ शब्द देखें – रम्पई पेड, धीकुडिया, कगरियाना, पधराए, अकरखन, बेरा ओहरत, बकठी बहुरिया, नेंगुर, दहिंगला, पपरेल गाछ, पतघबड़ा, कर-नर, गमेरय, बिझुक्के – बिझुक्का, बुधियार, अतमैती आदि। उपन्यास में मुहावरों, लोकोक्तियों एवं कहावतों का भी प्रयोग रूचिकर लगा जिनमें – ‘बिटौना के बादर छा गईस’, ‘आन के खॉंड़ा आन के फरी खेदू नाचय बोईर तरी’, दॉंदर कस डउकी के मॉंदर कस पेट लइका होवाइस त हँसिया कस बेंठ’ आदि।
उपन्यास में प्रतीकों और घटनाक्रमों को विश्लेषित करने का ढंग निराला है। उपन्यासकार नें प्रतीकों, बिम्बों और भाषा पर सिद्धस्थ चित्रकार की तरह शब्द चित्र खींचा है। कुछ उदाहरण देखिये – ‘...... गंगाराम मन के कुकरी घर ले अपन चिंयॉं मन ला ले के कोरकिर – कोरकिर निकलिस अउ ओमन ल गली ल छुवा के फेर घुसर गइस। ओखर ऑंट म बइठे सेरू केकती मन ला देख के गुर्राए बर मूँ बनाइस, लेकिन फेर अपन बिचार ल तियाग के अपन हँफराई उपर चेत करिस। ओहू ल तो गरमी ल पार पाए बर परथे।‘, यह मात्र कल्पना नहीं है यह अनुभव का चित्रण है। इसी प्रकार ‘ .... औखरहा आभा-बोली मन ओकर कान मं मछेव कस भन्नावत रथे।‘ यह वही लिख सकेगा जिसनें मधुमखियों को भनभनाते सुना होगा। कोसा कीड़ा और केकती के जीवन पर पृष्ट 344 में भी उपन्यासकार नें बहुत मार्मिक व भावनात्मक स्थिति का उल्लेख किया है, आदि।
उपन्यासकार नें उपन्यास में चुटीले व्यंग्य का भी प्रयोग किया है जो कहीं गुदगुदाता है तो कहीं अंतस तक भेदता है, देखें – ‘मस्टर रोल मं भूत-परेत तक मन के नाव चढ़थे। सरकार के बाप नइ पुरोए सकै।‘ व ‘... लेकिन सरकार ल बाबा गुरू घसीदास के जैत-खाम ल कुतुब मीनार ले उँच बनवाए बर परते तो हे। भले एमा बोट के खोट हे, लेकिन हावै तो न।‘, ‘.... बंजर मं भटके-गँवाए सुरेन कभू सोचे नइ रहिस, एक दिन ए जंगले हर गँवा जाही।‘
उपन्यास में खण्ड- खण्ड कहानियॉं आगे बढ़ती हैं और संवेदना का एक सम्मिलित रूप उभर कर सामने आता है। लगभग दो दर्जन पात्रों के साथ आगे बढ़ती कहानी में उपन्यासकार नें सभी पात्रों का चरित्र चित्रण बहुत सहज व सरल रूप से प्रस्तुत किया है। संवादों के सहारे पात्रों के व्यक्तित्व को स्पष्ट भी किया है। उपन्यास में बड़े कका, सिवप्रसाद, चुनिया, होरी, लहाराम, पैसहा आदि के चरित्रों का व्यक्तित्व स्वयं बोलता है। कहानी में नाटकीयता, रोचकता, पात्रों की भावनाओं की अभिव्यक्ति, चुटीले व प्रभावकारी संवाद उपन्यास को रोचक बनाते हैं।
गॉंव में आयोजित भोज के समय पर दो विरोधाभाषी तथ्य सामने आते हैं जो संभवत: उपन्यासकार के लेखन को पुराना बताता है तो वहीं उसके संपादन को नया सिद्ध करता है। भोज के लिए रसोई बनाने में सहयोग करती महिला गुडाखू पचास पैसे में मंगाती है और आगे इसी अध्याय में नारियल दस रूपये में खरीदने का उल्लेख होता है। यह दर्शाता है कि उपन्यासकार नें अपने लेखन को बार-बार पढ़ा है और समयनुसार आवश्यक संशोधन भी किया है।
कामेश्वर पाण्डेय लिखित उपन्यास ‘तुँहर जाए ले गिंयॉं’ छत्तीसगढ़ के एक गॉंव की कहानी है। इसमें बड़े कका के नायकत्व में विभिन्न कहांनियॉं उनके इर्द गिर्द घूमती हैं। गॉंव में पैसहा ठाकुर (विसाल) उसके बेटे राजा, घनश्याम, बल्लू और छुट्टन का अत्याचार है। उपन्यास का आरंभ पलायन कर गए मजदूर भगेला के गॉंव आने के वाकये से होता है। भगेला और गॉंव के मजदूर मुरादाबाद के इंट भट्टे में कमाने खाने जाते हैं और इंट भट्टा का मालिक व उनके गुर्गे उन्हें बंधुवा बना लेते हैं। वहॉं से भगेला भाग कर गॉंव आता है, बड़े कका और सिवकुमार भगेला को सहयोग करते हैं और जॉंजगीर के किसोर की संस्था के स्वयंसेवक होरी के प्रयास से सभी मजदूर छूट कर गांव के लिए रेल से निकल पड़ते हैं। उनके आने की खुशी में गॉंव में रामायण का कार्यक्रम रखा जाता है जिसमें गॉंव के सभी लोग भेद भाव जात पात भूलकर एक साथ भोजन करते हैं।
इन घटनाओं के बीच में पैसहा ठाकुर की बेटी की प्रेम गाथा भी आकार लेती है। केकती गॉंव के ही गरीब मजदूर कौशल से प्यार करती है, उसके प्यार के रास्ते में उसके भाई रोड़े अटकाते हैं और कौशल को प्रताडि़त करते हैं। पैसहा परिवार के जुल्म से कौशल को गॉंव छोड़कर भागना पड़ता है और वह कमाने खाने काश्मीर चला जाता है। वहॉं उसके प्रेम के डोर को पत्रों के माध्यम से केकती की सहेली सुकवारो कायम रखती है। सुकवारा गॉंव की स्वयंसिद्धा महिला है, वह दुर्गा महिला मण्डल की अध्यक्षा है और गॉंव के कोसा पालन केन्द्र में मण्डल की महिलाओं के साथ काम करती है। सुकवारा के पति भी कौशल के साथ काश्मीर में काम करता है उसी के सहारे कौशल की पाती केकती तक पहुचती है।
उपन्यास में कथा उपकथा रोचकता को बढ़ाती है और कथानक आगे बढ़ता है। बड़े कका के घर रह रही चुनिया बड़े कका के नौकर लहाराम की पुत्री है। चुनिया विधवा है, लहाराम उसके दुख को देखकर उसे उसके ससुराल से अपने घर ले आता है किन्तु लहाराम की दूसरी पत्नी चुनिया को दुख देती है। गॉंव में फैले पैसहा के बेटों का आतंक और चुनिया के दुख को देखते हुए लहाराम बड़े कका से अनुरोध करता है और बड़ी काकी चुनिया को अपने घर ले आती है। चुनिया अपने सारे दुखों को भूलकर वृद्ध कका काकी की सेवा करती है। बड़े कका का परिवार चुनिया को सामाजिक सुरक्षा ही नहीं वरन उसे अपने घर की बेटी बनाकर रखते हैं। उपन्यास का बंधुआ मजदूरों का मुक्तिदूत होरी भी विधुर है, चुनिया की ऑंखें उससे दो चार होती है और उन दोनों की स्वीकृति से कथा के बीच में ही वे वैवाहिक जीवन में बंध जाते हैं।
कथा में बड़े कका का पुत्र सुरेन, जो शहर में नौकरी करता है अपने मित्र संदीप भट्टाचार्य के साथ गॉंव आता हैं। महानगर में पले बढ़े संदीप भट्टाचार्य को गॉंव का यह माहौल अटपटा लगता है, वे दोनों गॉंव के बदलते हालातों से दो चार होते हैं। सदियों से चली आ रही परम्परा के अनुसार गॉंव में बद्रीनाथ केदारनाथ से बड़े कका के घर पातीराम पण्डा व उसका भतीजा मन्नू भी आता है और कुछ दिन रूक कर गॉंव में घूमकर दान प्राप्त करता है। पातीराम के साथ आए मन्नू की कुदृष्टि का चुनिया बेखौफ जवाब देती है तो एक और परित्यक्ता लड़की फंस जाती है। बात आगे बढ़ती उसके पहले ही लड़की को भूत चढ़ने का वाकया होता है और मन्नू के मन में घर कर गए भय से लड़की बच जाती है।
मूल कथा क्रम में पैसहा गॉंव में सदियों से निस्तार हेतु प्रयुक्त रास्ते को कांटे से घिरवा देता है क्योंकि वह रास्ता राजस्व अभिलेख में उसके नाम पर होता है। यहीं से गॉंव वालों का विरोध आकार लेता है। रास्ते को घिरवाना पैसहा व उसके चम्मचों का चाल होता है। पैसहा चाहता है कि गॉंव में डायमण्ड कोल वासरी खुले जिसके लिए गॉंव वाले बावा डिपरा की जमीन कोल वासरी को स्वेच्छा से दे दें। पैसहा कोल वासरी में ठेके और अपने ट्रकों को काम मिलने से अपने लाभ की सोंच रहा है उसे गॉंव के किसानों या पर्यावरण से कोई लेना देना नहीं है। वह चाहता है कि गॉंव वाले अपनी जमीन कोल वासरी को दे दें तो वह गॉंव के निस्तारी रास्ते को खोल देगा। पैसहा के इस काम में सहयोग गॉंव का सरपंच बजरंग, पाण्डे और कोलवासरी का मैनेजर डी.के.चौहान आदि करते हैं। रास्ता खोलने हेतु गॉंव में पंचायत बुलाई जाती है। पैसहा अपनी र्शत रखता है, मुकुंदा और दूसरे गॉंव वाले इसका विरोध करते हैं खासकर वे जिनका जमीन बावा डिपरा में है। पैसहा के बेटे प्रतिरोध को दबाना चाहते हैं इसी क्रम में लालदास की पैसहा के बेटों से पंचायत के बीच में ही लड़ाई हो जाती है। राजा कट्टा निकाल लेता है और चलाने ही वाला होता है कि बरसों से दबे कुचले दलित व अपंग पंचराम के शरीर में अचानक बल का संचार होता है और वह राजा के कलाई में डंडे से भरपूर वार करता है। अनहोनी टल जाती है और जैसे तैसे लड़ाई को शांत किया जाता है। पंचायत बिना फैसले के उठ जाती है।
लड़ाई की आग गॉंव में धीरे धीरे सुलगने लगती है। पैसहा की जिजीविषा और उसके बेटों के आतंक में कोई कमी नहीं आती। राजा के द्वारा गॉंव की बहु बेटियों के बलत्कार के कई किस्से हरफों में उभरते हैं और शोषितों की आवाज दमन के डंडों में दब जाती है। गॉंव के बहु बेटियों की जुबान में टीस बाहर निकलने के लिए छटपटाती है किन्तु लोकलाज व राक्षसों के दबंगई के कारण दबी रह जाती है।
राजा ना केवल गॉंव की इज्जत से खेलता है बल्कि अपने दुश्मनों को रास्ते से हटाने में भी गुरेज नहीं करता। वह पंचराम की हत्या करता है और परिस्थितिजन्य साक्ष्य के बावजूद उस पर कोई आंच नहीं आती। ऐसी ही घटना का शिकार पूर्व में गोरे पंडित भी होता है, दोनों की हत्या को आत्महत्या सिद्ध कर दिया जाता है।
ऐसे ही दिनों में जब राजा के हवस का शिकार हुई बेदिन के पति को दमन की पीड़ा सहन नहीं होती तो वह हिम्मत बॉंध कर पैसहा को ललकार उठता है। बढ़ते उम्र के कारण पैसहा क्रोध में उसे मारने दौड़ता है किन्तु पांव में पत्थर लगने से गिर जाता है। ललकारने वालों के सर पर बेवजह संकट आ जाती है किन्तु किसी भी तरह पैसहा को उसके घर पहुचाया जाता है वहां से अस्पताल। लाखों खर्च करने पर भी पैसहा ठीक नहीं होता और असक्त होकर बिस्तर में पड़ जाता है। बेटे मनमानी करने लगते हैं और गॉंव को नियंत्रित नहीं कर पाने का दुख पैसहा सालता है, अंतिम समय में वह प्रायश्चित करने का जुगत करता है।
पैसहा के बेटे डायमण्ड कोल वासरी को अपने आतंक से विस्तार देते हैं। राजा की अय्यासी बढ़ते जाती है, एक दिन तालाब में अकेले नहाते बेदिन पर फिर उसकी नीयत डोल जाती है। वह बेदिन का पीछा करते उसके घर तक आ जाता है और उसे घर में अकेली पाकर उसका बलात्कार करने पर उतारू होता है उसी समय ताक में बैठे बेदिन का पति उसे मार डालता है। राजा को मारने के बाद वह उत्साह के साथ गॉंव में इसका एलान करता है व जूलूस के साथ थाने जाकर सरेंडर करता है।
बड़े कका और सिवप्रसाद के संयुक्त प्रयास से गॉंव धीरे धीरे जागने लगता है। कोलवासरी के विस्तार एवं पैसहा के बेटों के दमन का विरोध करना गॉंव वाले सीखने लगते हैं। किन्तु पैसहा जैसे लोगों के पूर्व स्वार्थपरक कूटनीतिक चालों के कारण कोलवासरी और ओपन कोल माइंस का दंश गांव वालों को झेलना पड़ता है। जनसुनवाई में जनता विरोध में सर उठाती है किन्तु प्रशासन कोलवासरी को विकास मानते हुए जमीनों को लीलना चाहती है।
बड़े कका और सिवप्रसाद उपन्यास में कुरीतियों को सहजता से दूर करने की शिक्षा देते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। कुष्ट, टोनही, भूत आदि के संबंध में व्याप्त अंधविश्वास की वे वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए जनता के मन से उसका भय दूर करते हैं। अपने प्रेमी की बाट जोहती केकती सपने में देखती है कि उसका प्रेमी कौशल अनंतनाग में राजमिस्त्री का काम करते हुए उपर से गिर जाता है और मर जाता है। उसका स्वप्न वास्तव में सत्य होता है। अनंतनाग में कौशल आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो जाता है। प्रेमी की मौत की खबर से केकती पागल हो जाती है। कथा के अंत में कौशल खाइन पान में महागाथा की वेदना फूटती है। केकती पान ठेले में अपने प्रेमी के पसंद का पान मागती है, पान खाकर वह हसती है, उसकी हंसी गांव में गूंजती है। बड़े कका के घर में बच्चों का व्रत व पर्यावरण रक्षा का व्रत खम्हरछट के पूजा का आयोजन हो रहा है, कथा कही जा रही है। पर्यावरण बचाने गांव वाले अब उठ खड़े होंगें इसी आशा में गाथा समाप्त होती हैं।
उपन्यास में बंधुआ मजदूरी के समय एक बच्ची के बलत्कार की कहानी और उस अबोध बच्ची के गर्भवती होने की कहानी, होरी के बंधुआ मजदूरी से भागने का वाकया, भोजन भट्टों की कहानी, कुष्ट होने पर समाज को बोकरा भात देने की परम्परा का विरोध, भूत चढ़ने उतारने का चित्रण, सांप काटने पर परिवहन की समस्या के कारण लोगों की मौत का वाकया, ग्वाले के बेटों के द्वारा दूध में बंबूल के बीज को पीसकर मिलाने की घटना को देखकर साधू हो जाना आदि का संवेदनात्मक चित्रण उपन्यासकार नें किया है।
अब तक पढ़े गए छत्तीसगढ़ी उपन्यासों में यह उपन्यास हमें सर्वश्रेष्ठ लगी। यह उपन्यास सचमुच में अपनी संपूर्णता के साथ प्रस्तुत हुई है। लेखक का इसे महागाथा कहना, पढ़ने से पहले अटपटा लग रहा था। किन्तु इसे पढ़ते हुए कथाओं की लयात्मकता और घटनाओं के प्रवाह से एक रागिनी फुटती हुई महसूस होती है। यही रागिनी इसे स्वमेव महागाथा सिद्ध करती है। छत्तीसगढ़ी भाषा में इतनी उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करने के लिए भाई कामेश्वर पाण्डेय जी को बहुत बहुत धन्यवाद।
संजीव तिवारीउपन्यास की भूमिका के पहले पैरे पर डॉ.विनय कुमार पाठक नें उपन्यास के संबंध में जो कुछ कहा है उसके बाद कुछ और बातें कहने को शेष नहीं रह जाती, फिर भी एक पाठक के रूप में इस उपन्यास को पढ़ने पर हुई अनुभूति को बांटनें का लोभ हम संवरण नहीं कर पा रहे हैं। हो सकता है कि उपन्यास पर लिखते हुए आगे के पैराग्राफों में स्वयंभू आलोचक होने की गलतफहमी भी मानस के किसी कोने में दुबका हो। किन्तु उपन्यास को पढ़ते हुए जलेबी खाने सा उल्लास मन में रहा है, सो उसे आप सब को बांट रहा हूँ।
नये नवेले इस प्रदेश में जिस तेजी से औद्यौगीकरण हुआ है और इस रत्नगर्भा धरती के दोहन के लिए नैतिक अनैतिक प्रयास हुए हैं वह किसी से छुपा नहीं है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव छत्तीसगढ़ के गॉंवों पर पढ़ा है, किसानों की भूमि जबरिया भूमि अधिग्रहण के द्वारा छीनी जा रही है। बची खुची धरती अंधाधुंध औद्यौगीकरण और खनिजों के दोहन से निकले धूल और जहरीली गाद से पट चुकी है या प्रदूषित हो रही है। पर्यावरण का भयावह खतरा चारो तरफ नजर आ रहा है किन्तु उसकी परवाह किए बिना षडयंत्र के तहत गॉंव पे गॉंव खाली कराए जा रहे हैं, कृषि जमीनों में उद्योग लगाए जा रहे हैं। उपन्यासकार नें इस उपन्यास में अन्य सामयिक समस्याओं के साथ ही पर्यावरण के इसी बढ़ते खतरे पर पाठकों का ध्यान आकर्षित कराया है।
उपन्यास की भाषा मेरी जानी पहचानी है, खाल्हे राज में बोली जाने वाली यह छत्तीसगढ़ी मैदानी छत्तीसगढ़ी से ज्यादा मधुर है एवं हमें बेहद प्रिय है। जॉंजगीर, अकलतरा, बलौदा, शिवरीनारायण अंचल में छुट्टियॉं बिताते, रिश्तेदारी में आते जाते इस मधुर छत्तीसगढ़ी का रसास्वादन हम करते रहे हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि असल मायने में छत्तीसगढ़ी भाषा का ‘गुरतुर’ रूप इन्हीं अंचलों में बोली जाती है। उपन्यास इसी अंचल की बोली में होने के कारण हमें इसकी भाषा बहुत प्रिय लगी। उपन्यास में भाषा के प्रयोग में अंग्रेजी व अन्य दूसरी भाषाओं के शब्दों के प्रयोग से छत्तीसगढ़ी और जीवंत, सरल एवं बोधगम्य हो गई है। उपन्यास में देसज ठेठ शब्दों के प्रयोग नें नागरी छत्तीसगढ़ी के शब्द सामर्थ्य को बढ़ाया है। कामेश्वर भाई नें कई ऐसे ठेठ शब्दों का प्रयोग किया है जिनके अर्थ के लिए आम छत्तीसगढ़ी भाषा भाषी को भी बगलें झांकना पड़ जाए। कुछ शब्द देखें – रम्पई पेड, धीकुडिया, कगरियाना, पधराए, अकरखन, बेरा ओहरत, बकठी बहुरिया, नेंगुर, दहिंगला, पपरेल गाछ, पतघबड़ा, कर-नर, गमेरय, बिझुक्के – बिझुक्का, बुधियार, अतमैती आदि। उपन्यास में मुहावरों, लोकोक्तियों एवं कहावतों का भी प्रयोग रूचिकर लगा जिनमें – ‘बिटौना के बादर छा गईस’, ‘आन के खॉंड़ा आन के फरी खेदू नाचय बोईर तरी’, दॉंदर कस डउकी के मॉंदर कस पेट लइका होवाइस त हँसिया कस बेंठ’ आदि।
उपन्यास में प्रतीकों और घटनाक्रमों को विश्लेषित करने का ढंग निराला है। उपन्यासकार नें प्रतीकों, बिम्बों और भाषा पर सिद्धस्थ चित्रकार की तरह शब्द चित्र खींचा है। कुछ उदाहरण देखिये – ‘...... गंगाराम मन के कुकरी घर ले अपन चिंयॉं मन ला ले के कोरकिर – कोरकिर निकलिस अउ ओमन ल गली ल छुवा के फेर घुसर गइस। ओखर ऑंट म बइठे सेरू केकती मन ला देख के गुर्राए बर मूँ बनाइस, लेकिन फेर अपन बिचार ल तियाग के अपन हँफराई उपर चेत करिस। ओहू ल तो गरमी ल पार पाए बर परथे।‘, यह मात्र कल्पना नहीं है यह अनुभव का चित्रण है। इसी प्रकार ‘ .... औखरहा आभा-बोली मन ओकर कान मं मछेव कस भन्नावत रथे।‘ यह वही लिख सकेगा जिसनें मधुमखियों को भनभनाते सुना होगा। कोसा कीड़ा और केकती के जीवन पर पृष्ट 344 में भी उपन्यासकार नें बहुत मार्मिक व भावनात्मक स्थिति का उल्लेख किया है, आदि।
उपन्यासकार नें उपन्यास में चुटीले व्यंग्य का भी प्रयोग किया है जो कहीं गुदगुदाता है तो कहीं अंतस तक भेदता है, देखें – ‘मस्टर रोल मं भूत-परेत तक मन के नाव चढ़थे। सरकार के बाप नइ पुरोए सकै।‘ व ‘... लेकिन सरकार ल बाबा गुरू घसीदास के जैत-खाम ल कुतुब मीनार ले उँच बनवाए बर परते तो हे। भले एमा बोट के खोट हे, लेकिन हावै तो न।‘, ‘.... बंजर मं भटके-गँवाए सुरेन कभू सोचे नइ रहिस, एक दिन ए जंगले हर गँवा जाही।‘
उपन्यास में खण्ड- खण्ड कहानियॉं आगे बढ़ती हैं और संवेदना का एक सम्मिलित रूप उभर कर सामने आता है। लगभग दो दर्जन पात्रों के साथ आगे बढ़ती कहानी में उपन्यासकार नें सभी पात्रों का चरित्र चित्रण बहुत सहज व सरल रूप से प्रस्तुत किया है। संवादों के सहारे पात्रों के व्यक्तित्व को स्पष्ट भी किया है। उपन्यास में बड़े कका, सिवप्रसाद, चुनिया, होरी, लहाराम, पैसहा आदि के चरित्रों का व्यक्तित्व स्वयं बोलता है। कहानी में नाटकीयता, रोचकता, पात्रों की भावनाओं की अभिव्यक्ति, चुटीले व प्रभावकारी संवाद उपन्यास को रोचक बनाते हैं।
गॉंव में आयोजित भोज के समय पर दो विरोधाभाषी तथ्य सामने आते हैं जो संभवत: उपन्यासकार के लेखन को पुराना बताता है तो वहीं उसके संपादन को नया सिद्ध करता है। भोज के लिए रसोई बनाने में सहयोग करती महिला गुडाखू पचास पैसे में मंगाती है और आगे इसी अध्याय में नारियल दस रूपये में खरीदने का उल्लेख होता है। यह दर्शाता है कि उपन्यासकार नें अपने लेखन को बार-बार पढ़ा है और समयनुसार आवश्यक संशोधन भी किया है।
कामेश्वर पाण्डेय लिखित उपन्यास ‘तुँहर जाए ले गिंयॉं’ छत्तीसगढ़ के एक गॉंव की कहानी है। इसमें बड़े कका के नायकत्व में विभिन्न कहांनियॉं उनके इर्द गिर्द घूमती हैं। गॉंव में पैसहा ठाकुर (विसाल) उसके बेटे राजा, घनश्याम, बल्लू और छुट्टन का अत्याचार है। उपन्यास का आरंभ पलायन कर गए मजदूर भगेला के गॉंव आने के वाकये से होता है। भगेला और गॉंव के मजदूर मुरादाबाद के इंट भट्टे में कमाने खाने जाते हैं और इंट भट्टा का मालिक व उनके गुर्गे उन्हें बंधुवा बना लेते हैं। वहॉं से भगेला भाग कर गॉंव आता है, बड़े कका और सिवकुमार भगेला को सहयोग करते हैं और जॉंजगीर के किसोर की संस्था के स्वयंसेवक होरी के प्रयास से सभी मजदूर छूट कर गांव के लिए रेल से निकल पड़ते हैं। उनके आने की खुशी में गॉंव में रामायण का कार्यक्रम रखा जाता है जिसमें गॉंव के सभी लोग भेद भाव जात पात भूलकर एक साथ भोजन करते हैं।
इन घटनाओं के बीच में पैसहा ठाकुर की बेटी की प्रेम गाथा भी आकार लेती है। केकती गॉंव के ही गरीब मजदूर कौशल से प्यार करती है, उसके प्यार के रास्ते में उसके भाई रोड़े अटकाते हैं और कौशल को प्रताडि़त करते हैं। पैसहा परिवार के जुल्म से कौशल को गॉंव छोड़कर भागना पड़ता है और वह कमाने खाने काश्मीर चला जाता है। वहॉं उसके प्रेम के डोर को पत्रों के माध्यम से केकती की सहेली सुकवारो कायम रखती है। सुकवारा गॉंव की स्वयंसिद्धा महिला है, वह दुर्गा महिला मण्डल की अध्यक्षा है और गॉंव के कोसा पालन केन्द्र में मण्डल की महिलाओं के साथ काम करती है। सुकवारा के पति भी कौशल के साथ काश्मीर में काम करता है उसी के सहारे कौशल की पाती केकती तक पहुचती है।
उपन्यास में कथा उपकथा रोचकता को बढ़ाती है और कथानक आगे बढ़ता है। बड़े कका के घर रह रही चुनिया बड़े कका के नौकर लहाराम की पुत्री है। चुनिया विधवा है, लहाराम उसके दुख को देखकर उसे उसके ससुराल से अपने घर ले आता है किन्तु लहाराम की दूसरी पत्नी चुनिया को दुख देती है। गॉंव में फैले पैसहा के बेटों का आतंक और चुनिया के दुख को देखते हुए लहाराम बड़े कका से अनुरोध करता है और बड़ी काकी चुनिया को अपने घर ले आती है। चुनिया अपने सारे दुखों को भूलकर वृद्ध कका काकी की सेवा करती है। बड़े कका का परिवार चुनिया को सामाजिक सुरक्षा ही नहीं वरन उसे अपने घर की बेटी बनाकर रखते हैं। उपन्यास का बंधुआ मजदूरों का मुक्तिदूत होरी भी विधुर है, चुनिया की ऑंखें उससे दो चार होती है और उन दोनों की स्वीकृति से कथा के बीच में ही वे वैवाहिक जीवन में बंध जाते हैं।
कथा में बड़े कका का पुत्र सुरेन, जो शहर में नौकरी करता है अपने मित्र संदीप भट्टाचार्य के साथ गॉंव आता हैं। महानगर में पले बढ़े संदीप भट्टाचार्य को गॉंव का यह माहौल अटपटा लगता है, वे दोनों गॉंव के बदलते हालातों से दो चार होते हैं। सदियों से चली आ रही परम्परा के अनुसार गॉंव में बद्रीनाथ केदारनाथ से बड़े कका के घर पातीराम पण्डा व उसका भतीजा मन्नू भी आता है और कुछ दिन रूक कर गॉंव में घूमकर दान प्राप्त करता है। पातीराम के साथ आए मन्नू की कुदृष्टि का चुनिया बेखौफ जवाब देती है तो एक और परित्यक्ता लड़की फंस जाती है। बात आगे बढ़ती उसके पहले ही लड़की को भूत चढ़ने का वाकया होता है और मन्नू के मन में घर कर गए भय से लड़की बच जाती है।
मूल कथा क्रम में पैसहा गॉंव में सदियों से निस्तार हेतु प्रयुक्त रास्ते को कांटे से घिरवा देता है क्योंकि वह रास्ता राजस्व अभिलेख में उसके नाम पर होता है। यहीं से गॉंव वालों का विरोध आकार लेता है। रास्ते को घिरवाना पैसहा व उसके चम्मचों का चाल होता है। पैसहा चाहता है कि गॉंव में डायमण्ड कोल वासरी खुले जिसके लिए गॉंव वाले बावा डिपरा की जमीन कोल वासरी को स्वेच्छा से दे दें। पैसहा कोल वासरी में ठेके और अपने ट्रकों को काम मिलने से अपने लाभ की सोंच रहा है उसे गॉंव के किसानों या पर्यावरण से कोई लेना देना नहीं है। वह चाहता है कि गॉंव वाले अपनी जमीन कोल वासरी को दे दें तो वह गॉंव के निस्तारी रास्ते को खोल देगा। पैसहा के इस काम में सहयोग गॉंव का सरपंच बजरंग, पाण्डे और कोलवासरी का मैनेजर डी.के.चौहान आदि करते हैं। रास्ता खोलने हेतु गॉंव में पंचायत बुलाई जाती है। पैसहा अपनी र्शत रखता है, मुकुंदा और दूसरे गॉंव वाले इसका विरोध करते हैं खासकर वे जिनका जमीन बावा डिपरा में है। पैसहा के बेटे प्रतिरोध को दबाना चाहते हैं इसी क्रम में लालदास की पैसहा के बेटों से पंचायत के बीच में ही लड़ाई हो जाती है। राजा कट्टा निकाल लेता है और चलाने ही वाला होता है कि बरसों से दबे कुचले दलित व अपंग पंचराम के शरीर में अचानक बल का संचार होता है और वह राजा के कलाई में डंडे से भरपूर वार करता है। अनहोनी टल जाती है और जैसे तैसे लड़ाई को शांत किया जाता है। पंचायत बिना फैसले के उठ जाती है।
लड़ाई की आग गॉंव में धीरे धीरे सुलगने लगती है। पैसहा की जिजीविषा और उसके बेटों के आतंक में कोई कमी नहीं आती। राजा के द्वारा गॉंव की बहु बेटियों के बलत्कार के कई किस्से हरफों में उभरते हैं और शोषितों की आवाज दमन के डंडों में दब जाती है। गॉंव के बहु बेटियों की जुबान में टीस बाहर निकलने के लिए छटपटाती है किन्तु लोकलाज व राक्षसों के दबंगई के कारण दबी रह जाती है।
राजा ना केवल गॉंव की इज्जत से खेलता है बल्कि अपने दुश्मनों को रास्ते से हटाने में भी गुरेज नहीं करता। वह पंचराम की हत्या करता है और परिस्थितिजन्य साक्ष्य के बावजूद उस पर कोई आंच नहीं आती। ऐसी ही घटना का शिकार पूर्व में गोरे पंडित भी होता है, दोनों की हत्या को आत्महत्या सिद्ध कर दिया जाता है।
ऐसे ही दिनों में जब राजा के हवस का शिकार हुई बेदिन के पति को दमन की पीड़ा सहन नहीं होती तो वह हिम्मत बॉंध कर पैसहा को ललकार उठता है। बढ़ते उम्र के कारण पैसहा क्रोध में उसे मारने दौड़ता है किन्तु पांव में पत्थर लगने से गिर जाता है। ललकारने वालों के सर पर बेवजह संकट आ जाती है किन्तु किसी भी तरह पैसहा को उसके घर पहुचाया जाता है वहां से अस्पताल। लाखों खर्च करने पर भी पैसहा ठीक नहीं होता और असक्त होकर बिस्तर में पड़ जाता है। बेटे मनमानी करने लगते हैं और गॉंव को नियंत्रित नहीं कर पाने का दुख पैसहा सालता है, अंतिम समय में वह प्रायश्चित करने का जुगत करता है।
पैसहा के बेटे डायमण्ड कोल वासरी को अपने आतंक से विस्तार देते हैं। राजा की अय्यासी बढ़ते जाती है, एक दिन तालाब में अकेले नहाते बेदिन पर फिर उसकी नीयत डोल जाती है। वह बेदिन का पीछा करते उसके घर तक आ जाता है और उसे घर में अकेली पाकर उसका बलात्कार करने पर उतारू होता है उसी समय ताक में बैठे बेदिन का पति उसे मार डालता है। राजा को मारने के बाद वह उत्साह के साथ गॉंव में इसका एलान करता है व जूलूस के साथ थाने जाकर सरेंडर करता है।
बड़े कका और सिवप्रसाद के संयुक्त प्रयास से गॉंव धीरे धीरे जागने लगता है। कोलवासरी के विस्तार एवं पैसहा के बेटों के दमन का विरोध करना गॉंव वाले सीखने लगते हैं। किन्तु पैसहा जैसे लोगों के पूर्व स्वार्थपरक कूटनीतिक चालों के कारण कोलवासरी और ओपन कोल माइंस का दंश गांव वालों को झेलना पड़ता है। जनसुनवाई में जनता विरोध में सर उठाती है किन्तु प्रशासन कोलवासरी को विकास मानते हुए जमीनों को लीलना चाहती है।
बड़े कका और सिवप्रसाद उपन्यास में कुरीतियों को सहजता से दूर करने की शिक्षा देते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। कुष्ट, टोनही, भूत आदि के संबंध में व्याप्त अंधविश्वास की वे वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए जनता के मन से उसका भय दूर करते हैं। अपने प्रेमी की बाट जोहती केकती सपने में देखती है कि उसका प्रेमी कौशल अनंतनाग में राजमिस्त्री का काम करते हुए उपर से गिर जाता है और मर जाता है। उसका स्वप्न वास्तव में सत्य होता है। अनंतनाग में कौशल आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो जाता है। प्रेमी की मौत की खबर से केकती पागल हो जाती है। कथा के अंत में कौशल खाइन पान में महागाथा की वेदना फूटती है। केकती पान ठेले में अपने प्रेमी के पसंद का पान मागती है, पान खाकर वह हसती है, उसकी हंसी गांव में गूंजती है। बड़े कका के घर में बच्चों का व्रत व पर्यावरण रक्षा का व्रत खम्हरछट के पूजा का आयोजन हो रहा है, कथा कही जा रही है। पर्यावरण बचाने गांव वाले अब उठ खड़े होंगें इसी आशा में गाथा समाप्त होती हैं।
उपन्यास में बंधुआ मजदूरी के समय एक बच्ची के बलत्कार की कहानी और उस अबोध बच्ची के गर्भवती होने की कहानी, होरी के बंधुआ मजदूरी से भागने का वाकया, भोजन भट्टों की कहानी, कुष्ट होने पर समाज को बोकरा भात देने की परम्परा का विरोध, भूत चढ़ने उतारने का चित्रण, सांप काटने पर परिवहन की समस्या के कारण लोगों की मौत का वाकया, ग्वाले के बेटों के द्वारा दूध में बंबूल के बीज को पीसकर मिलाने की घटना को देखकर साधू हो जाना आदि का संवेदनात्मक चित्रण उपन्यासकार नें किया है।
अब तक पढ़े गए छत्तीसगढ़ी उपन्यासों में यह उपन्यास हमें सर्वश्रेष्ठ लगी। यह उपन्यास सचमुच में अपनी संपूर्णता के साथ प्रस्तुत हुई है। लेखक का इसे महागाथा कहना, पढ़ने से पहले अटपटा लग रहा था। किन्तु इसे पढ़ते हुए कथाओं की लयात्मकता और घटनाओं के प्रवाह से एक रागिनी फुटती हुई महसूस होती है। यही रागिनी इसे स्वमेव महागाथा सिद्ध करती है। छत्तीसगढ़ी भाषा में इतनी उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करने के लिए भाई कामेश्वर पाण्डेय जी को बहुत बहुत धन्यवाद।
तुँहर जाए ले गींयॉं
(छत्तीसगढ़ी उपन्यास)
लेखक : कामेश्वर पाण्डेय
पृष्ट संख्या : 420
मूल्य : सजिल्द 400/-
प्रकाशक : सर्वप्रिय प्रकाशन
1569, प्रथम मंजिल, चर्च रोड
काश्मीरी गेट, दिल्ली 110006
वितरक : वैभव प्रकाशन
सागर प्रिटर्स के पास, अमीनपारा चौंक
पुरानी बस्ती, रायपुर (छत्तीसगढ़)
फोन : 0771 4038958, 09425358748
एक कहानी के माध्यम से समाज के न जाने कितने पक्ष दृष्टिगोचर हो जाते हैं। सुन्दर समीक्षा।
जवाब देंहटाएंपढ़कर प्रसन्नता हुई उपन्यास कहाँ से और कैसे उपलब्ध हो सकता है कृपया जानकारी दें
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो कामेश्व्रर पान्डेय को उनके उपन्यास " तुंहर जाए ले गीयॉं " के लिए बहुत-बहुत
जवाब देंहटाएंबधाई, उसके पश्चात संजीव तिवारी को बहुत-बहुत बधाई, जिन्होंने इतनी सुन्दर समीक्षा लिखी है कि
इस समीक्षा को पढ कर उपन्यास को पढने जैसा सुख मिल रहा है । सुन्दर शब्द संयोजन , प्राञ्जल-
प्रवाहपूर्ण - मनोरम प्रस्तुति ! गॉंव की हर छोटी-बडी समस्या से , समीक्षक भली-भॉति परिचित है ।
समीक्षा को पढ कर उपन्यास को पढ्ने का मन हो रहा है । संजीव ! आपने मुझे यह उपन्यास
दिखाकर अच्छा नहीं किया , अब तो आपको उपन्यास पढने के लिए देना ही होगा ।
निश्चित ही यह सुन्दर कदम है .अपनी भाषा अथवा बोली में लिखी कोई बात ज्यादा से ज्यादा आम लोग पढ़ते हैं और वह अपने दिल के बहुत करीब पहुँचने में सक्षम होती हैं ..
जवाब देंहटाएंकामेश्वर पाण्डेय को पुस्तक प्रकाशन हेतु शुभकामनायें
तुंहर जाये ले गिया उपन्यास के लेखक कामेश्वर पाण्डेय जी के रचना धर्मिता सहित समीक्षा के लिए बधाई मौका मिला तो आनंद लेंगे
जवाब देंहटाएंकामेश्वर पांडेय की ओर से बहुत बहुत धन्यवाद. आप नीचे दिए गए पते से पुस्तक प्राप्त कर सकते हैं -
जवाब देंहटाएंB/134, आदर्श नगर, कुसमुंडा, कोरबा 495454
फोन नं - +91-8959193470