सभी अलंकरणों से ऊपर विराजमान कला ऋषि दाऊ रामचन्द्र देशमुख का देहावसान 13जनवरी 1998 को रात्रि लगभग 11 बजे हुआ था । उनकी पार्थिव देह का दाह - संस्कार 15 जनवरी ( मकर संक्रांति के दूसरे दिन ) को हुआ था । हमारी परंपरा के अनुसार दाह - संस्कार वाले दिन को ही अवसान - दिवस मानते हैं और उसी दिन से तीज नहान और दशगात्र के दिन की गिनती करते हैं । कुछ लोग दाऊजी की पुण्यतिथि 14 जनवरी को मानते हैं और कुछ लोग 13 जनवरी को । मुझे दोनों ही तिथियाँ स्वीकार हैं । किसी एक पर उज़्र करने का कोई औचित्य मैं नहीं समझता । दाऊजी की पुण्यतिथि पर कुछ स्मृति - पुष्प अर्पित करने के नैतिक दायित्व के तहत मैं इस बार कुछ नितांत निजी प्रसंगों के साथ दाऊजी को याद करने की इजाज़त आप सबसे माँगता हूँ ।
चंदैनी गोंदा में मैंने अपनी एक बात सबसे छिपाकर रखी। अपने मित्रों से भी ज़िक्र कर सकने लायक साहस मैं कभी जुटा नहीं पाया। कारण - मेरा आत्मनाशक संकोच और आत्मघाती विनम्रता। मेरे मित्रगण - प्रमोद, लक्ष्मण, सन्तोष टांक, भैयालाल, केदार आदि किसी को भी भनक तक नहीं लगने दी मैंने। सुरेश भैया से साझा करने की तो सोच भी नहीं सकता था, क्योंकि मैं उन्हें अग्रज मानता था और आज भी मानता हूँ, हालांकि हमारी उम्र में 3 साल का ही अंतर है। जब इन सबको नहीं बता पाया तो लड़कियों को बताने के लिए सोचता भी कैसे। दरअसल सारी जद्दोजहद बात को दाऊजी से छिपाने की थी और मैं उसमें सफल रहा।
आज रहस्य खोलने का हौसला इसलिए जुटा पा रहा हूँ कि जब मेनका वर्मा ने मेरा इंटरव्यू लेकर मेरे जीवन की बखिया उधेड़ ही दी है, तो अब मैं सोचता हूँ कि जहाँ सत्यानाश हुआ, वहाँ सवा सत्यानाश हो जाने से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ने वाला। मेनका ने मेरा सारा संकोच दूर कर दिया है।
जिस रहस्य की बात मैं कर रहा हूँ, वह कोई 'टॉप सीक्रेट' कैटेगरी वाला गुफ़ा में बंद तिलस्मी गोपन नहीं है क्योंकि इस रहस्य से खुमान साव और गिरिजा सिन्हा तो वाकिफ़ थे ही। आप ये भी न समझें कि इस रहस्य के खुल जाने से कोई हंगामा खड़ा हो जायेगा या कोई खौफ़नाक दृश्य सामने आ जायेगा अथवा मेरे या किसी और के चरित्र पर कोई अशोभनीय धब्बा लग जायेगा। वस्तुतः कुछ रहस्य नितांत हानिरहित तो होते ही हैं, खुलने पर रोमांचक और मज़ेदार भी हो जाते हैं।
अब मैं उस रहस्य पर से पर्दा उठा ही देता हूँ वरना खीझ में किसी न किसी के हिंसक हो जाने का ख़तरा पैदा हो जायेगा। साथियों, वह रहस्य यह है कि मैं चंदैनी गोंदा में गाना गाने की महत्वाकांक्षा पर सवार होकर आया था। हा हा हा हा हा.....। इस बात से खुमान - गिरिजा जी न सिर्फ़ वाक़िफ़ थे, अपितु वे इसके समर्थक भी थे। वह इसलिए कि हाई स्कूल - अंडा में नवमीं और दसवीं ( 1966-67 ) में पढ़ते हुए वार्षिकोत्सव में मैं उनके निर्देशन में गाने गा चुका था। ' ऐ मेरे वतन के लोगों ' , ' आवाज़ दो हम एक हैं ', ' ज्योत से ज्योत जलाते चलो ' , ' वन्देमातरम का आशा भोंसले संस्करण ' , ' फूल खिलेगा बागों में जब तक गुलाब का प्यारा ' , ' लता जी का गाया - गुड़िया हमसे रूठी रहोगी ' , ' कवि प्रदीप का - देख तेरे संसार की हालत ' आदि .... । जनता की उत्साहवर्धक वाहवाही के साथ खुमान - गिरिजा से मिली रक्तवर्धक, गर्मागर्म, स्वादिष्ट शाबाशी पाकर मैं नखशिख स्फुरण महसूस करता था। उस समय ' धन्यवाद ' कहने की न तो संस्कृति थी और न ही मुझमें इतना शऊर था। मैं उनके एक - एक चरण को अपने एक - एक हाथ से पकड़कर रोने लगता था। ख़ुशी में मेरी रुलाई बांध तोड़ने लगती है , दुःख में मैं शायद ही कभी रोता हूँ।
चंदैनी गोंदा में मुझे आया देख कर खुमान सर ने दाऊजी को बताया कि एक गायक और आ गया। दाऊजी ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। क्यों ? यह रहस्य मैं जीवन भर सुलझा नहीं पाया। दाऊजी की मुद्रा देखकर खुमान सर ने भी चुप्पी साध ली। बस! मेरा अपने खोल में दुबक जाने के लिए इतना पर्याप्त था खुमान - गिरिजा जानते थे कि मुझे सुर - ताल - लय की समझ है, मैं ख़ूब ऊँची तानें ले सकता हूँ, शब्दानुसार भावपूर्ण गायन कर सकता हूँ। लेकिन सम्भवतः मेरे प्रारब्ध में गायकी नहीं थी। जीवन में सब कुछ अपने चाहने से नहीं मिलता या यूँ कहें कि जो चाहते हैं, वह तो नहीं ही मिलता।
लेकिन मेरे भीतर गायकी के प्रति दीवानगी कम होने का नाम नहीं लेती थी। एक बार किसी कार्यक्रम के पहले के रिहर्सल चल रहे थे। बारी आयी ' मोर संग चलव ' की। लक्ष्मण भाई उस समय नहीं थे लेकिन रिहर्सल तो करना ही था - वादकों और कोरस गायकों के अभ्यास के लिए। खुमान सर ने मुझे और प्रमोद से कहा - ' गाओ '। हम दोनों ने गाया। हमें कोई डर नहीं था क्योंकि यह मंच नहीं था, बिगड़ जाने पर कोई हर्ज़ तो होना नहीं था। हम दोनों ने इतना बढ़िया गाया कि शैलजा के मुँह से बेसाख़्ता निकला - ' वाह, ये तो छुपे - रुस्तम हैं '। मैंने कनखियों से दाऊजी की ओर देखा। उनके होठों में दबी सिगरेट उनकी उंगलियों में फँसकर बाहर आयी और उसकी जगह होठों पर एक दादभरी आत्मीय मुस्कान ने उपस्थिति दर्ज़ करायी। मैं निहाल हो गया।
मेरा आत्मविश्वास इतना पुख़्ता था कि मैं हर पल इस एहसास की गिरफ्त में रहता था कि लक्ष्मण और भैयालाल के अलावा जितने भी गायक उस समय विभिन्न मंचों से छत्तीसगढ़ी गाने गा रहे थे, मैं उनसे बेहतर था। एक बार केदार की अनुपस्थिति में मैंने खुमान सर को 'आज दौंरी में बईला मन घूमत हें ' सुनाया था। इस गाने में मेरी रुलाई ने अतिरिक्त असर पैदा कर दिया था। खुमान सर ने सर पर हाथ रखकर कहा - ' जियो '। गिरिजा जी ने भी कुछ कहा था, अफ़सोस कि वह मुझे याद नहीं आ रहा है।
उन्हीं दिनों BSP के शिक्षा विभाग में बतौर प्रायमरी शिक्षक सेक्टर - 5 के स्कूल में मुझे नियुक्ति मिली थी। कुछ महीने बाद मैंने झिझकते हुए दाऊजी को बताया कि मैं स्कूल के बच्चों को चंदैनी गोंदा के गाने और नृत्य तैयार करवाता हूँ। उन्होंने मेरा उत्साह बढ़ाते हुए कहा कि ख़ूब करवाओ और भिलाई में छत्तीसगढ़ी गीतों को स्थापित करो। मैं दुगुने उत्साह के साथ जुट गया था। ' तोर धरती तोर माटी ' , ' आगे सुराजी के दिन ' , ' चल शहर जातेंन रे संगी ' आदि आदि ने बहुभाषीय , बहुसांस्कृतिक भिलाई नगरी में सर्वथा नये , ताज़े और चौंकाने वाली प्रस्तुतियों के साथ नये अध्याय का आगाज़ किया था। गाने मैं गाता था, तबला मजूमदार सर बजाते थे, घुंघरू नायडू मैडम बजाती थीं और हारमोनियम वादक हम बाहर से बुलाते थे। बस इतने वाद्यों के साथ सन 1976 में बढ़िया कार्यक्रम हो जाते थे। रविशंकर शुक्ल जी सेक्टर - 5 ही स्कूल के पास रहते थे। वे अपने सुखद वल्लभी मुस्कान के साथ हमारे कुछ कार्यक्रमों के साक्षी बने थे।
भिलाई - महिला - समाज बेहद सक्रिय, समाजोन्मुखी और महत्वपूर्ण संस्था है। सभी सेक्टरों में उसकी इकाइयाँ हैं। उन दिनों उनके वार्षिकोत्सव की बड़ी धूम हुआ करती थी। वहाँ शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, मराठी, बंगाली, पंजाबी, राजस्थानी आदि नृत्यों का जैसे एकाधिकार था। मुझे सेक्टर - 5 इकाई के माध्यम से मौका मिला और सम्भवतः 1977 में पहली बार उनके मंच पर छत्तीसगढ़ी प्रस्तुति हुई। रविशंकर शुक्ल के ' झिमिर झिमिर बरसे पानी ' पर महिलाओं के नृत्य ने दर्शकों को ख़ूब भिगोया। नेहरू सांस्कृतिक सदन सेक्टर - 1 में शुक्ल जी दीर्घा में बैठे थे और मैं मंच पर उन्हीं का गाना गा रहा था। दूसरे साल महिलाओं ने ' आगे सुराजी के दिन ' पर परफॉर्म किया था। उसी साल मैंने भिलाई नर्सिंग होस्टल की लड़कियों को भी ' आगे सुराजी के दिन ' पर ही नृत्य तैयार करवाया था। भिलाई के सांस्कृतिक परिदृश्य में छत्तीसगढ़ी गीतों और नृत्यों ने मज़बूती के साथ क़दम रखे थे । किसी ने इसकी ख़बर दाऊजी को दी थी । दाऊजी ने शाबाशी में मुझे ' मोंगरी- भात' की दावत दी थी ।दाऊजी के प्रेमप्रदर्शन का यह तरीका बेहद तृप्तिदायक और स्वास्थ्यवर्धक था।
मुझे जहाँ मौका मिलता , गाता ज़रूर था ।अब मैंने चंदैनी गोंदा के मंच पर गाने की कल्पना करना भी छोड़ दिया था। मुझे आश्चर्य है कि मैं कुछ ज्यादा निराश भी नहीं था। अन्य किसी मंच पर गाना मुझे मंजूर नहीं था। मैं ' नवा विहान ' के निरंतर सम्पर्क में था। बन्धुत्व इतना कि मैं और केदार एक ही थाली में खा लेते थे। मैंने इस मंच के लिए कुछ कमेंट्री भी लिखी थी, कुछ मंचों का संचालन भी किया था। टाटानगर और आकाशनगर बैलाडीला के कार्यक्रमों में मैं ही संचालक था। मैंने वहाँ भी गाने हेतु कोई रूचि नहीं दिखाई। मुझे स्वयं को समझाना और शान्त रखना आता है।
मैं दाऊजी की अतिविकसित छठी इन्द्रिय का सदा कायल रहा हूँ। शायद उन्हें पूर्वाभास हो गया था कि मैं लम्बी रेस का घोड़ा नहीं हूँ। यदि मुझे गाने का मौका मिलता तो अन्ततः मैं मंच को नुकसान ही पहुंचाता। हुआ यूँ कि लगभग चार साल बाद मुझ पर लगातार तीन बार टॉयफायड का आक्रमण हुआ। मैं तो बच गया लेकिन इस भीषण हादसे में मेरी आत्ममुग्ध, होनहार आवाज़ को स्थायी रूप से क्षति पहुँची। मेरे स्वरतन्तुओं की क्षमता लगभग समाप्त हो गयी। मैं अपने स्वर को थोड़ा सा भी ऊँचा ले जाने में असमर्थ हो गया। यानी मेरा कंठ विकलांग हो गया। अन्य अनेक कारणों से मेरा चंदैनी गोंदा में जाना कम होता चला गया। चंदैनी गोंदा के विसर्जन की घोषणा से पहले मेरा जाना बंद ही हो चुका था।
दाऊजी के पूर्वाभास की क्षमता को मेरा नमन .......
- विजय वर्तमान
मो. +91 94062 07975
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