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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

'श्रद्धांजलि खुमान साव' के चुनिंदा आलेख : यादें खुमान -प्रमोद यादव

पिछले दिनों फेसबुक पर स्व. खुमान साव जी की यादों को एक चित्र के माध्यम से संजोकर पोस्ट किया था जिसे लोक-संगीत के प्रेमियों ने काफी सराहा. उसी पोस्ट को और विस्तृत करने का प्रयास है यह लेख. पहले राजघाट वाली उसी पोस्ट को यहाँ उदधृत कर रहा हूँ.




राजघाट {बापू की समाधि) दिल्ली की यह तस्वीर मैंने 1977 में खींची थी. तब तत्कालीन सांसद (?) स्व. चंदूलाल जी चंद्राकर और तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री स्व.बृजलाल वर्मा जी तथा स्व. पुरुषोत्तम कौशिक जी के प्रयासों से अंचल के प्रथम और सुप्रसिद्ध लोक-कला मंच “चंदैनी गोंदा” के नृत्य और गीतों की रिकार्डिंग का कार्यक्रम दिल्ली दूरदर्शन में होना तय हुआ था.सारे शूटिंग विज्ञानं भवन दिल्ली में संपन्न हुए. तब दिल्ली दूरदर्शन के डायरेक्टर कोई कौल साहब थे. जब पहली बार हम वहाँ पहुंचे तो हमें निराशा हाथ लगी. हमसे अच्छा व्यवहार नहीं किया गया. कलाकारों ने इसकी शिकायत खुमान साव से किये क्योंकि वही प्रमुख थे कलाकारों में. दाउजी से सीधे बात करने की कोई कलाकार हिम्मत नहीं जुटा पाते . तब सावजी ने ये बातें कही दाउजी से फिर शायद ये बातें दाउजी ने कौशिक जी के पी.ए.से कही होगी तभी दूसरे दिन जब शूटिंग के लिए वहाँ पहुंचे तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा. खुद कौल साहब हमें रिसीव करने आये और बहुत ही आत्मीयता से मिले और सारे शूटिंग के दौरान ये आत्मीयता बनी रही.




विज्ञान भवन में कुछ नृत्य-गाने की शूटिंग वहाँ के एक बड़े लान में आउट डोर हुई जहां गांव के सेट बनाए गए थे . चबूतरे और खलिहान के दृश्य के बीच नृत्य फिल्माए गए..दूरदर्शन के बड़े-बड़े कैमरे दो-तीन एंगल से कवर कर रहे थे.. कुछ नृत्य-गानों की शूटिंग इनडोर की गई. कुल शायद २२ गानों की रिकार्डिंग हुई थी. तब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी और अंचल से स्व.बृजलाल वर्मा व स्व. पुरुषोत्तम कौशिक जी केन्द्रीय मंत्री थे. वर्माजी शायद उद्योग मंत्री और कौशिक जी नागरिक उड्डयन मंत्री थे. मुझे याद नहीं आ रहा कि तब चंदूलाल जी सांसद थे या नहीं लेकिन दिल्ली के बिरला ग्रुप के प्रसिद्द हिंदी अखबार “हिन्दुस्तान” के प्रधान संपादक जरुर थे. तत्कालीन केन्द्रीय मंत्रियो के सहयोग और चंदूलाल जी के मार्गदर्शन में “ चंदैनी गोंदा” का एक कार्यक्रम दिल्ली के अशोक होटल के कन्वेंशन हाल में हुआ. दाउजी चंदूलाल जी के अच्छे मित्र थे . उनकी बड़ी तमन्ना थी कि छत्तीसगढ़ लोक-संगीत कभी राजधानी में भी गूँजे. अरसे से वे प्रयासरत थे. दोनों केन्द्रीय मंत्रियों से भी दाउजी के अच्छे ताल्लुकात थे. तीनों की तिगड़ी के संयुक्त प्रयास से ये सब संभव हुआ.

हम आधे कलाकार दिल्ली में चंदूलाल जी के निवास में रुके थे तो आधे स्व.कौशिक जी के सरकारी बंगले में. दो-चार शायद स्व. वर्माजी के बंगले में ठहरे थे. जब वहाँ रिहर्सल करते तो बड़ा मजा आता. कौशिक जी के बंगले में मुख्य द्वार पर कुछ हडताली बैठे थे इसलिए हमें पीछे के द्वार से आने-जाने कहा जाता. चंद्राकर जी के निवास में रिहर्सल के बाद हम उनकी ढेरो आप-बीती कहानियां सुनते उन्होंने वो किस्सा भी सुनाया जब वे कोई अफ्रीकन देश में जहां गृह- युद्ध छिड़ा था, पत्रकारिता करने चोरी-छिपे घुस गए और वहाँ एक जगह आदमखोरों के जाल में फंस गए. एक गोरा पत्रकार भी साथ था,उसकी बदौलत वे बचे. वहाँ से उनके मारे जाने की खबर भी आई पर वे एकाध महीने बाद सही-सलामत वापस दिल्ली आये. हमारे दिल्ली से लौटने के एकाध हफ्ते बाद ही साप्ताहिक “ धर्मयुग” में ये कहानी चार किश्तों में पढ़ने को मिली.




अशोका होटल के कन्वेंशन हाल में “चंदैनी गोंदा” का जो तीन घंटे का अविस्मरणीय कार्यक्रम हुआ, वैसा कसा-बंधा कार्यक्रम फिर कभी नहीं देखा.उस कार्यक्रम में अंचल के कई गणमान्य विधायक,सांसद और मंत्री तो उपस्थित थे ही पर सामने की पंक्ति में कुछ और भी जाने- पहचाने मंत्री अथवा भूतपूर्व मंत्री बैठे थे जिसमें साल्वे जी और साठे जी को ही मैं जानता था.कार्यक्रम संपन्न होने के बाद चंदूलाल जी मुझे अपने साथ अपने हिन्दुस्तान कार्यालय ले गए और कैमरे से रोल निकलवाकर डेवलपिंग- प्रिंटिंग के लिए दिए. कुछ ही समय में 8-10 बड़े साइज के प्रिंट मेरे हाथ में थे.मुझे ही प्रेस के लिए फोटो सेलेक्ट करने कहा, मैंने जिसे चुना वह दूसरे दिन “हिन्दुस्तान” में छपा.

“चंदैनी गोंदा” का एक कार्यक्रम आनन्-फानन में चंदूलाल जी के निवास 58 -अशोका रोड में रखा गया जिसमें दिल्ली के प्रबुद्ध साहित्यकारों व पत्रकारों को आमंत्रित किया गया.मैं उनमें केवल “कादम्बिनी” संपादक श्री राजेंद्र अवस्थी जी व “साप्ताहिक हिंदुस्तान” के संपादक श्री मनोहर श्याम जोशी जी को ही पहचान पाया.

चंदूलाल जी खुमान साव से अच्छे-खासे परिचित थे. कभी-कभी वे एकाएक बघेरा पहुँच जाते और दो-तीन दिन बिना किसी को बताये वहीं मुनगा,जिमीकंद खाते गुजार देते. ऐसे कई मौकों पर वे साव जी के लोक-संगीत का भी आनंद लेते. मेरा परिचय साव जी से 1974-75 में हुआ जब पहली बार मस्तुरिया जी मुझे अपने साथ बघेरा ले गए कुछ फोटो शूट करने. तब से मैं बघेरा का ही हो गया. दाउजी जैसा फोटोग्राफर चाहते थे.उन्हें मिला और मुझे एक बढ़िया दोस्त मिला- लक्छमन मस्तुरिया. हमारी खूब छनी कई सालो तक. वहीं खुमान जी से परिचित हुआ. हारमोनियम पर चलते उनकी उँगलियों को देख मै दंग रह जाता . जैसे सांस हम बड़ी ही सहजता से लेते हैं,वैसे ही सहजता से वे हारमोनियम बजाते थे. धुन के पक्के थे.किसी गीत को संगीत में पिरोना है यानी पिरोना है. जब तक वे खुद तसल्ली न कर लेते .विराम न लेते. गिरिजा सिन्हा,संतोष ,केदार आदि के साथ घंटों मेहनत करते तब एक सुन्दर लोक-गीत का सर्जन होता,वे ऐसा कुछ चाहते कि गीत लोक-व्यापी हो..सदाबहार हो.. समय-काल का उस पर कोई असर न पड़े.उन्होंने जितने भी गीतों को संगीत में पिरोया, उसमें आधे से ज्यादा का तो मैं गवाह हूँ..वे अपना काम बड़ी ईमानदारी और शिद्दत से करते. सभी कलाकारों से उनका व्यवहार मर्यादित होता. उनका कहा सभी मानते पर कोई कलाकार अगर कोई संगीत के बारे कोई सलाह देता तो वे ना नहीं कहते बल्कि सही लगने पर बेहिचक मान लेते. मस्तुरिया जी को गाने का कोई ज्ञान नहीं था.. अक्सर साव जी उन्हें “बेताला” कहते लेकिन अभ्यास के चलते वे गायक बन ही गए. संगीता चौबे,अनुराग, भैयालाल हेडाऊ, कविता, साधना,केदार के साथ उनके अच्छे ताल्लुकात रहे. कभी किसी ने उनके संगीतकारी पर कोई शंका जाहिर नहीं की.




उनसे परिचय होने के कुछ ही दिन बाद मैंने उन्हें अपने पड़ोस के घर से निकलते देखा तो पूछा कि यहाँ कैसे? तब बताया कि उनकी बहन यहाँ रहती है..वे पड़ोस के स्व. सदाराम साव के घर बहु बनकर आई थी उनके तीसरे सुपुत्र छन्नूलाल साव के लिए. उनके बच्चों से मेरे आत्मीय सम्बन्ध थे..छन्नूलाल जी सी.एम.ओ. थे. कवर्धा, दुर्ग आदि में रहे. इस परिचय के बाद खुमान जी और आत्मीय हो गए.

चंदैनी गोंदा को दाउजी ने जब बघेरा में एक कार्यक्रम के दौरान इन्हें सौंपा तो एकबारगी सभी गमगीन हो गए कि अब क्या होगा? पर वक्त गवाह है – अच्छा ही हुआ. शुरू-शुरू में उन्हें कुछ दिक्कते जरुर आई लेकिन फिर सब कुछ ठीक हो गया. उसी दौरान उन्होंने मुझे ठेकवा बुलाया कि मैं उनके इस दौर में शामिल हो उद्घोषक का रोल अदा करूँ लेकिन मुझसे नहीं हो सका क्योंकि दाउजी के बाद मैंने किसी के साथ काम नहीं किया. खैर..वक्त गया,,बातें गई..और अब तो वे भी चले गए. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे.

प्रमोद यादव
गयानगर , दुर्ग




Chandulal Chandrakar, Brijlal Verma, Pursottam Kaushik, Dau Ramchandra Deshmukj, Khuman Lal Sao, Bhaiya Lal Hedau, Laxaman Chandrakar, Chaindaini Gona, Manohar Shyam Joshi, Saptahik Hindustan, Rajendra Awasthi, Kadambini, Sangeeta Choube, Anurag, Sadhana Yadav, Baghera.





















टिप्पणियाँ

  1. छत्तीसगढ़ की संस्कृति के पुरुत्थान का स्वर्णिम काल, इतिहास के पन्नों में अब सुरक्षित हो गया। संपादक आरंभ और लेखक प्रमोद यादव बधाई के पात्र हैं।

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