राजेन्‍द्र प्रसाद जी की आत्‍मकथा : मध्यप्रदेश के मंत्रिमण्डल का दु:खद झगड़ा सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

राजेन्‍द्र प्रसाद जी की आत्‍मकथा : मध्यप्रदेश के मंत्रिमण्डल का दु:खद झगड़ा

पिछले दिनों हमने सीपी एण्‍ड बरार के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री डॉ. नारायण भास्‍कर खरे का विद्रोह शीर्षक से एक पोस्‍ट लिखा था तब डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद जी द्वारा लिखा गया यह अंश हमें मिल नहीं पाया था। उस पोस्‍ट को पूरी तरह से समझने के लिए डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद जी के आत्‍मकथा का यह अंश पढ़ना आवश्‍यक है-

बम्बई मे ही मालूम हुआ था कि मध्यप्रदेश के मत्रिमण्डल में आपस का बहुत मतभेद हो गया है। एक दूरारे की शिकायतें करते हैं। उसी समय पारलेमेण्टरी कमिटी ने निश्चय किया कि वह इस बात की जाँच करेगी। उन दिनों पचमढ़ी में गवर्नमेण्ट रहा करती थी। इसलिए सरदार बल्लभभाई और मौलाना साहब वहाँ गये। मैं नहीं जा सका; क्योंकि मैं बीमार था। झगड़ा प्रधान मत्री डाक्टर खरे और पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र मे था। हिन्दुस्थानी मध्यप्रदेश में मत्रिमण्डल बनने के पहले दो दल थे-एक मे पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र समझे जाते थे और दूसरे में पंडित रवि शंकर शुक्ल। जिस समय १९३७ में असम्बली का चुनाव हुआ था उसी समय एक मुकदमा पंडित द्वारका प्रसाद के खिलाफ चलने की खबर निकली। उन्होंने वर्किंग कमिटी को खबर दे दी कि चूँकि उनके विरुद्ध मुकदमे की बात चल रही है, इसलिए जब तक वह उससे निकलकर अपने चरित्र की सफाई न दे दे तब तक वह काँग्रेस के सभी पदों से अलग रहने को तैयार हैं। वहाँ कोई भी कॉग्रेस-पार्टी का नेता नही हो सकता था जब तक उसे हिन्दुस्थानी विभाग के मेम्बरों की पूरी सहायता न मिले।




पंडित द्वारका प्रसाद ने डाक्टर खरे की मदद की। उनकी मदद से ही वह नेता चुने गये । जब मंत्रिमण्डल बनने का समय आया तो उनकी ही गवर्नर ने मंत्रिमण्डल बनाने का आदेश किया। जो मुकदमा पंडित द्वारका प्रसाद पर चलनेवाला था उसे बेबुनियाद समझकर वहाँ के हाकिमों ने उठा लिया। उसके बाद पंडित द्वारका प्रसादजी भी मत्रिमण्डल में आये । इस तरह यह समझा जाता था कि उनकी और डाक्टर खरे की बड़ी मित्रता थी। बात भी ऐसी ही थी। पंडित रविशकर शुक्ल भी मंत्री बने थे ।

काँग्रेस के काम मे वह पंडित द्वारका प्रसाद के प्रतिद्वन्द्धी समझे जाते थे। मत्रिमण्डल के, काम मे शुक्लजी और मिश्रजी की राय बहुत-सी बातों मे एक हुई। दोनों का डाक्टर खरे से मतभेद हुआ। यदि इतना ही रहता तो कोई हर्ज नही; क्योंकि मित्रता एक अलग चीज है और देश-सेवा-सम्बन्धी मतभेद दूसरी चीज। डाक्टर खरे ने मिश्रजी की शिकायत की और मिश्रजी ने भी डाक्टर साहब की ।

इन्ही शिकायतों को दूर करने के लिए सरदार पचमढ़ी गये। वहाँ पर कुछ बाते तय हुईं। आशा की गयी कि मामला तय हो जायगा और दोनों काम चलाने लगेंगे। पर बात ऐसी नही हुई। डाक्टर खरे अपना विचार नही बदल सके। उन्होंने सोच लिया कि मिश्रजी के साथ उनकी नहीं निभेगी। उधर मिश्रजी के साथ काम करते-करते शुक्लजी उनके साथ अधिक मिल-जुल गये। ऐसा मालूम हुआ कि डाक्टर खरे उन दोनों को किसी न किसी तरह मत्रिमण्डल से हटावेंगे। पर जो प्रयत्न इस झगडे़ को हटाने का हुआ वह विफल हुआ। आपस का वेमनस्य बढ़ता ही गया। मैं अच्छा होकर वर्धा मे ही आराम कर रहा था कि एक दिन अचानक खबर मिली, झगडे़ ने उग्र रूप धारण कर लिया है। पारलेमेण्टरी कमिटी और वर्किंग कमिटी की बैठक उसके दो ही दिनों के बाद होनेवाली थी। डाक्टर खरे उसके पहले ही मत्रिमण्डल तोडकर अपनी पसन्द का नया मत्रिमण्डल बना लेना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए गवर्नर की मदद ली। जब मुझे खबर मिली तो मैंने उनको एक पत्र लिखा कि वह ऐसी कोई कारवाई न करें। दो ही दिनों में होनेवाली पारलेमेण्टरी कमिटी और वर्किंग कमिटी का इन्तजार कर लेवें। वह पत्र उनके पास रात को गया। उस रात को उन्होंने मंत्रिमण्डल का इस्तीफा देकर गवरनर से मंजूर करा लिया और नया मंत्रिमण्डल बना भी लिया। मेरा पत्र उनके पास किसी तरीके से रात मे पहुँचने न पाया। दूसरे दिन सवेरे नया मंत्रिमण्डल बन गया। उसमे पहले से ये दोनों मंत्री नही थे। कुछ नये लोग लिये गये थे। सब बाते इतनी जल्दबाजी मे रातों-रात हुईं कि नागपुर के नजदीक रहते हुए भी हमको पूरी खबर मंत्रिमण्डल के पुन:संगठित हो जाने के बाद मिली। जब दूसरे दिन पारलेमेण्टरी कमिटी की बैठक हुई तो इसे सब लोगों ने बहुत बुरा माना। दोनों पक्षों के लोग बुलाये गये । जो नये मंत्री बने थे वे भी बुलाये गये। श्री सुभाषचन्द्र बोस भी पहुँच गये थे। यद्यपि वह पारलेमेण्टरी कमिटी के मेम्बर नही थे तथापि वह कॉग्रेस के अध्यक्ष थे, इसलिए सबके ऊपर थे। उनकी हाजिरी में दोनों पक्ष की बातें सुनी गयीं । कमिटी का विचार हुआ कि इस तरह से नया मत्रिमण्डल बना लेना बेजा हुआ है, विशेषकर जब तुरत ही पारलेमेण्टरी कमिटी और वर्किंग कमिटी की बैठक होनेवाली थी। नये मंत्रिमण्डल के मंत्रियों से कहा गया कि वे इस्तीफा दे दें। ये बाते होते-हवाते रात बहुत बीत गयी थी। पर उसी समय टेलीफोन द्वारा डाक्टर खरे ने गवर्नर को खबर दे दी कि वह और उनके साथ नये मंत्री इस्तीफा दे रहे है। दूसरे दिन उन्होंने इस्तीफा लिखकर भेज भी दिया। वैसा ही दूसरों ने किया। अब नया मंत्रिमण्डल बनाने का निश्चय हुआ। उसमे पंडित रविशंकर शुक्ल प्रधान मत्री बने और पंडित द्वारका प्रसाद भी एक मंत्री हुए। डाक्टर खरे उसमें नही आये। वहाँ की असम्बली की की बैठक वर्धा में हुई जिसमे सुभाष बाबू और हम लोग भी हाजिर थे। उसने शुक्लजी को ही अपना नेता चुना। इसलिए वही प्रधान मंत्री बने ।




इस सारी कार्रवाई से वहाँ बड़ी हलचल मच गयी। डाक्टर खरे बहुत गुस्से में आ गये। उन्होंने बहुत जोरों से पारलेमेण्टरी कमिटी और महात्माजी की शिकायत की। सारी कारवाई की कडे़ शब्दों मे निन्दा भी की। वह महाराषट्रीय ब्राह्मण हैं । शुक्लजी और मिश्रजी उत्तर-भारत के हिन्दी-भाषी कान्यकुब्ज ब्राह्मण है। वहाँ और दूसरे स्थानों मे भी महाराष्ट्री और अ-महाराष्ट्री का झगड़ा उठ खडा हुआ ! कुछ दिनों तक ऐसा मालूम होता था कि काँग्रेस के अन्दर बड़ी भारी फूट फैल जायगी। डाक्टर खरे की कार्रवाइयाँ ऐसी हुई कि कुछ दिनों बाद उन पर अनुशासन की कारवाई करनी पड़ी। उनको कॉग्रेस से बहिष्कृत करना पड़ा। यह झगड़ा चल ही रहा था कि एक पुस्तिका निकली। उसमे डाक्टर खरे की बातों का समर्थन किया गया था। जो कार्रवाई वर्किंग कमिटी ने की थी उसकी निन्दा भी थी। सारी बाते अखिल भारतीय कमिटी के सामने आनेवाली थी। सुभाष बाबू कई दिनों तक वर्धा मे और उसके बाद नागपुर में ठहरे रहे। उन्होंने एक बहुत बड़ा बयान तैयार किया जिसमें सारी बाते लिखी हुई थीं। वह बयान एक पुस्तक के रूप में छाप दिया गया। अखिल भारतीय कमिटी की बैठक के समय वह बाँटा भी गया। इस सारे मामले पर विचार हुआ । तब डाक्टर खरे को काँग्रेस से निकालने का हुआ। मैं डाक्टर खरे को १९३४ से ही अच्छी तरह जानने लगा था, जब उन्होंने केन्द्रीय असम्बली के चुनाव मे डाक्टर मुंजे का मुकाबला किया था। उस समय उन्होंने बहुत जोश के साथ काँग्रेस के पक्ष का समर्थन किया था। जब श्री अभ्यंकर का स्वर्गवास हो गया तो मराठी-भाषी मध्यप्रदेश के वही नेता माने जाने लगे। हम सबके साथ उनका बहुत अच्छा व्यवहार था। प्रान्तीय असम्बली के चुनाव के समय उनकी ही राय से सब बातें पारलेमेण्टरी कमिटी ने की। मंत्रिमण्डल के संगठन में भी वही बराबर मुख्य समझे जाते रहे। इस प्रकार पारलेमेण्टरी कमिटी के लोगों का उन पर भरोसा था और उनके साथ व्यवहार भी अच्छा था।




जब मैं सभापति की हैसियत से उनके सूबे में गया था तो उन्हीं के यहाँ ठहरा था। उन्होंने ही दौरे में मेरा साथ दिया था। इस तरह वह सबके मान्य थे । पर इस मामले मे, न मालूम क्यों, उन्होंने ऐसा विचार बना लिया। जो झगड़ा उनका मिश्रजी के साथ हुआ उसमें पारलेमेण्टरी कमिटी को भी घसीटकर उन्होंने नाथ दिया। महात्मा गांधी को भी उन्होंने अछूता न छोड़ा। यह सारी घटना बडी दु.खद हुई, क्योंकि उनके जैसा एक योग्य आदमी काँग्रेस का विरोधी बन गया। उसके बाद उन्होंने काँग्रेस को हर मौके पर नीचा दिखाने का प्रयत्न किया है। उनके ऐसे-ऐसे बयान हुए हे और ऐसी-ऐसी बाते उन्होंने काँग्रेस के सम्बन्ध में कही हे जैसी शायद कांग्रेस के कट्टर विरोधी भी नहीं कहते होंगे । हम लोगों की नजरों के सामने काँग्रेस की प्रतिष्ठा और उसके अनुशासन की रक्षा के सिवा कोई दूसरी बात नही थी । सच पूछिए तो मैं जितना डाक्टर खरे को जानता था और उनके प्रति जितनी श्रद्धा रखता था उतनी मिश्रजी के प्रति नही ; क्योंकि मिश्रजी के साथ काम करने का उतना मौका नही आया था। डाक्टर खरे भी मिश्रजी के बडे श्रद्धालु थे और उन पर बहुत भरोसा किया करते थे। पर कुछ विषयों में मतभेद हो जाने के कारण वह उनसे इतने बिगड़ गये कि दोनों का एक मंत्रिमण्डल मे रहना असम्भव हो गया। उनकों वहाँ से निकलवा देने पर वह तुल गये और वह निकलवाना भी गवर्नर की मदद से। जो हो, इस दु:खद घटना का परिणाम अच्छा नहीं हुआ । जो झगड़ा उस समय खड़ा हुआ वह अभी तक खत्म नही हुआ है यद्यपि अब वह मराठी और अ-मराठी झगडे़ का रूप नही रह गया है । हाँ, दूसरे तरीके से, समय बीतते-बीतते, बातें ठंढी पड़ गयी। पर डाक्टर खरे काँग्रेस से अलग हो ही गये हैं और शायद रहेगे ही ।

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