ज्ञान-प्रवाह, वाराणसी के तत्त्वावधान में मैं डा० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी (पूर्व निदेशक मथुरा तथा लखनऊ संग्रहालय) के साथ मिलकर एक शोध परियोजना ''शिल्प-सहस्रदल : डायरेक्टरी आफ यूनीक, रेयर ऐण्ड अनकामन ब्रह्मैनिकल स्कल्पचर्स'' पर विगत 2004-2005 से कार्य कर रहा हूं । त्रिखण्डी इस योजना के दो खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं और तृतीय खण्ड पर कार्य चल रहा है। प्रथम खण्ड में गणेश, स्कन्द और शिव तथा द्वितीय खण्ड में विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, दिक्पाल, उपदेवता एवं देवपट्ट सम्बन्धी मूर्तियों का सचित्र संकलन है। देवी-सम्बन्धी तृतीय खण्ड में मातृकाएँ, पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती तथा अन्य देवियों की असामान्य मूर्तियों का सचित्र संकलन रहेगा। उपर्युक्त शोध-परियोजना में हमने छत्तीसगढ़ के भी नवान्वेषित कतिपय विलक्षण मूर्ति-शिल्प सम्मिलित किये हैं। इस लघु आलेख में उन्हीं मूर्तियों की विशेषताओं पर प्रकाश डालने का प्रयास है।
मयूरारूढ़ स्कन्द - डीपाडीड डीपाडीह (सरगुजा) से प्राप्त और 7वीं - 8वीं शती ई. में निर्मित एक लम्बे फलक में अपने वाहन मयूर की पीठ पर स्कन्द को आँका गया है। मयूर की पीठ पर दोनों ओर पैर लटकाकर अथवा मयूर के खुले पंखों पर टिकाकर बैठे स्कन्द की कई मूर्तियाँ मिल चुकी हैं। परन्तु सुखासन में बैठे स्कन्द की यह मूर्ति विरल है। अपने दाएँ हाथ में शक्ति (शूल) पकड़कर कंधे पर टिकाये तथा दाएँ हाथ से मयूर की ग्रीवा को सहलाते स्कन्द की यह मूर्ति अत्यन्त सुन्दर बन पडी़ है। इस मूर्ति की सर्वाधिक उल्लेखनीय विलक्षणता फलक के निचले भाग पर मुष्टिका-युद्ध करते हुए दो वानरमुख योद्धाओं में सन्निहित है। ये दोनों योद्धा सपुच्छ हैं।
दोनों ने अपना एक हाथ प्रतिद्वन्दी की जंघा पर टिकाया है और दूसरे ऊपर उठे हाथ की मुष्टिका से प्रहार करने को उद्यत हैं। फलक के दायीं ओर के योद्धा के पीछे एक नारी-आकृति तथा बायीं ओर के योद्धा का पैर पकडे़ हुए भी एक आकृति है। इस फलक को जी. एल. रायकवार ने इं.क.संगीत वि.वि. खैरागढ की शोधपत्रिका 'कला-वैभव' (अंक 15, 2005-06) में प्रकाशित किया है और निचले फलक के योद्धाओं की पहचान वालि-सुग्रीव से की है। मयूर की पीठ पर इस आसन में बैठने तथा वानरमुख योद्धाओं के मुष्टिका-युद्ध आकने वाली स्कन्द की यह अद्वितीय प्रतिमा है। स्कन्द के संसर्ग में वालि-सुग्रीव युद्ध भी विश्लेषनीय है।

उपर्युक्त चतुर्भुजाओं और उनके हाथों के उपकाणों को दर्शाने वाली दो प्रतिमाओं के विवरण इस प्रकार हैं - उमा का सामान्य दायॉ हाथ शिव के दाए स्कंध पर अतिरिक्त दाएँ हाथ में अंजनशलाका, सामान्य बाएँ हाथ में दर्पण और बाएँ अतिरिक्त हाथ में कंधा है। ये प्रतिमाए क्रमश: मल्हार से प्राप्त और संप्रति डॉ. हरिसिंह गौड वि.वि. के संग्रहालय में तथा सिलीपचराही से प्राप्त और संप्रति खैरगढ वि. वि. के संग्रहालय में प्रदर्शित हैं।


निर्कति - राजनांदगांव अष्टदिक्पालों में दक्षिण-पश्चिम कोण दिशा का दिक्पाल निर्ऋति माना जाता है। प्राय: सभी शिल्पग्रंथ निर्ऋति को दिक्पाल यानी पुरुष देव के रूप में बनाने का विधान करते हैं और मंदिरों के उस कोण में पुरुष देव की मूर्तियाँ ही मिलती हैं। परन्तु राजनांदगांव से मिली यह मूर्ति एक देवी की है। इसे प्रकाश में लाने का श्रेय इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय में कलाविभागाध्यक्ष डॉ. आर. एन. विश्वकर्मा को जाता है जिन्होंने इसे अपनी शोधपत्रिका 'कला-वैभव' के 17वें अंक में प्रकाशित किया था। निर्ऋति को तो पुरुष रूप में होना चाहिए, ऐसा विचार करके इस आलेख के रचयिता ने निर्ऋति के इतिहास को खंगाला। ऋग्वेद, अथर्ववेद, महाभारत, मार्कण्डेयपुराण, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, अमरकोश सभी ने निर्कति को नारी बताया है, परन्तु मेदिनीकोश में कहा गया है कि "निर्ऋति पहले अलक्ष्मी स्त्री थी जो बाद में पुरुष दिशापाल हो गयी'' - ''निर्ऋति: स्यादलक्ष्मी स्त्री दिशापालान्तरे पुमान्''। इस आधार मेरी मान्यता है कि जिस शिल्पी ने यह मूर्ति बनायी यह निर्ऋति के पूर्ण इतिहास से सुपरिचित रहा होगा। उसने निर्ऋति के प्रारंभिक स्वरूप के आधार पर उसे नारी - रूप में आँका, करालदंष्ट्रा बनाया और पादपीठ पर ऊंट बनाए जो निर्ऋति के पुरुष हो जाने के लक्षण खड्ग, खेटक तथा नरमुण्ड भी बना दिये। सभी दिशाएँ स्त्री और दिक्पाल उनके पुरुष पति हैं। इसे ध्यान में रखकर इस मूर्ति को निर्ऋति दिशा की मूर्ति मानना अधिक तर्कसंगत होगा। इस देवी के प्रतिमालक्षण के लिए लेखक के निम्न शोधपत्र अवलोकनीय है -''राजनांदगाँव से प्राप्त एक अनूठी देवी प्रतिमा : पर्यालोचन एवं विवेचन'' चित्रफलक शिल्प-सहस्रदल सन्दर्भ
शिवानी - बारसूर (बस्तर) पद्मासन में कमलासन परं बैठी चतुर्भुज देवी, ऊंची कई स्तरीय शिरोभूषा, शीश के पीछे प्रभामण्डल, मस्तक पर त्रिनेत्र, स्तनहार, भुजबन्ध, कंकण, मेखला, पाद-कटक से सुसज्जित, सामान्य दायाँ हाथ खण्डित (वरदमुद्रा ?), ऊपरी हाथ में डमरू शीर्ष वाला दण्ड, ऊपरी बाएँ हाथ में त्रिशूल तथा सामान्य बाएँ हाथ में चषक (2)। मूर्ति की विशेषता है पादपीठ के दोनों किनारों पर बने मानव मुख।
महिषासुरमर्दिनी - डीपाडीह ( सरगुजा ) अष्टभुजा देवी के चार हाथ खण्डित; अवशिष्ट बाएँ निचले सामान्य तथा एक ऊपरीदाएँ हाथ में शूलदण्ड का ऊपरी भाग, एक बाएँ हाथ में महिष का शीश और सामान्य दायाँ हाथ तरकश से बाण निकालने की मुद्रा में। सामान्य आभूषणों से सज्जित देवी आलीढ मुद्रा में दाएँ पैर को थोडा बाहर को प्रसारित तथा मुडे बाएँ पैर को महिष की पीठ पर अवस्थित किये हुये; महिष का शीश नीचे भूलुण्ठित; महिष की कटी हैग्रीवा से निकले और खड्ग लिए असुर की खडी आकृति। सौम्यवदना देवी की सुन्दर आकृति उल्लेखनीय। नीचे दूसरे स्वतंत्र फलक में देवी को असुर के दोनों सींगों को पकडकर द्वन्द्व युद्ध करते प्रदर्शित किया गया है। असुर का महिषमुखी मानव शरीर भूमि पर के बल गिए हुआ है। दाएँ देवी के पीछे खड्ग और खेटक लिए सहायिका नारी खडी़ है और दूसरे पार्श्व की पुरुष आकृति विस्मित मुद्रा में बाएँ हाथ को अपर किये खडी़ है।
इस मूर्ति की विलक्षणता दोहरे अंकन में सन्निहित है। अन्य किसी भी महिषमदिनी का ऐसा दोहरा अंकन अद्यावीधि हमारे संज्ञान में नहीं आया है। इसीलिए इस मूर्ति को शिल्प-सहस्रदल में सम्मिलित किया गया है। इस मूर्ति को भी जी. एल. रायकवार ने 'कला-वैभव' के अंक 15 , 2005-06 में प्रकाशित किया था।
एकपदा तपस्विनी गौरी - सिरपुर : कई वर्षों से सिरपुर के पुरतात्विक उत्खनन से वहाँ 7 वीं शती से लेकर 12वीं शती तक की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं। कई विरल मूर्तियों को जी० एल० रायकवार ने ज्ञानप्रवाह, वाराणसी के रिसर्ज जर्नल (खण्ड 15, 2010-11) में प्रकाशित किया है। उनमें से दो का उल्लेख उनकी विलक्षणताओं के साथ यहाँ प्रस्तुत है। इनमें से एक तपस्विनी गौरी की है। गौरी का बायाँ पैर भूमि पर टिका है और दायाँ पैर किंचित् घुटने से मुडकर ऊपर ऊठा है। उसका घुटने के नीचे का थोडा़ भाग खण्डित है। फलक में शीर्ष पर सूर्य, पंचाग्नियाँ और चन्द्र पंवितबद्ध हैं। अग्नियाँ यहाँ मानव मुख में रूप में प्रदर्शित हैं जो अन्यत्र इस रूप में नहीं मिली हैं। देवी के दाएँ पार्श्व में सूर्य के नीचे दोहरी पीठिका पर शिवलिंग तथा उसके नीचे एक चौकोर अग्निकुण्ड है। देवी के दाएँ पार्श्व में उसकी भुजा के पीछे एक गोधा ऊपर चढती हुयी बनी है। गोधा के पीछे केले का एक वृक्ष है। संभवत: गोधा उसी पर चढ रही है। द्वादश गौरियों में एक गौरी का सम्बन्ध कदली वन से है। केले के वृक्ष के बाएँ पार्श्व में गणेश और उनके नीचे एक कुण्डलित नाग की आकृतियाँ है।
जटाजूटधारिणी देवी के शरीर पर मात्र उपवीतसूत्र और कौपीन जैसा अधोवस्त्र है। उनके उठे हुए दाएँ हाथ की हथेली में कोई गोलवस्तु है जो फल अथवा पुष्पगच्छ हो सकती है। देवी का बायाँ हाथ कोहनी से नीचे खण्डित है। देवी के बाएँ पैर के निकट एक बैठे सिंह की मूर्ति है जिसका अग्रभाग खण्डित है। उसके पीछे गौरी की एक सखी खडी दृष्टव्य है। इस प्रतिमा का सर्वाधिक उल्लेखनीय पक्ष पंचाग्नियों का है जो परम्परा से हटकर मानवमुख के रूप में उकेरी गयी हैं।

-डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव
उत्तर प्रदेश में, जन्मे ए.एल. श्रीवास्तव ने लखनऊ विश्वविद्यालय से 1964 ई. में बी.ए., 1966 ई. में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं सस्कृति में एम. ए. (प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान) तथा 1976 ई. में 'लाईंफ ऐज डेपिक्टेड इन साँची स्कल्पचर' विषयक शोध प्रबन्ध पर पीएच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। 1969 से 1996 ई. तक उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध सी.एम.पी. कालेज में अध्यापन
किया।
डॉ. श्रीवास्तव ने अब तक लगभग 20 पुस्तकों का एवं लगभग 200 निबन्धों का प्रणयन किया है। उनके शोध निबन्ध देश-विदेश के स्तरीय जर्नल्स में प्रकाशित हुए हैं। 'श्रीवत्स' तथा "भारतीय कला-प्रतीक' नामक पुस्तकों पर डॉ. श्रीवास्तव को पुरस्कृत भी किया जा चुका है।
डॉ. श्रीवास्तव देश-विदेश के विभिन्न प्राच्य विद्या संस्थानों के सम्मेलनों तथा राष्ट्रीय संगोष्ठियों में अपने शोधपत्र प्रस्तुत करते रहे हैं। 1985 ई. में माण्टियाल वि.वि. (कनाडा) में आयोजित 'लर्नेड सोसाइटीज ऑव कनाडा' के वार्षिक अधिवेशन में "कनैडियन एशियन स्टडीज एसोसिएशन' तथा 'हिन्दी लिटरेरी सोसाइटी ऑव कनाडा' के तत्वावधान में उन्होंने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए जो 'साउथ एशियन होराइजन्स' नामक जर्नल (ओटावा वि.वि.. अंक 4, 1986) में प्रकाशित हुए थे।
कला-प्रतीकों के अध्ययन में विशेष अभिरुचि वाले डॉ. श्रीवास्तव आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से अनेक वार्ताएँ भी प्रसारित कर चुके हैं। उन्होंने शोध संस्थान, कानपुर) तथा 'कला' (इण्डियन आर्ट हिस्टरी कांग्रेस, गुवाहटी) नामक जर्नल्स का सम्पादन भी किया है। संप्रति वे पांचाल शोध संस्थान, कानपुर के अध्यक्ष हैं।
डॉ. ए.एल.श्रीवास्तव जी, सेवानिवृत्ति के पश्च्यात भिलाई छत्तीसगढ़ में निवास करते हैं। मोबाईल संपर्क : 9827847377
सभी चित्र साभार : प्रभात कुमार सिंह
उत्तर प्रदेश में, जन्मे ए.एल. श्रीवास्तव ने लखनऊ विश्वविद्यालय से 1964 ई. में बी.ए., 1966 ई. में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं सस्कृति में एम. ए. (प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान) तथा 1976 ई. में 'लाईंफ ऐज डेपिक्टेड इन साँची स्कल्पचर' विषयक शोध प्रबन्ध पर पीएच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। 1969 से 1996 ई. तक उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध सी.एम.पी. कालेज में अध्यापन
किया।
डॉ. श्रीवास्तव ने अब तक लगभग 20 पुस्तकों का एवं लगभग 200 निबन्धों का प्रणयन किया है। उनके शोध निबन्ध देश-विदेश के स्तरीय जर्नल्स में प्रकाशित हुए हैं। 'श्रीवत्स' तथा "भारतीय कला-प्रतीक' नामक पुस्तकों पर डॉ. श्रीवास्तव को पुरस्कृत भी किया जा चुका है।
डॉ. श्रीवास्तव देश-विदेश के विभिन्न प्राच्य विद्या संस्थानों के सम्मेलनों तथा राष्ट्रीय संगोष्ठियों में अपने शोधपत्र प्रस्तुत करते रहे हैं। 1985 ई. में माण्टियाल वि.वि. (कनाडा) में आयोजित 'लर्नेड सोसाइटीज ऑव कनाडा' के वार्षिक अधिवेशन में "कनैडियन एशियन स्टडीज एसोसिएशन' तथा 'हिन्दी लिटरेरी सोसाइटी ऑव कनाडा' के तत्वावधान में उन्होंने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए जो 'साउथ एशियन होराइजन्स' नामक जर्नल (ओटावा वि.वि.. अंक 4, 1986) में प्रकाशित हुए थे।
कला-प्रतीकों के अध्ययन में विशेष अभिरुचि वाले डॉ. श्रीवास्तव आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से अनेक वार्ताएँ भी प्रसारित कर चुके हैं। उन्होंने शोध संस्थान, कानपुर) तथा 'कला' (इण्डियन आर्ट हिस्टरी कांग्रेस, गुवाहटी) नामक जर्नल्स का सम्पादन भी किया है। संप्रति वे पांचाल शोध संस्थान, कानपुर के अध्यक्ष हैं।
डॉ. ए.एल.श्रीवास्तव जी, सेवानिवृत्ति के पश्च्यात भिलाई छत्तीसगढ़ में निवास करते हैं। मोबाईल संपर्क : 9827847377
सभी चित्र साभार : प्रभात कुमार सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)