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विनोद साव
अपनी सिमटी हुई दुनियां में यह पहली बार था जब किसी
चित्रकार के घर जाना हुआ था. चित्रकारों कलाकारों से दोस्ती तो रही पर घर से बाहर
ही रही. कला से सम्बंधित सारी बातें या तो प्रदर्शनी में होती रहीं या फिर कला
दीर्घा में, पर किसी कला के घर में नहीं. यह चित्रकार
डॉ.सुनीता वर्मा का घर था. उनकी कला का घर. कभी साहित्यकार मित्रों के साथ
कार्यक्रम के बाद उन्हें रात में छोडने घर आया था. पर जब उनकी कला पर चर्चा करने
के लिए दिन में घर खोजा तो पा नहीं सका फिर रात में आया तो वही घर मिल गया. जिस
तरह कभी दिन में गए किसी स्थान को हम रात में नहीं खोज सकते उसके विपरीत कुछ हो
गया था कि रात में गए घर को दिन में नहीं तलाश पाया. शायद यह भी कला का कोई उपक्रम
हो जिसमें लाईट एंड शेड का प्रभाव पड़ता हो. दरवाजे पर खड़ी सुनीता जी को मैंने कला
के इस संभावित प्रभाव के बारे में बताया तब वे केवल इतना बोल पायीं कि ‘क्या बात
है !’ यह कहते हुए उन्होंने कला के घर में मुझे ले लिया था जहाँ चित्रकार सुनीता
रहती हैं दिन-दिन और रात रात भर. न केवल अपने जीवन में रंग भरते हुए बल्कि रंगों
में जीवन भरते हुए भी.
कमरा उतना ही बिखरा हुआ है जितने की कला को दरकार
होती है. जीवन का बिखराव, असंतुलन और अस्थिरता इन्सान में प्रतिभा का भी स्फुटन
करती हैं. जीवन स्थिर हो गया तो समझो कला और विचार भी जड़ हो गए.
कमरे में दीवाल से टिकी पेंटिंग्स के बीच दो नन्हे
बच्चे बैठे हुए हैं अपने अपने रंगों की रेखाओं को खींचते हुए. वे चित्रकला सीखने
आते हैं. एक कोने में ट्रांसिस्टर बज रहा है जिसमें मधुर गीत बज रहे हैं. मैं कहता
हूँ कि ‘ये रेडियो है या टेपरिकार्डर ! इसमें गाने बड़े चुने हुए आ रहे हैं!’
सुनीता कहती हैं कि ‘जब मैं सुनती हूँ तब रेडियो भी गीत चुने हुए ही बजाता है.’
उस छोटे से कमरे में मैं एक स्टूल पर बैठ जाता हूँ.
वे बातें करती हैं और बीच बीच में बच्चे अपने बनते हुए चित्र उन्हें दिखाते हैं.
वे उन्हें निर्देशित करती हैं. रेडियो पर गीत मद्धिम सुरों में बज रहे हैं. मैं
शुरुआत करता हूँ कि ‘आपकी चित्रकला में रंग संयोजन इतना अद्भुत हैं कि आपके अमूर्त
चित्र भी एक मूर्त रूप तलाश लेते हैं. चित्रों और रंगों की आपकी स्वप्निल दुनियां
यथार्थ का एक अलग ताना बाना बुन लेती हैं.’ अपनी इतनी ही टिप्पणी को कुछ दिनों
पहले मैं उनकी एक पेंटिंग को फेसबुक पर ‘शेयर’ करते हुए लिखा था जिसे देश भर से
चित्रकला के कितने ही कदरदानों ने ‘लाइक’ किया था. तब सुनीता ने भी अभिभूत होकर
फोन किया था. इससे ज्यादा मैं नहीं बोलता हूँ क्योंकि चित्र कलाओं का मैं केवल
दर्शक हूँ खुद चित्रकार नहीं. वे भी अचंभित हैं कोई साहित्यकार उनकी कला पर बातें
करने कैसे आ गया है? थोड़ी देर खामोश रहती हैं फिर बोलती हैं कि ‘मुझे पहले क्रोध
बहुत आता था संभवतः उसे दबाने के लिए मैंने यह उपक्रम किया हो. भीतर का उद्रेक
बाहर आकर मन को शांत तो कर देता है.’
‘क्या क्रोध की स्थितियों में कला मुखर हो पाती है?
पूछने पर कहती हैं ‘मेरे साथ तो ऐसा नहीं है ..उसके लिए एक अच्छे ‘मूड’ का होना
ज़रूरी है. भीतर अगर व्यवस्थित है तब फिर दिन क्या और रात क्या. केनवास पर रंगों की
छटा छा जाने के बाद ही मन संतृप्त होता है तब फिर समय का भान होता है.’
मेरे सामने ज्यादातर पेंटिंग्स ढंके हुए रखे हैं या
फिर दीवालों की ओर अपना मुंह छिपाए हुए हैं. चित्रकार भी संभवतः आत्म-प्रचार से
दूर है इसलिए उन्हें भी अपने चित्रों को दिखलाने की कोई तीव्र इच्छा नहीं है.
बल्कि कला-विमर्श में वे अधिक रस ले रही हैं. इस बीच उनकी सहेली सुलेखा चंद्राकर आ
जाती हैं अपने उन बच्चों को लेने के लिए जो यहाँ पेंटिंग्स सीख रहे हैं. उनकी
परिचित सहेली मुझसे पूछ बैठती हैं कि ‘आपको चित्रकला में इतनी दिलचस्पी कब से हो
गयी ?.’ मैंने कहा ‘बस तब से जब से
सुनीताजी की पेंटिंग्स देखी है.’ सुनीता की पेंटिंग्स के चित्र मैंने सबसे पहले
डॉ.रत्ना वर्मा द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘उदंती’ में देखे थे. सुनीता कहती हैं कि
‘पेंटिंग्स को लेकर रत्ना-दी और मेरी पसंद खूब मिलती हैं.’ मैंने कहा ‘आप दोनों
में यह साम्य है कि दोनों ही बड़े प्रकृति प्रेमी हैं. रत्ना शब्दों से प्रकृति को
उकेरती हैं और सुनीता रंगों से.’ वे कहती हैं ‘हाँ..मेरे चित्रों में प्रकृति का
तादात्मीकरण खूब है और प्रकृति के चित्रण के लिए वाटर कलर मुझे सबसे अनुकूल लगता
है. इसके अतिरिक्त मेरी ज्यादातर एक्रेलिक पेंटिंग्स है.’ उनके चित्रों में मैं
सामने रखी पेंटिंग में तीन बहनों को देखता हूँ जो छत्तीसगढ़ के आभूषणों से लदी फदी
हैं. मैं पूछता हूँ ये लोग कौन हैं? वे सकुचाते हुए बोल पड़ती हैं ‘बस हमीं लोग
हैं.’ वे बोलचाल में भी हिंदी बोलते समय छत्तीसगढ़ी के शब्द धडल्ले से बोलती हैं.
कहने पर वे दीवालों में अपना मुंह छिपा रही कुछ
पेंटिंग्स को मेरी ओर घुमाती हैं उनमें उनकी तूलिकाओं से बने चित्रों और रंगों की
वही तिलस्मी और सम्मोहक दुनियां है जो उन्हें चित्रकला की दुनिया में एक अलहदा
चित्रकार बनाती हैं. इंदिरा संगीत एवं कला विश्व-विद्यालय से पेंटिंग्स में मास्टर
ऑफ फाइन आर्ट्स की डॉ.सुनीता वर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ के प्रचलित माटी शिल्प पर’ अपना
पी.एच.डी. किया है. वे देश भर में अनेकों स्थानों में अपनी कला के प्रदर्शन के लिए
ख्याति पाई हैं और पुरस्कारों से अलंकृत हुई हैं. सम्प्रति डी.पी.एस.भिलाई में कला
प्रभारी हैं.
अब वे कला के इस घर से निकालकर मुझे अपने गृहस्थ-घर
में ले चलती हैं जहां हम चाय पीते हैं और सोनपापड़ी खाते हैं. मेरे सामने वाले कक्ष
में उनका बेटा बैठा है कंप्यूटर पर अपने काम में मशगूल जैसे किसी ख्यातनाम
चित्रकार का साधक बेटा हो. निकलते समय वे कहती हैं कि ‘साहित्यकार लोग बडबोले होते
हैं पर मैंने पहली बार किसी को इतना शान्तचित्त पाया.’
०००
विनोद साव - लेखक संपर्क : 9009884014
सुनीता जी की पेंटिंग में छत्तीसगढ़ी संस्कृति के रंग विशेष रूप से मुखर हैं।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं ।
Nice story of Sunita JI .I am Impressed after reading her story at your blog,thanks for a motivating story of Sunita ji.I HOPE YOU WILL POST MORE STORIES LIKE THIS.THANKS
जवाब देंहटाएंmarriage
sir mujhe googal adsense par aapna blog rajister karne ka tarika bta do sir
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