कला दीर्घा : हर ‘निगेटिव’ को ‘पॉजिटिव’ बनाते हुए अनिल कामड़े

-विनोद साव

भिलाई आर्ट्स क्लब ने इस शहर को चित्रों और रंगों से भर दिया है. पिछले महीने भिलाई में चित्रकला पर तीन दिनों का सार्थक आयोजन किया गया था और इस बार अनिल कामड़े के छायाचित्रों की प्रदर्शनी लगवा दी. नेहरू आर्ट गैलरी के सामने ही अनिल मिल गए. अपने चिर-परिचित हंसमुख चेहरे के साथ. जन संपर्क विभाग के फोटो विडियो सेक्शन में एक समय तीन कलाकार ऐसे सहभागी थे जो दुर्ग से एक साथ आते और जाते रहे – हिमांशु मिश्रा, प्रमोद यादव और अनिल कामड़े. ये तीनों दुर्ग में गया नगर के आसपास लगभग एक ही इलाके में रहे. इन तीनों कलाकारों में जबर्दस्त यारी थी और इनके कारण जन संपर्क विभाग में याराना माहौल बना रहता था. इनमें विलक्षण विडियोग्राफर हिमांशु मिश्रा हबीब तनवीर के ‘सेट’ पर कार्य करते हुए दुर्घटनाग्रस्त होकर असमय ही यारों के बीच से चले गए. हिमांशु के पास किसी फिल्म के छायाकार जैसी समृद्ध दृष्टि और तकनीक थी. उनकी बनाई विडियो फिल्मों ने छत्तीसगढ और इसके बाहर भी अपनी छाप छोड़ी थी.

साहित्य में कदम रखने से पहले मैंने भी कुछ विडियो फीचर फिल्मों के निर्माण में दांव पेंच आजमाए थे. हिमांशु के साथ मिलकर ‘पाटन दर्शन’ और ‘भारत-सोवियत मैत्री’ बनाई थी जिनका कई जगह प्रदर्शन हुआ था. हिमांशु के सहयोगी साथी अनिल वशिष्ठ और हसन उनकी कलात्मक बारीकियों के हरदम साक्षी रहे हैं. इनके साथी कुशल फोटोग्राफर प्रमोद यादव पिछले वर्ष सेवानिवृत हो गए. प्रमोद यादव के कैमरे के पीछे एक साहित्यकार की नज़र भी होती है क्योंकि वे एक प्रकाशित होने वाले लेखक भी हैं. इस महीने अनिल कामड़े ने भी अवकाश ग्रहण कर लिया है लेकिन केवल नौकरी से अवकाश ग्रहण किया है कला से नहीं. नौकरी से निवृत होना कलाकारों के लिए ‘प्लस’ होता है. रिटायरमेंट के बाद कलाकारों की कला की एक अलग दुनियां होती है, जो उनकी अपनी नितांत निजी दुनियां होती है. वे मुक्त होकर फिर से अपनी कला में लीन होने का पूरा अवसर पा लेते हैं.

अनिल कामड़े अपनी मुचमुची मुस्कान के साथ कहते हैं कि ‘विनोद भाई १९५५ में जन्मे जो कला प्रेमी हुए उनमें मैं, आप और हिमांशु थे. यह सुनकर प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए मुख्य अतिथि रंजना मुले, महाप्रबंधक (सी.एस.आर.) किलकते हुए कह उठती हैं कि ‘हम भी १९५५ के हैं.’

गोलाकार गैलरी में लगे हैं अनिल कामड़े के खींचे हुए रंगीन और श्वेतश्याम चित्र. ये बस्तर के आदिवासी जीवन पर केंद्रित चित्र हैं. इनमें बस्तर के नैसर्गिक दृश्यों की उपस्थिति भी उनके जन-जीवन से है. मनुष्य की जिजीविषा के बिना प्रकृति का भी मोल कितना है ? प्रकृति की छटा तो तभी निखरती और बिखरती है जब उस वन प्रांतर की जन भागीदारी प्रकृति के श्रोतों पर होती है. नदी पहाड़ और सूरज चाँद के साथ मनुष्यों का समुदाय हो तब जाकर कला का प्रयोजन सिद्ध होता है.. और अनिल इसे खूब सिद्ध करते हैं अपनी छायांकन कला से. अनिल के भीतर एक यायावर है. वे घूमते रहते हैं हाथ और कंधे पर अपना कैमरा लिए. जहाँ भी कुछ असाधारण दिखा कि उसे कैमरे में कैद किया. अनिल उन फटाफट फोटोग्राफरों में नहीं हैं जो फोटो खींचे और चलते बने. वे बड़े धैर्य के साथ अपने ‘ऑब्जेक्ट’ को ‘फोकस’ करते हैं. कैमरे में उनकी तन्मयता उस निशानेबाज की तरह दिखाई देती है जिसे निशाना लगाना है तो सीधे अपने लक्ष्य पर अन्यथा नहीं. प्रदर्शनी में लगे चित्रों में यह साफ दिख रहा है कि चित्रकार ने बस्तरिहा जीवन के सूक्ष्म लोक तत्वों को बड़ी सूक्ष्मता से उतार लिया है. यह उनके चित्रों को देखकर ही महसूसा जा सकता है, कुछ इस तरह कि बस्तर के लोक जीवन की मधुर लय भी देखने वाले के कानों में झंकृत हो उठती है.

अनिल कामड़े को वर्ष 2000 में भिलाई में हुई अखिल भारती फोटोग्राफी प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार मिला था. उनके चित्र धर्मयुग और सारिका जैसी पत्रिकाओं सहित अनेक अख़बारों में प्रमुखता से छपते रहे हैं. प्रगतिशील लेखक संघ के भोपाल और लखनऊ सम्मेलनों में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी. वे कहते हैं कि ‘इंसान के रोजमर्रा की खटखट, जिंदगी में उसकी उठा पटक और उसकी जद्दोजहद के बीच जो सौंदर्य झांकता है कुछ ऐसे ही पलों को मैं कैमरे में ले लेता हूँ.’ अपने छायांकन में वे जीवन की नकारात्मकता को सकरात्मक आयाम देते हैं. हर ‘निगेटिव’ को ‘पॉजिटिव’ बना लेने की कला है अनिल कामड़े में.


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com


सरला शर्मा की कहानी : सफेद होता लहू

समय के साथ साथ रिश्‍तों की संवेदनशीलता बदल रही है, संबंधों के बीच नि:स्‍वार्थ प्रेम और भारतीय परिवार की परम्‍परा का मजबूत किला धीरे धीरे ढहने लगा है। देश में बुजुर्ग मॉं-बाप के प्रति बेटा-बहुओं का व्‍यवहार और बृद्धाश्रम में दिन काटते तिरस्‍कृत जीवों की कहानी आप रोज पढ़ते होंगें। अमरीका जैसे गुलाबी स्‍वप्‍नों के देश में संपूर्ण सुख का भोग कर रहे बेटा-बहुओं के द्वारा अपनी ही मॉं को किस तरह भावनात्‍मक प्रतारणा दिया जा रहा है, इसकी झलक आप इस कहानी में देख सकते हैं।
सरला शर्मा, छत्‍तीसगढ़ की प्रखर लेखिका हैं, इनके पिता स्‍व.श्री शेषनाथ शर्मा 'शील' जी छत्‍तीसगढ़ के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्‍होंनें हिन्‍दी, बंगला एवं छत्‍तीसगढ़ी में लेखन किया है एवं उम्र के इस पड़ाव में भी निरंतर सृजनशील हैं। अंर्तजाल जगत में इनका एक ब्‍लॉग भी है एवं वे फेसबुक व ब्‍हाट्स एप के माध्‍यम से अपनी वैचारिक दखल प्रस्‍तुत कर रही हैं। सरला दीदी नें यह कहानी मुझे बहुत पहले भेजी थी, किन्‍तु समयाभाव के कारण मैं इसे डिजिटलाईज नहीं कर पाया था, अतिथि लेखक के रूप में प्रस्‍तुत हैं उनकी एक कहानी-

सुबह - सुबह फोन की घण्टी फूटी आंख नहीं सुहाती। अरे नहीं, फूटे कान नहीं सुहाती.. पर क्या करू? जानती हॅू कि स्थानीय फोन कॉल हैं.. चलों जिसे जरूरी काम होगा, वह फिर कॉल करेगा ही.. ओह! तीसरी बार फाने ने चीखना शुरू किया, तो बेमन से थोड़ी झुंझुलाकर ही ’हलो’ बोली। अरे बाप रे ..... कान के परदे फट गये ’हलो सरला! फोन क्यो नहीं उठाती।’ आवाज पहचान गई अपूर्वा जैन मेडम थीं आश्चर्य हुआ वो तो अगले महीने आने वाली थी।...
’’हलों जैन मेडम! आप कहां से बोल रही हैं, आप तो यू.एस. गई थी बेटे के पास ...। मेरा कथन समाप्त होने के पहले ही असहिष्णु झुंझलाई हुई आवाज आई ’’हॉ जी अटलाण्टा गई थी, जार्जिया राज्य की राजधानी, व्यापार और पाश्चात्य संस्कृति का केन्द्र, खुबसूरत किन्तु व्यस्त, त्रस्त एक ऐसा शहर जहॉं आदमी को खुद के लिये भी समय निकाल पाना कठिन है... और कुछ..?
मुझे समझ में नहीं आ रहा था, क्या कहॅू सो पूछ लिया ’’अभी कहां से बोल रहीं हैं..?
तीखी आवाज में उत्तर आया ’हार्टस फील्ड जेक्सन अटलाण्टा इन्टरनेशनल एयरपोर्ट दुबई... वहॉ से दिल्ली एयरपोर्ट। अभी रायपुर एयरपोर्ट से बोल रही हॅूं... सीधे तुम्हारे पास आ रहीं हॅू... आज छुट्टी ले लो... बहुत कुछ कहना है तुमसे ... हो सकता है बाद में इतना सब साफ साफ न बता पाऊॅ...।
यह क्या बात हुई? अरे भाई! बेटे के पास से आ रही है... वो तो ठीक है... धनी देश के धनी-मानी नागरिक बन गये बेटे बहू ने सुख सुविधा का इंतजाम जुटाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखा होगा... अपना सुखद अनुभव, वह भी विदेश यात्रा का वर्णन सुनाये बिना रहा नही जा रहा है... वहॉ तक तो ठीक है, पर इस तरह... आनन फानन... विवरण देने की क्या जरूरत है? अब अपना काम धाम छोड़कर जैन मेडम की अगवानी में लगूं... बड़ी... असमंजस मे पड़ गई। किन्तु, कौतूहल, मित्रता, स्त्रियोचित ईर्ष्या सबने मिलकर प्रिंसिपल से छुट्टी तो दिलवा दी...।
करीब दो घण्टे बाद जो महिला खड़ी थी, उसे जैन मेडम कहने में डर लगा। निस्तेज ऑखे, मुरझाया चेहरा, शिथिल पड़ गई मांस पेशियॉ... पीली पड़ गई थीं वो। इन दो महिनों में ही उनकी उम्र दस साल बढ़ गई क्या? सोचनें लगी पुत्रगर्व से गर्विता माता की यह कैसी दशा है? शिष्टाचार वश कुछ बोली नहीं... भीतर आते ही वे सोफे पर धंस गई... पानी का गिलास एक ही सांस में खाली हो गया... सहसा मेरा हाथ पकड़कर रोने लगी... मेरा हाथ उनकी पीठ पर पहुंचा ही था कि भरे गले से बोली... ’सरला! अपने घर में थोड़ी सी जगह दोगी? मरते तक मेरी देखभाल कर सकोगी?’
यह कैसा प्रश्न है? जिसने जाति-धर्म, भाषा बोली, सगे-संबंधी की सीमा पार करके मनुष्यता को जगा दिया? जैन मेडम मुझसे दस - बारह साल बड़ी होंगी, दुनिया देखी, मजबूत इरादों वाली महिला है फिर इतनी अधीरता, इतनी दीनता क्यों? उन्हे शांत करने को बोली, ’’ हॉ...हॉ... मेडम आपका ही घर है, चलिये थक गई होंगी, आखीर बीस, इक्कीस घण्टे की हवाई यात्रा कम तो नहीं होती...चलिये... नहा धोकर, कुछ खा पी लीजिये, फिर आराम से बैठकर बातें करेंगे... आज की छुट्टी ले ली हूॅ...।’
यथासमय बातें शुरू हुई। इस बार मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी तो बोली... ’हॉ मेडम। आप दीवान पर लेटे हुये ही अपनी सुनाइये मैं भी सोफे पर आराम से बैठ जाती हॅू। थोड़ी देर मुझे एकटक निहारने के बाद बोली ’कब से कैसे शुरू करू सरला... पिछले दिनों की मानसिक यंत्रणा, ऊहापोह और अनिश्चित भविष्य की आशंका... किस किस का जिक्र करूॅ...? तुम तो जानती हो कि अनुज मेरा बेटा अटलाण्टा की साफ्टवेयर कम्पनी में इंजीनियर है, दो बेटे है उसके...। बच्चों के स्कूल चले जाने पर बहू अकेली पड़ी रहती थी, तो उसने भी किसी गारमेन्ट कम्पनी में सुपर वाइजर की नौकरी कर ली... पैसों की कमीं नहीं रहीं... तो काफी बड़ा घर खरीद लिया...। पर वहॉ नौकर - चाकर तो मिलते नहीं... घर का रख - रखाव, खाना बनाना, घरेलू काम, बच्चों को पढ़ाना फिर नौकरी... आसान तो होता नहीं... बहू चिड़चिड़ाने लगी... थक जाती थी... ऐसे में मेरी याद आई... अकेली पड़ी रहती हॅू तो अब उनके साथ रहूॅ... यहॉ तक तो ठीक था... मैं अनुज को ना नहीं कह सकी आखिर अपनों का साथ इस उम्र में प्रलोभन देता ही है... चली गई...’।
मैंने पूछा ’अकेली कैसे चली गई... इतनी दूर...।’ उन्होने कहा इसके पहले भी जा चुकी थी, तब मि. जैन साथ थे। तब हम दोनों तीन महीने वहॉ रूके थे, तो इस बार अकेली चली गई। वह तो बाद में समझ आया कि यह जाना कुछ और था... बहू ने धीरे से घर का सारा काम समझा दिया... मैं भी व्यस्त हो गई... हॉ बच्चों से बातचीत में भाषा आड़े आती थी...। बेटा भारतीय खाने की फरमाइश करता... मैं खुशी-खुशी बनाती खिलाती...।’
’आप थक नहीं जाती थी, फिर वहॉ के बदलते मौसम में आपकी तबीयत...।’ वाक्य पूरा नहीं कर पाई वे बोल उठी...। ’हॉ ... यही से तो मुश्किल की शुरूआत हुई। आये दिन होने वाली बारिश, बादलों से ढका आसमान, सारे दिन की मेहनत... मेरी तबियत खराब होने लगी... कभी सिर चकराने लगता, तो हाथ पैर का दर्द अलग से... कभी कभी सांस फूलने लगती...।’ जैन मेडम ने बताया।
मैं सोचने लगी उम्र के इस पड़ाव पर शरीर आराम चाहता है बोली ’जैन मेडम ! आपने बेटे बहू से कहॉ क्यो नहीं... वहॉ तो अच्छे डाक्टर अच्छी दवाए मिल जाती है।’
धीमे से मुस्कुरा कर जैन मेडम ने कहॉ ’मॉ हूॅ ना... बेटे बहू की व्यस्तता, दिन भर थके हारे, घर लौटे बच्चों से अपना दुखड़ा रोकर उन्हे तकलीफ क्यां दूॅ यही सोचती थी...।
इसी बीच एक दिन बहू को एक नया विचार आया बोली ’मम्मी! आप तो बोर होती होंगी, ऐसा कीजिये कि कम्प्यूटर पर स्काइप पर जाकर हिन्दी पढ़ाने का काम शुरू कर दीजिये। एक घण्टे के लेक्चर का 300 डालर मिलेगा... काम भी होगा कुछ आमदनी भी हो जायेगी...।’
मेरे ना नुकुर करने पर बेटे ने सुझाव दिया - डरिये मत, गूगल में जाकर सर्च करेंगी तो भूले भटके प्रसंग याद आ जायेंगे, कोई कठिन नहीं है...।
’’जैन मेडम आपने बेटे से पूछा नहीं कि घर बैठे... बिना विद्यार्थियों के पढ़ाने का काम कैसे होगा।’’ मैने कहा तो - उन्होने बताया कि वहॉ पर इसे लांग डिस्टेन्स लेक्चर कहते है...।
आखिर... जैन मेडम ने वहॉ - बेटे बहू की खुशी के लिये यह भी शुरू कर दिया... कुछ ही दिनों में उन्हें लेक्चर देना अच्छा लगने लगा पर कम्प्यूटर पर लगे रहने से घर का काम करने को समय नहीं बचता था और वह थक भी जाती थी। बहू का मुॅह फूलने लगा। सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि वहॉ जैन मेडम का मेडिकल इंश्योरेंस तो था नहीं, वहॉ तो डॉक्टरों की फीस बहुत ज्यादा है फिर महंगी दवाइयों का खर्च अलग से... दुनियादार बहू को यह खर्च गवारा नहीं था। देर रात गये... पानी पीने उठी जैन मेडम ने सुना बहू कह रही थाी। ’डायमण्ड मंगलसूत्र तो वह लाई नहीं, जो कपड़े लाई हैं वह भी ढंग के नहीं हैै, वहॉ अकेली रहती है, कोई खर्च तो है नहीं, पैंसों का करती क्या है, सोची थी यहीं रख लेगे, थोडी मदद हमारी भी हो जायेगी वह भी नहीं हो पा रहा है। इनकी दवाओं का खर्च अलग से... न हो इन्हे वहीं भेज दो...।’
बहू के विचारों ने जैन मेडम के कानों मे ताले लगा दिये। बेटे ने क्या कहा - सुन लेती तो... रही सही कसर पूरी हो जाती। पर मेरा सोचना सही नहीं था... चार दिनों बाद बेटे का तीखा स्वर सुनाई दे ही गया ’रूचि! भूलो मत की मैं मम्मी का इकलौता बेटा हूॅ मुझे ही उन्हे देखना है फिर अभी तो उन्ही के कमाये डालर हमारे एकाउंट में जमा है, भूलो मत की मम्मी ही तुमको पसंद करके लाई थी, वह भी बिना दान दहेज के...।’
अनुज आगे कुछ और कहता कि झमक कर रूचि ने कहा ’’कौन सा उपकार किया था, वे अच्छी तरह जानती थी कि पढ़ी लिखी हॅू विदेश में भी चार पैसा कमा सकूंगी और उनके बेटे का घर भी संभाल सकूंगी...।’’ ठीक है निभाइये अपनी जिम्मेदारी... वहॉ भी तो वृद्वाश्रम खुल गये है... वहीं रखिये... पैसे आप दीजिये... मैं मना नहीं करती... कम से कम हम तो यहॉ चैन से रह सकेंगें।’’
अवाक रह गई मै... तभी जैन मेडम की सिसकियां कान में पड़ी। मेरे पास तो सांत्वना के शब्द भी नहीं थे... क्या कहती? चुपचाप उनके हाथ को थपकती रही... कभी कभी स्पर्श भी भाषा बन जाती है... मौन मुखर हो जाता है...। धीरे धीरे मेडम शांत होने लगी...।
आखें पोंछकर बोली... ’’सरला! अकेली विधवा मॉ इस उम्र में घर में गर्ल्स हॉस्टल चला कर कैसे जीवन काट रही है, इसकी चिन्ता नहीं है, बेटे बहू हो तकलीफ ना हो इसलिये कभी उनसे कुछ मांगा नहीं... लहू का रंग सफेद कैसे हो गया... कब हो गया?’’ सात समुंदर पार की दूरी मॉ बेटे के बीच की दूरी कब बन गई? संबंधों की उष्मा ठण्डे प्रदेश में पहुंच कर ठण्डी हो जाती है क्या? जन्मभूमि से दूरी जननी जनक से भी दूरी पैदा कर देती है, यह तो नहीं सुना था। मैं सोचने लगी जैन मेडम के हृदय में जमी, दुख की शिला बोलने पर ही पिघलेगी... तो सुनती रही...।
वे फिर बोलने लगीं ’इस तरह तो वे हजारों बूढे़ मां बाप जो अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिये उन्हे विदेश भेजकर खुश हाते है, गर्व से सिर ऊॅचा कर चलते है, अपने बुढ़ापे के प्रति निश्चिंत होते है, उन सबका गर्व, आशा, भरोसा सब बिखर जायेगा। आसन्न मृत्यु की पदचाप सुनते ये वृ़द्ध दम्पति अपने ही बच्चों की अर्थ लोलुपता की हुंकार सुनते, मृत्यु की कामना करते शेष जीवन बितायेंगे। चिन्ता इस बात की भी रहेगी कि जो पहले जायेगा वह चिता में जलने से पहले चिता में जलेगा कि जो पीछे छूट रहा है, वह किसके सहारे जियेगा? पीछे छूटने वाला साथी आगामी अकेलेपन से डरा सहमा, बिछुड़े साथी का शोक भी ठीक से मना नहीं पायेगा, आंसू बहे इसके पहले ही भविष्य की चिन्ता ऑखों को मरूस्थल बना देगी। रिश्तों की भावनाओं की, पारिवारिक जिम्मेदारियों की कैसी भयावह सच्चाई सामने आ रही है?
मैं सोचने लगी इस स्थिति में वृद्धाश्रमों की स्थापना कितना जरूरी हो गया है? समाज सेवी संस्थायें, हमारा प्रशासन इस समस्या को कब, कैसे सुलझायेगी। लंबी सांस खींचकर जैन मेडम ने कहा, ’’सरला! आज प्रतिभावान युवा वर्ग का पलायन तो हो रहा है, आस-पड़ोस, दूर ही दराज के क्षेत्रों में भी युवा वर्ग बेरोजगारी की मार से बचने विदेशों की ओर पलायन कर रहा है। इसके लिये किसे दोष दें... आर्थिक उदारीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावादी संस्कृति, कौन जिम्मेदार है...?
मैने कहा ’नहीं, जैन मेडम! सिर्फ भारतीय परिवार नहीं सारा संसार इस दर्द से अछूता नहीं बचेगा, संवेदनाहीन समाज में भावनाहीन किन्तु, हाड़ मांस के चलते फिरते रोबोट ही रह जायेंगे..। मानवीय मूल्यों का विनाश समस्त मानवजाति को अंधेरों की ओर खींच जे जायेगा... दुख इस बात का है।’
जैन मेडम ने कहा ’तुम ठीक कहती हो दर्द का यह सैलाब नाते रिश्ते परिवार सबको बहा ले जायेगा... तब क्या होगा?’
जैन मेडम को आराम करने को कहा, उनकी ऑखे मुंदने लगी... पर मेरी ऑखे खुली थी, सोचने लगी... नहीं... मेरे मन में असंख्य प्रश्न नागफनी की तरह उग आये थे, जिनकी चुभन मेरी चेतना को लहूलुहान कर रही थी। युवा वर्ग का इस तरह परदेशी होना... परिवार, समाज और देश के लिये कितना भयावह है, असंख्य असहाय जर्जर वृद्ध स्त्री पुरूषों वाला भारत तब किस दिशा में कैसे और कितनी प्रगति कर सकेगा...? मानती हॅू, लहू का रंग सफेद होने लगा है।
-सरला शर्मा, दुर्ग

वामपंथ और तीसरा विकल्प : विश्लेषण

यदि देश की भावी राजनीति को दिशा देने की जिम्मेदारी सचमुच निभानी है तो माकपा को अपनी असफलता के कारणों को दूर करना पड़ेगा। नेतृत्व परिवर्तन अपनी जगह, लेकिन जनता से अलगाव मिटाने के लिए जनता परिवार की तरह नकारात्मक नारा न देकर सकारात्मक कार्यक्रम पर चलकर आंदोलन खड़ा करना होगा संसदीय भटकाव से बचते हुए संसदीय सफलता का रास्ता जनांदोलनों से ही जाता है- कम्युनिस्टों की इस सीख से आम आदमी पार्टी ने फायदा उठाया तो माकपा क्यों नहीं उठा सकती..  -अजय तिवारी

इस समय विशाखापट्टनम में चल रही माकपा की 21वीं राष्ट्रीय कांग्रेस पर लोगों की नजर खासकर इसलिए है कि वहां सिर्फ नेतृत्व-परिवर्तन होगा या नीति-परिवर्तन भी? हाल ही में पुड्डूचेरी में संपन्न भाकपा के महाधिवेशन में लगभग वही समस्याएं थीं, जो माकपा के सामने हैं। कम्युनिस्ट पार्टयिों के सम्मेलनों से जनसाधारण में कोई आशा-उत्साह नहीं है। किंतु राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि अगले कुछ वर्षो में राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण किस दिशा में होगा और उसमें कम्युनिस्ट पार्टयिों की भूमिका कैसी और कितनी होगी। एक तो भाकपा की तरह माकपा भी ‘‘अपनी स्वतंत्र छवि पुनस्र्थापित’ करने के लिए प्रयत्नशील है; दूसरे क्षेत्रीय दलों, विशेषत: जनता परिवार के विलय से उत्पन्न माहौल में वह अपनी नई भूमिका की खोज में भी है। यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है कि अपनी ‘‘राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन’ की समीक्षा में माकपा ने स्वीकार किया है, ‘‘क्षेत्रीय पार्टयिां नवउदार नीतियां अंगीकार करती जा रही हैं।’ यह तय उत्तर और दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में समान रूप से लागू होता है। इतना ही नहीं, क्षेत्रीय पार्टियॉं विश्व-पूंजी के प्रति वही रुख अपनाती हैं जो कांग्रेस-भाजपा का है। वे ग्रामीण क्षेत्र के धनिकों और नवधनिकों का प्रतिनिधित्व भी करती हैं। इस स्थिति में उन्हें किसी कार्यक्रम के आधार पर जोड़ना तभी संभव है जब माकपा या वामपंथ का स्वतंत्र जनाधार हो जिसके बिना क्षेत्रीय पार्टियों के हित न सिद्ध होते हों। उक्त समीक्षा में माकपा ने यथार्थवादी होकर स्वीकार किया है कि उसका स्वतंत्र जनाधार कमजोर हुआ है। क्या यह कहना चाहिए कि क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में आंख खुली, लेकिन इतनी देर से कि भूलसुधार एक टेढ़ी खीर लगता है। हालांकि अपने अधिवेशन में माकपा ने वाममोर्चे की पार्टियों (भाकपा, फॉर्वड ब्लॉक, आरएसपी) के अलावा भाकपा-माले और एसयूसीआई को भी आमंत्रित किया। लेकिन इन सबके बीच किसी नीति या कार्यक्रम की साझेदारी शायद ही हो। इसलिए यह ‘‘वामपंथी’ मंच व्यापक जनतांत्रिक एकता का आधार बन सकेगा, इसमें संदेह है।

सच्चाई यह है कि 2005 में प्रकाश करात के महासचिव बनने के बाद माकपा की स्वतंत्र छवि का ह्रास हुआ है, गुटबाजी तेज हुई है, जहां जनाधार था वहां भी पार्टी सिकुड़ गई है। यही कारण है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में हिंदी क्षेत्र हो या दक्षिण भारत, कहीं भी उसका कोई कहने-सुनने लायक मोर्चा नहीं बना। उसके प्रयास को इतनी असफलता पहले कभी नहीं मिली थी। सबसे जरूरी है हिंदी क्षेत्र में पार्टी का अस्तित्व। प्रकाश करात के कार्यकाल में हिंदी क्षेत्र के प्रति विशेष उपेक्षा का परिचय मिला। 2005 के दिल्ली सम्मेलन से पहले ‘‘हिंदी क्षेत्र: तकलीफें और मुक्ति के रास्ते’ पहचानने के लिए माकपा ने एक हफ्ते का विचार-विमर्श रखा था। उसके अनुभवों से लाभ उठाने के बदले प्रकाश करात के नेतृत्व ने पूरे प्रसंग को ठंडे बस्ते में डाल दिया। हिंदी क्षेत्र की उपेक्षा का परिणाम है कि माकपा के पास राष्ट्रीय स्तर का कोई लोकप्रिय नेता नहीं है। हिंदी क्षेत्र में जनाधार के बिना वामपंथ राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बनने की बात सोच भी नहीं सकता। फिर भी, एक जिम्मेदार पार्टी के रूप में माकपा, भाजपा के विकल्प की संभावना खोज रही है। इसके लिए हिंदी क्षेत्र में एकीकृत जनता-परिवार से मोर्चा बनाने की जरूरत होगी। खुद आगामी महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा है कि ऐसा मोर्चा बनाने की संभावना खोजी जाएगी। लेकिन अब तक का अनुभव बताता है कि अपनी स्वतंत्र ताकत के बिना वामपंथ या तो क्षेत्रीय निहित स्वार्थो का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टयिों का पिछलगुआ बनकर रह जाएगा या उसका जनाधार खिसककर क्षेत्रीय पार्टयिों में समा जाएगा। साथ ही, इस तरह के असंतुलित मोर्चे से आर्थिक नीति के मामले में वामपंथ और दक्षिणपंथ का अंतर धुंधला होता है और सांप्रदायिकता-विरोधी मंच जनता की नजर में सत्ताप्रेमी गठजोड़ बनकर रह जाता है। संयोग की बात नहीं है कि जनता परिवार के छह गुटों के एकीकरण का संदेश देते हुए लालू प्रसाद यादव ने केवल भाजपा को रोकने की बात कही, किसी सकारात्मक कार्यक्रम पर आधारित एकता का मुद्दा नहीं उठाया। जनता परिवार को बुनियादी और वास्तविक मुद्दों से विशेष सरोकार नहीं दिखाई देता। इससे पता चलता है कि यह एकीकरण किसी सार्थक उद्देश्य से न होकर केवल सत्ता के लिए है।

सच्चाई यह है कि जनता परिवार अधिकांशत: दगे कारतूसों की बारात है, जिसका आज की बदली हुई राजनीति से ज्यादा संबंध नहीं है। न सिर्फ राजनीति बदली है बल्कि राजनीति के प्रति लोगों का, विशेषत: युवाओं का रुख भी बदला है। अब भाजपा में भी आडवाणी नहीं, मोदी हृदय-सम्राट हैं। बाहर केजरीवाल युवाओं के आकर्षण हैं। इन समस्याओं पर विचार करना माकपा के लिए अत्यंत आवश्यक है। एक तो उसके अपने अस्तित्व और विकास के लिए, दूसरे देश की राजनीति में जनोन्मुख परिवर्तन के लिए। किंतु इसका आभास नहीं होता। 1978 में भाकपा की भटिंडा कांग्रेस ने आपातकाल के समर्थन और विरोध की बहस में समझौतावादी रुख अपनाया, 2015 में माकपा की विशाखापटट्नम कांग्रेस भी वही कर रही है-करात की मान्यता है कि अब तक की राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन गलत है, येचुरी की राय है कि नीति सही है, उसका क्रियान्वयन दोषपूर्ण है। कांग्रेस में मंजूरी के लिए नेतृत्व की ओर से पेश दस्तावेज में दोनों का मिश्रण है। उल्लेखनीय है कि 10वीं कांग्रेस में माकपा ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया था, ‘‘मजदूर वर्ग और उसकी पार्टी की स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियां तथा उनका लगातार मजबूत होते जाना, वामपंथी एवं जनवादी मोर्चे के गठन के लिए जरूरी है।’ तब से अब तक माकपा इसी नीति पर चलती आई है। करात से पहले, 2004 के चुनाव में, माकपा और वामपंथ अपने सर्वोच्च शिखर पर थे। तब यह नीति सही थी। करात के नेतृत्व में विकास कर के पार्टी 55 सांसदों से 12 पर आ गई। अब यह नीति गलत हो गई। इस दौरान गुटबाजी के कारण केरल की सरकार गई। गलत तत्वों के कारण बंगाल गया।

हिंदी प्रदेशों में जो थोड़ी-बहुत ताकत थी, वह केंद्रीय नेतृत्व के नकारात्मक रुख के कारण समाप्त हो गई। ऐसी हालत में कौन-सा मोर्चा बनेगा? 16वीं कांग्रेस (1998) में ‘‘तीसरे विकल्प’ का नारा दिया गया, जो कार्यक्रम-आधारित होगा। लेकिन 2005 में 18वीं कांग्रेस तक क्षेत्रीय ‘‘धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी पार्टियों’ को न्यूनतम कार्यक्रम पर एकजुट करने की मुश्किलें समझ में आ गई थीं। इस समझ के पहले ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोका जा चुका था जिसने इन पार्टियों से माकपा के अलगाव में बड़ी भूमिका निभाई। यदि देश की भावी राजनीति को दिशा देने की जिम्मेदारी सचमुच निभानी है तो माकपा को अपनी असफलता के कारणों को दूर करना पड़ेगा। नेतृत्व परिवर्तन अपनी जगह, लेकिन जनता से अलगाव मिटाने के लिए जनता परिवार की तरह नकारात्मक नारा न देकर सकारात्मक कार्यक्रम पर चलकर आंदोलन खड़ा करना होगा। संसदीय भटकाव से बचते हुए संसदीय सफलता का रास्ता जनांदोलनों से ही जाता है- कम्युनिस्टों की इस सीख से आम आदमी पार्टी ने फायदा उठाया तो माकपा क्यों नहीं उठा सकती!
-अजय तिवारी
 (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं) यह आलेख आज दिनांक 18.04.2015 के राष्‍ट्रीय सहारा में प्रकाशित है

कुछ जमीन से कुछ हवा से : रंगों और तूलिकाओं की दुनिया में तीन दिन

- विनोद साव


अतिथि चित्रकार अखिलेश के साथ लेखक.
भिलाई के चित्रकार हरि सेन ने फोन किया था कि ‘भिलाई में चित्रकला पर तीन दिनों का बढ़िया आयोजन है .. आप अपने विचारों के साथ आ जाइये.’ ऐसा कहते हुए उनके छत्तीसगढ़ी के चिर परिचित जुमले थे ‘भइगे कका.. जान दे कहाथे’. हरि सेन से मेरा परिचय १९९३ से है जब उन्होंने मेरे पहले व्यंग्य संग्रह ‘मेरा मध्य प्रदेशीय ह्रदय’ का मुखपृष्ठ बनाया था. लेकिन मुझे चित्रकारों के बीच में ‘लॉन्च’ किया है चित्रकार डी.एस.विद्यार्थी और सूक्ष्म कलाकार अंकुश देवांगन ने. मेरा मन शिल्पों, चित्रों और रंगों की दुनियां में शुरू से ही रमा रहा है. हाँ .. चित्रकारों की संगत देर से मिल रही है.

मैं हर शाम ऑफिस से निकलता और इन तूलिकाओं और उनके रंगों की दुनिया में जा समाता. पहली शाम सिविक सेंटर के नेहरु आर्ट गैलरी में थी जहाँ कला प्रेमी नेहरु को हार पहना कर चित्रकला प्रदर्शनी का उदघाटन किया गया. इस अवसर पर अनेक चित्रकारों व भिलाई के अधिकारियों कर्मचारियों के बीच इंदौर से आये प्रसिद्ध चित्रकार व लेखक अखिलेश उपस्थित थे. गोल गुम्बद वाली इस गैलरी में चित्रों को देखना एक अलहदा अनुभव होता है.

सभी चित्र आधुनिक कलाओं के यानी ‘माडर्न आर्ट’ के थे. तीन दिनों के इस चित्रमय आयोजन को स्वच्छता अभियान को समर्पित किया गया था. चित्रों में औद्योगिक विकास के साथ मिलने वाले प्रदूषण की ओर ध्यान आकर्षित किया गया था. अखिलेश के बनाये कुछ चित्रों में मशीनीकरण के बीच फंसे मनुष्य के द्वन्द को इस प्रकार दर्शाया गया था मानों वे भी मशीन के कल पुर्जे हो गए हों. एक अन्य चित्रकार ने धूल और कालिमा से अंटे एक पेड़ को दर्शाया था जो स्पंज आयरन फैक्टरी की देन थे. कुछ ताल तलैया थे जिनमे प्रदूषित जलों की वीभत्सता को दर्शाया गया था.


कैनवास पर चित्र बनाते हुए सुनीता वर्मा तथा अन्य चित्रकार
इस तीन दिवसीय आयोजन की एक बड़ी विशेषता यह थी कि कला पर विमर्श करने की कोशिश की गई थी. दूसरे दिन भिलाई क्लब में कला विमर्श पर गोष्ठी थी. भिलाई आर्ट क्लब के अध्यक्ष आर.के.मेराल ने बताया था कि ‘यह द्विपक्षीय सम्प्रेषण का विमर्श है जिसमें चित्र बनाने वाले और चित्रों को देखने वाले दोनों अपनी बातें कह सकेंगे. यह एक तरह से विमर्श में जन भागीदारी है.’ संचालन कर रहे सत्यवान नायक ने जब मुझे बोलने का अवसर दिया तब बातें इस तरह निकलीं कि ‘कला के किसी भी प्रति-रूप का सम्प्रेषण जितनी बड़ी चुनौती कला को देखने वाले के लिए है उससे बड़ी चुनौती यह कला का सृजन करने वाले के लिए है. और यह चुनौती सबसे अधिक माँडर्न आर्ट के लिए है.. यहाँ प्रदर्शित कलाओं की यह बड़ी विशेषता है कि वे हमारे कल कारखानों से बढते प्रदूषण को बता पा रही हैं. हमें सावधान कर पा रही हैं.’

१९३६ में बनी फिल्म ‘चार्ली इन माँडर्न टाइम्स’ में चार्ली चेप्लिन ने इस भोगवादी संस्कृति और उत्पादन की मारामारी के बीच मनुष्य को भी मशीन बना देने जैसे मालिकों के जघन्य कृत का खुलासा किया था. चैप्लिन को यह फिल्म बनाने की प्रेरणा महात्मा गाँधी से मिली थी.’

गोष्ठी के मुख्य वक्ता अखिलेश थे. कान में बाली पहने ऊंची कद काठी वाले अखिलेश केवल एक चित्रकार ही नहीं हैं एक अच्छे लेखक भी हैं. पिछले दिनों भिलाई के सार्वजनिक वाचनालय से उनकी एक किताब हासिल हुई थी ‘मकबूल’ नाम की जो मकबूल फ़िदा हुसैन पर लिखी गई है. अखिलेश इसमें लिखते हैं कि ‘आज भी कला महाविद्यालय में प्रवेश लेने वाले युवा मन में पहली छवि हुसैन की ही होती है. यह आलोक हुसैन अकेले दम पर फैलाते हैं, जिसमें कई साल बाद आने वाला युवा चित्रकार भी प्रकाशित होता है.’

आयोजन के तीसरे दिन ऐसे कई युवा चित्रकार प्रकाशित हो रहे थे और अपनी तूलिकाओं से आलोक फैला रहे थे उस सौ फुट लंबे सफ़ेद कैनवास पर. यह कैनवास नेहरु आर्ट गैलेरी के सामने फैलाया गया था जिसमें हरि सेन, सुनीता वर्मा, योगेन्द्र त्रिपाठी जैसे वरिष्ठ चित्रकारों के साथ अनेक युवा चित्रकार भी अपनी तूलिकायें लेकर जुट गए थे और रंगों की छटा बिखरा रहे थे. यह रंगों और चित्रों की एक अलग दुनियां थी जो अद्भुत और अविस्मणीय थी.




20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com


छत्तीसगढ़ का इतिहास, पुरातत्व और संस्कृति का साहित्य

दैनिक हरिभूमि से साभार
संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, छ.ग. शासन के सहयोग से दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति द्वारा विगत रविवार को होटल हिमालय पार्क, सुपेला, भिलाई में ‘छत्तीसगढ़ का इतिहास, पुरातत्व और संस्कृति का साहित्य’ विषय पर परिचर्चा रखी गई थी। इसमें अध्यक्षता कर रहे मुंगेली के कलेक्टर व इतिहासकार डॉ.संजय अलंग नें छत्तीसगढ़ के पुरावैभव एवं इतिहास पर लिखे गए साहित्य को विस्तार से बताते हुए कहा कि, अपने अतीत को जानने की उत्सुकता सभी को होती है। महाकोशल, दक्षिण कोशल व कोशल तदुपरांत छत्तीसगढ़ के निर्माण के एतिहासिक पहलुओं को उन्होंनें बहुत ही सरल व रोचक ढ़ंग से प्रस्तुत किया। छत्तीसगढ़ के गढ़ों की स्थापना व रियासतों एवं जमीदारियों के अस्तित्व में आने के संबंध में उन्होंनें तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि छत्तीसगढ़ में गढ़ का मतलब किला नहीं है।। उन्होंनें इतिहासपरक सजग मानसिकता व इतिहास में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी विश्लेशित किया। उन्होंनें अपनी किताब का उल्लेख करते हुए कहा कि राजाओं के बदले जनता का इतिहास लिखा जाना आवश्यक है। इतिहास सूतनूका को देवदासी लिख कर अपना इतिश्री कर लेती है और यही जब साहित्य में दर्ज होती है तब वहां उसका प्रेम भी प्रकट होता है। ऐसे समय में जब इतिहास गजेटियर को आधार मान कर लिखे जा रहे हों तो इतिहासों का इतिहास लिखा जाना चाहिए।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि इतिहासकार व बख्शी सृजन पीठ के अध्यक्ष डॉ. रमेंद्रनाथ मिश्र नें छत्तीसगढ़ के कालखण्डों पर लिखे गए इतिहास का क्रमिक उल्लेख किया एवं कहा कि साहित्य इतिहास के क्रम को आगे बढ़ाता है जो पीढ़ियों को अपने अतीत के संबंध में जानकारी देता है। इस सत्र के वक्ता पुरातत्व एवं संस्कृतिविद राहुल सिंह नें वाचिक परम्परा के रूप में पीढ़ियों से गाए जाने वाले लोक गाथाओं एवं लोक कथाओं में समाहित इतिहास का उल्लेख करते हुए बताया कि हमारे इन लोककथाओं से भी इतिहास को समझा जा सकता है एवं ये इतिहास लेखन के बहुत बड़े श्रोत हैं। नृत्त्रत्वशास्त्री अशोक तिवारी नें कहा कि पुरातत्व के उत्खनन से भोजन बनाने के बर्तन तो मिल सकते हैं, उनके निर्माण के काल भी हमें मिल सकता है किन्तु हमें उस काल में भोजन कैसे बनाया जाता था इसकी जानकारी नहीं मिल पाती। इसके लिए उन्होंनें अनुरोध किया कि हमें अपने क्षेत्रीय विशिष्‍ठ वस्तुओं व दैनिक उपयोग की वस्तुओं के प्रयोग के संबंध में लिखना चाहिए जो धीरे धीरे विलुप्ति के कगार पर हैं। ऐसा करके हम एवं पीढि़यॉं सरपट भागते वैज्ञानिक युग में अपने पारंपरिक वस्तुओं को जान समझ भी सकेंगें। डॉ.शिवाकांत बाजपेयी नें डमरू उत्खनन से प्राप्त पुराअवशेशों के संबंध में बतलाया एवं उत्खनन से प्राप्त जानकारी के अनुसार से छत्तीसगढ़ के इतिहास को लगभग डेढ़ हजार साल पुराना बताया।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए पुरातत्व वेत्ता एवं कवि शरद कोकाश नें विषय से संबंधित अनेक उदहरण प्रस्तुत करते हुए छत्तीसगढ़ के इतिहास एवं पुरातत्व के साहित्य का उल्लेख किया। कार्यक्रम मे दुर्ग भिलाई के साहित्यकार, पत्रकार एवं गणमान्य भारी संख्या में उपस्थित थे। कार्यक्रम में स्वागत भाषण दुर्ग जिला हिन्‍दी साहित्‍य समिति के अध्‍यक्ष डाॅ.संजय दानी नें दिया एवं आभार समाजसेवी एवं साहित्यप्रेमी संतोष गोलछा नें किया।

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

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