यह सौ फीसदी सत्य है कि गोष्ठी, लोकार्पण और पुरस्कार अब हिन्दी साहित्य में मात्र परम्परा निर्वाह के खेल हो गए है. पुरस्कार की माया बड़ी है, जब तक दरवाजें में दस्तक ना दे, छोटी लगती है. अभी के समय में देने वाले जामवंतों की भी बाढ आई है, हनुमान से आशीष पाने के लिए यह सबसे अच्छा माध्यम है.
लोकार्पण, समीक्षा गोष्ठी तो सदियों से पूर्वनिर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आयोजित किए जाते रहे हैं. अब पूर्वाग्रह से प्रेरित लोग युग सत्य को कायम रखने, फोन पर गोष्ठी की दिशा बदलने चीत करते हैं. मुक्त संचार साधनों के माध्यम से प्रतिभाओं का आकस्मिक विष्फोट हुआ है जिससे लोकार्पण के आयोजनों की बाढ़ आ गई है. इनमें से अधिकांश प्रतिभायें पारंपरिक मठों से दीक्षित नहीं होते. इसी कारण इनके अंगूठे को दान में प्राप्त कर लेने की चेष्टा बार बार इनके संपर्क में आने वाला हर द्रोण करता है. इनमें से कुछ, द्रोणों को धता बताते हुए कृतियों का संधान करते हैं. देखते ही देखते 'राजीव रंजन प्रसाद' जैसे अदना भूमिपुत्र के उपन्यास का एक साल में ही चार चार संस्करण निकल जाते हैं. .. और हम हमारे प्रदेश के होने के बावजूद हम उसे नहीं जानते. गोष्ठी होगी तभी तो जानेंगें ना.
समय के साथ ही, 'हिन्दी साहित्य' की परिभाषा भी बदली है. लोग पतनशील साहित्य तक लिख रहे हैं किन्तु साहित्य का पुछल्ला पतनशील का पीछा नहीं छोड़ रही है. साहित्य की विडंबना देखिए कि आदरणीय पतिराम जी साव जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों के द्वारा सिंचित, दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति जो 1928 से अस्तित्व में है, का मैं सचिव मनोनीत कर लिया जाता हूॅं. मैं, जिसे साहित्य का क ख ग भी मालूम नहीं. तथाकथित साहित्यकार चुनाव के भेड चाल में हाथ उठा लेने के बाद, अब एक दूसरे को फोन कर कर के पूछते हैं कि 'संजीव तिवारी' का साहित्य में अवदान क्या है. तो भईया, मेरे जैसे लोग बिना हींग फिटकरी के सबसे पहले चाहेंगें दो दो लाईन की तुकबंदी बनायें, डायरी में नोट करे और शीध्रातिशीध्र समिति की गोष्ठी आयोजित करे, गोष्ठी में कविता पाठ जरूर हो. इन्हीं स्थितियों से गोष्ठियों का यज्ञ मंडप अपवित्र होना आरंभ हुआ है.
इस पहलू के दूसरी तरफ, इंटरनेट में गोष्ठियों के लोकतंत्र नें कई प्रतिभाओं को सामने लाया जिसमें से एक गिरिराज भंडारी जी भी हैं जिन्होंनें पिछले दिनों एक आयोजन में साठ साल की उम्र में पहली बार माईक में, सार्वजनिक रूप से अपनी कविता पढ़ी. आप उनकी रचनायें उनके फेसबुक वाल वाल में पढ़ सकते हैं. हमें उनकी रचनाओं के संबंध में कोई मगलाचरण पढ़ने की भी आवश्यकता नहीं है. चित्र में नजर आ रहे भाई अरूण कुमार निगम जी, छत्तीसगढ़ (Chhattisgarhi) के वरिष्ठ जनकवि कोदुराम दलित जी के सुपुत्र हैं, गीत लिखते हैं. इन्होंनें इंटरनेट में नव कवियों के ठिकानों जैसे ओपन बुक व अन्य पोर्टलों में नव लेखन को लगातार प्रोत्साहित किया है. इन्होंनें छंद मुक्त लेखन के दौर में गीत और गीतिका को ना केवल प्रोत्साहन दिया है, बल्कि प्रशिक्षण भी दे रहे हैं.
यह सहीं है कि, इंटरनेट का लोकतंत्र पारंपरिक हिन्दी साहित्य के पत्र—पत्रिकाओं के तिलस्म को भी तोड़ देगा. उसके बाद इन पत्रिकाओं के फ्रेम में मुस्कुराते चेहरे भी बदलेंगें. किन्तु इंटरनेट के चटर पटर के बरस्क लेखन का कोई तोड़ नहीं होगा. कहानी लिखने के लिए आपको कहानी ही लिखना होगा और कविता के लिए कविता. कोई धाल मेल नहीं. पुरस्कारों के बावजूद, चुटकुले दीर्घजीवी नहीं होंगें और विनोद कुमार शुक्ल बिना पुरस्कारों के भी साहित्य में जीवंत रहेंगें.
@ संजीव तिवारी
@ संजीव तिवारी
सही बात पूछ रहे हैं तथाकथित साहित्यकार गण. आखिर आपने अपने ही खर्चे से दो-चार कविता संग्रह छपवा कर धांसू टाइप विमोचन तो करवाया ही नहीं है अब तक तो फिर आपका अवदान शून्य ही तो होगा ना? :)
जवाब देंहटाएंऔर हाँ, इस पोस्ट का शीर्षक ज्यादा ठीक यह होता -
हटाएंअब के कवि इन्फ्रारेड लाइट सम, कोउ न जाने कहं करे प्रकास!
बहुत ई सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंसाहित्य का संसार बहुत व्यापक और विविध - आयामों में जन्म लेता है और क्रीडायें करता रहता है , इस विशाल - संसार में सब का सब से परिचय नहीं हो पाता , चाह कर भी हम सभी साहित्य से परिचित भी नहीं हो पाते फिर भी इस बात का संतोष है कि आज भी ,साहित्यकारों और पाठकों में अच्छी रचनाओं की परख है , यही हमारे लिए परितोष का विषय है ।
जवाब देंहटाएंबढिया। बेबाक और बिन्दास लहजे में अपनी बात रखनी है आपने।
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