आयोजन : गंडई पंडरिया में साकेत साहित्य परिषद् सुरगी का पंद्रहवाँ सम्मान समारोह एवं वैचारिक संगोष्ठी सम्पन्न


हाना न केवल छत्तीसगढी भाषा की प्राण है अपितु यह इस भाषा का स्वभाव और श्रृँगार भी है : कुबेर


23 फरवरी 2014 को गंडई पंडरिया में साकेत साहित्य परिषद् सुरगी का पंद्रहवाँ सम्मान समारोह एवं वैचारिक संगोष्ठी सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रगतिशील विचारधारा के सुप्रसिद्ध समालोचक-साहित्यकार डॉ. गोरेलाल चंदेल (खैरागढ़) ने की। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध भाषाविद्, साहित्यकार व संपादक डॉ. विनय कुमार पाठक (बिलासपुर) एवं विशिष्ट अतिथि डॉ. जीवन यदु, डॉ. दादूलाल जोशी, डॉ. पीसीलाल यादव, डॉ माघीलाल यादव, आ. सरोज द्विवेदी, श्री हीरालाल अग्रवाल तथा डॉ. सन्तराम देशमुख थे। 'छत्तीसगढ़ी जनजीवन पर हाना का प्रभाव' विषय पर केन्द्रित संगोष्ठी के प्रारंभ में आधार वक्तव्य देते हुए परिषद् के संरक्षक कथाकार कुबेर ने कहा कि छत्तीसगढ़ी भाषा में मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों को 'हाना' कहा जाता है। हाना न केवल छत्तीसगढी भाषा की प्राण है अपितु यह इस भाषा का स्वभाव और श्रृँगार भी है। आम बोलचाल में छत्तीसगढ़ियों का कोई भी वाक्य हाना के बिना पूर्ण नहीं होता। कभी-कभी तो पूरी बात ही हानों के द्वारा कह दी जाती है। छत्तीसगढ़ी हाना लक्षणा के अलावा व्यंजना शब्द शक्ति से भी युक्त होती है। इसके अलावा लोकोक्तियों के रूप में प्रयुक्त हानों में अन्योक्ति अलंकार का भी समावेश होता है। एक उदाहरण देखिये - आगू के भंइसा पानी पीये, पाछू के ह चिखला चॉंटे। इसका आशय है, सामूहिक भोज के समय पीछे रह जाने वालों के लिए भोजन कम पड़ने की संभावना रहती है।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ. विनय पाठक ने कहा कि हाना पूर्णत: अपने परिवेश और जनजीवन पर आधारित होते हैं। एक ऊक्ति है - 'कानून अंधा होता है।' छत्तीसगढ़ में लोग कहते हैं - 'कानून होगे कनवा अउ भैरा होगे सरकार।' यह लोक की निरीक्षण-शक्ति से उत्पन्न ऊक्ति है, जो उनके भोगे गये यथार्थ से आती है और इसीलिए यह 'कानून अंधा होता है' जैसे बहुप्रचलित ऊक्ति से कहीं अधिक मारक और तथ्यपरक है। लोकमान्यता में कानून अंधा नहीं बल्कि काना होता है जिसकी खुली आँख निम्न वर्ग की ओर रहती है, उसे उसके छोटे-मोटे हर अपराध के लिए तुरंत दण्डित करती है परन्तु बंद आँख उच्च वर्ग की ओर रहती है, और उनके बड़े से बड़े अपराध को भी अनदेखा करने के आरोप से खुद को बचाती है। आजकल शोधार्थियों द्वारा शब्दकोश से किसी हाना का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद करके प्रस्तुत करने का गलत प्रचलन बढ़ रहा है। 'ऊँट के मुँह म जीरा' इसका उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में न तो ऊँट होते हैं और न ही जीरा। इस आशय का छत्तीसगढ़ी हाना है 'हाथी के पेट म सोहारी' साकेत साहित्य परिषद ने हाना का संकलन व इस पर संगोष्ठियों की शुरूआत कर सराहनीय कार्य किया है।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ. गोरेलाल चंदेल ने कहा कि हाना लोकभाषा और लोकजीवन के गाढ़े अनुभव से पैदा होते हैं। वस्तुतत्व को अतिशय प्रभाव से प्रस्तुत करने की कला ही हाना है। इसमें अनुभव और निरीक्षण, दोनों ही प्रभावी ढंग से परिलक्षित होते हैं। हाना में निश्चित ही व्यंजना होती है जिसके प्रभाव से यह अपने परिवेश से निकलकर वैश्विक रूप धारण कर लेता है। एक हाना है - 'कोढ़िया बइला रेंगे नहीं, रेंगही त मेड़ फोर।' यह हाना ग्राम्य परिवेश में जितना सार्थक है उतना ही आज के तथाकथित बाहुबलियों और महाशक्तियों की राष्ट्रीय और वैश्विक परिवेश के लिए भी सार्थक है।

हाना बनने की स्वाभाविक प्रक्रिया और शब्द शक्तियों के अंतर्संबंधों को हीरालाल अग्रवाल ने रोचक प्रसंगों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा; डॉक्टर जब मरीज से पूछता है - 'तोला कइसे लागत हे?' तब मरीज जवाब देता है - 'कइसे लागत हे।' डॉक्टर और मरीज के शब्द 'कइसे लागत हे' एक जैसे हैं, पर मरीज का जवाब, 'कइसे लागत हे' उसकी अभिव्यक्ति कौशल के कारण, नया अर्थ ग्रहण करके एक हाना बन जाता है; ठीक वैसे ही, जैसे - 'ऐसे-वैसे कैसे-कैसे हो गए, कैसे-कैसे, कैसे-कैसे हो गए।'

आचार्य सरोज द्विवेदी ने कहा कि यदि मैं कहूँ - 'एक रूपया चाँऊर' तो आपको इशारा समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी और आजकल 'पप्पू' और फेंकू' का क्या मतलब है, इसे भी आप बखूबी जानते हैं। हाना ऐसे ही बनते है। डॉ. जीवन यदु ने कहा कि हाना प्रथमत: भाषा का मामला है। इसमें देश, समाज और अर्थतंत्र के अभिप्राय निहित होते हैं। डॉ. दादूलाल जोशी ने कहा कि हाना में 'सेंस ऑफ ह्यूमर' होता है, इसीलिए हाना में कही गई बातों का लोग बुरा नहीं मानते हैं। यशवंत मेश्राम ने कहा कि हाना में 'हाँ' और '' अर्थात स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता दोनों निहित होते हैं। हाना की अर्थ-संप्रेषणीता और मारकता इन्हीं दोनों के समन्वित प्रभाव से आती है। प्रारंभ में डॉ. पीसीलाल यादव ने 'जिसकी लाठी उसकी भैंस''आँजत-आँजत कानी होगे' तथा 'पान म दरजा हे फेर हमर म नहीं', जैसे हानों की उत्पत्ति के संभावित प्रसंगों को रोचक कहानियों के द्वारा समझाया।

सम्मान की कड़ी में साहित्यकार श्री बी.डी.एल श्रीवास्तव, लोककलाकार-गायक श्री द्वारिका यादव (शिक्षक) तथा कवि-उद्घोषक श्री नन्द कुमार साहू (शिक्षक) को 2014 का साकेत सम्मान प्रदान किया गया। इस अवसर पर हाना पर केन्द्रित पत्रिका 'साकेत स्मारिका 2014' तथा कथाकार-संपादक सुरेश सर्वेद की छत्तीसगढ़ी कहानियों का संग्रह 'बनकैना' का विमोचन भी किया गया। 

हाना पर केन्द्रित इस महत्वपूर्ण संगोष्ठी के लिए सभी अतिथियों ने साकेत साहित्य परिषद् सुरगी के प्रयासों को सराहा जिसके माध्यम से इतनी गहन, महत्वपूर्ण व सार्थक परिचर्चा संभव हो सकी। इस संगोष्ठी में साकेत साहित्य परिषद के सदस्य व पदाधिकारियों के अलावा कथाकार-संपादक सुरेश सर्वेद, डॉ. सन्तराम देशमुख, डॉ. माघी लाल यादव, राजकमल सिंह राजपूत तथा बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन ओमप्रकाश साहू 'अंकुर' तथा आभार प्रदर्शन लखन लाल साहू 'लहर' ने किया।

6 टिप्‍पणियां:

  1. कुबेर भाई ! तैं हर मोर कहानी संग्रह " करगा " ल नइ पढे हस का ग ? काबर के तैं हर पढे रहिते तव ओकर ज़िक्र तैं हर ए आलेख म जरूर करते । सैकडो झन ल किताब बॉहटे हौं ग , फेर एक झन समीक्षा नइ लिखिन । ' करगा' म 32 ठन हाना ऊपर कहानी लिखे हावौं । मोर गज़ल संग्रह के नाव धरे हौं - " बूड मरय नहकौनी दय । " मोर ब्लॉग म सबो उपलब्ध हावय - shaakuntalam.blogspot.in

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    1. शकुन्तला बहिनी,
      सादर नमस्कार।
      बहिनी, सबले पहिली आप ल बहुत-बहुत बधाई कि आप ल बैंकाक म सम्मानित करे गिस। आपके अनुमान सही हे बहिनी, ’करगा’ ल मंय ह नइ पढ़ पाय हंव। आपके ब्लाग म पढ़े के कोशिश करहूँ। बहिनी, अच्छा होतिस, एकात प्रति बांचे होही ते ’विचार वीथी’ के पता म नइ त मोर स्कूल के पता ’शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, वार्ड 28, राजनांदगाँव, पिन 491441’ के पता म भेजे के कृपा करतेव; समीक्षा घला हो जातिस।
      बहिनी, मंय ह आपके ई मेल पता नइ जानंव या कि भुला गे हवंव, तेकरी सेती इहाँ लिखत हंव।
      आपके भइया
      कुबेर

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  2. सफ़ल संगोष्ठी बर गाड़ा गाड़ा बधई

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  3. समाचार ल पढ़ के बढ़ दुःख लाग गिस कि एक ठन सुघर संगोष्ठी मं नई जा पायेन। कोनो डहर ले खबर घलो नई पायेन। नई त काम बुता ल एक दिन बर छोड़ निच्चित जातेन। तभो ले सुघर लागत हे। हमर सियान मन तो रहिबे करीन हें। आयोजन खातिर आयोजक मन ला अब्बड़ बधई

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  4. समाचार ल पढ़ के बढ़ दुःख लाग गिस कि एक ठन सुघर संगोष्ठी मं नई जा पायेन। कोनो डहर ले खबर घलो नई पायेन। नई त काम बुता ल एक दिन बर छोड़ निच्चित जातेन। तभो ले सुघर लागत हे। हमर सियान मन तो रहिबे करीन हें। आयोजन खातिर आयोजक मन ला अब्बड़ बधई

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  5. डॉ. पीसीलाल यादव ने 'जिसकी लाठी उसकी भैंस', 'आँजत-आँजत कानी होगे' तथा 'पान म दरजा हे फेर हमर म नहीं', जैसे हानों की उत्पत्ति के संभावित प्रसंगों को रोचक कहानियों के द्वारा समझाया. इन हानों के पीछे की कथा को संग्रहित कर के कोई संकलन प्रकाशित किया जाना चाहिए. यह संकलन द्वैभाषिक हो यानी छतीसगढ़ी और हिंदी दोनों में हो. मैंने अभी अभी राजस्थान के लोक जीवन में प्रचलित हानों के पीछे की कथाओं का एक ऐसा ही संग्रह देखा है. साथ ही छत्तीसगढ़ी में लिखी जाने वाली हास्य व्यंग्य रचनाओं में इन हानों का जमकर प्रयोग होना चाहिए. हानो के प्रयोग से रचनाएँ सरस होती हैं. मुझे लगता है छत्तीसगढ़ी कर्णप्रिय बोली है और इसकी मूल प्रकृति में विनोद प्रियता है.

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