भिलाई के मित्र अमरनाथ यादव नें अपने फेसबुक वाल में सी.बी.एस.ई. चेयरमैन को एक पत्र लिखा है एवं सरकार व लालची स्कूल प्रबंधन के बीच पिस रहे पालक एवं बच्चों के संबंध में जानकारी प्रकाशित की है। इनकी चिंता जायज है, शिक्षा अब व्यवसाय हो गया है जिसमें लाभ अर्जन के तमाम तरह की बुराईयां सामने आ रही है। आईये पढ़ें, सोंचें और विरोध के स्वर मुखर करें।
अमर नें सी.बी.एस.ई. चेयरमैन को लिखे पत्र में कहा है कि सीबीएसई से संलग्न स्कूलों में स्कूल प्रबंधन द्वारा प्रकाशकों से सांठगांठ कर प्रत्येक स्कूल में अलग अलग किताबें पढ़ाई जा रही है, और अनुचित लाभ अर्जित किया जा रहा है। क्लास 1-2 के बच्चों को शिव खेड़ा की किताबें खरीदवाई जा रही है। जो बच्चे ठीक से हिंदी, अंग्रेजी पड़ना नहीं जानते, उन्हें शिव खेड़ा का प्रबंधन कितना समझ में आयेगा और क्या यह उनके लिए रूचिकर होगा। क्या इसकी जगह पांचजन्य या समकक्ष भारतीय शिक्षोपदेशक किताब ज्यादा ऊचित नहीं होती। प्रबंधन जितनी वर्क बुक खरीदवाता है, उनमें से अधिकतर में आधे से एक चौथाई की पढ़ाई ही नहीं होती। बेवजह बच्चों पर कोर्स ज्यादा होने का दबाव होता है। इनके सांठगांठ की वजह से पालकों पर अतिरिक्त आर्थिक भार पड़ रहा है साथ ही एक ही दुकान पर ऊपलब्ध होने की वजह से दो-दो घण्टे लाईन लगाकर किताबें खरीदने को पालक मजबूर हैं।
उन्होंनें आगे चेयरमैन से सवाल किया है कि क्या कोई ऐसा नियम है कि सारे स्कूल एक ही प्रकार की किताबों से पढ़ाई करवाये, क्योंकि जब सीबीएसई परीक्षा लेता है तो अखिल भारतीय स्तर पर समान रूप से होना चाहिए, और यदि ऐसा नहीं है तो क्यों नहीं किया जा रहा है। क्या आपके संस्थान द्वारा स्कूलों को मान्यता प्रदान करते समय इस प्रकार के दिशा निर्देश जारी किए जाते हैं, जिनका पालन अनिवार्य रूप से होना चाहिए।
पत्र के अंत वे चेयरमैन से निवेदन करते हैं कि कृपया कुछ कड़े कदम उठाए, ताकि मुश्किल हालातों से जूझते हुए पालकों को राहत मिले। क्योंकि सरकारी स्कूलों की हालत को देखते हुए प्राईवेट स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के लिए पालक मजबूर हैं।
अपने वाल ‘मदमस्त सरकार और लालची स्कूल प्रबंधन के बीच पिस रहे हैं पालक एवं बच्चे’ में वे बिन्दुमवार तथ्ये प्रस्तुकत करते हैं जिसमें वे लिखते हैं कि नया शिक्षा सत्र शुरू हो गया, और पिछले वर्षो की भांति पालकों को फिर बच्चों की सारी तैयारियां करनी पड़ी। मसलन लाईन में लगकर किताबें खरीदने से लेकर यूनिफॉर्म, जुते खरीदने तक। पालको को इस साल उम्मीद थी कि सरकार कोई गाइडलाइंस जारी करेगी, जिससे पालक राहत महसूस करेंगे। पर सरकार को कहां फुर्सत कि वह इस मामले में गंभीरता से विचार करे।
आगे वे प्रश्न रखते हैं कि पिछले साल भर छत्तीसगढ़ में पालको ने स्कूलों के खिलाफ़ आंदोलन किया कि किस तरह पालको से प्रतिवर्ष एडमिशन फीस ली जाती है। किस तरह पालक स्कूल से किताब -काफी खरीदने को मजबूर हैं। कैसे 10-11 माह के बदले पालकों से पुरे साल की फीस और परिवहन शुल्क लिया जाता है। एक्जाम फीस के लिए सैकड़ों रूपये अलग से वसुले जाते हैं। इस तरह के कई अन्य परेशानीयों से तंग आकर पालकों ने आंदोलन किया, धरना प्रदर्शन से लेकर चिट्ठी पत्री के कई दौर चले, प्रशासन ने आश्वासन भी दिया, पर अंततः हुआ कुछ नहीं। पालक फिर छला गया, और मजबुरन उसे स्कूल की ज्यादती सहनी पडी़।
दुर्ग में तत्कालीन कलेक्टर रीना बाबा साहब कंगाले और जिला शिक्षा अधिकारी बी.एल. कुर्रे ने कुछ साहस दिखाया और सभी निजी स्कूलों की जांच करवाई तथा उनके खाते -बही का अंकेक्षण किया। लगभग सभी स्कूलों में भारी अनियमितता पायी गयी। कलेक्टर ने कार्रवाही करते हुए नियमानुसार वसुली गई बिना हिसाब कीअतिरिक्त राशि का दस गुना जुर्माना शहर के दो प्रतिष्ठित स्कूलों पर लगाया, जो लगभग एक करोड़ से भी अधिक था। पर जैसा कि होता आया है जैसे ही दो स्कूलों पर जुर्माना हुआ, प्रदेश के सभी निजी स्कूल एक हो गए और प्राइवेट स्कूल एशोसियेशन बना लिया। और सर्व प्रथम दोनों अधिकारियों का तबादला करवाया और कानून की सकरी गलियों का फायदा उठाते हुए कोर्ट से आदेश भी रद्द करवा लिया। इस बात की काफ़ी चर्चा थी कि कम ही सही न्यायालय कुछ न कुछ जुर्माना तो अवश्य लगाएगा जिससे स्कूल प्रबंधन कुछ सबक लेगे और पालको को कुछ राहत मिलेगी। पर हुआ इसके बिल्कुल विपरीत, प्रबंधन जीत गया।
इसी बीच पालक संघ का आंदोलन भी निजी स्वार्थ की भेंट चढ़ गया और प्रमुख पदाधिकारी ने स्कूलों से अपना अनुचित लाभ अर्जित किया और आंदोलन की बलि चढ़ा दी। इसका फायदा उठाते हुए निजी स्कूलों ने इस वर्ष भी अपनी मनमानी जारी रखी और एक मुश्त एडमिशन राशि को फीस के साथ किश्तो में वसुल रहे हैं। जब इनकी मर्जी होती है यूनिफॉर्म बदल देते हैं। ब्लेजर का कलर बदल दिया जाता है, इस वर्ष तो कुछ स्कूलों ने हद कर दी, बच्चों के जुते बदल दिए वह भी महंगे ब्रांडेड एडिडास और लिबर्टी कम्पनी के। जो काम 400-500 में हो जाता था, उसके लिए अब पालकों को हजारों रूपये देने पड़ रहे हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि ये लोग कहा -कहा से पैसे वसूलना चाहते है। और इनके लालच की कोई सीमा है कि नही। किताब वालो से सैटिंग, यूनिफॉर्म वाले से सैटिंग, जुते वाले से सैटिंग, मतलब जहा तक वसूल सको वसूल लो।
सरकारी महकमे से पालक क्या उम्मीद करे उन्हें तो स्टेशनरी खरीदने, टेबल -कुर्सी खरीदने और ट्रांसफर मे घोटाला करने से फुर्सत मिले तो कुछ करे।और फिर स्कूल प्रबंधन भी समय समय पर उनका ख्याल रखता है। पालकों से उन्हें क्या मिलेगा। खानापूर्ति के लिए नोडल अधिकारी भी मौजूद है और शिक्षक पालक समिति भी, पर सब स्कूल प्रबंधन पर ही मेहरबान है। दुर्ग शहर के नामी स्कूलों में से एक मे पालक समिति मे उन पालकों को रखा जाता है जिनके बच्चे क्लास में मेरिट में आते हैं। दुसरे नामी स्कूल में वह पालक है जो प्रबंधन के परिवार के सदस्यों के नजदीकी है या उनसे व्यवसायिक रूप से भी जुड़े हुए हैं। स्कूलों की कमाई का आलम यह है कि बिना लाभ - हानि वाले संस्थान होने के बावजूद इनके सदस्यों की विलासिता देखते ही बनती है, मसलन भव्य बग्ंले, लक्जरी सिडान कारे और ठाठ - बाठ के तो कहने ही क्या, समान्य आदमी की तो आंखें ही चौंधिया जाती है देखकर। हद तो यह है कि कुछ एक स्कूल तो परिवार की प्राईवेट लिमिटेड कम्पनी की तरह संचालित हो रहे हैं। परिवार का सदस्य ही डायरेक्टर हैं, प्रिसिंपल है, वाईस प्रिंसिपल है, एडमिनिस्टे्टर है, हेड एकाउंटेंट है, टा्ंसपोर्ट इंचार्ज हैं, और बाकी बचे हुए पदो पर आसीन हैं। घर पर रहने वाली महिला सदस्यों को भी स्कूल की फैकल्टी बताकर मोटी रकम तनख्वाह स्वरूप ली जाती है। और इन सबका बोझ कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पालको को ही उठाना पड़ता है।
इसके इतर भी स्कूलों को कई तरह से आर्थिक फायदा होता है जैसे छुट्टियों के दौरान एक - एक दिन में 50000 रूपये तक का डीजल बचता है स्कूल बसों का। ऐसा नही है कि सरकार में बैठे नुमाइंदो को कुछ मालूम नहीं है, वो सब कुछ जानबूझकर भी कुछ करना नहीं चाहते, क्योंकि सब की मुट्ठी गरम होती है, मंत्री से लेकर संतरी तक। पर सरकार ये भुल जाती है कि उन्हें उस कुर्सी पर बैठाने वाली जनता कहीं न कहीं पालक है। अपनी सत्ता के मद में सरकार इतनी मगरूर हो गयी है कि उसे पालकों की तकलीफें महसूस नहीँ हो रही है और न ही उनका दर्द दिखाई दे रहा है।
शुरूआत में मिडीया ने पालकों को सहयोग किया और समाचार पत्रों में उचित स्थान दिया। पर बाद में उन्होंने भी धीरे धीरे किनारा कर लिया। उनकी भी मजबुरी थी, क्योंकि इन स्कूलों का प्रचार - प्रसार का सालाना भारी-भरकम बजट होता है, वो इन्हें नाराज कर कैसे जाने देते। पालक अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए स्कूलों की उचित-अनुचित मांग मानने को मजबूर हैं। क्योंकि सरकारी स्कूलों का हाल और उनके पढाई का स्तर तो सर्वविदित है।
अमर नाथ यादव जी के फेसबुक वाल के आधार पर
निजी शालायें मनमानी करने पर उतर आई हैं । पालक दीन-हींन हो चुका है । निजी शालाओं में न केवल पाठ्यक्रम अलग-अलग हैं अपितु स्कूल - ड्रेस भी अलग- अलग हैं । इन शालाओं में प्रवेश दुर्लभ होता जा रहा है और कभी बच्चा स्कूल बदलना भी चाहे तो उसे एक तो प्रवेश पाने में भारी कठिनाई होती है और किसी तरह प्रवेश मिल भी गया तो , किताबों और स्कूल-ड्रेस में ,पालक को हज़ारों रुपये और खर्च करने पडते हैं । मुझे ऐसा लगता है कि प्रशासन को इस पर संज्ञान लेना चाहिए और ऐसे स्कूल्स पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंआज की इश्कुलो मे सिकच्छा का व्यापारी करण उतना ख़तरनाक नही है,जितना की बच्चो मे भेद भाव का बीजारोपण करने मे अपनी ख़तरनाक भूमिका मे सामने आया है,अब बच्चो की मानसिकता मे भारी परिवर्तन हो रहा है,ग़रीब से ग़रीब परिवार अपने बच्चो को निजी इश्कुलो मे पढ़ाना चाहते है,मह्न्गे गैर ज़रूरी ड्रेस,ब्रॅंडेड जूते,रद्दी टाई,अलग अलग इश्कुलो के अलग अलग पाठ्य क्रम बच्चो के साथ साथ पालको को भी भ्रस्त कर रहा है,इन इश्कुलो मे बच्चे के मा बाप का इंटरवू लिया जाता है,जो मनु इस्मृति की इस बात को जिंदा रखे हुए है की सुद्र के कान मे ब्रह्म वाक्य नही जाना छहिये,आज साशन तंत्र अपने निजी हितोकेचलते लाचार दिखता है,ऐसे मे एकमात्र हल है,पूरे देस मे समान सिकच्छा प्रणाली बेरहमी से लागू किया जाए,
जवाब देंहटाएंसब अपने बच्चों को पढ़ाना चाह रहे हैं, यही कारण बन जाता है मनमानी का।
जवाब देंहटाएंsarakari schoolo se apane bachcho ko hata kar niji me jane ki apa logo ki vivashata kyon?>< sawal yahi hai ki jab aap niji ko chune to usake kriyakalap aur niyam kanun ke bandhano me swayam hokar gaye<.aaj aap mujhe niji schoolo ke hit chintak samajh rahe honmge <.jo ki aksharasha galat hai mera to ye manan hai ki jab aap apane bachcho ko niji schoolo me bheja to aap logo ki soch kale angrejo ke saman apane bachcho ko garibo ke upar raj karane vala banane bane ki soch rahi hogi tabhi to jo sarakari hindi madhyam ke school the unhe aaj hey drishti se dekha ja rha he <.aur uname shikshak ke sthan par shiksha karmi ki niukti ho rahi he ? pryas yah kiya jana tha ki shiksha muft aur sarvagin vikas yukt ho par ye na kiya jakar ek rekha khich di gayi aachchi shiksha ke leye niji schoolo ka nam badhaya gay jo arambh me samaj sewa ka dambh bahrkar sarakari jamin hathiya liye jisame jane anajane rajanitik paksh vale aur shiksha mafiya ghus kar angrejo ke chal ya kahe bahurashtriy campaniyo ke niti ko apana kar ab pure vasuli matalab palako ke jeb puri tarah dhili karen par aa gaye to sarakari schoolo ke nimv ko majabut karane ka andolan ho niji shetr ke har sadhan ka upayog band ho ><
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