माइक्रो कविता और दसवाँ रस

क्या आपका दिन काटे नहीं कटता? तो समय बिताने के लिये फल्ली खाने या अंत्याक्षरी खेलने की जरूरत नहीं है। मेरी सलाह मानिये और कवि बन जाइये। टाइम पास का इससे बढ़िया तरीका और कुछ नहीं हो सकता। फिर भी समय बच जाय तो फिकर मत कीजिये। बाकी समय एक अदद् श्रोता ढ़ूँढ़ने में कट जायेगा।

क्या कहा आपने? कविता लिखना नहीं आता। कोई बात नहीं, तरीका मैं बताता हूँ आपको। तरीका नहीं, गुरू-मंत्र समझिये इसे आप।

आजकल कवि बनने के लिये वियोगी या योगी होने का कोई बंधन नहीं है और न ही पत्नी या प्रेमिका से दुत्कारे जाने की आवश्यकता ही। बस नीचे बताये जा रहे गुरू-मंत्रों पर अमल कीजिये और एक महान् कवि बनने की दिशा में अपने दोनों भारी-भरकम पाँव हल्के मन से, प्रफुल्ल चित्त होकर बढ़ाते चले चलिये। अखबारों में अपनी कविता, मय छाया चित्र देख-देख कर महान् कवियों के स्वप्न लोक में विचरण कीजिये।

महामंत्र क्रमांक एक - इस महामंत्र का नाम है, ’हर्रा लगे न फिटकिरी, रंग चढ़े सुनहरी’। इसके अनुसार अखबार का ताजा अंक हाथ लगते ही आप सारे लेखों और संपादकीय पर एक सरसरी निगाह डालिये। प्रासंगिक, सामयिक और ज्वलंत समस्याओं पर छपे लेखों को रेखांकित कीजिये। इनमें से किसी एक का चयन कीजिये। (यदि ताजा अखबार न मिले या इससे काम न बने तब भी आप निराश मत होइये। अपने आस-पास, घर में, बाहर में, कूड़े की ढेर में, कहीं भी निगाह दौडा़इये; अखबार का कोई न कोई फटा-पुराना टुकड़ा मिल ही जायेगा, इसमें काम की कोई न कोई चीज जरूर हाथ लग जाएगी।) बस अपना काम बन गया समझो। अब सिर्फ इतना कीजिये, उस लेख में से एक-दो पंक्तियाँ चुनिये और उनके शब्दों के क्रम में उचित फेर-बदल करते हुए उसे कविता की शक्ल में ढाल लीजिये। बन गई कविता। एक उदाहरण देखिये -

’..........अब राम मंदिर निर्माण का नारा एक जुनून मात्र रह गया है। यह जन-मानस को उद्वेलित तो कर सकता है लेकिन जनता को पहले रोजी-रोटी की जरूरत है। आखिर रोटी के लिए संघर्ष कर रही जनता के बीच राम मंदिर का जुमला कब तक चलता रहेगा?’ ( 5.7.92 को रायपुर से प्रकाशित एक दैनिक के संपादकीय पृष्ठ का टुकड़ा जिस पर यह लेख छपा था और, जो मुझे होटल के बाहर पड़ा मिला था।)

अकल का घोड़ा तेज कीजिये और तैयार है कविता, कुछ इस प्रकार -

नारा
मंदिर निर्माण का
रह गया है अब
जुनून मात्र
जन-मानस को
कर सकता है, उद्वेलित यह
लेकिन
जरूरत है
रोजी रोटी की
जनता को पहले;
आखिर
भूखी जनता के बीच
चलता रहेगा कब तक
यह जुमला।
0
(नीचे अपना अच्छा सा एक साहित्यिक नाम टांक दीजिये। जैसे - नमस्ते जी ’शुक्रिया’)

महामंत्र क्रमांक दो -इसका शीर्षक है, ’बूझ सको तो बूझो, नहीं किसी से पूछो’। वर्तमान युग का यह सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रचलित मंत्र है। आपको अधिक माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है। माथापच्ची करे आपके दुश्मन। आपके खाली दिमाग में जितने भी शैतानी विचार आते होंगे, उन्हें ज्यों का त्यों कागज पर उतार दीजिये। इसे पढ़िये और समझने की कोशिश कीजिये। समझ में आ रहे सारे नामाकूल वाक्यों को तुरंत निकाल बाहर कीजिये। ध्यान रखिये, आप साहित्य लिख रहे हैं, मजाक नहीं कर रहे हैं। बचे हुए असमझनीय वाक्यों को समझने का निरर्थक प्रयास बिलकुल मत कीजिये। समझने और समझाने वाले बहुत मिल जायेंगे। आप तो बस लिखते जाइये। आपकी कविता कुछ इस प्रकार होनी चाहिये -

आजकल चल
अदल-बदल
दल-दल
दलदल-दलदल
चल-चल
कलकल-कलकल चल
चले चल
एकला चल
सबल चल
सदल चल
अदल-बदल चल।
0
नमस्ते जी ’शुक्रिया’

महामंत्र क्रमांक तीन - इसे ’माइक्रो कविता’ के नाम से जाना जाता है। माइक्रोचिप्स से अभिप्रेरित होकर यह अस्तित्व में आई है। यदि माइक्रोचिप्स इलेक्ट्रानिक्स की दुनिया का अनोखा आविष्कार है, तो माइक्रो कविता भी साहित्य की दुनिया का महानतम् आविष्कार है। आलस्य, प्रयत्न लाघव, और गिलास में गागर नामक तीन अति- आधुनिक आवश्यकताएँ इसकी जननी हैं। महामंत्र क्रमांक दो का यह लघु संस्करण है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है -
1
हल्दी
मेंहदी
चल दी।
( एक मित्र महोदय की डायरी से)

2
लेता
देता
नेता

3
खिलाना
पिलाना
बनाना।

4
वश
बस
बस-बस।
0
नमस्ते जी शुक्रिया

जिस प्रकार माइक्रोचिप्स के उपयोग से इलेक्ट्रानिक उपकरणों का आकार छोटा हो गया है, पाकिट साइज कंप्यूटर बनने लगे हैं, उसी प्रकार माइक्रो कविता के प्रयोग से अब छोटे-छोटे अर्थात् माइक्रोग्रंथ बनना संभव हो सकेगा। उसी के साथ बीते जमाने के भारी भरकम ग्रंथों को भी छोटे संस्करणों में लाना संभव हो सकेगा। इससे पाठकों के समय और श्रम की बचत होगी। उनके मानसिक प्रदूषण का निवारण भी होगा। छपाई में कागज कम लगने से वनस्पत्ति की कम हानि होगी, और पर्यावरण प्रदूषण निवारण में मदद मिलेगी। इसके अलावा भी इसके अनेक लाभ हैं। कुछ पुरातन पंथी तथाकथित साहित्यकार इसे कविता मानने से इन्कार करते हैं। परंतु मेरी समझ में एकमात्र यही आज के इलेक्ट्रानिक युग की इलेक्ट्रानिक कविता है। जाहिर है, इसे समझने के लिए भी इलेक्ट्रानिक बुद्धि की आवश्यकता होती है। इस मामले में हम बहुत अच्छी स्थिति में हैं। हमारे विश्वविद्यालय हर वर्ष अनेक इलेक्ट्रानिक बुद्धियों को डॉक्टरेट की उपाधि देने के काम में लगी हुई है। अतः माइक्रो कविता को समझने और समझाने वालों की हमारे देश में न अभी कोई कमी है, और न ही भविष्य में कभी कोई कमी होगी।

माइक्रो कविताएँ बड़ी विलक्षण होती हैं। ये ’अतिरंजना’ शब्द शक्ति से युक्त होती हैं। इनमें ’बाल की खाल’ नामक एक नये क्रांतिकारी अलंकार का समावेश होता है। इन कविताओं में ’बौखलाहट’ नामक रस होता है, जिसका स्थायी भाव ’माथापच्ची’ है। निर्लज्जता, बेहयाई, व्यभिचारकर्म करके गर्व करना, चोरी और सीनाजोरी आदि इनके संचारी या व्यभिचारी भाव हैं। इन कविताओं को पढ़ते वक्त ’माथा पीटना’, ’बाल नोचना’ तथा ’छाती पीटाना’ उबासी आना, जम्हाई आना, सुनते वक्त श्रोताओं द्वारा एक-दूसरे के कान में ऊँगली डालना, चेहरे का रंग उड़ना आदि भावों का प्रगटीकरण इस रस के अनुभाव हैं।

आज के हमारे अतिआधुनिक अतिप्रगतिशील अर्थात उत्तरआधुनिक युग के नये मानवीय मूल्य, यथा - अनैतिकता, दुराचार, भ्रष्टाचार, असत्य भाषण तथा इन मूल्यों को धारण करने वाले राजपुरूष, उनके कर्मचारी और व्यापारीगण उत्तरधुनिकता के रंग में रंगी हुई युवापीढ़ी आदि इस रस के आलंबन विभाव हैं। ऊबड़-खाबड़ तुकांतों वाली, न्यूनवस्त्रधारित्री व अतिउदात्त विचारों वाली आधुनिक रमणी के समान, पारंपरिक अलंकारों से विहीन छंद-विधान इसके ’उद्दीपन विभाव’ हैं। इन कविताओं में पाई जाने वाली ’बौखलाहट’ नामक रस साहित्य का दसवाँ रस है।

महामंत्र क्रमांक चार का नाम है - ’शब्द हार’। चाहें तो इसे आप शब्दाहार भी कह सकते हैं। जैसा पुष्पहार, वैसा ही शब्द हार। पुष्पहार बनाने के लिये ताजे फूलों की जरूरत पड़ती है। इन्हें बागों से चुनने पड़ते हैं। शब्द हार बनाने के लिये शब्दों की जरूरत पड़ती है। इन्हें शब्द कोश से चुनने पड़ते हैं। शब्द चयन में विशेष ध्यान रखने की जरूरत पड़ती है, जैसे -

वनस्पत्तियों में कैक्टस, गुलमोहर, गुलाब, पलास, गुलमेंहदी आदि। कुछ समाजशास्त्रीय शब्द जैसे - अमीरी, गरीबी, सर्वहारा, समाज, मानवता, आदि। कुछ नैतिकता (या अनैतिकता) के शब्द जैसे - ईमान, बेईमान, सदाचार, भ्रष्टाचार आदि। कुछ राजनीतिक शब्द जैसे - समाजवाद, पूंजीवाद आदि। मौसम संबंधी शब्द जैसे - पावस, शिशिर आदि सेनापति के जमाने में अधिक प्रचलित थे, अब कुछ पुराने पड़ गए हैं, फिर भी इनका उपयोग किया जा सकता है। बीच-बीच में ठेठ देशज शब्दों का उपयोग करते हुए इन शब्दों को अपने अकल के सिंथेटिक धागे में पिरो दीजिये। लो बन गई कविता।

महामंत्र क्रमांक पाँच में ’हँसगुल्ले’ कविता विराजमान हैं। इनका उपयोग कवि सम्मेलनों में होता है। कुछ चुटकुले याद कीजिये और महामंत्र क्रमांक एक की मदद से हँसगुल्ले कविता तैयार कर लीजिये। ऐसा करते वक्त श्लीलता का पालन करना कविकर्म के मार्ग में बाधक होती है अतः आप इसका परित्याग कर दे तो अच्छा होगा। जैसे -

माधुरी मेम का स्कूल में बड़ा जलवा है
छात्राओं के लिये आदर्श
छात्रों के लिये प्रादर्श और
सह-अध्यापको के लिये गाजर का हलवा हैं।

सामान्य ज्ञान परीक्षण के दिन
विद्यार्थियों से उनहोंने एक जटिल सवाल पूछा -

’बच्चों! अब मैं सीधे अपने मकसद् पे आ रही हूँ
तुम लोगों के बीच एक सामयिक प्रश्न उठा रही हूँ
समोसा और कचैरी में क्या अंतर होता है?
अपने अकल का घोड़ा दौड़ाइये
इस सवाल का जवाब बताइये
सही जवाब देकर इनाम में यह चाॅकलेट पाइये।’

एक लड़के ने कहा -

’मेम!
समोसे और कचोरी की बात कर दी आपने
अब चाॅकलेट कौन खायेगा
रखे रहिये, घर में अंकल के काम अयेगा।
पर पहले दोनों का सेंपल दिखाइये
सबके हाथों में एक-एक पकड़ाइये
अंतर तभी तो समक्ष में आयेगा।
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यदि आप किसी के प्यार में गोता खा रहे हों और नाकामी की वजह से निराशा के अथाह समुद्र में डूब-उतरा रहे हों तो फिर क्या कहने। आपकी हर आह और कराह स्वंय में एक महान् कविता होगी। यह छठवें प्रकार की कविता होती है। उदाहरणार्थ -

अरि!
ओ मेरी नींद हराम करने वाली सूर्यमुखी
तुम तो संपादक की तरह रूठी हो
किस्मत की तरह झूठी हो
अच्छा हुआ, जो अपने बाप के घर जाकर बैठी हो?
तेरे जाने से मुझे कितना फायदा हुआ है
तू क्या जानेगी री कलमुही
रात भर अब चैन से जगता हूँ
संुबह तक एक नया महाकाव्य रचता हूँ।
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इस प्रकार किसी भी बंधन को अस्वीकार करते हुए भारीभरकम और आकर्षक शब्दों से युक्त, सामान्यजन की समझ में न आने वाली और समझ में आ जाये तो उबकाई लाने वाली, वाक्य रचना आधुनिक कविता कहलाती है। ऐसी कविता लिखकर आप अपने युग के महान् कवियों में जरूर शुमार हो जऐंगे।
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कुबेर


16 जून 1956 को जन्‍में कुबेर जी हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी के सिद्धस्‍थ कलमकार हैं. उनकी प्रकाशित कृतियों में भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह), उजाले की नीयत (कहानी संग्रह), भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्ती़सगढ़ी लोककथा संग्रह) आदि हैं. माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह), और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह), प्रसिद्ध अंग्रजी कहानियों का छत्‍तीसगढ़ी अनुवाद आदि पुस्‍तकें प्रकाशन की प्रक्रिया में है. कुबेर जी नें अनेक पुस्‍तकों को संपदित भी किया है जिनमें साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010 व शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ‘नव-बिहान’ 2010, 2011 आदि हैं. इन्‍हें जिला प्रशासन राजनांदगाँव का गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 मुख्मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा प्राप्‍त हुआ है. कुबेर जी का पता ग्राम – भोड़िया, पो. – सिंघोला, जिला – राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441 है. वे शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.) में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं. उनसे मोबाईल नु. – 9407685557 पर संपर्क किया जा सकता है.
कुबेर जी के आलेखों एवं क‍हानियों को आप उनके ब्‍लॉग 'कुबेर की कहानियॉं' में भी पढ़ सकते हैं. गुरतुर गोठ में कुबेर जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति...

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    उत्तर
    1. ललित जी
      इस रचना पर टिप्पणी करने लिये धन्यवाद। storybykuber.blogspot.com ब्लाग पर माइक्रो कविता और दसवाँ रस को क्लिक करके आप मेरी अन्य व्यंग्य रचनाओं को पढ़ सकते हैं।
      ध्न्यवाद।
      कुबेर

      हटाएं
  2. कविता लिखने के नए नए राज़ पता चले :)

    आभार

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    उत्तर
    1. अनु जी
      इस रचना पर टिप्पणी करने लिये धन्यवाद। storybykuber.blogspot.com ब्लाग पर माइक्रो कविता और दसवाँ रस को क्लिक करके आप मेरी अन्य व्यंग्य रचनाओं को पढ़ सकती हैं।
      ध्न्यवाद।
      कुबेर

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  3. महामंत्र क्रमांक २ और तीन के आपके बहुत से शिष्य मिल जाएँगे आज के कविवर्ग में !करारा व्यंग !

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  4. सभी महामंत्रों को ध्यान से पढने के पश्चात् मुझे भी यह यक़ीन हो गया है कि मैं भी कवयित्री बन सकती हूँ । परिहास-पूर्ण , प्रशंसनीय प्रस्तुति । कुबेर भाई आपको बधाई ।

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  5. हा हाँ, हँसते हँसते पेट ही फूल गया, बहुत गहरी बात कही है, व्यंग् के रूप में।

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  6. बरोब्बर लिखे हस, मोगेम्बो खुस होईस :)

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    1. भइया!
      सिरतोन कहत हंव जी; कुबेर के बात ला मानही तउन ह णारो-धार बोहाही। मोगम्बो, तेजा मन के कहि नइ सकव भाई।
      धन्यवाद।
      कुबेर

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  7. अब कुबेर जी के कवि कर्म का रहस्य समझ आया ...

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    उत्तर
    1. सर,
      उसके बाद तो कविता लिखना ही भूल गया हूँ।
      धन्यवाद।
      कुबेर

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  8. धन्यवाद और धन्यवाद,कविता गढने से पहले आपके गुर पढते रहेंगे.

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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