सर्वोच्च अदालत ने सही निर्णय और भारतीयता के प्रति न्याय किया


क्या सब कुछ बनाने वाले एक ऊपरवाले से भी ऊपर है सोनीया या राहुल या नाज फाउण्डेशन या कि वो हमारी दो पीढ़ी पहले के पूर्वजो से अक्ल मे अबके ये मंत्री इतने ही आगे बढ़ गये है कि जो बात महात्मा गांधी और डॉ.राजेन्द्र प्रसाद, चाचा नेहरू, बाबा साहब और भी लाखों अक्लमदों ने तब काफी सोची-लिखी लम्बी बहस के बाद सविंधान में बनायी वो गलत कहते है! कोई तो खुल के यह बोले, क्या तब भी उन विद्वानों में कोई अक्ल की कमी थी, जो उन्होनें वह धारा संविधान में जारी रखी जिससे असमाजिक कृत्य मानते हुऐ समलैंगिकता को एक गैरकानूनी कारनामा माना। लंदन से पढ़ कर तो ये महान विभूतियां वकालत और उससे भी बड़ी डिग्री उन दासता और अभाव के जमाने में ले आये थे। पता नहीं राहुल और सोनिया कितने पढ़े लिखे हैं और राज चलाने की कितनी बड़ी यूनीर्वसीटी के टॉप के स्कालर हैं? जो भी हो। पर गलत तो गलत है, चाहे त्रिया हठ या बाल हठ या राज हठ में ही करनों क्यों ना पडे। या तो एक मानसिक विकलांगता है समलैंगिकता अथवा फिर परिपक्व जिस्म वाले दोपाये जीव के पास अ-परिपक्व, अविकसित व अल्पविकसित दिमाग की सोच! नहीं तो कम से कम यह तो माना ही जा सकता है, किसी मंद बुद्धि के भेजे में आयी विकृत सोच का परिणाम। यह स्वतः सिद्ध तथ्य है कि मानव जाति एक उभयलिंग जीव है! क्या नहीं है? क्या इसमें सोनीया या राहुल या अमेरिका से पढ़े राजनेताओं को कोई शक है? नयी अगली पीढ़ी को जीवन देने के लिए स्त्री पुरूष का ही सहवास चाहिए। कौन से अर्थशास्त्र या वकालत के ज्ञान में शरीर रचना का विशेष पाठ इन समलैंगिकता के पैराकार नेताओं ने सीखा है।
कम से कम अब तक की विज्ञान की उपलब्धियां ने दोपाये जीव को ऐक प्यारा सा इंसान नहीं बना सकी। वह तो एक सोच ही करती है। ऐसे में प्रकृति के प्रतिकूल निर्णय ले कर क्या समाज की उच्च स्तरीय अस्तितव को बचाया जा सकता है? नहीं! संभव ही नहीं। पशुतर स्वभाव में कमी और मानवीय गुणों की ग्राह्यता का अभाव यही दिख रहा है। तब भी चाहे किसी के विचार के लिए क्या ठीक या गलत कहें वो बात सही बताऐं कि - रोगी हो कोई! बीमार है कोई! तो इलाज और बचाव की जरूरत है। पागल या विक्षिप्त की भांति कामुकता की अधिकता के रोग ग्रस्त भी लोग होते ही है। मानसिक विकारों और बीमारियों पर नित नयी खोजों से मनुष्य अभी तक स्वास्थ्य पाने के रास्ते समझ ही रहा है।
क्यों कर आदमी रोगी होता है। निदान और उपचार की प्रक्रिया के अनुसंधान में नित नयी बातें आती है। मानव प्रगति में आज का जीव-वैज्ञानिक अपनी क्षमता से पुरूष को स्त्री और विपरीत लिगीं बनाने में सफल हो चुके हैं। समलैंगिक आर्कषण का इलाज लिंग परिवर्तन करा कर सह जीवन जीने की व्यवस्था करें पर प्रकृति के विरूद्ध ना जाऐ इंसान। वरना एड्स जैसे और क्या क्या रोग होगें।
समलैंगिता अप्राकृतिक है, सभी मानते है और यह मनुष्य समाज में सर्वकालिक थी इस वास्तविकता को भी जानते है। लेकिन सर्वकालिक तो ढेरों कुरीतियां थी। कई कुरीतियों को समाज ने वक्ती तौर पर अपनाया और फिर त्यागा भी। आज भी समाज में विवेचना वैसी चीजों पर होती रहती है। करने वाले तो सिगरेट व शराब की पैरवी करते हैं मगर वो ही गांजा, चरस, हशीश को जलावा देते हैं। जैसे की करने वाले तो सिगरेट व शराब की पैरवी करते हैं मगर वो ही गांजा, चरस, हशीश को जलावा देते हैं। क्यों कर वो प्रकृति के अनुरूप जीवनयापन करना चाहिए इसकी बात नहीं समझ पा रहे है, संभव है कि भूल से बचपन में बच्चा जो मुँह में लगा दे या हर चीज चख चख कर देखता है चाहे मैला हो या मिट्टी। ऐसे में कौन सा बड़ा वैसी हर ओछी हरकत करने की मंजूरी देता है? बालक का दिमाग जब तक सीख नहीं पाता तब तक महज उत्सुकता में विकसित होते यौन अगों को लेकर खुद ही अपने आप में और दिल के करीबी सबसे खुले आदमी के साथ उद्वेलित आन्नदित या विद्युतिक अनुभव का सकोंच में जिक्र करता है। परिपक्वता की ओर बढ़ती उमर में अलग अलग सोच के साथ प्रयोगिक दौर और हमउमर व समवय के समुह में मानव संतान सीखती है। परिपक्व मतिष्क की उमर में आते आते सब ठीक ही हो जाता है। मगर सब की जिन्दगी में सब कुछ सही नहीं होता। कुछ लोगों का दिमाग बढ़ नहीं पाता।
कुछ गलत संगत में पड जाते है और जीवन का बोधज्ञान उचित नहीं हो पाता। शारीरिक यौन रोगों की भातिं ही मानसिक यौन रोग भी है। ये तो जीव वैज्ञानिकों के अनुसंधान और समाज को दिशा देने वाले बुद्धिजीवी वर्ग की सोच पर निर्भर करता है। कल की पीढ़ी के पास ही मानवीय समाज की व्याख्या और जीवन जीने का दृष्टिकोण सहज ही प्रतिबिंबत होगा। ऐसा ना हो कि आज के निर्णयों की खामियों को कल की पीढ़ी वैसे ही दुत्कारें जैसे सती प्रथा और अन्य कुरीतियां अपना ली गयी पूर्वजों को घृणा के साथ अंधेर कालीन या काला युग कह कर हम इतिहास में लिखते हैं।
भारतीय कानून की बात करने वाले संविधान में अधिकारों की धाराऐं बताते हैं मगर वह पहली पंक्ति भी तो याद रखें की वो सारे अधिकार “भारत के लोगों” कि लिए हैं। किसी भी दोपाये जीव के नाते नहीं। ऐसी मांग करने वालों को भारतीयता की समझ वाला कौन सा आधार कार्ड दिया है। बापूजी ने कहा था मूक है भारत की जनता। उसकी इच्छा, आशा, उम्मीद पर जनप्रतिनिधि को प्राथमिकता देनी चाहीए। आखिर भारतीय सभ्यता के अनुरूप भी तो कुछ कहो, जनता की मर्जी के अनुसार समाजिक गठन पर कुछ करो।
यही कारण है कि रामदेव जैसे सरीखे समाज के योग सेवक शब्द रहीत हो बोझिल हो कर तर्क की जगह उल्टा प्रश्न ही पूछते है कि बताऐं - क्या कहीं राहुल समलैंगिक तो नहीं।
आगामी आलेख :-
1. बिस्‍मार्क : कुबेर
2. सोमवार, 7 अक्तूबर 2013 भारत की राजनीति : कुबेर

पुस्तक चर्चाः तालाबों ने उन्हें हंसना सिखाया


विनोद साव हिंदी गद्य के उन बिरले लेखकों में शामिल हैं जिनमें अपनी लेखन क्षमता को लेकर कोई बहकाव नहीं रहा और प्रयोगधर्मी लेखक के रुप में जिनकी सही पहचान बनी है। व्यंग्य से अपने लेखन की शुरुवात करते हुए हिंदी व्यंग्य के वे सुस्थापित लेखक हुए, फिर उपन्यास, यात्रा वृत्तांत और कहानियां उन्होंने लिखीं। इन सभी जगहों में अपनी विलक्षण प्रवाहमयी खड़ी बोली से हिंदी गद्य में उन्होंने ऐसा वातावरण निर्मित किया जो एक साथ जनवादी और जनप्रिय दोनों हुआ। उनकी रचनाओं में कथ्य की भरपूर उपस्थिति उनके अद्भुत शिल्प और शैली से आलोकित होकर पाठकों में सम्प्रेषण का एक नया वितान बुनती है।

यहां प्रस्तुत संग्रह की कहानियां समाज के उस निम्न मध्य वर्ग की दषा और सोच को सामने लाती हैं जिनके पात्र और चरित्र अलग अलग स्थितियों में अन्यमनस्क और किंकर्त्तव्य-विमूढ़ से खड़े हैं। विशेषकर समाज में हाशिए पर खड़ी स्त्री के मनोविज्ञान की तह तक वे जाते हैं और उनके भीतर की सूक्ष्म अनुभूतियों को वे बखूबी उकेरते हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी बरकरार उनके ममत्व की आभा व समर्पण भरे निर्दोष स्त्रीत्व के अनेक आयामों को यहां विनोदजी उद्घघाटित करते हैं और उन्हें उस उंचाई तक ले जाते हैं जिनकी घर समाज में वे हकदार हैं और जिनसे किसी भी घर समाज का जीवन सकारात्मक कर्मो की ओर गतिशील होता है।

उम्मीद है कि यहां प्रस्तुत कहानी संग्रह की कहानियों को पढ़ते हुए पाठक अपने निजी क्षणों मेें कितनी ही बार कहानी की भाषा, कथा और पात्रों की संवेदनाओं को स्पर्श करते हुए एक ऐसी दुनियां की सैर करेंगे जिनमें वे कभी अपनी तो कभी दूसरी दुनियां के वैविध्यपूर्ण जीवंत पलों से वाबस्ता होंगे।

कथा संग्रह: तालाबों ने उन्हें हंसना सिखाया
लेखक: विनोद साव
मूल्य: रु. 250
पृष्ठ संख्या: 120
प्रकाशक: नीरज बुक सेंटर,
सी-32, आर्या नगर सोसायटी, मदरडेयरी
पटपड़गंज, दिल्ली-91 (फोन 011-22722155)


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com




सुशासन

पूर्व प्रधानमंत्री मान. अटलबिहारी बाजपेई के जन्म दिन को सरकार द्वारा ’सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की गई है। तदनुरूप विचार गोष्ठियाँ और अन्य कार्यक्रम आयोजित भी किये जा रहे है। पहल स्वागतेय है।

कुछ बुद्धिजीवियों का अभिमत है कि सुशासन क्रियान्वयन का विषय है। क्रियान्वयन किस तरह का, इस विषय पर तार्किक बहस और अधिक माथापच्ची करके चाहे इस स्थापना के औचित्य को सिद्ध भी किया जा सकता हो परन्तु प्रचलित अर्थों में क्रियान्वयन का निहितार्थ शासकीय योजनाओं और कार्यक्रमों को जनहित में लागू करने जैसी संकुचित अभिप्रायों से ही है। और इसीलिए इस स्थापना अथवा निष्पत्ति से मैं सहमत नहीं हूँ। इस प्रकार की स्थापनाएँ देकर सुशासन की सारी जिम्मेदारियाँ हम शासन के हिस्से और शासन के माथे नहीं थोप सकते हैं और न ही हम अपनी व्यक्तिगत नैतिक जिम्मेदारियों और मानवीय मूल्यों से बच सकते हैं क्योंकि सुशासन का प्राथमिक, नैसर्गिक और सीधा संबंध हमारी इन्हीं नागरिक जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से है।

शासन शब्द में सु उपसर्ग लग जाने से सुशासन शब्द का जन्म होता है। ’सु’ उपसर्ग का अर्थ शुभ, अच्छा, मंगलकारी आदि भावों को व्यक्त करने वाला होता है। राजनीतिक और सामाजिक जीवन की भाषा में सुशासन की तरह लगने वाले कुछ और बहुप्रचलित-घिसेपिटे शब्द हैं जैसे - प्रशासन, स्वशासन, अनुशासन आदि। इन सभी शब्दों का संबंध शासन से है। ’शासन’ आदिमयुग की कबीलाई संस्कृति से लेकर आज तक की आधुनिक मानव सभ्यता के विकासक्रम में अलग-अलग विशिष्ट रूपों में प्रणाली के तौर पर विकसित और स्थापित होती आई है। इस विकासक्रम में परंपराओं से अर्जित ज्ञान और लोककल्याण की भावनाओं की अवधारणा प्रबल प्रेरक की भूमिका में रही है। इस अर्थ में शासन की सभी प्रणालियाँ कृत्रिम हैं।

अभी हम शासन की नवीनतम प्रणाली ’प्रजातंत्र’ से शासित हो रहे हैं जिसके तीन स्तंभ - व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सर्वविदित हैं। पत्रकारिता को चैंथे स्तंभ के रूप मान्य किया गया है। इन सभी स्तंभों की व्यवस्था लोकाभिमुख कर्तव्यों के निर्वहन की अवधारणा पर अवलंबित है। इस जन केन्द्रित प्रणाली के अंतर्गत जनता की स्थिति क्या है और कहाँ पर है? सोचें, केवल एक दिन मत देने वाले की और बाकी दिन सरकारी दफ्तरों में जाकर रिश्वत देने वालों की रह गई है। निर्वाचन के दिन अपना प्रतिनिधि चुनते वक्त जनता मतदान के रूप में अपनी शक्तियों को पाँच साल के लिए अपने प्रतिनिधियों को दान कर स्वयं शक्तिहीन हो जाती है। इस प्रणाली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली होकर भी किसी सतंभ के रूप में, किसी शक्ति के रूप में जनता की स्थिति बहुत अधिक सुदृढ़ और सुस्पष्ट नहीं है। अपनी शक्तियों को मत के रूप में दान कर देने के बाद जनता शोषितों की स्थिति में आ जाती है। यह स्थिति तब और भी भयावह हो जाता है जब मतदाताओं का एक विशाल समूह निरक्षर होता है और प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों और विशेषताओं के बारे में अनभिज्ञ होता है। मेरा मानना है कि मतदाता के रूप में जनता का शिक्षित होना चाहे आवश्यक न हो, पर प्रजातांत्रिक प्रणाली के सिद्धातों ओर विशेषताओं के बारे में उनका प्रशिक्षित होना निहायत जरूरी है। यहाँ इस प्रकार के किसी भी औपचारिक प्रशिक्षण का अभाव सुशासन के लिए हानिकारक है। विश्व का स्वरूप कैसा है? इसका आकार कैसा है और इसका विस्तार-प्रसार कहाँ तक है? इन प्रश्नों का उत्तर मानव बुद्धि, मानव मन और मानवीय कल्पनाओं के परे है। विश्व और उसके सारे नियम स्वयंभु है। सबसे बड़ा शासक स्वयं प्रकृति है। प्रकृति ने अपनी शासन पद्धति स्वयं विकसित की है। प्रकृति में हमें चारों ओर सुशासन ही सुशासन दिखाई देता है। कई मनुष्येत्तर प्राणियों की भी सामाजिक व्यवस्था में हमें सुस्पष्ट सुशासन दिखाई देता है। सुशासन की सीख हमें प्रकृति से ग्रहण करना चाहिए।

मनुष्य समाज के अलावा कुशासन के लिये और कहीं कोई जगह नहीं है। हमें एक बात सदैव स्मरण रखना चाहिए कि नियम का संबंध अनुशासन से है जबकि कानून का संबंध शासन से। अनुशासित व्यक्ति नियमों और कानूनों का अनुपालन करते हुए अपने आचरण और व्यवहार को संयमित और मर्यादित रखता है। सामान्य व्यक्ति भूलवश, अज्ञानता वश अथवा परिस्थितिवश नियमों और कानूनों का उलंघन करता है परंतु उच्श्रृँखल व्यक्ति जानबूझकर नियमों और कानूनों का उलंघन करता है। प्रकृति जहाँ एक ओर नियमों और कानूनों का उलंघन करने वालों को दंडित करती है, वहीं दूसरी ओर अपने आचरण और व्यवहार में संयम और मर्यादा का पालन करने वालों को पुरस्कृत भी करती है। प्रकृति समदृष्टा है। दंडित और पुरस्कृत करने में प्रकृति में किसी भी प्रकार का भेदभाव संभव नहीं है। मानव समाज में भी सुशासन के लिये यह अनिवार्य है। परंतु यह परवर्ती स्थिति है। यदि अपने आचरण में सभी व्यक्ति मर्यादित हों, अनुशासित हों तो फिर सुशासन ही सुशासन है। इसीलिए कहा गया है, ’हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।’

अधिकांशतः देखा गया है कि किसी उच्श्रृँखल व्यक्ति द्वारा किये गए गलत कृत्यों का अनुशरण करने में लोग न तो हिचकते हैं और न ही ऐसा करके उन्हें कोई आत्मग्लानि या पछतावा ही होता है। हर स्थिति में यह पशुवृत्ति है। सुशासन की राह का सबसे बड़ा अवरोध भी यही वृत्ति है। मनुष्य होने के नाते हमें अपने विवेक की अवहेलना कदापि नहीं करना चाहिए। मनुष्य का विवेक सदैव आचरण में शुचिता और वयवहार में मर्यादा का पक्षधर होता है। सुशासन का पहला शर्त भी यही है।

हम यह न देखें कि देश ने हमें क्या दिया है। यह आत्मावलोकन करें कि देश को हमने क्या दिया है। सुशासन का यही मूलमंत्र है।

कुबेर
मो. 9407685557
Email : kubersinghsahu@gmail.com

लेखक परिचय


नाम – कुबेर
जन्मतिथि – 16 जून 1956
प्रकाशित कृतियाँ:
1 – भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह) 2003
2 – उजाले की नीयत (कहानी संग्रह) 2009
3 – भोलापुर के कहानी (छत्तीहसगढ़ी कहानी संग्रह) 2010
4 – कहा नहीं (छत्तीवसगढ़ी कहानी संग्रह) 2011
5 – छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्ती़सगढ़ी लोककथा संग्रह 2012)
प्रकाशन की प्रक्रिया में:
1 – माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह)
2 – और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह)
3 - प्रसिद्ध अंग्रजी कहानियों का छत्‍तीसगढ़ी अनुवाद
संपादित कृतियाँ:
1 – साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010
2 – शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ‘नव-बिहान’ 2010, 2011
सम्मान: गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012, जिला प्रशासन राजनांदगाँव (मुख्मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा)
पता: ग्राम – भोड़िया, पो. – सिंघोला, जिला – राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441
संप्रति: व्याख्याता, शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.)
मो. – 9407685557

गुरतुर गोठ में कुबेर जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

समीक्षाः


बाजारवाद के इस दौर में आज हर देश अपने अपने पर्यटन को उद्योग का दर्जा दे रहा है। ऐसे कई देश जिनकी माली हालत पतली थी उनमें चेतना जागी और वे अपने नैसर्गिक संसाधनों को सुन्दर पर्यटन स्थलों का रुप देने में लग गए और आज अच्छा धन कमा रहे हैं। इनमें हमारे देश में राजस्थान एक बड़ा उदाहरण है जो अपने अभावों को पर्यटन व्यवसाय के जरिये दूर करने में सफल हो रहा है। देश के अतिरिक्त विदेश से भी सैलानी अब वहां खूब आने लगे हैं।

इस मायने में छत्तीसगढ़ में पर्यटन का विस्तार अभी राष्ट्रीय क्षितिज पर नहीं हो पाया है। छत्तीसगढ़ के जन मानस घूमने-फिरने में तो बहुत आगे हैं और वे देश के किसी भी क्षेत्र के पर्यटन स्थलों में भारी संख्या में देखे जाते हैं पर उनके राज्य छत्तीसगढ़ में बाहर से लोग रहने-बसने तो खूब आते हैं पर वे सैलानी बनकर नहीं आते। छत्तीसगढ़ राज्य शासन का पर्यटन विभाग बाहर के सैलानियों को अपनी ओर खींचने का कोई उपक्रम करे इसकी अभी अपेक्षा ही है। इसे मुख्यमंत्री के इस वक्तव्य में भी देखा जा सकता है, पर्यटन पर केंद्रित ‘कला परम्परा’ के अंक का विमोचन करते हुए ग्रंथ को देखकर उसके संपादक डी.पी.देशमुख को मुख्यमंत्री ने कहा कि ‘यह काम तो हमारे पर्यटन मंत्रालय को करना चाहिए था।’

बहरहाल हमारे सामने यह सद्कार्य भिलाई रिफ्रेक्टरीज प्लांट के जन सम्पर्क अधिकारी डी.पी.देशमुख ने यह अपने निजी प्रयासों और संपर्क सूत्रों से संपन्न कर लिया है। श्री देशमुख की कर्मठता का एक बड़ा प्रमाण है यह छत्तीसगढ़ गाइड जिसे उन्होंने ‘कला परम्परा’ का नाम दिया है और इनमें पर्यटन एवं तीरथधाम सम्बंधी सचित्र जानकारियों को उपलब्ध करवाया है। यह निश्चय ही एक दुश्कर और दुर्लभ कार्य है। कभी रंगकर्म से जुड़े देशमुख एक अंतरमुखी व्यक्तित्व हैं। उनके चेहरे पर एक ऐसी चुप्पी दिखलाई देती है जिसके भीतर रचनात्मकता का कोई लावा बह रहा हो। जब यह लावा फूटता है तब उनके परिश्रम और पुरुषार्थ का सुपरिणाम सबके सामने होता है। अपने इन प्रयासों के विषय में वे कहते हैं कि ‘जिन लोगों ने छत्तीसगढ़ को परिभाषित, विश्लेषित करने का काम विविध रुपों और अनेक आयामों में गंभीरता से किया है, उनकी पहचान झूठे विकास तंत्र के नारे के बीच कहीं खो न जाये, यह एक बड़ा संकट है। इस आशंका और चुनौती को ध्यान में रखकर कला परम्परा एक ऐसा अभिनव प्रकाशन है जो छत्तीसगढ़ की खांटी लोक परम्परा व मौलिक संस्कृति को न केवल पोषित करता है, वरन् उन्हें प्रमाणित, चिन्हांकित व महिमा मण्डित भी करता है।’ इसके पूर्व कला परम्परा के जो तीन भाग निकले हैं उनमें साहित्यकारों, रंगमंच व लोक कलाकारों का जीवन परिचय है। इनमें चित्र व सम्पर्क सूत्र भी दिए गए हैं जिनसे इनकी उपयोगिता बढ़ गई है।

यह कला परम्परा का चौथा अंक है जो छत्तीसगढ़ के पर्यटन पर केंद्रित है, जिसमें राज्य के प्राकृतिक छटाओं व ऐतिहासिक पौराणिक स्थलों का विस्तार है। इनमें छत्तीसगढ में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, कबीर, fसंध, गुजरात आदि से जुड़े सभी धर्म स्थलों की इतिहास गाथा है। इनमें कितनी ही पुरा कथाएं हैं। छत्तीसगढ़ के वनों, पहाड़ियों, झरनों और गुफाओं का चित्रण है। सैलानियों के वहां तक जाने के लिए पहुंच मार्ग बताए गए हैं, रेल मोटर के साधनों के साथ ठहरने रुकने के आवासीय साधन दर्शाए गए हैं। इन सबके साथ इस ज्ञानवर्द्धक निर्देश ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता उनके मनोहारी रंगीन चित्र हैं जिनकी छटा बरबस ही पाठकों को मोह लेती हैं और उन्हें छत्तीसगढ़ राज्य के सुन्दर भ्रमण स्थलों को घूम आने का आमंत्रण देती सी प्रतीत होती हैं।

इस ग्रंथ की एक और विशेषता यह है कि यह पुराणों और इतिहास परक जानकारियों के साथ ही आधुनिक छत्तीसगढ़ की पर्यटन सम्बंधी विशेषताओं का उल्लेख करती है, उनसे हमारा परिचय कराती हैं। इनमें गिरौदपुरी में निर्मित सतनाम पंथ के कुतुब मीनार जैसे उंचे जैत खम्भ के आधुनिक भवन का उल्लेख है। तिब्बती शरणार्थियों से बसा मैनपाट, बार नवापारा का अभयारण्य, गंगरेल बांध, नंदनवन, मदकू द्वीप, खैरागढ़ के इंदिरा संगीत विश्व-विद्यालय, कुनकुरी में स्थित एशिया के दूसरे बड़े कैथलिक चर्च, छत्तीसगढ़ के धरोहर को संजोता पुरखौती मुक्तांगन व झर झर झरते नयनाभिराम झरनों के कितने ही दृश्यों का रोचक सचित्र विस्तार है। इन सबके लिए आलेख स्थानीय संवाददाताओं ने तैयार किए हैं।

कहा जा सकता है कि डी.पी.देशमुख द्वारा संपादित यह संग्रह अपने आप में एक सम्पूर्ण गाइड है, यह न केवल छत्तीसगढ़ अंचल के प्रति संपादक के भावनात्मक लगाव को दर्शाता है बल्कि छत्तीसगढ़ आने वाले सैलानियों के लिए यह पर्यटन के नए द्वार भी खोलता है। कला परम्परा का यह भाग एक संग्रहणीय अंक है।

पुस्तक : कला परम्परा (पर्यटन एवं तीरथ धाम)
संपादक : डी.पी.देशमुख
मूल्य : रु. 500/-
प्रकाशकः नीता देशमुख, चर्च के सामने, कृष्णा टाकीज रोड, आशीष नगर (पूर्व),
रिसाली, भिलाई (छत्तीसगढ़) मो. 9425553536
लेखक संपर्कः 9407984014

20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

तुरते ताही : कविता का सौंदर्य


पिछले दिनों भिलाई की बहुचर्चित कवियत्री व समाज सेविका नीता काम्बोज ‘सिरी’ के पहले कविता संग्रह का विमोचन हुआ जिसमें शामिल होने का सौभाग्यी प्राप्त हुआ. खुशी हुई कि कवियत्री का पहला कविता संग्रह प्रकाशित हो रहा है. इसके पूर्व मैं कवियत्री नीता काम्बोकज ‘सिरी’ के गीतों को कवि सम्मेलन और गोष्ठियों में सुनते रहा हूं. जहॉं उनके कुछ गीतों में व्याक्तिगत तौर पर मुझे उथली तुकबंदी एवं कविता की अकादमिक कसौटी की कमी नजर आती थी. उनका व्यक्तित्व‍ बेहद सहल है और उनमें बच्चों सी निश्छलता है. इस संग्रह के प्रकाशन के बाद मैं आशान्वित था कि कवियत्री नें अपनी कविताओं को प्रकाशन एवं मंच के अनुरूप अलग अलग छांटा होगा एवं अपनी श्रेष्ठ कविताओं को प्रकाशित करवाया होगा जिसमें उनकी कविताई का उचित मूल्यांकन हो पायेगा, क्योंकि उनमें कविता की पूरी समझ नजर आती है. इसके अतिरिक्त दूसरा तथ्य यह भी था कि यह कविता संग्रह ‘दृष्टिकोण’ डॉ.सुधीर शर्मा के वैभव प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है तो निश्चित है डॉ.सुधीर शर्मा नें कविताओं की वर्तनीगत व्याकरणिक भूलों को अकादमिक स्वरूप अवश्य प्रदान किया होगा. तीसरे तथ्य के रूप में अशोक सिंघई का भूमिका लेखन अहम रहा है क्योंकि अशोक सिंघई छत्तीसगढ़ के ऐसे कवि हैं जो पूरे भारत में हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित कवि के रूप में जाने जाते हैं, यहॉं मैं यह स्पष्ट कर दूं कि डॉ. विमल कुमार पाठक नें भी इस किताब पर अपनी लेखनी बिखेरी है किन्तु मैं व्यक्तिगत तौर पर उन्हें हिन्दी कविता के संबंध में योग्य टिप्पणीकर्ता स्वीकार नहीं करता, इस पर बातें कभी और.

विमोचन कार्यक्रम में संकलन के संबंध में आमंत्रित वक्ताओं में अशोक सिंघई, डॉ.निरूपमा शर्मा, डॉ.रमेन्द्र नाथ मिश्र, डॉ. सुधीर शर्मा, डॉ.नलिनी श्रीवास्तव नें विस्तार से अपनी समीक्षात्मक टिप्प्णियॉं दी एवं आधार वक्तव्य सरला शर्मा नें दिया. सभी नें नीता काम्बोज ‘सिरी’ की कविताओं को मुक्त‍ कंठ से सराहा. सरला शर्मा नें पूरे संग्रह में नारी अस्मिता का ध्वज फहराते नीता काम्बोज ‘सिरी’ की उस कविता का जिक्र किया जिसमें उसने पति की दूसरी पत्नी सौत पर कविता लिखी है. सरला शर्मा नें अपनी जानकारी के अनुसार इस कविता को किसी नारी के द्वारा लिखी गई अपने ढ़ंग की निराली कविता माना और कहा कि यह अकेली कविता इस संग्रह की जान है यह कविता कवियत्री को दीर्घजीवी बनायेगी. हिन्दी के वरिष्ठ कवि अशोक सिंघई नें अपने वक्तव्यव में बहुत सहज रूप से बतलाया कि अनुभवजन्य अतीत व जीवन की विसंगतिपूर्ण घटनाओं से उत्प‍न्न‍ भावों में कविता सृजित हो जाती है. उन्होंनें कविता को साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित होने में लगने वाले समय एवं कविता की श्रेष्ठता पर विस्तार से प्रकाश डाला. मैं स्पष्ट‍ कर दूं कि अशोक सिंघई यह बातें नीता काम्बोज ‘सिरी’ की कविताओं के संबंध में ही बोल रहे थे, उन्होंनें लक्षित रूप से नीता काम्बोज ‘सिरी’ को मंचीय कविता से परे साहित्य के द्वार में प्रवेश का राह बता रहे थे. नीता काम्बोज ‘सिरी’ नें अशोक सिंघई के इन गूढ़ बातों को कहॉं तक अमल में लाया यह तो उनकी दूसरी किताब में नजर आयेगी. बहरहाल इस कार्यक्रम नें सिद्ध किया कि नीता काम्बोज ‘सिरी’ को अपनी कविताओं के प्रति और भी गंभीर होने की जरूरत है.

कविता बहुत ही गंभीर विधा है इसे रचने वाले एवं पढ़ने वाले दोनों की गंभीरता से ही कविता अपने सामाजिक स्वरूप को व्यापक तौर पर व्यक्त कर पाती है, कविता का सौंदर्य तब और निखरता है. मंचीय कविता को साधना है साथ ही राजनैतिक व्यक्तित्व निखारना है तो स्थानीय मीडिया एवं स्थानीय चाटुकारों का सामंजस्य आवश्यक है. किन्तु जब हम जिसे कविता कह रहे हैं उसे साधना है तो इन सबको एक तरफ रख कर मुक्तिबोधों, पाशों, धूमिलों, नार्गाजुनों से लेकर विनोद कुमार शुक्लों, कमलेश्वरों, नरेश सक्सेनाओं, निशांतों, वर्तिका नंदाओं, आदि इत्यादि की कविताओं से भी गलबंहियां लेना पडेंगा. तभी डॉ.ओम निश्चल जैसे कविता के निर्मम आलोचकों की नजरों में उतरते हुए साहित्य जगत में स्थान मिल पायेगा. तब निश्चित है कि उनकी कविताओं को बिना नमस्कार चमत्कार के स्था‍नीय मीडिया ही नहीं राष्ट्रीय मीडिया भी तवज्जों देगी.

विमोचन कार्यक्रम में नीता आमंत्रित विशिष्‍ठ अतिथियों को दृष्टिकोण की प्रति हस्‍ताक्षर कर कर के प्रदान कर रही थी, हम इंतजार कर रहे थे कि हमें भी अब मिली कि तब पर जब प्रति नहीं मिली तब पता चला कि हमारी औकात क्‍या है. :) डॉ.सुधीर शर्मा नें कार्यक्रम में मेरे पहुचते ही मंच से मेरा स्‍वागत किया था और मेरे तथाकथित सम्‍मान में दो शब्‍दों के कसीदे भी पढ़े थे तो लगने लगा था कि विशिष्‍ठ भले ना सहीं शिष्‍ठ तो बने रहूं. (दो ठो स्‍माईली); विमोचन कार्यक्रम  के उपरांत बख्शी सृजन पीठ के द्वारा ‘दृष्टिकोण’ की एक प्रति नीलम चंद जी सांखला, दंतेवाड़ा को पहुचाने के लिए मुझे डकहार के रूप में प्रदान किया गया. यह मेरे लिए बहुत ही बड़े सौभाग्य की बात थी कि एक नजर कविताओं पर डाल सकूं किन्तु आपाधापी में मैं इस संग्रह की कविताओं को पढ़ नहीं पाया. संग्रह पढ़ने के बाद कोशिस करूंगा कि कुछ और लिखूं. अभी कवियत्री नीता काम्बोज ‘सिरी’ को इस संग्रह के लिए अनेकानेक शुभकामनायें.

तमंचा रायपुरी

तुरते ताही : कोदो दे के पढ़ई

रविशंकर विश्वविद्यालय के द्वारा अमहाविद्यालयीन छात्रों के लिए स्नातक एवं स्नातकोत्तर के परीक्षाओं के लिए परीक्षा फार्म इन दिनों महाविद्यालयों में आने वाले है. हम इसी का पता लगाने पिछले दिनों शासकीय विज्ञान महाविद्यालय दुर्ग गए वहॉं हमारे सहपाठी नरेश दीवान क्रीड़ा अधिकारी हैं वे मिल गए. आने का कारण पूछा तो हमने बतलाया कि एम.ए. का फार्म भरना है तो पता करने आए थे. उन्होंनें तपाक से कहा कि पिछले साल भी तो तुमने एम.ए.हिन्दी की परीक्षा दी थी ना और तुम्हारा परसेंट भी अच्छा आया था, तो अब फिर क्यों.

नरेश नें प्रतिवाद किया कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं, बेकार में लोग अपना समय गवांते हैं. उन्होंनें किसी स्कूल शिक्षक का उदाहरण देते हुए बताया कि वह आठ विषयों में एम.ए. किया है, किन्तु स्कूल शिक्षक ही है. उसने अपने घर के सामने नाम पट्टिका में आठ एम.ए.का उल्लेख बड़े शान से किया है. नरेश का कहने का मतलब था कि उस स्कूल शिक्षक ने किसी विशेष विषय में विशेषज्ञता हासिल नहीं की इसलिए नौकरी के क्षेत्र में उसका विकास नहीं हो पाया. नरेश नें आगे यह भी बताया कि उन आठो एम.ए. में स्कूल शिक्षक का प्राप्तांक प्रतिशत 45 पार नहीं कर पाया जिसके कारण वे आठो डिग्रियॉं उसके पदोन्नति या दूसरी नौकरी में काम नहीं आ पाए. नरेश मुझे ज्यादा महाविद्यालयीन डिग्री लेने में समय बर्बाद करने के बजाए विषय विशेषज्ञता की सलाह दे रहा था.

नरेश की बातों पर अपनी बातें जोड़ने का मन था किन्तु अन्य मित्र भी आ गए और बात घरिया दी गई. मुझे अपने एक महाविद्यालयीन परीक्षा के दिन याद आने लगे जब मुझे अंतिम वर्ष में एक व्यक्ति ने गुरू दक्षिणा मांगी और मेरे नहीं देने पर एक पेपर में मुझे फेल कर दिया गया था जबकि मैं सालों से उस विषय की प्रेक्टिस में था. उन दिनों मैंने एक तथाकथित मानसेवी प्राध्यापक के घर में बोरे में भरे परीक्षा उत्तरपुस्तिकाओं को नौकरों को जांचते देखा था और तभी से लगने लगा था कि परसेंटेज और अच्छे नम्बरों की बातों में दम नहीं है, जब आठवीं पढ़ा व्यक्ति पेपर जांचेगा तो यही होगा. हमने गुरू दक्षिणा दी, पूरक परीक्षा के दिन उत्तर पुस्तिका लिख लेने के बाद गुरू दक्षिणा प्राप्त कर चुके एक तथाकथित गुरू ने कहा कि आखरी में राम सीता लिख दो. हमें बात समझ में नहीं आई, हमने कहा सर, पेपर बहुत अच्छा बना है. उसने पुन: कहा राम सीता लिखो. मैंने राम सीता लिख दिया, उसने सीता राम क्यूं नहीं कहा राम सीता लिखने को क्यों कहा समझ में नहीं आया. रिजल्ट आया और मैं पूरक परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया. उन दिनों मेरे पिताजी जीवित थे उन्होंनें कहा कि 'इही ल कहिथें रे कोदो दे के पढ़ई'

कोदो वाली इस बात का मतलब यह नहीं कि ऐसा ही होता है किन्तु यह सत्य है कि सिस्टम में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं. इस शर्मनाक याद के बावजूद नरेश के बातों में दम है, मैं इसे मानता हूं, किन्तु मुझे अब ना तो कोई नौकरी मिलने वाली ना ही किसी प्रकार की पदोन्नति होने वाली. मेरे लिए तो डिग्रियों के लिए होने वाली परीक्षाओं का मतलब है उस विषय के संबंध में क्रमबद्ध् अध्ययन. मैं चाहूं तो जिस विषय में एम.ए. करने की सोंच रहा हूं उसे बिना परीक्षा दिलाये भी पढ़ सकता हूं किन्तु मेरा यह मानना है कि विश्वविद्यालयों के द्वारा किसी स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम को इस तरह से बनाया जाता है कि आप उस विषय के अधिकतम पहलुओं से वाकिफ हो जायें. बिना अध्ययन का क्रम निर्धारित किए किसी भी विषय के किताबों के अध्ययन कर लेने से हम विषय को पूरी तरह से जान भी नहीं पाते इसलिए मैं एक दूसरे विषय की जानकारी के लिए महाविद्यालयीन परीक्षा दिलाना चाहता हूं.

नरेश के साथ महाविद्यालय के मेरे अन्य प्राध्यापक मित्र भी थे, बात हसी ठिठोली में हो रही थी सो हमने उपर वाले पैरे में लिखे अपने विचार को वहॉं व्यक्त नहीं किया. आज सोंचा यहॉं ठेल दू. आप लोग क्या सोंचते हैं बताईयेगा.

तमंचा रायपुरी

तुरते ताही : छत्तीसगढ़ी में एम.ए. का श्रेय

जब से रविशंकर विश्वविद्यालय में छत्तीसगढ़ी में एम.ए. पाठ्यक्रम आरंभ करने की घोषणा आम हुई है बहुत सारे छत्तीसगढ़ के खास साहित्यकार इसका श्रेय स्वयं लेने की होड़ करते नजर आ रहे है. कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ ही दुर्ग के एक युवा साहित्यकार को इस बात की खुशफहमी है कि स्वयं डॉ.दुबे नें इसका श्रेय उन्हें दे दिया है वहीं राजभाषा आयोग भी मुफ्त में इसे भुनाने का अवसर नहीं गवांना चाहता. मैं स्वयं अपने आप को इसका श्रेय देता हूं क्योंकि मैंनें भी छत्तीसगढ़ी में एम.ए. पाठ्यक्रम होना चाहिए यह बात एक बार अपने दोस्तों से की थी. जो भी हो विश्वविद्यालय नें इसे आरंभ किया यह सराहनीय पहल है. इसके लिए विश्वविद्यालय के डॉ.व्यासनारायण दुबे एवं कुलपति डॉ.शिवकुमार पाण्डेय को ही असल श्रेय जाता है.

डॉ.शिवकुमार पाण्डेय नें उस भाषा में स्नातकोत्तर की पढ़ाई को मान्यता दी जिसे भारत के संविधान नें अभी भाषा के रूप में स्वीकृत नहीं किया है. उनकी यह बात भी काबिले तारीफ है कि उन्होंनें बड़े ही सहज भाव से स्वीकारा कि यह पाठ्क्रयम रोजगारोन्नमुखी नहीं है, वे एम.ए. छत्तीसगढ़ी के विद्यार्थियों को छत्तीसगढ़ी भाषा का दूत बनाना चाहते हैं जो इस भाषा के प्रचार प्रसार में अहम किरदार निभायेंगें. छत्तीसगढ़ी के इन दूतों को मेरा सलाम.

पिछले पोस्ट में मेरी असहमति पर टिप्पणियॉं आई थी कि डॉ.पालेश्वर शर्मा जी के किस बात पर मेरी असहमति रही. मैं इस बात को ज्यादा विस्तार ना देते हुए सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि यह असहमति मेरी व्यक्तिगत सोंच से अपजी असहमति थी. मैं इस पर कुछ लिख कर विवाद उत्पन्न नहीं करना चाहता, इस सभा में रामेश्वर वैष्णव, सुशील त्रिवेदी, शकुन्तला शर्मा, जयंत साहू, संस्कृति विभाग के अशोक तिवारी, डॉ.कामता प्रसाद वर्मा आदि उपस्थित थे. मेरा मानना है कि मेरी असहमति के संबंध में सभा में उपस्थित अधिकतम लोग सहमत रहे होंगें और जो लोग वहॉं अनुपस्थित थे वे उपस्थित सज्जनों से स्वयं चर्चा कर लेवें. मोटे तौर पर आचार संहिता के संबंध में याद दिलाने के बावजूद दो सब्जी से मंहगाई बढ़ने वाली राजनैतिक बातें एवं आयोग के सदस्य मनोनीत करने के संबंध में आयोग सदस्य की अक्षमता व प्रशासनिक/राजनैतिक सिफारिशों पर टिप्पणी मुझे उस मंच से अच्छी नहीं लगी. शेष बातें कभी व्यक्तिगत संपर्क में स्पष्ट करने का प्रयास करूंगा.

तमंचा रायपुरी

तुरते ताही 2 : राजभाषा आयोग के मंच में डॉ.पालेश्वर शर्मा जी के उद्बोधन पर मेरी असहमति एवं प्रतिरोध


पिछले 28 नवम्बर को छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के अवसर पर रायपुर में दो प्रमुख कार्यक्रम आयोजित हुए, एक सरकारी एवं दूसरी असरकारी. सौभाग्य से असरकारी कार्यक्रम की रिपोर्टिंग लगभग सभी संचार माध्यमों नें प्रस्तुत किया.

सरकारी कार्यक्रम छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के द्वारा संस्कृति विभाग के सभागार में आयोजित था. हम यहॉं लगभग अनामंत्रित थे किन्तु सरला शर्मा जी नें हमें इस कार्यक्रम में आने का अनुरोध किया था तो हम उनके स्नेह के कारण वहॉं पहुच गए थे. वैसे राहुल सिंह जी के रहते संस्कृति विभाग में हमारी जबरै घुसपैठ होती रही है तो हम साधिकार कार्यक्रम में सम्मिलित हो गए. कुर्सी में बैठते ही लगा कि मंचस्थ आयोग के सचिव पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे नें एक उड़ती नजर हम पे मारी है, निमंत्रण नहीं दिया फिर भी आ गया. छत्तीसगढ़ी भाषा के कार्यक्रमों में पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे की मुख मुद्रा कुछ इस तरह की होती है कि सामने जो आडियंस बैठी है वो रियाया है, और वे अभी अभी व्यक्तित्व विकास के रिफ्रेशर कोर्स से होकर आए हैं. इसलिए हम एक पल को सहम गए कि इन्होंनें देख लिया, पहचान गए कि नास्ते का डिब्बा डकारने वाला आ गया. इसी उहापोह में थे कि सचमुच में नास्ते का डिब्बा आ गया, हमने ना कही तो डिब्बा बांटने वाले नें जबरदस्ती हाथ में पकड़ा दिया. हम चाह रहे थे कि इस घटना को भी पद्म श्री देखें किन्तु बांटने वाला कुछ ऐसे खड़ा था कि डॉक्टर साहब देख नहीं पाये. बहुत देर तक डिब्बा हाथ में लिए बैठे रहे फिर ज्यादा सोंचने के बजाए सभी आमंत्रित अतिथियों की भांति रसमलाई का लुफ्त उठाने लगे.

यह कार्यक्रम चुनाव आचार संहिता की अवधि में हो रहा था इस कारण आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य कार्यक्रम में उपस्थित नहीं थे. कार्यक्रम में जब हम पहुंचे थे तब डॉ.विनय कुमार पाठक जी का उद्बोधन चल रहा था जो राजभाषा आयोग के शब्दकोश एवं प्रयोजनामूलक छत्तीसगढ़ी के विकास में भावी योजनाओं के संबंध में था. इसके बाद कार्यक्रम का संचालन डॉ.सुधीर शर्मा नें आरंभ किया और रविशंकर विश्वविद्यालय के कुलपति शिवकुमार पाण्डेय जी नें अपना उद्बोधन दिया.

इसके बाद प्रमुख वक्ता के रूप में पालेश्वर शर्मा जी नें अपना उद्बोधन आरंभ किया. पालेश्वर शर्मा जी छत्तीसगढ़ी भाषा के वरिष्ठ विद्वान हैं, छत्तीसगढ़ की संस्कृति, साहित्य और परम्परा के वे जीते जागते महा कोश हैं. हम उनसे छत्तीसगढ़ के संबंध में सदैव नई जानकारी प्राप्त करते रहे हैं किन्तु राजभाषा आयोग के इस कार्यक्रम में पालेश्वर शर्मा जी के लम्बे एवं उबाउ उद्बोधन में मोती छांटने की सी स्थिति रही. मैं हतप्रभ था कि यह पालेश्वर शर्मा जी पर वय का असर था या तात्कालिक मन: स्थिति, कुछ समझ में नहीं आया. संचालक को उनके उद्बोधन के बीच में ही पर्ची देना पड़ा पर पालेश्वर जी अपने रव में बोलते ही रहे. मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं किन्तु उन्होंनें जो 28 नवम्बर को छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस को छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के मंच से अपना वक्तव्य दिया उसमें से अधिकतम बातें उस मंच एवं स्वयं पालेश्वर जी की गरिमा के अनुकूल नहीं थी, मेरी असहमति एवं प्रतिरोध दर्ज किया जाए.

तमंचा रायपुरी

तुरते ताही 1 : नये छत्तीसगढ़ी वेब ठिकानों का स्वागत

इस बात को स्वीकारने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि लोक भाषा छत्तीसगढ़ी के वेब पोर्टल गुरतुर गोठ डॉट कॉम के संपादन से मुझे बहुत कम समय में लोक साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा मिली. यह प्रतिष्ठा मुझे मेरे लगातार संवेदनशील और लीक से हटकर छत्तीसगढ़ी लेखन के बावजूद भी नहीं प्राप्त हो पाती जो मुझे इस पोर्टल के संपादन से प्राप्त हुई. हालांकि इसके पीछे मेरी जुनूनी लगन और अपनी भाषा के प्रति प्रेम का जजबा साथ रहा. मुझे इसे निरंतर रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी, वेब इथिक व कानूनी पेंचों को ध्यान में रखते हुए वेब आरकाईव में पड़े एवं पीडीएफ फारमेट की रचनाओं को नया वेब रूप प्रदान करना पड़ा. सैकड़ों पेजों की रचनाओं को परिवार के तानों के बावजूद टाईप करना पड़ा. जो भी हो मेरी तपस्या का फल मुझे मेरे पोर्टल के हजारों पाठकों के रूप में मिला.

मेरी नेट सक्रियता के शुरूआती समय से ही इच्छा रही कि छत्तीसगढ़ी भाषा और दूसरी लोक भाषाओं के वेब साईट भी नेट में अधिकाधिक संख्या में उपस्थित हो और लोक भाषा के साहित्य भी नेट में अपना स्थान बनायें. स्वप्न धीरे धीरे आकार लेती गई, इसी कड़ी में पिछले कुछ दिनों से लगातार उत्साहजनक व स्वागतेय सूचना प्राप्त हो रहा है कि छत्तीसगढ़ी में कुछ और वेब साईट आने वाले हैं. हम इंतजार कर रहे हैं किन्तु अभी तक कोई ठोस कार्य सामने नहीं आ पा रहा है. कुछ तकनीकि सक्षम साथियों नें अपने ब्लॉग तो बना लिये हैं किन्तु वे पाठकों के कम आवक के कारण उसे अपडेट नहीं कर पा रहे हैं. यह समस्या प्रत्येक नये वेब साईट में आम होता है, हम नेट में डाटा इसलिए नहीं डालते कि उसको तात्कालिक प्रतिसाद मिलेगा किन्तु हम उसे इसलिए डालते हैं कि भविष्य में उससे लोग लाभान्वित होंगें. नये आने वाले सभी वेबसाईटों के माडरेटरों से मेरा अनुरोध है कि उसे वे निरंतर रखें, निश्चित ही यदि हमारे साईट में लोगों के काम की चीज होगी तो वे उसे खोजते हुए आयेंगें ही. इस संबंध में अहम बात यह ध्यान रखें कि इसके लिए किसी डोमेन और होस्टिंग की आवश्यकता नहीं. मुफ्त के ब्लॉग से भी आप भाषा और साहित्य की सेवा कर स​कते हैं, 500 रू. के डोमेन से ब्लॉग मैपिंग कर स्वयं के वेब साईट का भ्रम भी पाल सकते हैं या डोमेन व न्यूनतम 1200 से 7000 रू. के सालाना होस्टिंग के खर्च पर स्वतंत्र वेब पोर्टल संचालित कर सकते हैं.

इस संबंध में यह बात भी ध्यान रखें कि रेहड़ी चलाने वाले के बच्चे पहले शौक में रेहड़ी पेलते हैं, उत्साह में मस्ती करते हैं और जब यही रेहड़ी जब बड़े होने पर दायित्व बन जाती है तो उन्हें उस रेहड़ी के ठेलने में लगने वाले असल बल का भान होता है. किसी वेब साईट या ब्लॉग को आरंभ करना, शुरूआती दौर में उसे लगातार अपडेट करना, टिप्पणियों व क्लिकों से उत्साहित होना इसके बाद में उसे निरंतर रखना भी रेहड़ी चलाने जैसा दायित्व बोध है. नये वेब साईट के माडरेटरों के इस बोध का स्वागत है.
तमंचा रायपुरी
चित्र गो इंडिया डॉट काम से साभार

छत्तीसगढ़ी ब्लॉग की दुनिया

छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों के सफर की शुरूआत के कई दावे हो सकते हैं लेकिन साहित्यकार जय प्रकाश मानस ने जब छत्तीसगढ़ी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘लोकाक्षर’ को आनलाईन किया तब लोगों को पहली बार अपनी मातृभाषा के साहित्य को, आनलाईन पाकर अत्यंत प्रसन्नता हुई. इसी समय में मानस ने छत्तीसगढ़ी के पहली उपन्यास और शिवशंकर शुक्ल जी की कृति दियना के अँजोर व जे.आर.सोनी की कृति चन्द्रकलामोंगरा के फूल (छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह) आदि को ब्लॉग प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया और छत्तीसगढ़ी साहित्य एक क्लिक में जन सुलभ हो गया. इसी तरह साहित्यकार परदेसी राम वर्मा का उपन्यास आवा भी ब्लॉग के माध्यम से नेट के पाठकों तक पहुंचा.

इस समय तक हिन्दी ब्लॉगों में छुटपुट छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग जारी था. गूगल का सोसल नेटवर्किंग साईट ‘आरकुट’ तब अपने चरम पर था. अमरीका में शोध कर रहे धमतरी के युवा युवराज गजपाल ने इस सशक्त माध्यम में छत्तीसगढ़ी ग्रुप बनाकर छत्तीसगढ़ी रचनाओं को सहेजा. युवराज गजपाल ने सीजी नेट में भी कई लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गानों का संग्रह किया जो याहू के सीजी नेट समूह के द्वारा लाखों लोगों तक पहुचा और बहुत सराहा गया. यह समय इंटरनेट में छत्तीसगढ़ी भाषा का बोलबाला वाला समय रहा, जिसका श्रेय युवराज गजपाल को जाता है.

आरकुट के अवसान एवं फेसबुक के उत्स के बीच के समय में हिन्दी ब्लॉगों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई. हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटर नारदचिट्ठाजगत, ब्‍लॉगवाणी आदि के सहारे ब्लॉगों के फीड धड़ा धड़ लोगों तक पहुचने लगे और पाठकों की संख्या में भी वृद्धि हुई. इस आलेख के लेखक ने पहले अपने ब्लॉग आरंभ में एवं फिर संजीत त्रिपाठी ने अपने ब्लॉग आवारा बंजारा में कुछ छत्तीसगढ़ी पोस्ट लिखे, इन पोस्टों को काफी सराहा गया. इस समय तक हिन्दी ब्लॉग जगत में छत्तीसगढ़ का दबदबा ब्लॉगरगढ़ के रूप में स्थापित हो चुका था.

‘लोकाक्षर’ का आनलाईन प्रकाशन एक वर्ष के बाद बंद हो गया था और इंटरनेट में छत्तीसगढ़ी रचनाओं की निरंतरता कायम नहीं रह पाई थी. इसी समय में नियमित रूप से छत्तीसगढ़ी रचनाओं को प्रस्तुत करने की आकांक्षा इस आलेख के लेखक के मन में जागी. साथियों की मंशा थी कि छत्तीसगगढ़ी रचनायें इंटरनेट में नियमित उपलब्ध हो और 2007 में गुरतुर गोठ का स्वरूप तय हुआ.

अक्टूबर 2008 से गुरतुर गोठ में नियमित रूप से प्रतिष्ठित रचनाकारों की छत्ती़सगढ़ी रचनांए प्रकाशित होने लगी. देखते ही देखते इस ब्लॉग के छत्तीसगढ़िया मूल के विदेशी पाठकों की संख्या में वृद्धि होती गई, उनके नियमित मेल आने लगे. नियमित रूप से छत्तीसगढ़ी के विभिन्न रचनाकारों को प्रकाशित करने वाला यह पहला ब्लॉग था.

शुरूआती दौर में अन्य छत्तीसगढ़िया ब्लॉगरों ने सामूहिक ब्लॉग के रूप में रचनाएं डालने में सहयोग किया किन्तु दो चार पोस्टों के बाद ही इस क्रम का अंत हो गया, रचनाओं को टाईप करने में सभी कतराते रहे. छत्तीसगढ़ी के प्रति पाठकों की रूचि और इसे निरंतर रखने के अनुरोध के कारण इस आलेख का लेखक स्वयं इसके लिए प्रतिबद्ध हो गया और इसे आज तक अनवरत रखा हुआ है.

इस बीच कुछ और छत्तीसगढ़ी ब्लॉग बनाए गए जिसमें रचनांए आई किन्तु नियमित नहीं रहीं. कनाडा से डा.युवराज गजपाल ने पिरोहिल एवं ललित शर्मा ने अपने स्वयं की छत्तीसगढ़ी रचनाओं के लिए ‘अड़हा के गोठ’ नाम से ब्लॉग बनाया किन्तु इसमें रचनायें नियमित नहीं रहीं. हालांकि ललित शर्मा अपने हिन्दी ब्लॉगों में छत्तीसगढ़ पर केन्द्रित विषयों में प्रचुर मात्रा में निरंतर लिख रहे हैं.

गुण्डरदेही के संतोष चंद्राकर ने छत्तीसगढ़ी भाषा में दो ब्लॉग बनाये और जब छत्तीसगढ़ी में विभिन्न रचनाकारों की छत्तीसगढ़ी रचनायें प्रकाशित करना आरंभ किया तो सभी की आशा जाग उठी कि वृहद छत्तीसगढ़ी शब्दकोश के लेखक चंद्रकुमार चंद्राकर जी की रचनायें, शब्दकोश व मुहावरे इसमें पढ़ने को मिलेंगी एवं इंटरनेट में इनका दस्तावेजीकरण भी होगा, ये जनसुलभ हो पायेंगे किन्तु संतोष चंद्राकर इसे अपनी व्यस्तता के कारण निरंतर नहीं रख पाये.

गुरतुर गोठ के संपर्क में आने के बाद भाठापारा के मथुरा प्रसाद वर्मा ने मोर छत्तीसगढ़ी गीत, रायपुर के अनुभव शर्मा ने घुरूवा ग्राम बंधी, दाढ़ी के ईश्वर कुमार साहू मया के गोठ आदि ने भी अपने छत्तीसगढ़ी ब्लॉग बनाये, जिसमें अपनी रचनाओं को प्रकाशित किया. हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के मिश्रित ब्लॉग में बिलासपुर के डॉ. सोमनाथ यदु का ब्लॉग सुहई, जांजगीर के राजेश सिंह क्षत्री का ब्लॉग मुस्कान आदि में रचनायें गाहे बगाहे आती रही. भोपाल से रविशंकर श्रीवास्तव जी ने अपने प्रसिद्ध ब्लॉग रचनाकार में भी छत्तीसगढ़ी की रचनायें एवं संपूर्ण किताब अपलोड किया है.

छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों में जगदलपुर के राजेश चंद्राकर का ब्लॉग सीजीगीत संगी का अवदान उल्लेखनीय है. ऐसे समय में जब इंटरनेट में सक्रिय लोगों ने छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों को भरपूर उपेक्षित किया, उस समय में सीजी गीत संगी ने अभिनव प्रयोग करते हुए छत्तीसगढ़ी गीतों को लिपिबद्ध रूप में प्रस्तुत करते हुए उनके ऑडियो भी प्रस्तुत किए. सीजीगीत संगी के माडरेटर ने अपने तकनीकि ज्ञान का भरपूर उपयोग करते हुए इस ब्लॉग को सीओ तकनीक में सक्षम बनाया. जिसके कारण इसमें सर्च इंजन से भी पाठक आने लगे और आज भी यह छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लॉग बना हुआ है.

निरंतरता के क्रम में कोदूराम दलित की रचनाओं को इंटरनेट प्लेटफार्म देने के लिए उनके पुत्र अरूण कुमार निगम ने सियानी गोठ के नाम से ब्लॉग आरंभ किया उसे उन्होंने नियमित रखा है. छत्तीसगढ़ी के स्थापित युवा साहित्यकार जयंत साहू ने चारी चुगली के नाम से अपना छत्तीसगढ़ी ब्लॉग बनाया है और वे इसमें अंतरालों में अपनी रचनायें प्रकाशित करते रहते हैं.

इन सबके बावजूद उंगलियों में गिने जा सकने वाले इन छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों को आज प्रोत्साहन व पहचान की आवश्यकता है. इंटरनेट में भोजपुरी, अवधी एवं मैथिली ब्लॉगों में जिस तरह से उनके भाषा प्रेमियों का प्रेम व सम्मान झलकता है, ऐसा छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों में नहीं है. उम्मीद की जानी चाहिये कि इनकी संख्या में वृद्धि होगी और अंतरजाल में छत्तीसगढ़ी भाषा भी समृद्ध होगी.

(संभव है, कुछ ब्लॉगों का नाम उल्लेख नहीं हो पाया हो, पाठक इस बारे में अपनी राय हमें देंगे)

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...