विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
जयतु संस्कृतम् । वदतु संस्कृतम् । पठतु संस्कृतम् । लिखतु संस्कृतम् ॥ का नारा इंटरनेट में बुलंद करने वाले बहुत कम लोग ही सक्रिय हैं जिसमें से एक हैं डॉ० संकर्षण त्रिपाठी जी. इनके ब्लॉग से मैं पिछले दिनों रूबरू हुआ. ब्लॉग में इन्होंनें 'संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा' पर सात कड़ियों में पोस्ट लिखा है. इन पोस्टों पर लिखते हुए उन्होंनें पाठकों से कहा है कि 'यदि संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा विषयक मेरा यह प्रयास सुधीजनों को आत्मिक संतोष प्रदान करते हुए कामशास्त्र एवं कामसूत्र के संबन्ध में प्रचलित भ्रान्त धारणाओं को निर्मूल करने में सहायक हो सके, यही इस परिश्रम का प्रतिफल एवं कार्य की सफलता होगी।'
संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (1)
संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (2)
संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (3)
संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (4)
संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (5)
संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (6)
संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (7)
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बहुत ही श्रेष्ठ प्रयास..
जवाब देंहटाएंपरंपरा के निर्वहन के लिए संकर्षण त्रिपाठी जी को प्रणाम
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