सुआ गीत : नारी हृदय की धड़कन

आज छत्‍तीसगढ़ के दुर्ग नगर में एक अद्भुत आयोजन हुआ जिसमें परम्‍पराओं को सहेजने की मिसाल कायम की गई, पारंपरिक छत्‍तीसगढ़ी संस्‍कृति से लुप्‍त होती विधा 'सुआ गीत व नाच' का प्रादेशिक आयोजन आज दुर्ग की धरती पर किया गया जिसमें पूरे प्रदेश के कई सुवा नर्तक दलों नें अपना मोहक नृत्‍य प्रस्‍तुत किया। इस आयोजन में एक दर्शक व श्रोता के रूप में देर रात तक उपस्थित रह कर मेरे पारंपरिक मन को अपूर्व आनंद आया। मेरे पाठकों के लिए इस आयोजन के चित्रों के साथ सुआ गीत पर मेरे पूर्वप्रकाशित (प्रिंट मीडिया में, ब्‍लॉग में नहीं) आलेख के मुख्‍य अंशों को यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं -

सुआ गीत : नारी हृदय की धडकन
छत्तीसगढ़ में परम्पराओं की महकती बगिया है जहां लोकगीतों की अजस्र रसधार बहती है। लोकगीतों की इसी पावन गंगा में छत्तीसगढ़ी संस्कृति की स्प्ष्ट झलक दृष्टिगत होती है। छत्तीतसगढ़ में लोकगीतों की समृद्ध परम्परा कालांतर से लोक मानस के कंठ कंठ में तरंगित रहा है जिसमें भोजली, गौरा, सुआ व जस गीत जैसे त्यौहारों में गाये जाने वाले लोकगीतों के साथ ही करमा, ददरिया, बांस, पंडवानी जैसे सदाबहार लोकगीत छत्तीसगढ़ के कोने कोने से गुंजायमान होती है। इन गीतों में यहां के सामाजिक जीवन व परम्पराओं को भी परखा जा सकता है। ऐसे ही जीवन रस से ओतप्रोत छत्तीसगढ़ी लोकगीत है 'सुआ गीत' जिसे वाचिक परम्परा के रूप में सदियों से पीढी दर पीढी यहां की नारियां गाती रही हैं।
पारम्‍परिक भारतीय संस्कृत-हिन्दी साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका के बीच संदेश लाने ले जाने वाले वाहक के रूप में सुक का मुख्य स्थान रहा है। मानवों की बोलियों का हूबहू नकल करने के गुण के कारण एवं सदियों से घर में पाले जाने व खासकर कन्याओं के प्रिय होने के कारण शुक नारियों का भी प्रिय रहा है। मनुष्य की बोली की नकल उतारने में सिद्धस्थ इस पक्षी को साक्षी मानकर उसे अपने दिल की बात ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना, कहि आते पिया ला संदेस’ कहकर वियोगिनी नारी यह संतोष करती रही कि उनका संदेशा उनके पति-प्रेमी तक पहुच रही है। कालांन्तर में सुआ के माध्यम से नारियों की पुकार और संदेश गीतों के रूप में गाये जाने लगे और प्रतीकात्मक रूप में सुआ का रूप मिट्टी से निर्मित हरे रंग के तोते नें ले लिया, भाव कुछ इस कदर फूटते गये कि इसकी लयात्मकता के साथ नृत्य भी जुड गया।
सुआ गीत मूलत: गोंड आदिवासी नारियों का नृत्य गीत है जिसे सिर्फ स्त्रियां ही गाती हैं । यह संपूर्ण छत्तीसगढ़ में दीपावली के पूर्व से गाई जाती है जो देवोत्थान (जेठउनी) एकादशी तक अलग-अलग परम्पराओं के अनुसार चलती है। सुवा गीत गाने की यह अवधि धान के फसल के खलिहानों में आ जाने से लेकर उन्हारी फसलों के परिपक्वता के बीच का ऐसा समय होता है जहां कृषि कार्य से कृषि प्रधान प्रदेश की जनता को किंचित विश्राम मिलता है।
सुआ सामूहिक गीत नृत्य है इसमें छत्तीसगढ़ की नारियां मिट्टी से निर्मित सुआ को एक टोकरी के बीच में रख कर वृत्ताकार रूप में खडी होती हैं। महिलायें सुआ की ओर ताकते हुए झुक-झुक कर चक्राकार चक्कर लगाते, ताली पीटते हुए नृत्य करते हुए गाती हैं। ताली एक बार दायें तथा एक बार बायें झुकते हुए बजाती हैं, उसी क्रम में पैरों को बढाते हुए शरीर में लोच भरती हैं।
गीत का आरम्भ ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना ....’ से एक दो नारियां करती हैं जिसे गीत उठाना कहते हैं । उनके द्वारा पदों को गाने के तुरन्त, बाद पूरी टोली उस पद को दुहराती हैं। तालियों के थप थप एवं गीतों के मधुर संयोजन इतना कर्णप्रिय होता है कि किसी भी वाद्य यंत्र की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। संयुक्त स्वर लहरियां दूर तक कानों में रूनझुन करती मीठे रस घोलती है।
गीतों में विरह के मूल भाव के साथ ही दाम्पत्य बोध, प्रश्नोत्तनर, कथोपकथन, मान्यताओं को स्वींकारने का सहज भाव पिरोया जाता है जिसमें कि नारियों के बीच परस्पर परंम्‍परा व मान्यताओं की शिक्षा का आदान प्रदान सहज रूप में गीतों के द्वारा पहुचाई जा सके। अपने स्व‍प्न प्रेमी के प्रेम में खोई अविवाहित बालायें, नवव्याही वधुयें, व्यापार के लिए विदेश गए पति का इंतजार करती व्याहता स्त्रियों के साथ जीवन के अनुभव से परिपूर्ण वयस्क महिलायें, सभी वय की नारियां सुवा गीतों को गाने और नाचने को सदैव उत्सुक रहती हैं । इसमें सम्मिलित होने किशोरवय छत्तीसगढी कन्या अपने संगी-सहेलियों को सुवा नृत्य हेतु जाते देखकर अपनी मां से अनुनय करती है कि उसे भी सुवा नाचने जाना है इसलिए वह मां से उसके श्रृंगार की वस्तुएं मांगती है। ‘देतो दाई देतो तोर गोड के पैरी, सुवा नांचे बर जाहूं’ यह गीत प्रदर्शित करता है कि सुवा गीत-नृत्य में नारियां संपूर्ण श्रृंगार के साथ प्रस्तुत होती थीं।
संपूर्ण भारत में अलग अलग रूपों में प्रस्तुंत विभिन्न क्षेत्रों के लोकगीतों में एक जन गीत जिसमें नवविवाहित कन्यां विवाह के बाद अपने बाबुल के घर से अपने सभी नातेदारों के लिवाने आने पर भी नहीं जाने की बात कहती है किन्तु पति के लिवाने आने पर सहर्ष तैयार होती है। इसी गीत का निराला रूप यहां के सुआ गीतों में सुनने को मिलता है। यहां की परम्परा एवं नारी प्रधान गीत होने के कारण छत्तीसगढी सुवा गीतों में सास के लेने आने पर वह नवव्याही कन्या जाने को तैयार होती है क्योंकि सास ससुराल के रास्ते में अक्ल बतलाती है, परिवार समाज में रहने व चलने की रीति सिखाती है -
अरसी फूले सुनुक झुनुक गोंदा फुले छतनार, 
रे सुआना कि गोंदा फुले छतनार 
वोहू गोंदा ला खोंचे नई पायेंव, 
आगे ससुर लेनहार ...... 
ससुरे के संग में नि जाओं ओ दाई, 
कि रद्दा म आंखी बताथे 
ओहू गोंदा ल खोंचे नि पायेंव, 
कि आगे देवर लेनहार 
देवर संग में नी जाओं दाई, 
कि रद्दा म ठठ्ठा मढाथे 
ओहू गोंदा ल खोंचे नि पायेंव, 
कि आगे सैंया लेनहार
सैंया संग में नी जाओं वो दाई, 
कि रद्दा म सोंटा जमाथे
ओहू गोंदा ल खोंचे नि पायेंव, 
कि आगे सास लेनहार 
सासे संग में तो जाहूं ओ दाई, 
कि रद्दा म अक्काल बताथे 
रे सुआ ना कि रद्दा म अक्काल बताथे .........
पुरूष प्रधान समाज में बेटी होने का दुख साथ ही कम वय में विवाह कर पति के घर भेज देने का दुख, बालिका को असह होता है। ससुराल में उसे घर के सारे काम करने पडते हैं, ताने सुनने पडते हैं। बेटी को पराई समझने की परम्परा पर प्रहार करती यहां की बेटियां अपना दुख इन्हीं गीतों में पिराते हुए कहती हैं कि मुझे नारी होने की सजा मिली है जो बाबुल नें मुझे विदेश दे दिया और भाई को दुमंजिला रंगमहल । छत्तीसगढी लोक गीतों में बहुत बार उपयोग में लिया गया और समस समय पर बारंबार संदर्भित बहुप्रचलित एक गीत है जिसमें नारी होने की कलपना दर्शित है -
पइयां परत हौं मैं चंदा सुरूज के, 
रे सुवना तिरिया जनम झनि देय 
तिरिया जनम मोर अति रे कलपना, 
रे सुवना जहंवा पठई तहं जाए 
अंगठी मोरी मोरी, घर लिपवावै, रे सुवना 
फेर ननंद के मन नहीं आए 
बांह पकरि के सैंया घर लाये, 
रे सुवना ससुर ह सटका बताय 
भाई ल देहे रंगमहलवा दुमंजला, 
रे सुवना हमला तो देहे बिदेस
ससुराल में पति व उसके परिवार वालों की सेवा करते हुए दुख झेलती नारी को अपने बाबुल का आसरा सदैव रहता है वह अपने बचपन की सुखमई यादों के सहारे जीवन जीती है व सदैव परिश्रम से किंचित विश्राम पाने अपने मायके जाने के लिए उद्धत रहती है। ऐसे में जब उसे पता चलता है कि उसका भाई उसे लेने आया है तब वह अपने ससुराल वालों से विनती करती है कि ‘उठव उठव ससुर भोजन जेवन बर, मोर बंधु आये लेनहार’ किन्तु उसे घर का सारा काम काज निबटाने के बाद ही मायके जाने की अनुमति मिलती है। कोयल की सुमधुर बोली भी करकस लग रही है क्योंकि नायिका अपने भाई के पास जाना चाहती है। उसने पत्र लिख लिख कर भाई को भेजे हैं कि भाई मुझे लेने आ जाओ। सारी बस्ती सो रही है किन्तु भाई भी अपनी प्यारी बहन के याद में सो नहीं पा रहा है -
करर करर करे कारी कोइलिया 
रे सुवना कि मिरगा बोले आधी रात 
मिरगा के बोली मोला बड सुख लागै 
रे सुवना कि सुख सोवे बसती के लोग 
एक नई सोवे मोर गांव के गरडिया 
रे सुवना कि जेखर बहिनी गए परदेश 
चिठी लिख लिख बहिनी भेजत हे 
रे सुवना कि मोरे बंधु आये लेनहार
छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोकगीतों में पुरूष को व्यापार करने हेतु दूर देश जाने का उल्लेख बार बार आता है। अकेली विरहाग्नि में जलती नारी अपने यौवन धर्म की रक्षा बहु विधि कर रही है किन्तु मादक यौवन सारे बंद तोडने को आतुर है ‘डहत भुजावत, जीव ला जुडावत, रे सुवना कि चोलिया के बंद कसाय’। ऐसे में पति के बिना नारी का आंगन सूना है, महीनों बीत गए पर पति आ नहीं रहा है। वह निरमोही बन गया है उसे किसी बैरी नें रोक रखा है, अपने मोह पाश में जकड रखा है । इधर नारी बीड़ी की भांति जल जल कर राख हो रही है । पिया के वापसी के इंतजार में निहारती पलके थक गई हैं। आसरा अब टूट चुका है, विछोह की यह तड़फ जान देने तक बढ गई है ‘एक अठोरिया में कहूं नई अइहव, रे सुवना कि सार कटारी मर जांव’ कहती हुई वह अब दुख की सीमा निर्धारित कर रही है।
दिल्ली छै में सुवासित छत्तीसगढ़ी लोक गीत के भाव सुवा गीतों में भी देखने को मिलता है जिसमें विवाह के बाद पहली गौने से आकर ससुराल में बैठी बहु अपने पिया से सुवा के माध्यम से संदेशा भेजती है कि आप तो मुझे अकेली छोडकर व्यापार करने दूर देश चले गये हो। मैं किसके साथ खेलूंगी-खाउंगी, सखियां कहती हैं कि घर के आंगन में तुलसी का बिरवा लगा लो वही तुम्हारी रक्षा करेगा और वही तुम्हारा सहारा होगा –
पहिली गवन के मोर देहरी बैठारे, 
वो सुवना छाडि पिया गये बनिज बैपार 
काखर संग खेलिहौं काखर संग खइहौं, 
कि सुवना सुरता आवत है तुहांर 
अंगना लगा ले तैं तुलसी के बिरवा, 
रे सुवना राखही पत ला तुम्हार
देवर भाभी के बीच की चुहल व देवर को नंदलाल की उपमा देकर अद्भुत प्रेम रस बरसाने वाली छत्तीसगढ़ की नारियां देवर की उत्सुकता का सहज उत्तर देते हुए छोटे देवर को अपने बिस्तर में नहीं सोने देने के कारणों का मजाकिया बखान करते हुए कहती है कि मेरे पलंग में काली नाग है, छुरी कटारी है । तुम अपने भईया के पलंग में सोओं। देवर के इस प्रश्न पर कि तुम्हारे पलंग में काली नाग है तो भईया कैसे बच जाते हैं तो भाभी कहती है कि तुम्हारे भईया नाग नाथने वाले हैं इसलिए उनके प्राण बचते हैं –
तरी हरी नाना न नाना सुआ ना, 
तरी हरि नाह ना रे ना 
अंगरी ला मोरी मोरी देवता जगायेंव 
रे तरि हरि नाह ना रे ना 
दुर रे कुकुरवा, दुर रे बिलईया, 
कोन पापी हेरथे कपाट 
नों हंव कुकुरवा में नों हंव बिलईया, 
तोर छोटका देवर नंदलाल 
आये बर अइहौ बाबू मोर घर मा, 
फेर सुति जइहौ भईया के साथ 
भईया के पलंग भउजी भुसडी चाबत हैं, 
तोरे पलंग सुख के नींद 
मोरे पलंग बाबू छूरी कटारी, 
सुन ले देवर नंदलाल 
हमरे पलंग बाबू कारी नागिन रे, 
फेर डसि डसि जिवरा लेवाय 
तुंहरे पलंग भउजी कारी रे नांगिन, 
फेर भईया ल कईसे बंचाय 
तुंहरे भईया बाबू बड नंगमतिया, 
फेर अपने जियरा ला लेथे बंचाय ....
छत्तीसगढ़ में दो-तीन ऐसे सुआ गीत पारंपरिक रूप से प्रचलित हैं जिनमें इस काली नाग के संबंध में विवरण आता है। यह वही काली नाग है जो व्यापार के लिए दूर देश गए पिया के बिना अकेली नारी की रक्षा करती है। यह काली नागिन उसका विश्वास है, उसके अंतरमन की शक्ति है -
छोटका देवर मोर बडा नटकुटिया, 
रे सुवना छेंकत है मोर दुवार 
सोवा परे म फरिका ला पेलै, 
रे सुवना बांचिहै कइसे धरम हमार 
कारी नागिन मोर मितानिन, 
रे सुवना रात रहे संग आय
कातिक लगे तोर अइहैं सजनवा, 
रे सुवना जलहि जोत बिसाल
स्त्री सुलभ भाउकता से ओतप्रोत ऐसे ही कई सुवा गीत छत्तीसगढ़ में प्रचलित है, जिनको संकलित करने का प्रयास हेमनाथ यदु व कुछेक अन्य लोककला के पुरोधा पुरूषों नें किया है। इन गीतों का वास्तविक आनंद इनकी मौलिकता व स्वाभाविकता में है जो छत्तीगढ़ के गांवों में देखने को मिलता है।
रंग बिरंगी – रिंगी चीगी वस्त्रों से सजी धजी नारियां जब सुवा गीतों में विरह व दुख गाते हुए अपने दुखों को बिसरा कर नाचती हैं तो संपूर्ण वातावरण सुरमई हो जाता है। गीतों की स्वाभाविक सहजता व सुर मन को मोह लेता है और मन कल्पना लोक में इन मनभावन ललनाओं के प्रिय सुवा बनकर घंटों इनका नृत्य देखने को जी करता है। इस भाग-दौड व व्यस्त‍ जिन्दगी में अपने परिवेश से जोडती इन जड़ों में जड़वत होकर कल कल बहती लोकरंजन गीतों की नदियों का जल अपने रगो में भरने को जी चाहता है। क्योंकि समय के साथ साथ सरकती सभ्यता और संस्कृति में आदिम जीवन की झलक ऐसे ही लोकगीतों में दिखाई देती है ।

संजीव तिवारी

अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते ......

साहित्‍य शिल्‍पी में भाई राजीव रंजन प्रसाद नें बस्तर के वरिष्ठतम साहित्यकार लाला जगदलपुरी से बातचीत [बस्तर शिल्पी अंक-2] प्रकाशित की है लाला जी के संबंध में राजीव जी की दृष्टि और साक्षात्‍कार को पढ़ना अच्‍छा लगा, लाला जी के संबंध में उनके शब्‍द 'अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते, तो आप नागार्जुन को भी नहीं जानते और आप निराला को भी नहीं जानते और आप बस्तर को भी यकीनन नहीं जानते।' सौ प्रतिशत सत्‍य है, एक कड़ुआ सच। हिन्‍दी साहित्‍य जगत नें लाला जी को बिसरा दिया इसका हमें उतना मलाल नहीं किन्‍तु जिस प्रदेश में इस महान संत नें साहित्‍य सृजन किया उस प्रदेश नें भी सदैव इनकी उपेक्षा की। सहृदयी लाला जी को इस बात से कोई मलाल नहीं किन्‍तु हमें है, बस्‍तर-बस्‍तर का ढोल पीटने वालों नें जानबूझकर लाला जी को हासिये में डाला और उनका सरल स्‍वभाव साहित्तिक-बौद्धिक राजनीति का शिकार होता रहा।
छत्‍तीसगढ़ में लाला जी के इस हालात पर मुह खोलने वाले बहुत कम लोग है किन्‍तु जो हैं वे काफ़ी तल्‍खी से अपनी वेदना व्‍यक्‍त करते हैं, यह भाव उनके लाला जी के प्रति अगाध श्रद्धा को दर्शाता है जिसमें से राजीव जी भी एक रहे हैं, मैं राजीव जी को अपनी भावनाओं के साथ खड़ा पाकर मुदित होता हूं कि यद्धपि हम लाला जी को यथेष्‍ठ सम्‍मान ना दिला पायें किन्‍तु उन्‍हें अंधेरे में रखने वालों के विरूद्ध एवं व्‍यवस्‍था के विरूद्ध बोलने का हक तो है हमें। लाला जी के इस हालात पर व्‍यवस्‍था के विरूद्ध बोलने वालों में मुझे भोपाल से प्रकाशित सम-सामयिक चेतना की छंद-धर्मी पत्रिका संकल्‍परथ के वयोवृद्ध संपादक श्री राम अधीर हमेशा याद आते हैं। लाला जी, बस्‍तर और छत्‍तीसगढ़ को बूझने का यत्‍न करने वालों एवं बूझ कर भी भुला देने वालों के लिये  'संकल्‍परथ' के लाला जगदलपुरी अंक के संपादकीय के कुछ अंश को दस्‍तावेजी साक्ष्‍य के रूप में प्रस्‍तुत कर रहा हूं, यथा -
संकल्‍प रथ जानता है कि लालाजी के नाम पर या उनके सूत्रों को हथिया कर कितने ही लोग बस्‍तर की संस्‍कृति, कला-लोक जीवन के महानतम विशेषज्ञ बन गये। आज खम ठोककर दावा यह कि उनसे बड़ा पांचवा सवार कोई और नहीं है, अगर उनका वश चले तो शायद वह यह भी प्रमाणित कर देंगें कि एक जमाने में सारी दुनिया ही बस्‍तर में थी जिसकी खोज उन्‍होंनें की है। जबकि बस्‍तर के आदिवासियों की सामान्‍य और असामान्‍य जीवन-शैली को लाला जी नें जितना करीब से देखा-अनुभव किया ये तथाकथित कला-संस्‍कृति के ठेकेदार एक पासंग में नहीं बैठते। जब म.प्र. का एक हिस्‍सा था छत्‍तीसगढ़, तब 000000 जैसे पूंजीवादी कम्‍युनिस्‍टों नें छत्‍तीसगढ़ को विशेषकर बस्‍तर को खूब भुनाया और समग्र सुविधाओं का दुरूपयोग किया। आदिवासी बाजारों-हाटों में जाकर या भोपाल के लोक-रंग के चार दिवसीय आयोजन में आकर डेरा लगाकर रहने वाले 000000 नें बहुत ही सस्‍ते दामों में आदिवासी कलाकृतियॉं खरीदकर अपना संग्रहालय बना लिया। यह काम तो कोई भी कर सकता है, केवल धन होना चाहिए। सच यह है कि 000000 नें जो कुछ लिखा है- उसकी मौलिकता का स्‍त्रोत लालाजी के पास है, हम जानते हैं उनका अपना मौलिक कुछ नहीं।
वास्‍तव में यह सब गुटबंदी के कारण होता है, फिर म.प्र. की सरकार का संस्‍कृति विभाग खासतौर पर म.प्र.आदिवासी लोक-कला परिषद 000000 को इलिये भी सिर पर बिठाती रही कि वह स्‍वयं को श्री अशोक बाजपेयी का खास आदमी बताते रहे। हम तो एक सवाल करते हैं कि छत्‍तीसगढि़यों को नासमझ करार देने वाले इस तथाकथित कम्‍युनिस्‍ट नें क्‍या कभी किसी छत्‍तीसगढि़या की सहायता की है, उनके हलकेपन का एक उदाहरण दे रहा हूं - एक बार मैं और 000000 एक दुकान में बैठे थे, वहां एक छत्‍तीसगढी महिला भीख का कटोरा लेकर आई। उसे इस महान साम्‍यवादी नें दिया तो कुछ नहीं अलबत्‍ता उसे दुत्‍कार कर भगा दिया और बाद में टिप्‍पणी की कि 'ये छत्‍तीसगढि़या अपने कर्मों का फल भुगत रहे हैं।'

इस ब्‍लॉग के पूर्व प्रकाशित पोस्‍ट में उपलब्‍ध :  दण्‍डक वन का ऋषि # दण्‍डकारण्‍य का संत : लाला जगदलपुरी 

दूसरे पैराग्राफ में 'मुदित' शब्‍द का प्रयोग मैंनें 'आत्‍मसंतुष्टि कि चलो कोई तो साथ है मेरे' के भाव से किया है कोई और शब्‍द तात्‍कालिक तौर पे नहीं बन पड़ा, क्षमा सहित.

स्‍वागत करें छत्‍तीसगढ़ से नई हिन्‍दी ब्‍लॉगर डॉ.ऋतु दुबे जी का

मैंने एम.पी.एड., एम. ए. (हिंदी), किया है, राज्‍य प्रशासनिक सेवा से चयनित होकर महाविद्यालय मे कार्यरत हूं, मैने शारीरिक शिक्षा विषय मे अपना शोध प्रबंध पूरा कर पं. रविशंकर शुक्‍ल विश्वाविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है.
भावों से भरी हूं, भावनाओं को शब्‍द के किसी  भी रूप मे परिवर्तित करना चाहती हूं, कविता, कहानी, लेख ..., जिद्दी हूं जो चाहती हूं करती हूं, संवेदनशील इतनी कि हृदय जल्दी खुश या दुखी हो जाता है और अपने भावों को छिपा नहीं पाती हूं, झूठ मुझे पसंद नहीं, जहां तक बन पड़े रिश्तो को बचाने का प्रयास करती हूं.
हर वक्त कुछ न कुछ करना चाहती हूं  .. .. सृजनशील रहना चाहती हूं.
ब्‍लॉगर प्रोफाईल में अपने संबंध में बतलाते हुए डॉ.ऋतु दुबे जी ऐसा कहती हैं, ऋतु जी अपनी भावनात्‍मक अभिव्‍यक्ति को इरा पाण्‍डेय के नाम से प्रस्‍तुत करना चाहती हैं। छत्‍तीसगढ़ के दुर्ग नगर में निवासरत डॉ.ऋतु दुबे फेसबुक के वाल की शब्‍द सीमाओं में अपनी दिल की बात को बंधा महसूस करती रही हैं इस कारण इन्‍होंनें हिन्‍दी ब्‍लॉग बनाया है, और अपने ब्‍लॉग का नाम रखा 'दिल की बात'. आईये स्‍वागत करें डॉ.ऋतु दुबे जी का एवं टिप्‍पणियों से डॉ.ऋतु दुबे का उत्‍साहवर्धन करें.
उनके ब्‍लॉग का लिंक यह है :-  'दिल की बात'

डॉ.ऋतु दुबे जी के ब्‍लॉग के आगाज के साथ ही आज के छत्‍तीसगढ़ ब्‍लॉगर्स चौपाल में छत्‍तीसगढ़ के ब्‍लॉगपोस्‍टों में से एक आवश्‍यक पोस्‍ट छत्‍तीसगढी लोकधुन 1948 की किशोर साहू की फिल्‍म पर भी एक नजर अवश्‍य डालें, मेरा दावा है आप संपूर्ण पोस्‍ट पढ़ना चाहेंगें. सीजी स्‍वर में संज्ञा टंडन जी नें बहुत मेहनत व लगन से यह पोस्‍ट तैयार की है, छत्‍तीसगढ़ में रूचि रखने वाले प्रत्‍येक सुधी पाठकों को इसे अवश्‍य पढ़ना चाहिए.  

सपना की इंदिरा को श्रद्धांजली और अरूण के मजेदार संस्‍मरण

तरूणाई में रेडियो श्रोता संघ से जुडे अरूण कुमार निगम जी एक मजेदार वाकया बतलाते हैं, हुआ यूं कि रेडियो फरमाईसी में विभिन्‍न स्‍थानों के श्रोताओं के नियमित नाम आने के चलते नियमित रेडियो श्रोताओं के बीच एक अंतरंग संबंध स्‍थापित हो चुका था और एक दूसरे के बीच पत्रोत्‍तर भी होने लगा था। इसी बीच रेडियो में रायपुर के एक नियमित श्रोता के पत्र को आकाशवाणी के 'आपके पत्र' कार्यक्रम के तहत पढ़ा गया, श्रोता ने अपने विवाह में उद्घोषक उद्घोषिका एवं श्रोता मित्रों को भी आमंत्रित किया था, वह रेडियो का बहुचर्चित श्रोता था निगम जी व उनके मित्र उससे मिलना चाहते थे। विवाह रायपुर में ही हो रही थी इस कारण पहुचना आसान था, नियत समय में निगम जी श्रोता मित्रों से चंदे कर गिफ्ट का पैकैट लिया और श्रोता मित्रों के साथ निकल पड़े रायपुर के लिए, विवाह किसी भवन में हो रहा था, जिसका विवाह हो रहा था उस श्रोता के नाम को पूछकर आश्‍वस्‍त होकर निगम जी की टीम रिशेप्‍शन स्‍टेज पर पहुची गिफ्ट दिया हाथ मिलाया, अपना परिचय दिया और नीचे उतर आये।
... पर निगम जी को कुछ अटपटा लग रहा था, यद्धपि वे अपने श्रोता मित्र 'वर' के चेहरे से परिचित नहीं थे किन्‍तु उन्‍हें लग रहा था कि रेडियो श्रोता संघ का परिचय देने के बावजूद मित्र 'वर' के चेहरे पर चमक नहीं थी, ऐसा तो नहीं कि यह हमारा श्रोता मित्र ना हो, स्‍टेज के नीचे उतर कर कुछ और पूछताछ की तो शक हकीकत में बदल गया, उस 'वर' का नाम तो वही था किन्‍तु वह रेडियो श्रोता नहीं था। इस भवन में दो शादियॉं हो रही थी दोनो 'वर' का नाम एक ही था इसी गलतफहमी के शिकार निगम जी और उनके मित्र हो गए थे, जेबखर्च के पैसे से गिफ्ट खरीदा गया था, वापसी के टिकट के पैसे के अतिरिक्‍त जेब में पैसे नहीं थे, दूसरा गिफ्ट कैसे खरीदें ... सभी मित्रों का उत्‍साह काफूर हो गया था, क्‍या करें सूझ ही नहीं रहा था ... निगम जी ने हिम्‍मत की, झिझकते हुए 'वर' के रिश्‍तेदार से अपनी समस्‍या बतलाई ... और उसने निगम जी व मित्रों के द्वारा दी गई गिफ्ट वापस की ... मित्रों के सांस में सांस आई ... फिर वे भवन के दूसरे सिरे पर हो रहे रेडियो श्रोता मित्र 'वर' के वैवाहिक कार्यक्रम में शामिल हुए किन्‍तु उनका उत्‍साह जाता रहा।
अपने कालेज के दिनों के इस संस्‍मरण को हमसे साझा करने वाले अरूण कुमार निगम जी छत्‍तीसगढ़ी के जनकवि कोदूराम ‘दलित’ के ज्‍येष्‍ठ पुत्र हैं एवं भारतीय स्‍टैट बैंक में सेवारत हैं। लेखन इन्‍हें विरासत में प्राप्‍त हुआ है, किन्‍तु बैंक कार्यों में व्‍यस्‍तता के कारण आजकल लिख नहीं पाते हैं। जब से इन्‍होंनें हिन्‍दी ब्‍लॉग की दुनिया को निहारा है तब से पुन: इनका लेखक मन कुलाचें भरने लगा है। हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत के जी.के.अवधिया जी, शरद कोकाश जी एवं शाय़र डॉ. संजय दानी जी इनके पूर्व परिचित हैं। मेरी निगम साहब से पहली मुलाकात फोन में हुई थी हुआ यह कि विगत वर्ष आदरणीय जनकवि कोदूराम ‘दलित’ जी की पुण्‍यतिथि पर स्‍थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित विज्ञापन में अरूण कुमार निगम जी का नाम व फोन नम्‍बर प्रकाशित था। मैं सहज उत्‍सुकतावश उन्‍हें जब फोन किया तब से उनसे सतत फोन संपर्क जारी है। अरूण जी वर्तमान में जबलपुर में पदस्‍थ है, इस कारण फोन से संपर्क विवशता है किन्‍तु हर वार्ता में आपस में मिलने की चाह भी रही। अरूण जी छुट्टियों में दुर्ग आते रहते हैं, पिछले दिनों अरूण जी दीपावली की छुट्टियां मनाने दुर्ग आये तब उनसे मिलने का अवसर आया और हम पहुच गये उनके आदित्‍य नगर स्थित घर में।
छत्‍तीसगढ़ के नवागढ़ में एक महाविद्यालय का नामकरण आदरणीय कोदूराम ‘दलित’ जी के नाम पर हुआ है वहां पिछले दिनों दलित जी की पुण्‍यतिथि पर आयोजित एक कार्यक्रम के संबंध में स्‍थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचार से यह भी ज्ञात हुआ कि अरूण जी की पत्‍नी श्रीमती सपना भी लेखन में रूचि रखती हैं। पिछले दिनों अरूण कुमार निगम जी दीपावली मनाने दुर्ग आये थे तब हमारी उनसे मुलाकात हुई, सहज सरल स्‍वभाव के अरूण-सपना निगम से दीपावली भेट में मिठाईयों की मिठास के साथ ही अरूण जी के दुर्ग में पढ़ाई के दौरन के संस्‍मरणों की रोचक चर्चा होती रही। उन दिनों रेडियो का बोलबाला था वे रेडियो के पक्‍के अनुरागी थे, रेडियो सीलोन व विविध भारती के दीवाने, ढेरों पोस्‍टकार्ड रेडियो स्‍टेशनों को भेजा करते। पत्रों में अपनी फरमाईस व कार्यक्रमों की समीक्षा भेजते, अरूण जी का अलग-अलग स्‍थानों से रेडियो में फरमाईस करने वाले एवं पत्र लिखने वालों से धीरे-धीरे एक अदृश्‍य संबंध स्‍थापित होने लगा था। अरूण जी ने अपने नगर के रेडियो प्रेमी लोगों को इकट्ठा कर एक श्रोता संघ का गठन कर लिया और वे इस श्रोता संघ के नाम से रेडियो में पत्र भेजते रहे एवं कार्यक्रमों का आनंद उठाते रहे बाद में इन्‍हें आकाशवाणी में कुछ कार्यक्रम प्रस्‍तुत करने का अवसर भी प्राप्‍त हुआ, उनके इन्‍हीं संस्‍मरणों मे से एक का उल्‍लेख मैंने इस पोस्‍ट के आरंभ में किया है
हमारे अनुरोध पर अरूण कुमार निगम जी ने जनकवि आदरणीय कोदूराम जी 'दलित' की रचनाओं को जनसुलभ कराने के लिये एक ब्‍लॉग 'सियानी गोठ' एवं अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने के लिए 'मितानी गोठ' के नाम से ब्‍लॉग बनाया है, जिसके पहली पोस्‍ट पर वे छत्‍तीसगढ़ी गीतों पर अपनी गहरी दृष्टि प्रस्‍तुत कर रहे हैं। भाभी श्री मूलत: छत्‍तीसगढ़ी भाषा में लिखती हैं उनकी रचनाओं को गुरतुर गोठ में पढ़ा जा सकता है, छत्‍तीसगढ़ी के साथ ही उन्‍होंनें हिन्‍दी में भी लिखने का प्रयास किया है, आज श्रीमती इंदिरा गांधी जी की जयंती पर श्रीमती सपना निगम जी नें एक कविता लिखी है आप भी देखें एवं इस ब्‍लॉगर जोड़ी को शुभकानायें देवें :-

प्रियदर्शिनी इंदिरा

19 नवम्बर 1917
शीतकाल थी रात उजियारी
इस दिन जन्म हुआ था आपका
गूंजी थी पहली किलकारी
माता कमला नेहरु , आपके
पिता जवाहरलाल
बेटी बनकर जनम लिया
दुनिया में किया उजाल
इलाहाबाद में बचपन बीता
प्राथमिक शिक्षा रही घर में
कॉलेज की पढाई विलायत में की
ऑक्सफोर्ड - लन्दन शहर में
सन 42 में विवाह हुआ था
2 बेटो की बनी माता
पर नियति को मंजूर नहीं था
घर-गृहस्थी से आपका नाता
पिता की प्रेरणा और प्रभाव से
राजनीति मिली विरासत में
सूचना प्रसारण मंत्री बनी थी
शास्त्री जी की हकूमत में
प्रधानमंत्री का पद मिला
सन 66 में पहली बार
कुशल प्रशासन किया आपने
दुश्मन को किया लाचार
मैत्री निभाई साम्यवाद से
पूंजीवाद से किया था किनारा
जन-जन के दिल पे राज किया
गरीबी हटाओ का दिया था नारा
नारी की तुम बनी प्रेरणा
देश का मान बढाया था
सारी दुनिया देखती रह गयी
तिरंगा जब फ़हराया था
चिर परिचित मुस्कान आपकी
महक उठी-वसुंधरा
इन्द्रलोक से आई थी जैसे
प्रियदर्शिनी-इंदिरा .......!!!

श्रीमती सपना निगम

मुक्तिबोध की कविता का सस्वर गायन एक रोमांचकारी क्षण

गजानन माधव मुक्तिबोध बीसवीं सदी के एक महान साहित्यकार थें, जिनका कद इक्कीसवीं सदी में और भी ऊंचा हुआ है। आने वाली सदियों में वे और भी अधिक अन्वेषित होकर और भी महान लेखक होते चले जावेंगे। उनकी कविताओं की जटिलता और रहस्यमयता जग जाहिर है। वे कठिन कवि माने जाते हैं जिन्हें औरों की तरह सेलीब्रेट नहीं किया जा सकता। इसलिए जहॉ अन्य कवियों की कविताऍं आसानी से गाई बजाई जाती रहीं हैं उस तरह से गाना बजाना मुक्तिबोध की कविताओं के साथ संभव नहीं हो पाया था। उनकी किसी कविता का गायन कभी देखने सुनने में नहीं आया था।
मेरे लिए आज की तारीख 13 नवंबर 2010 एक यादगार तारीख रहेगी जब जनसंस्कृति मंच, भिलाई के राष्ट्रीय अधिवेशन में मैंने इस चमत्कार को पहली बार होते देखा। मुक्तिबोध को समर्पित इस अधिवेशन की शुरुआत में जो गीत गाए गए उनमें एक गीत मुक्तिबोध का था। यह उनकी प्रसिद्ध कविता ’अंधेरे में’ की पंक्तियों का सस्वर गायन था। इसे पुरुष और महिला कलाकारों ने एक साथ प्रस्तुत किया। जैसे ही मंच पर सामूहिक गान शुरु हुआ मुक्तिबोध की द्वन्द से भरी ये कालजयी पंक्तियॉ गूंज उठीं :
ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन
तूने क्या किया
जीवन क्या जिया
इसे सुनना बहुत आल्हादकारी था। ये मुक्तिबोध की संघर्षमयी उबड़ खाबड़ जमीन से जुड़ी पंक्तियॉ थीं जिसे करीने से स्वरबद्ध किया गया था। यह अपने आप में एक चमत्कारिक संयोजन था। इसे लोगों ने किसी चमत्कार की तरह देखा। मुक्तिबोध के समग्र चमत्कारिक लेखन की ही तरह। यह प्रस्तुति अन्धेरे में किसी रहस्यमय सुरंग से आती मधुर आवाज की तरह थी। इस धुन ने सुनने वालों को न केवल भाव विभोर बल्कि रस विभोर भी कर दिया जो कई दशकों तक अपने में एक असंभव काम सा लगता रहा था। इसे संभव कर दिखाया था उन नौजवान कलाकारों ने जो मंच में खड़े होकर मिल जुलकर गा रहे थे ’तूने क्या किया - जीवन क्या जीया।’ मुक्तिबोध के शब्दों में किसी अनहदनाद की तरह।
मंच पर मैनेजर पाण्डेय और मंगेश डबराल बैठे थे। इस गायन के तुरन्त बाद जब मुक्तिबोध पर बोलने के लिए मंगेश डबराल को बुलाया गया तब सबसे पहले उन्होंने यहीं कहा कि ’मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं को रचते समय यह कल्पना भी नहीं की रही होगी कि कभी कोई ऐसा समय आएगा जब उनकी कविता का लयबद्ध मधुर गायन होगा। आज यहॉ जो हुआ वह कितना विलक्षण और रोमांचकारी है।’ मंगेशजी ने सबके दिलों की बात कह दी थी।
विनोद साव

इस कविता को हिरावल के नितिन एवं साथियों नें प्रस्‍तुत किया नितिन जी की कुछ प्रस्‍तुतियॉं यहां उपलब्‍ध है, हमने उनसे अनुरोध किया है कि ओ मेरे आदर्शवादी मन ... का आडियो विडियो को भी इसमें प्रस्‍तुत करें।

देखें ब्‍लॉगर व कवि शरद कोकाश इन दिनों क्‍या कर रहे हैं

शरद कोकाश जी मेरे नगर में ही रहते हैं, गाहे-बगाहे मेल-मुलाकात होते रहती है एवं मोबाईल में बातें भी होती है, वे मुख्‍य रूप से कवितायें लिखते हैं, कहानी,व्यंग्य,लेख और समीक्षाएँ भी लिखते हैं। उनकी एक कविता संग्रह "गुनगुनी धूप में बैठकर" और "पहल" में प्रकाशित लम्बी कविता "पुरातत्ववेत्ता " के अलावा सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में कवितायें व लेख प्रकाशित हुई हैं। इसके साथ ही वे शरद कोकाश, पास पड़ोसना जादू ना टोना नाम से ब्‍लॉग भी लिखते हैं। उनके पेशे के संबंध में जो जानकारी मुझे है उसके अनुसार से वे भारतीय स्‍टैट बैंक में सेवारत थे जहॉं से उन्‍होंनें स्‍वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है।
मेल-मुलाकातों में हमने कभी पूछा भी नहीं कि वे अब क्‍या करते हैं किन्‍तु आज उन्‍हें कर्मनिष्‍ठ देखकर हम चकरा गए, हुआ यूं कि हम भिलाई में आयोजित जन संस्‍कृति मंच के राष्‍ट्रीय अधिवेशन में कुछ ज्ञान बटोरने के लिए गए तो वहां कार्यक्रम स्‍थल के बाजू में शरद भाई हमें चाय ठेले में चाय बनाते मिले .... शरद भाई बैंक की नौकरी छोड़कर, चाय ठेला चला रहे हैं ... हमारी आंखें तो आश्‍चर्य से फटी की फटी रह गई किन्‍तु शरद भाई नें मुस्‍कुराते हुए चाय बनाकर पिलाया और हमने एक फोटो के लिए फलैश चमकाया, आप भी देखें -



चाय पीने के बाद हम कार्यक्रम स्‍थल में आकर बैठ गए पर मन अशांत सा शरद भईया के संबंध में ही सोंच रहा था वैसे ही मंच में शरद कोकाश भईया का नाम पुकारा गया और शरद कोकाश जी बड़े निर्विकार भाव से अपना सारगर्भित उद्बोधन देने लगे -


शरद भाई के इन दोनों रूप को हमने आज देखा, सोंच रहे थे, कि कार्यक्रम के बाद शरद भाई से पूछें,  पर घर के लिए सब्‍जी लेना था इसलिये हम कार्यक्रम बीच में छोड़कर सब्‍जी बाजार की ओर लपक लिये।

जन संस्‍कृति मंच के राष्‍ट्रीय अधिवेशन की तस्‍वीरों व रिपोर्टिंग के साथ फिर मिलेंगें, तब तक .... आप लोगों को कैसा लगा शरद भईया का यह रूप .. बताईये, बताईये, लजाईये मत टिपियाईये.

मुक्तिबोध ओ मुक्तिबोध : मुक्तिबोध स्‍मारक परिसर के संबंध में संक्षिप्‍त जानकारी

मूर्धन्य कवि समीक्षक गजानन माधव मुक्तिबोध जी ने अपने जीवन काल की सर्वश्रेष्‍ठ रचनाएं छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के राजनांदगांव जिले के दिग्विजय महाविद्यालय  में अपने सेवा काल (1958-1964) के दौरान लिखी उनके इस रचनाकाल और रचनाओं पर देश की शीर्ष अकादमिक व साहित्यिक बिरादरी में निरंतर चर्चा होती रही है। राज्‍य शासन नें उनकी यादों को  जीवंत बनाने के लिए यहां भव्‍य त्रिवेणी संग्रहालय का निर्माण करवाया है। जहां मुक्तिबोध जी रहा करते थे, उनकी साहित्य साधना का स्थान और घुमावदार सीढ़ी जिसका उल्लेख उन्होनें अपनी रचनाओं में की है इस भवन के उपरी मंजिल के उत्तरी खंड में है। इस खडं को पुन: मुक्तिबोध जी को, उनकी यादों के साथ समर्पित करना निश्चय ही उनके प्रति कृतज्ञता एवं श्रृद्धा का प्रतीक है। मुक्तिबोध जी को समर्पित कक्ष को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वह आज भी अपनी रचनाओं के सृजन में लीन हों। मुक्तिबोध जी का सिगरटे बाक्स, उनकी पोशाक, चश्मा और उनकी वह दो कलमें (पेन) जिससे उन्होंने अपनी अनेक रचनाएं लिखी थी, को वहां देखकर यह आभास होता है जैसे वह कहीं हमारे आसपास मौजदू हों।




यह स्मारक सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक दर्शकों, साहित्य प्रेमियों के लिए खुला रहता है । शासकीय अवकाश रविवार के दिन भी यहां जाया जा सकता है। यह स्मारक सोम वार को बदं रहता है।

मुक्तिबोध ओ मुक्तिबोध, 
तुम गजानन, तुम माधव, 
स्‍वीकारो श्रद्धा सुमन 
मैं अल्‍प मति, मैं अबोध 
तुम मुक्तिबोध ..
... संजीव तिवारी


फोटो सिंहावलोकन वाले राहुल सिंह भईया से साभार 

नोकिया 5233 मोबाईल से ब्‍लॉग पोस्‍टों को पढ़ने का आनंद




साथियों पिछले माह से नोकिया 5233 मोबाईल सेट में एयरसेल के 98 रूपया में 30 दिन अनलिमिटेड पाकेट इंटरनेट उपयोग कर रहा हूं। इस मोबाईल सेट में हिन्‍दी सुविधा तो नहीं है, किन्‍तु ओपेरा मिनी की कृपा से हिन्‍दी नेट का आनंद इस मोबाईल सेट से ले रहा हूं। 
इस हैंडसेट के चलते इसमें संस्‍थापित ओपेरा मिनी एवं गूगल रीडर के माध्‍यम से अब हिन्‍दी ब्‍लॉग पोस्‍टों को पढ़ना और भी आसान हो गया है, यद्धपि ब्‍लॉग परम्‍परानुसार हम आपके पोस्‍टों पर टिप्‍पणी नहीं कर पा रहे हैं किन्‍तु जब भी जहां भी समय मिले दो तीन बटनों को पुश करके साथियों के ब्‍लॉग के ताजा पोस्‍टों को हम पढ़ रहे हैं। .... सो हाजिरी नहीं लगा पाने के लिये क्षमा...

छत्‍तीसगढ़ के साहित्‍यकारों व लेखन धर्मियों के लिए आज काला दिवस है

राज्य स्थापना की दसवीं वर्षगांठ के अवसर पर दिये जाने वाले 23 सम्‍मानों /पुरस्कारों की घोषणा राज्य शासन ने कर दी है। इसमें 26 लोगों को आज 1 नवंबर को शाम 6.30 बजे साइंस कालेज ग्राउंड में राज्य अलंकरण से सम्मानित किया जाएगा। समारोह में प्रदेश की विभूतियों के नाम से विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्यो के लिए सम्मान दिया जाएगा। 
इन अलंकरणों में पं.सुन्‍दरलाल शर्मा पुरस्‍कार राज्‍य में साहित्‍य के क्षेत्र में उल्‍लेखनीय योगदान के लिये दिया जाता रहा है, इस वर्ष राज्‍य शासन द्वारा पं.सुन्‍दरलाल शर्मा सम्‍मान के लिये संयुक्‍त रूप से जिन नामों की घोषणा की गई है, उसमें से डॉ.उज्‍वल पाटनी के नाम पर हमें आपत्ति है। साहित्‍य के लिये दिया जाने वाला पं.सुन्‍दरलाल शर्मा सम्‍मान इस वर्ष संयुक्‍त रूप से डॉ.उज्‍वल पाटनी एवं डॉ.विनय कुमार पाठक को दिया गया है। डॉ. उज्‍वल पाटनी का नाम इस सम्‍मान में 'घुसेडने' के लिये इस सम्‍मान को साहित्‍य और आंचलिक साहित्‍य के रूप में विभक्‍त कर दिया गया। 
प्रदेश सरकार द्वारा डॉ.उज्‍वल पाटनी को साहित्‍यकार के रूप में थोपे जाने  का यह निंदनीय प्रयास है, डॉ.उज्‍वल पाटनी पेशे से दांतों के डाक्‍टर हैं और व्‍यक्तित्‍व विकास की क्‍लास लेते रहे हैं, इन्‍होंनें व्‍यक्तित्‍व विकास पर ही किताबें लिखी हैं जिसका अनुवाद अन्‍य विदेशी भाषाओं में भी हुआ है, दूसरों को अपने व्‍यक्तित्‍व को प्रभावशाली बनाने का ट्रिक बताने वाले इस मायावी नें स्‍वयं अपने व्‍यक्तित्‍व को राज्‍य शासन के सम्‍मुख ऐसा प्रस्‍तुत किया कि रातो रात प्रदेश के बरसों से साहित्‍य सेवा कर रहे साहित्‍यकार दरकिनार कर दिये गए और जादुई ट्रिक सिखाने वाली किताब के लेखक को प्रदेश का सर्वोच्‍च साहित्‍य सम्‍मान हेतु चुन लिया गया। 
हम राज्‍य शासन के इस चयन का विरोध करते हैं, छत्‍तीसगढ की साहित्‍य बिरादरी, लेखन धर्मियों के लिये आज का यह दिन काला दिन के रूप में याद किया जायेगा। इस पर पुन: लिखूंगा ... अभी ...
डॉ. विनय कुमार पाठक जी को बधाई एवं छत्‍तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस की आप सभी को शुभ कामनायें। 

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...