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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

प्रख्यात पंडवानी गायिका रितु वर्मा छुटपन में कीर्तिमान

10 जून 1979 को भिलाई की श्रमिक रूआबांधा में जन्मी कु. रितु वर्मा ने अगस्त 1989 में विदेशी मंच पर अपना पहला कार्यक्रम दिया। मात्र दस वर्ष की उम्र में जापान में अपना कार्यक्रम देकर रितु ने वह गौरव हासिल किया जो बिरले कलाकारों को मिलता है। रितु छतीसगढ़ की पहली ऐसी प्रतिभा संपन्न कलाकार है जिसने इतनी छोटी उम्र में ऐसा विलक्षण प्रदर्शन दिया। घुटनों के बल बैठकर और एक हाथ में तंमूरा लेकर रितु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कार्यक्रम दिया। कार्यक्रम में आये जापानी दर्शक गोरी चिट्टी छुई हुई सी लगने वाली इस पंडवानी विधा की गुडिय़ा के प्रदर्शन पर देर तक तालियां बजाते रहे। संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली द्वारा महोत्सव के लिए जापान प्रवास का यह सुअवसर रितु को लगा। तब से वह लगातार विदेश जा रही है। 1991 में आदिवासी लोक कला परिषद भोपाल ने उसे जर्मनी एवं इंग्लैंड भेजा। तब तक रितु की कला और निखर चुकी थी। वहां उसे खूब वाहवाही मिली।
1995 में जुलाई माह में रितु को पुन: परिषद की पहल पर इंग़्लैंड जाने का अवसर लगा। अक्टुबर 1996 में वह बंगलौर एशिया सोसायटी की ओर से 50वीं स्वर्ण जयंती समारोह में अमरीका गई। जुलाई 2003 में वह पुन: एक माह के लिए इंग़्लैंड गई। पंडवानी विधा में दो शैलियां प्रचलित है। एक मंच पर बैठकर गाने की शैली। इसे वेदमती शैली कहते हैं। इस शैली में ही पंडवानी के पुरोधा दुलारसिंह साव मदराजी सम्मान प्राप्त स्व. झाडूराम देवांगन से लेकर तमाम पुरूष कलाकार गायन करते हैं। पुनाराम निषाद, चेतन देवांगन आदि इसी विधा के कलाकार है। महिलाओं में पंडवानी की सबसे वरिष्ठ कलाकार श्रीमती लक्ष्मीबाई - कातुलबोर्ड वाली इस विधा की साधिका रहीं। लक्ष्मीबाई ने ही पहले पहल पुरुष पोषित पंडवानी विधा में धमाकेदार प्रदर्शन किया। वे आज सत्तर की उम्र में भी प्रदर्शन देती है। कैंसर से लडक़र जीत जाने वाली इस जीवट कलाकार के बाद रितु ने ही वेदमती शैली में गायन का अभ्यास किया। शेष चर्चित पंडवानी गायिकाओं में विश्वविख्यात पद्मभूषण डॉ. तीजनबाई सहित श्रीमती शांतिबाई चेलक, श्रीमती मीना साहू, श्रीमती प्रतिमा, श्रीमती उषा बारले, श्रीमती सोमेशात्री, श्रीमती टोमिनबाई निषाद सबने कापालिक शैली को साधा। कापालिक शैली में कलाकार खड़े होकर अभिनय सहित मंच पर कला का जौहर दिखाता है। यह शैली महिलाओं के लिए अनुकूल और प्रभावशाली सिद्ध हुई। रितु ने छुटपन से एक पांव के घुटने पर बल देकर पंडवानी कहने की कला को साधा। आज रितु श्रीमती रितु नोमुलवार हो गई है। उसका एक बेटा भी है। समय- समय पर उससे भी खड़े होकर कापालिक शैली में गायन करने का आग्रह किया गया लेकिन रितु ने अपना ढंग नहीं बदला। अपनी शर्तों पर जीने वाली रितु ने इस शैली की साधना से विश्व में नाम किया। वह उत्तरोत्तर यश के शिखरों का स्पर्श कर रही है। अंधेरी बस्ती में स्वर का उजास पाटन क्षेत्र के गांव सोरम से एक श्रमिक परिवार आज से तीस वर्ष पहले भिलाई आया। उसे रूआबांधा में आसरा मिला। सोरम गांव के श्री लखनलाल वर्मा अच्छे बढ़ई थे। यहां अपनी दक्षता का लोहा मनवाने में लखनलाल को अधिक समय नहीं लगा। उनका काम चल निकला। यहीं 10 जून 1979 को रितु का जन्म हुआ। रितु जब पांच वर्ष की थी तब उसे खेलने के लिए एक तंबूरानुमा खिलौना पिता ने दे दिया। इस बीच कुछ पंडवानी के कार्यक्रमों में भी देखने-सुनने के लिए रितु पिता की गोद में बैठकर आती जाती रही। वहां से लौटकर वह कुछ गुनगुनाने का प्रयत्न करती। कभी खिलौने को टूनटुनाती। उसके इस प्रयास को रूआबांधा के गुलाबदास मानिकुरी ने देखा। उन्हे पंडवानी गायन की थोड़ी सिद्धि थी। वे भी श्रमिक थे। पिता लखनलाल ने भी प्रोत्साहित किया। कुछ दिनों के बाद एक छोटा ढंग का तंबूरा भी लखनलाल ने बना दिया और रितु का अभ्यास शुरू हो गया। शाम को अपने घर के आगे बोरे में बैठकर रितु पंडवानी गाती। काम से थके रूआबांधा बस्ती के बूढ़े जवान वहां आ जुटते। लालटेन और चिमनी की रोशनी में रितु का गायन होता।
'जैता म पण्डो मन जनम लीन भैया’ प्राय: पंडवानी गायन की शुरुवात में यही वाक्य कलाकार उमचाता है। जयता पाण्डवों की नगरी और हसना कौरवों का नगर। पारंपरिक पंडवानी में कौरव पाण्डवों को पशुपालक के रूप में र्वणित किया जाता था। बजनी वन, उसमें चरती आठ लाख गायें, बकरियां, हाथी, सब साथ में विचरते। इस तरह की ग्रामीण कथायें प्राय: भिन्न-भिन्न जातीय संस्कारों से जुड़े कलाकार गाते हैं। लेकिन मानक के तौर पर सबलसिंह चौहान लिखित कथा को साधा। उन्होने तुलसी के दोहों, संस्कृत के श्लोकों और कबीर के वचनों का भी प्रभावी प्रयोग किया। वे पहले गायक थे जिन्होने लिखित कथा को हृदयंगम कर उसे छत्तीसगढ़ी रूप दिया।
रितु के मन पर झाडूराम देवांगन का गहरा प्रभाव पड़ा। पिता लखनलाल भी पोथी उठा लाये। वे कथा रटाते और गुलाबदास कथा को सुर में ढालने का गुर सिखाते। इस तरह रितु ने पहला पाठ अपने इन दो गुरुओं से सीखा। रितु पारंपरिक शैली की साधिका है। वही अकेली महिला गायिका है जो पंडवानी की वेदमती शैली में शुरू की उठानवाली पंक्तियों को यथावत गाती हैं...
'रामे रामे रामे रामे गा रामे भइया जी,
रामे रामे रामे रामे ग रामे भाई,
राजा जनमेजय पूछन लागे भैया,
बइसमपायेन कहन लागे भाई।‘
रितु इस तरह कथा की शुरुवात करती है। अन्य महिला, कलाकार कका ममा जैसे संबोधनों के सहारे आगे बढ़ती है लेकिन रितु की ठेही 'भइया’ है। छोटी सी रितु ने जब थोड़ा सा अभ्यास कर लिया तब रूआबांधा के बबला यादव के घर के सामने उसका पहला कार्यक्रम हुआ। पहले कार्यक्रम में ही रितु की प्रतिभा का लोहा बस्ती वालों ने स्वीकार कर लिया। फिर उसे प्रोत्साहन के लिए कुछ कार्यक्रम और मिले। धीरे-धीरे गांवों में उसकी धूम मचने लगी। लखनलाल जी ने कुछ साजिंदों को जोडक़र एक दल बना लिया। 'रितु वर्मा पंडवानी दल’ चल निकला। रूआबांधा बस्ती का नाम भी चमक उठा। फिर पहला बड़ा ब्रेक रितु को भिलाई इस्पात संयंत्र के लोकरंगी आयोजन में मिला। प्रदर्शन देखकर बीस हजार दर्शक ठगे से रह गये। एक आठ बरस की दुबली पतली लडक़ी ने जिस आत्मविश्वास के साथ पंडवानी कथा का गायन किया उसे देखकर आयोजक भी दंग रह गए। यहां से रितु के प्रभामंडल का विस्तार होने लगा। और दस बरस की रितु उड़ चली, गुडिय़ों के देश जापान की ओर। कैसा अजब संयोग था कि हिरोशिमा और नागासाकी का प्रलंयकारी विभीषिका से थर्राये हुए जापान में भारत की इस नन्ही सी कलाकार बेटी को महासंग्राम की कथा की प्रस्तुति के लिए बुलाया गया। बहुत प्रयत्न करने पर भी कृष्ण जैसे जगतगुरू से लड़ाई टाली न जा सकी और अंधे धृतराष्ट्र तथा आंखों पर पट्टी बांधकर जीने को प्रतिबद्ध माता गांधारी के सभी बेटे उसके सामने युद्धक्षेत्र में खेत रहे।
जापान में एक भीषण लड़ाई और उसके दुष्परिणाम की कथा रितु कह आई। उसे जापान में बेहद .यार मिला। तब उसके पिता उसे सहारा देकर हवाई जहाज की सीट पर बिठाते थे, आज पिता जीवन की संध्‍या में थके थके से दिखते हैं। रितु उन्हे सहारा देकर उल्लास से भरा जीवन जीने की प्रेरणा दे रही है। स्वयंवर का आदर्श रितु ने रूआबांधा बस्ती के हमजोली युवक मंगेश नोमुलवार से प्रेम विवाह किया। 20 दिसंबर 2000 को हुई यह शादी। छत्तीसगढ़ राज्य बनते ही रितु ने शादी कर ली। छत्तीसगढ़ी कलाकारों मे रितु ने यह भी यादगार कीर्तिमान रच दिया। यह बेहद धमाकेदार शादी थी। पिता लखनलाल आपे से बाहर हो गये। वे श्री बदरूद्दीन कुरैशी राज्य मंत्री से गुहार भी कर आये। मेरा भी उस परिवार से घरोबा है। मैं स्वयं चलकर लखनलाल जी के पास गया। वे व्यथित थे और लगभग टूट से गये थे। लंबी दाढ़ी और झूलते लंबे लटों से लखनलाल सहसा विराग साधक बाबा की तरह लगते हैं। वे गेरुवा वस्त्र ही धारण करते हैं और गले में लगभग दस तरह की छोटी बड़ी मालायें लटकाते हैं। उन्हे गुस्से में देखकर मुझे माखनलाल चतुर्वेदी की पंक्ति याद हो आई... 'अगम नगाधिराज मत रोको, बिटिया अब ससुराल चली।‘ प्रगट में मैंने कहा कि लखनलाल जी रितु पंडवानी की साधिका है। विश्व में कई देशों में धूम आई है। अपने मन के वर का वरण करना उसका अधिकार है। सुभद्रा, रूकमणी की प्रणय कथाओं के सुखद अंत की कथा कहती हुई वह जवान हुई है। आप आशीष भर दीजिये। कुछ दिनों में सब यथावत हो जायेगा। और वाकई तात्कालिक धमाके शीघ्र ही शांत भी हो गये। लखनलाल जी पुन: बिटिया के दल के साथ आ जा रहे हैं। मंगेश उनका होनहार दामाद है और रितु यश देनेवाली प्रिय बिटिया। अक्षर की रोशनी आज भी पंडवानी के सिवाय रितु का दूसरा कोई शगल नहीं है। उसे अपनी जन्म तारीख भी याद नहीं रहता।
मंगेश ही सब कुछ सम्हालते हैं। कार्यक्रम की तिथियों से लेकर सिंगार की सभी सामग्री, सुंडरा, ककनी, पुतरी से लेकर टिकली फुंदरी तक की सार सम्हाल करते हैं मंगेश। रितु अब पांचवीं की परीक्षा दे चुकी है। वह अब केवल हस्ताक्षर ही नहीं करती, बाकायदा अखबार बांच लेती है। रितु ने साक्षरता अभियान के तहत अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। भिलाई नगर परियोजना की कक्षायें रूआबांधा में भी चलीं। रूआबांधा के अक्षर सैनिकों ने उसे पढऩा लिखना सिखाया।

डॉ.परदेशीराम वर्मा
संपर्क: एल.आई.जी. 18, आमदीनगर,
हुडको, भिलाई नगर 490009 छत्तीसगढ़

टिप्पणियाँ

  1. रितु जी की जीवनी प्रेरणादायी है । धन्यवाद इस जानकारी के लिये। शुभकामनायें

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  2. बचपन में ख़ूब सुना है पंडवाणी। ठंड की सुनसान रातों में दूर से तैरती आती पंडवाणी की आवाज़...अब भी याद आती है। रितु को, और तीजन बाई को सामने से सुना है। क्या माहौल जमाती थीं वे।

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  3. आपने रितु वर्मा का परिचय देकर छत्तीसगढ़ के गौरव को बढ़ाने का अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है! धन्यवाद!

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  4. आज की टिप्पणी यानि निर्मला कपिला जी के साथ सहमति !

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  5. ....रितु वर्मा जी छत्तीसगढ धरती की "एक रत्न" हैं,छत्तीसगढ के मान-सम्मान को और ऊचाईंयों तक लेकर जायें यही शुभकामनाएं, प्रभावशाली प्रस्तुति के लिये बधाई !!!

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  6. रितु वर्मा के बारे में जानकारी ब्लॉग-जगत तक पहुंचाना बहुत जरूरी था. बहुत अच्छा कार्य किया है आपने. साधुवाद.

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  7. परदेसी भैया ला आथिति बना आप हा बने करे , भइया के तो गोट ह निराला हवेई पंडवानी के रानी के महिमा बखान छत्तीसगढ़ के महिमा हवेई गाडा - गाडा बधाई

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  8. यह कला जियेगी तो हमारे लोक काव्य के साथ संस्कृति भी जियेगी।
    पोस्ट के लिये धन्यवाद।

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