विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
प्रदेश के गठन के पूर्व परिदृश्य में छत्तीसगढ का नाम आते ही देश के अन्य भागों में रह रहे लोगों के मन में छत्तीसगढ की जो छवि प्रस्तुत होती थी उसमें बस्तर अंचल के जंगलों से भरी दुर्गम व आदिम दुनिया प्रमुख रूप से नजर आती थी। अंग्रेजों के समय से देशी-विदेशी फोटोग्राफरों नें बस्तर की आदिम दुनियां और घोटुल जैसे पवित्र परम्पराओं को कुछ इस तरह से प्रचारित किया था कि बरबस उस पर लोगों का ध्यान जाये। लोगों की नजर इस सुरम्य अंचल को लगी और अब स्थिति कुछ ऐसी है कि सर्वत्र विद्यमान संस्कृति व परंम्परांओं के संरक्षण व संवर्धन की आवश्यकता पड रही है।
विगत दिनों दैनिक छत्तीसगढ में एक समाचार पढने को मिला जिसके अनुसार बस्तर के बैलाडीला में 1065 ई. में चोलवंशी राजा कुलुतुन्द नें पहली बार यहां के लोहे को गलाकर अस्त्र शस्त्र बनाने का कारखाना बनाया था। निर्मित हथियारों को बैलगाडियों से तंजाउर भेजा जाता था, बहुत बडी मात्रा में निर्मित हथियारों के बल पर चोलवंशियों नें पूर्वी एशियाई देशों में 11 वी शताब्दि के मध्यकाल में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था।
यानी लौह अयस्क खोदने के लिये नन्दराज पर्वत सहित समूचे बस्तर की खुदाई सदियों से समय समय पर की जाती रही है, बस्तर का लोहा, बस्तर का हीरा, बस्तर की वन सम्पदा सबके काम आई, लडाईयां लडे गये, अकूत धन संग्रह किये गये और कीर्तिमान स्थापित किये गये। बस्तर का आदिवासी अपना सब कुछ लुटाता रहा. सहनशीलता की पराकाष्ठा पर समय समय पर रक्तिम विद्रोहों में भी शामिल होता रहा किन्तु उसके हाथ कुछ भी तो नहीं आया।
जल पर उद्योगपतियों और एनजीओ की नजर है
जंगल नक्सलियों के कब्जे में है
जमीन का अब क्या करेंगें उन्हें रहना कैम्पों में है
उसके पास सिर्फ और सिर्फ उसका लंगोट है. आजकल उसने इसके भी लुट जाने के डर से उपर से लुंगी पहन लिया है.
संजीव तिवारी
आप सही कहते हैं। अकूत संपदा बस्तर से बाहर चली गई। बस्तर का आदिवासी जैसे का तैसा रहा। उस के भाग्य में नक्सलवाद।
जवाब देंहटाएंबस्तर के आदिवासियों को सिर्फ़ नमक खरीदना हो्ता था वो भी चिरौंजी देकर खरीदते थे।त
जवाब देंहटाएंये समय लम्बा , बहुत लम्बा है ......यहाँ कुछ भी नहीं बदला , बस लुटेरों की शक्लें बदलती रहीं हैं !
जवाब देंहटाएंएक सुचिंता के लिए आपका आभार !
बस्तर से चिरोंजी, झाडू, आंवला खूब लाया गया नमक के बदले..उन बेचारों की हालत पर बस तरस खाकर लोग रह गया..किया किसी ने कुछ नहीं.
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