पिछले पोस्ट में प्रेम साईमन जी को अर्पित हमारी श्रद्धांजली एवं बडे भाई शरद कोकाश जी के अनुरोध को पढकर ख्यात व्यंगकार, उपन्यासकार आदरणीय विनोद साव जी नें भी प्रेम साइमन जी को याद किया और हमें यह लेख प्रेषित किया -
मैंने प्रेम साइमन का कोई नाटक नहीं देखा। मेरी लेखकीय विधाओं में नाट्य लेखन कभी शामिल नहीं हो पाया। मैंने व्यंग्य, उपन्यास और कहानियाँ लिखीं, आजकल यात्रा वृतांत लिख रहा हूं। कुछ टीवी धारावाहिक भी लिखे। पर रंगकर्मी मित्रों के दबाव के बावजूद मैंने नाटक लिखने की कोई कोशिश नहीं की। उसका एक बचकाना कारण यह भी बताया जा सकता है कि दुर्ग-भिलाई में नाटकों के मंचन का केन्द्र प्रमुखतः नेहरु सांस्कृतिक सदन रहा। एक दुर्ग रहवासी होने के कारण यह स्थान मेरे घर से बारह किलोमीटर दूर रहा है। अपने आलसी स्वभाव के कारण बार बार नाटकों को देखने के लिए इतनी दूर आना मेरे लिए संभव नहीं हो पाया। यद्यपि मैंने दिल्ली मुम्बई प्रवास पर एन.एस.डी. और पृथ्वी थियेटर्स में कुछ नाटक देखे हैं। कुछ हास्य टीवी धारावाहिकों को लिखा भी है। पर नाटक लिखने से पहले यह जरुरी था कि मैं स्थानीय रंगकर्मियों द्वारा खेले जा रहे नाटकों को देखता। मैं यह भी नहीं जान पाया कि नेहरु सांस्कृतिक सदन में प्रेम साइमन के नाटक कितनी बार खेले गए हैं। हां, एक लम्बे अरसे से अखबारों में प्रेम साइमन के ’मुर्गीवाला’ को बहुत खेले जाने का हल्ला सुनता पढ़ता रहा था। इन्हीं में उनके कुछ नाटक - घर कहॉं है?, हम क्यों नहीं गाते? अरण्य गाथा और विरोध आदि के बारे में रंगकर्मियों से सुनता रहा हूं। विशेषकर संतोष जैन से, जो उनके बड़े प्रशंसक रहे हैं और जिन्होंने उनके साथ खूब काम किया था।
बावजूद इन सबके मुझे कभी नहीं लगा कि मैं प्रेम साइमन की लेखकीय प्रगल्भता से वाकिफ नहीं हूं। मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि साइमन और उनकी रचनात्मकता सक्रियता हरदम मेरे आसपास ही रही है। उनसे बहुत कम हुई मुलाकातों के बावजूद उनके नाम की तरह का ’प्रेम’ हमारे बीच हमेशा बना रहा। कभी किसी भीड़ में देखकर मुझे ’विनोद’ कह कर अपने आत्मीय स्वर में पुकारने से वे अपने को रोक नहीं पाते थे। वे जब भी मिलते तब ऐसा कभी नहीं लगता था कि हमारे बीच कोई दूरी है! शायद उनकी ऐसी अंतरंगता दूसरों को भी मयस्सर होती रही होगी। आखिरकार वे एक हर दिल अजीज इन्सान लगा करते थे।
मुझे कुछ समय कवि सम्मेलनों में शरद जोशी की परम्परा में गद्य व्यंग्य रचनाओं के पाठ करने का अवसर मिला था। रिसाली में ऐसे ही एक कार्यक्रम में मैंने अपनी एक रचना पढ़ी थी ’धान हमारा कटोरा उनका’। इस व्यंग्य रचना का अंतिम वाक्य मार्मिक था जिसमें मूल निवासियों के अपने ही घर में छले जाने की पीड़ा थी। मेरे बाद अपनी रचना पढ़ने के लिए जब माइक पर प्रेम साइमन आए तब मैंने पहली बार उन्हें पास से देखा था। अपनी रचना पढ़ने से पहले उन्होंने भाव विभोर होकर मेरी रचना पर कुछ टिप्पणी की थी। वे इतने भावुक हो गए थे कि लगभग उनकी आवाज में एक रुदन झलक रहा था और उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनका नाटक ’घर कहॉं है?’ की भाव भूमि से मेरी रचना ’धान हमारा कटोरा उनका’ में कितना साम्य है। श्याम वर्ण लेकिन हरदम श्वेत वस्त्रधारी साइमन उस दिन किसी मसीहा की तरह लग रहे थे। वे सच्चे अर्थों में मसीही भाई थे।
भिलाई इस्पात संयंत्र की अपनी दीर्घकालीन सेवाओं के तहत कुछ स्थानांतरण होते रहे हैं। इन्हीं में जब मैं संयंत्र के कोक ओवन के कार्मिक विभाग में स्थानांतरित हुआ था तब तीन महीने के उस अल्प प्रवास में मुझे प्रेम साइमन का सान्निध्य प्राप्त हुआ था। वे लम्बे समय से कोक ओवन बैटरी में ही कार्यरत रहे। वहीं से उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृति ली थी। उनकी पर्सनल फाइल हमारे कार्मिक विभाग में थी। अपने व्यक्तिगत आवेदनों के कारण हमारे विभाग में उनका आना जाना लगा रहता था। तब हम दोनों कोक ओवन की कैंटीन में चले जाते जहां हम चाय पीते हुए लम्बे समय तक साहित्य की चर्चा करते। विचारों की दुनियॉं में विचरते थे।
कैंटीन में चाय पीते समय हमारी बातचीत अक्सर उनके द्वारा लिखे जा रहे धारावाहिकों पर होती। कथानक की अगली कड़ी का पूरा खाका उनके मस्तिष्क में होता था। वे इस पर वैसे ही बातें करते मानों उनके सामने पूरी स्क्रिप्ट पड़ी हो। इसका चित्रण वे जिस तरह करते थे वैसा ही अगले एपीसोड में प्रसारित होता था। सुनने वाले के सामने वे दृष्य खड़ा कर देते थे। इस मायने में वे प्रतिष्ठित पटकथा और संवाद लेखक की तरह विलक्षण लगते थे।
वे मुझे भी धारावाहिकों में संवाद लेखन के लिए उत्साहित किया करते थे। उन्होंने मेरे कुछ व्यंग्य संग्रह मुझसे मंगवाकर पढ़े थे। जिस दिन वे मेरी कोई किताब ले जाते, उसे उसी रात में पढ़ लिया करते थे और दूसरे दिन उस पर विस्तार से बातें कर लिया करते थे। उनका मानना था कि मेरी व्यंग्य रचनाओं में अच्छे संवाद भरे पड़े हैं जिनका अन्यत्र भी उपयोग किया जा सकता है। अपनी किताब को एक रात में ही पढ़ लेने वाले बौद्धिक पाठकों में मैंने दूसरे किसी शख्स को जाना था तो वे हैं दुर्ग के कवि अरुण यादव। उन्होंने मेरी दो किताबों की समीक्षा भी उसी रात को लिख मारी थी जिस पहली रात को उन्होंने किताब को पढा था।
वैसे भी प्रेम साइमन को मैंने एक अच्छे स्क्रिप्ट राइटर के रुप में ही सबसे पहले जाना था। तब लोकमंच के क्षेत्र में रामचंद्र देशमुख की तूती बोल रही थी। देशमुखजी लोक कला के क्षेत्र में वैसे ही पारखी व्यक्ति थे जैसे बम्बई की फिल्मी दुनियॉं में राजकपूर। उनके बैनर आर.के.फिल्मस ने जिन कलाकारों और तकनीशियनों को काम दिया था वे सारे हुनरमंद अपने अपने क्षेत्र में स्थापित हो गए थे। ठीक उसी तरह ’चंदैनी गोंदा’ और ’कारी’ के लोकमंच पर दाउ देशमुखजी ने जिन प्रतिभाओं को उतारा वे सारे इस कदर मुखरित हुए कि वादन, गायन, निर्देषन और लेखन के हर क्षेत्र में वे सभी कलाकार प्रतिष्ठा अर्जित कर गए। इनमें खुमान साव, लक्ष्मण मस्तूरिहा, भैयालाल हेड़उ, संगीता चैबे और रामहृदय तिवारी जैसे कई नाम हैं। इसी पंक्ति में प्रेम साइमन खड़े थे। देशमुखजी ने साइमन से ’कारी’ की स्क्रिप्ट लिखवाई थी और साइमन ने अपने धारदार संवादों से कारी के पात्रों को जीवन्त अभिव्यक्ति दी थी। तब जहां कहीं भी ’कारी’ की प्रस्तुति होती थी वहां किसी फिल्मी पोस्टर की तरह कारी का भी पोस्टर लगा होता था जिसमें प्रेम साइमन का नाम किसी हिट फिल्म के पटकथा लेखक की तरह लिखा होता था। रिसाली में ही एक बार ’कारी’ के महत्वपूर्ण अंशों का प्रदर्शन हुआ था। देशमुखजी मुझे कुछ मंचों पर ले जाते थे और उसकी रिपोर्टिग करने को कहते थे। वे मुझे मंच पर अन्य कलाकारों के साथ नहीं बैठने देते थे, कहते थे कि ’तुम एक दर्शक की तरह भीड़ में बैठकर देखो।’ हां.. इतना वे जरुर करते थे कि आयोजकों को बोलकर मेरे लिए एक कुर्सी जमीन पर बैठे दर्शक दीर्घा के बीच में लगवा दिया करते थे। ऐसे ही एक आयोजन में मैंने प्रेम साइमन के मार्मिक संवादों के छू लेने वाले प्रभाव को दर्शकों में देखा था।
अपने अंतिम समय तक प्रेम साइमन बेहद सक्रिय थे। वे अपने लेखन के उत्कर्ष पर थे। वे एक साथ हिंदी और छत्तीसगढ़ी नाटकों पर काम कर रहे थे। टेलीविजन के लिए धारावाहिक लिख रहे थे। फिर इस नये राज्य में छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्माण के लिए भी खूब भागमभाग चल रही थी। तब वे छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट और संवाद लेखन में भिड़े हुए थे। कुछ सरकारी उपक्रमों के शिक्षाप्रद वृत्त फिल्मों के लिए भी वे लिख रहे थे। जाहिर है कि वे बेहद व्यस्त थे और छत्तीसगढ़ की इलेक्ट्रानिक मीडिया का वे अच्छा दोहन कर रहे थे।
यह माना जा सकता है कि आज के साहित्य के सामने उसे पढ़े जाने का संकट अगर है तो वह प्रिंट मीडिया में है और इस पाठक वर्ग को जोड़ा जा सकता है इलेक्ट्रानिक मीडिया के दृश्य माध्यम से। जहां पाठक दर्शक में तब्दील हो जाता है और दर्शक.. पाठक की तरह रचना और उसके संदेशों से जुड़ रहा होता है। ऐसा कर पाने में सफलता पाई प्रेम साइमन ने। उनका यह नवलेखन इस नव राज्य के लेखकों के बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया में सबसे ज्यादा महत्ता के साथ स्थान पा गया था। वे एक बड़ी प्रतिभा थे और छत्तीसगढ़ से बाहर भी स्थान बना सकते थे। पर यह एक मानी हुई बात है कि कला या राजनीति का कोई भी मंच हो छत्तीसगढ़ अपने राज्य से बाहर अब तक अपना कोई ’गॉड फादर’ तय नहीं कर पाया है और इसलिए प्रतिभा की संभावनाओं के द्वार भी खुल नहीं पाते है। इन सबके बावजूद प्रेम साइमन हमारे बीच सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया लेखक थे।
विनोद साव
मुक्तनगर, दुर्ग 491001
मो. 09907196626
ब्लाग - रचना
email : Vinod.Sao1955@gmail.com
देश के साहित्यकारों की ओर से श्री विनोद साव ने सर्व प्रथम प्रेम साईमन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अपनी कलम चला कर उन्हे सच्ची श्रद्धांजली प्रस्तुत की है .साईमन जी का व्यक्तित्व ऐसा ही था .एक बार उनके साथ क्षितिज रंग शिविर द्वारा प्रस्तुत उनका नाटक देखते हुए वे मुझे बाहर खींच ले गये और कहा"नाटक तो मेरा और तुम्हारा देखा हुआ है चलो तुम्हारी कविताओं पर बात करते है" यह मेरा सौभाग्य रहा कि मैने उनके दो नाटकों "मुर्गीवाला" और "विरोध"मे अभिनय भी किया है.धन्यवाद विनोद साव और संजीव इस महत्वपूर्ण पोस्ट के लिये.
जवाब देंहटाएंprem saiman ji ki tarah hi unki rachnawo me rag virag aur anurag ki akul chhaviya bhitar tak chhuti hai.unki rachnawo pr tika tipani karna suraj ko diya dikhane ke saman hai...unki rachnaye kaljayi hai jo har samay kal me prasangik bani rahegi....
जवाब देंहटाएंprem saiman ji ek saskt vyaktitw ke saksiyat the jinki rachnaye logo ko unke vishal vyaktitwa ki hamesa pahichan karati rahegi....
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