छत्तीसगढ में हिन्दी कथाकारों के साथ ही छत्तीसगढी कथाकारों नें भी उत्कृष्ट कहानियों का सृजन किया है और सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना हेतु प्रतिबद्ध होते हुए धान के इस कटोरे में कहानियों का ‘बाढे सरा’ बार बार छलकाया है। छत्तीसगढी कहानियों के इस भंडार को निरंतर भरने का यत्न करने वाले आधुनिक कथाकारों में डॉ.मंगत रविन्द्र का स्थान अहम है। अभी हाल ही में आई उनकी छत्तीसगढी कहानी संग्रह ‘गुलाब लच्छी’ उनकी चुनिंदा बाईस कहानियों का संग्रह है। यह संग्रह इंटरनेट पत्रिका ‘गुरतुर गोठ.com’ में भी उपलब्ध है।
छत्तीसगढी भाषा में कथा कहानियों की गठरी सदियों से डोकरी दाई की धरोहर रही है। पारंपरिक रूप से कहानियां पीढी दर पीढी परिवार के बुजुर्ग महिलाओं के द्वारा सुनाई जाती रही है। डोकरी दाई की कहानियों में रहस्य और रोमांच के मिथकीय रूप के साथ ही सामाजिक यथार्थ का चित्रण व सामाजिक शिक्षा का स्वरूप प्रस्तुत होता था । समाज के विकास के साथ ही कहानियों की भाषा, स्वरूप व शैली में भी विकास होता गया और परम्परागत कहानियों के साथ साथ यहां के लेखकों नें अपनी भाषा में कहानी के इस रचना संसार को समृद्ध किया । टोकरी भर मिट्टी जैसी पहली कहानी को सृजित करने वाली यहां की परिस्थिति व परम्पराओं नें व्यक्ति के भावनात्मक उदगार को सदैव शब्द दिया है और इसी प्रवाह नें छत्तीसगढ के कथाकारों का, साहित्य जगत में सदैव मान सम्मान बढाया है। इस पर स्वयं डॉ. मंगत रवीन्द्र जी अपने ‘दू आखर’ में कहते हैं ‘किस्सा कहे अउ सुने के कई उदेस हे जइसे – गियान लेना, मनोरंजन, समझौता, मया पुरोना, रिसाये लइका ल भुलवारना, खुद कथइक बने के सउंक ..... । किस्सा कहइया के सान घलो बाढथे।‘
संग्रहित सभी कहानियों में सामाजिक दायित्व, स्त्री विमर्श व दलित चेतना का पुट स्पष्ट झलकता है। कहानी के केन्द्रीय पात्र अपने बोल-चाल व व्यवहार से छत्तीसगढ के लोक परम्पराओं का सजीव चित्रण खींचते हैं। छत्तीसगढी कहानियों में गीत व मुहावरों का बेजोड प्रयोग करने में रविन्द्र जी सिद्धस्त हैं। उनकी कहानियां कथ्य व शिल्प में सुन्दर पिरोए गए हार की भांति प्रतीत हीती है। छत्तीसगढी राजभाषा आयोग के अघ्यक्ष श्यामलाल चतुर्वेदी जी मंगत जी के कहानीयों की भाषा के संबंध में कहते हैं ‘एकर लिखे ला पढके लगथे जइसे मैं कलिंदर खावत हंव।‘ सचमुच में रविन्द्र जी की भाषा छत्तीसगढ के गांवों की भाषा है जिसमें बिलासपुरिहा पुट उसे द्विगुणित कर और भी मीठा बना देती है ।
मंगत जी कहानियों की विषय वस्तु के चयन एवं मानवीय संवेदनाओं के जीवंत चित्रण में सिद्धस्थ हैं। इनकी कहानिंया वर्तमान समय से सीधा संवाद करती प्रतीत होती हैं। संघर्षरत आम छत्तीसगढिया की पीडा का सजीव रेखांकन तथा शिक्षा के महत्व को प्रतिपादित करती हुई कहानी ‘नचकहार’ में नाच गा कर मेहनत मंजूरी कर जीवन यापन करने वाला पात्र नकुल कहानी के आरंभ में संकल्प लेता है ‘गवई बजई तो छूटै नहीं पर बाल बच्चा ल खूब पढाहूं लिखाहूं’ और बदतर सामाजिक जीवन से बेहतर सामाजिक जीवन की ओर अग्रसर परिवार की इस कहानी में नकुल के बच्चों के संबंध में कहानी के अंत में डॉ.मंगत लिखते हैं ‘असवा बेंग के मनेजर हे। मोती भाई सरहद म सिपाही हे अउ छोटे बाबू मनी... प्रायमरी स्कूल म लइका पढावत हे’ तब वही परिवार समाज के सामने कहानी के माध्यम से एक आदर्श के रूप में शिक्षा के महत्व का संदेशा बगराता है।
संग्रह में संकलित अधिकांश कहानियों में लेखक नारी की सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाने हेतु छत्तीसगढ के वर्तमान परिवेश के अनुरूप संकल्पित नजर आते हैं। बच्चे के मोह के कारण अपनी छाती में पत्थर रखकर सौत को घर और पति के हृदय में स्थान दिलाने की परिस्थितियों पर विमर्श प्रस्तुत करती कहानी ‘दौना’, पति की मृत्यु के पश्चात गरीबी में अपने पांच-पांच बच्चे और विधुर जेठ का भार ढोती गुरबारा की कहानी ‘आंसू’, गरीबी के कारण विवशतावश अपने से बडे उम्र के अंधे से विवाह करने एवं पति के असमय मृत्यु होने पर नारी के दर्द को प्रदर्शित करती कहानी ‘दूनो फारी घुनहा’ आदि में कहानीकार स्त्री विमर्श को प्रस्तुत करने में समर्थ नजर आता है। लेखक के कहानियों को पढने से प्रतीत होता है कि लेखक के हृदय में मानवीय संवेदनाओं का अपार सागर लहराता है जिसे वह शव्द शिल्प से सार्थक स्वरूप में प्रस्तुत करता है। मंगत जी की कहानियों में कहीं-कहीं देह की भाषा भी मुखरित हो जाती है जिस पर कुछ लोग सीमाओं से परे चले जाने का भी सवाल उठाते हैं किन्तु छत्तीसगढ की वर्तमान परिस्थिति के अनुरूप जन मन में अलख जगाने हेतु किस विषय पर चिंतन आवश्यक है यह मंगत जी बखूबी जानते हैं। कहानी का विषय क्या हो इसे भी वे आगे स्पष्ट करते हैं ‘मैं हर समाज म देखें, होथे, होवत हे अउ होही तेन खेला – लीला घटना ल अपन किस्सा के बिसे आधार मान के कई ठन किस्सा ल लिखेंव।‘
डॉ.मंगत की कहानियां ठेठ गांव की कहानियां हैं जिसमें काल्पनिकता का एहसास बिल्कुल भी नहीं होता। कहानियां के शव्द शव्द में छत्तीसगढी परम्परा व संस्कृति की स्पष्ट झलक नजर आती हैं। इसीलिये छत्तीसगढी संस्कृति के मुखर लेखक डॉ.पालेश्वर शर्मा जी कहते हैं ‘लोक संस्कृति, ग्रामीण परम्परा से परिपूरित, अंचल के चरित्रों को जीवंत रूप देने का कार्य रविन्द्र जी कर रहे हैं। लेखक की कलम में सार्थकता है, समर्थता है।‘ हमें भी डॉ.मंगत रविन्द्र जी की कलम पर विश्वास है। आशा है आबाध गति से छत्तीसगढी के व्याकरण व भाषा एवं साहित्य सृजन में लीन मंगत जी की यह कृति छत्तीसगढी भाषा साहित्य के प्रेमियों को को बहुत पसंद आयेगी।
संजीव तिवारी
छत्तीसगढी भाषा के इस नये कहानी संग्रह के बारे में जानकारी देने का आभार ।
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